Friday, August 18, 2000

छत्तीसगढ़ के लोग अब चुप नहीं बैठेंगे


छत्तीसगढ़ राज्य के गठन का विधेयक पास हो गया। केंद्रीय गृहमंत्री ने उम्मीद जताई है कि आगामी एक नवंबर तक छत्तीसगढ़ राज्य का गठन हो जाएगा। इस तरह खनिज और वन्य संपदा से भरपूर इस इलाके के लोगों का वर्षों पुराना सपना पूरा हो जाएगा। उम्मीद की जानी चाहिए कि अपने संसाधनों पर अपना अधिकार जमाकर छत्तीसगढ़ के लोग अब अपना आर्थिक विकास तेजी से कर पाएंगे। सबसे पहले छत्तीसगढ़ के पृथक राज्य की मांग इलाके के लोकप्रिय मजदूर नेता शहीद शंकरगुहा नियोगी जी ने उठाई थी। गरीब किसान-मजदूरों के हित में सादगी त्याग और तपस्या सं भरा जीवन समर्पित करने वाले नियोगी जी ने छत्तीसगढ़ मुक्ति मोर्चा  का गठन कर इस लड़ाई का अंत समय तक सफल संचालन किया। पर छत्तीसगढ़ राज्य के गठन की घोषणा होते ही इसके मुख्यमंत्री पद के लिए जिन राजनेताओं में मल्ल युद्ध होना शुरू हो गया है उनका छत्तीसगढ़ के गरीब किसान-मजदूरों और वनवासियों के दारिद्रपूर्ण, कठिन और संघर्षशील जीवन से या उनकी आकांक्षाओं से दूर-दूर का भी संबंध नहीं है। पुरानी कहावत है कि जुझारू और क्रांतिकारी लोग बलिदान देकर राजनैतिक परिस्थितियां बदलते हैं और चतुर भोगी लोग उनके त्याग की अग्नि पर सत्ता की रोटियां सेंकते हैं। शायद यही अब छत्तीसगढ़ में होने जा रहा है। इसलिए छत्तीसगढ़ मुक्ति मोर्चा नए राज्य के गठन को अपनी मंजिल नहीं मानता बल्कि इसे तो अपने संघर्ष का पहला पड़ाव भर मानता है।
मोर्चे के वर्तमान नेता श्री जनकलाल ठाकुर दूसरे राजनेताओं से भिन्न एक सच्चे जनसेवक के रूप में पिछले दो बार से मध्य प्रदेश विधानसभा में विधायक के रूप में अपनी विशिष्ट छवि बनाने में कामयाब हुए हैं। इस मोर्चे के लिए अपना जीवन समर्पित कर देने वाली सुश्री सुधा भारद्वाज मानती हैं कि उनके इलाके के लोगों के लिए आने वाले दिन और भी संघर्षमय होंगे। जब नवगठित राज्य के सत्तालोलुप राजनेता पदों, सरकारी वाहनों व बंगलों के पीछे भागेंगे। नव गठित राज्य की नई सरकार इलाके के गरीब और पिछड़े लोगों को राहत पहुंचाने की बजाए राज्य के सीमित संसाधनों को सत्ताधीशों के ऐशों आराम के सामान जुटाने में बर्बाद करेगी तब छत्तीसगढ़ की जुझारू जनता सड़कों पर उतरेगी और अपना हक मांगेगी। अलबत्ता ये लड़ाई पहले के मुकाबले अब ज्यादा आसान होगी। क्योंकि पहले सत्ताधीशों से अपनीे बात कहने छत्तीसगढ़ के आम लोगों को रेलगाडि़यों में भर कर भोपाल जाना पड़ता था। जो एक लंबा तकलीफदेह सफर होता था। अब तो सत्ता का केंद्र उनकी पहुंच के भीतर है। अब तो उन्हें अपने काम की जगह से यानी खेत, खदान या कारखानों से बहुत दूर नहीं जाना पड़ेगा। हर अन्याय के विरूद्ध इकट्ठा होना अब बहुत आसान होगा। इतना ही नहीं सत्ताधीशों के रंग-ढंग, उनकी पैनी निगाह के सामने होंगे। वो हर रोज देखेंगे कि छत्तीसगढ़ राज्य बनने से किसकी आर्थिक प्रगति तेजी से हो रही है ? आम लोगों की या सत्ताधीशों की ?
भावी संघर्ष के लिए छत्तीसगढ़ के लोगों ने अभी से जमीन तैयार करनी शुरू अर दी है। पिछले दिनों बैंकों के कर्जा वसूली अभियान के दौरान प्रशासन के दोहरे रवैए के विरूद्ध छत्तीसगढ़ के किसानों ने एकजुट होकर मोर्चा लिया। हुआ यूं कि बैंकों ने छत्तीसगढ़ के छोटे और गरीब किसानों से कर्जा वसूलने का नायाब और आततायी तरीका ईजाद किया। मार्च 2000 में दुर्ग जिले के गुरूर थाने में कर्जा वसूली का शिविर लगाया गया। थाने और पुलिस को इस्तेमाल कर बैंक अधिकारियों ने कर्जदार किसानों को थाने में तलब किया। वहां उन्हें आतंकित किया जाने लगा। जबकि दूसरी तरफ छत्तीसगढ़ अंचल के ही उद्योगपतियों पर बैंकों का सैकड़ों करोड़ रुपया बकाया है। जो कि पूरे इलाके के हजारों किसानों को दिए गए कुल कर्जे का पचासों गुना ज्यादा रकम है। पर इन उद्योगपतियों के विरूद्ध कर्जा वसूली के लिए कभी भी ऐसे सख्त और भयाक्रांत कर देने वाले कदम नहीं उठाए गए।  जैसे ही छत्तीसगढ़ मुक्ति मोर्चे के कार्यकर्ताओं को पता चला वे गुरूर थाना पहुंच गए और उन्होंने किसानों से कहा कि पुलिस से भयभीत होने की कतई जरूरत नहीं है। तब सब किसानों ने मिलकर बैंक अधिकारियों को चुनौती दी। उन्होंने साफ शब्दों में कहा कि बैंक अधिकारी पहले उन उद्योगपतियों से कर्जा वसूलें जिन पर करोड़ों रुपए की देनदारी है। जो बैंकों का पैसा हड़प कर पांच सितारा जिंदगी जी रहेे हैं। जब उनसे वसूली कर लें तब उन किसानों की तरफ मुखातिब हों जिन पर चंद हजार रुपए कर्ज है और जो खराब फसल के कारण भुखमरी की जिंदगी जी रहे हैं। इसी मोर्चे की एक कार्यकर्ता सुश्री सुधा भारद्वाज जो कि अंतर्राष्ट्रीय ख्याति प्राप्त अर्थशास्त्री दिवंगतत प्रो. श्रीमती कृष्णा भारद्वाज की बेटी हैं। स्वयं सुधा आईआईटी, कानपुर और लंदन में पढ़ी और पिछले दस वर्षों से भी ज्यादा से छत्तीसगढ़ इलाके में गरीबतम मजदूरों की सी जिंदगी जीकर उनके संघर्ष में साथ दे रही हैं। सुधा चाहती तो किसी बहुराष्ट्रीय कंपनी में काम करके लाखों रुपए महीने कमा रही होतीं। ऐसी अनुभवी और तपस्वी सुश्री सुधा भारद्वाज का कहना है कि कहने को तो हमारे देश में लोकतंत्र है पर आम लोगों के वोटांे से चुनी हुई सरकारें उन उद्योगपतियों के इशारे पर चलती हैं जो कभी वोट डालने भी नहीं जाते। सुधा पूछती हैं कि क्या वजह है कि महाराष्ट्र और आंध्र प्रदेश जैसे संपन्न राज्यों के किसान भी बैंके के छोटे-छोटे कर्जे न चुका पाने की स्थिति में आत्म हत्या कर लेते हैं। जबकि इस देश के उद्योगपतियों पर बैंकों और सरकार का 55 हजार करोड़ रुपया कर्ज है पर न तो उनमें से किसी की कुर्की होती है, न किसी को जेल होती है और न ही उन्हें समय पर कर्ज और ब्याज न देने की एवज में कोई सजा ही दी जाती है । सजा देना तो दूर उलटा इन उद्योगपतियों के संगठन बड़ी निर्लजता से इस गरीब देश की सरकार पर दबाव डालते हैं कि सरकार उन पर बकाया 55 हजार करोड़ रुपए का कर्जा माफ कर दे।
छत्तीसगढ़ मुक्ति मोर्चे के ही एक समर्पित कार्यकर्ता अनूप सिंह, जो दस वर्ष पूर्व दिल्ली के प्रतिष्ठित सेंट स्टिफिन्स काॅलेज से पढ़ कर मोर्चे में एक मजदूर कार्यकर्ता के रूप में शामिल हुए, कहते हैं कि जितना कर्जा दुर्ग, राजनंद गांव व कवंरघा जिलों के सब किसानों पर बकाया है उससे कहीं ज्यादा कर्जा अकेले भिलाई वायर्स लिमिटेड के ऊपर बकाया है। प्रशासन 37 हजार किसानों को प्रताडि़त कर, इतनी मेहनत करके जितना कर्जा वसूलेगा उसकी बजाए अगर अकेले भिलाई वायर्स लिमिटेड से ही कर्जा वसूल ले तो मेहतन भी कम लगेगी और वसूली भी कहीं ज्यादा होगी। अनूप पूछते हैं कि क्या वजह है कि प्रशासन 37 हजार किसानों पर डंडे बरसाने में तो इतना फुर्तीला है पर उद्योगपतियों की तरफ उसकी नजर ही नहीं जाती, क्यों? दक्षिणी अफ्रीका के रंगभेद की ही तरह क्या यह गरीबों के विरूद्ध और अमीरों के पक्ष में सरकार का नस्लवाद नहीं है ? छत्तीसगढ़ मुक्ति मोर्चे के लोग पिछले दिनों भारत के राष्ट्रपति श्री केआर नारायनन से मिले और उनसे इस तरह के प्रशासनिक नस्लवाद को रोकने की अपील की। 
छत्तीसगढ़ के ये जुझारू नौजवान आरोप लगाते हैं कि केंद्र और प्रांतीय सरकारों का जो हजारों करोड़ का घाटा है उसका एक बड़ा कारण यही रंग भेद है। आज देश में लगभग आठ लाख करोड़ रुपया काला धन है। यदि इस पर मात्र 33 फीसदी कर लगा दिया जाए तो सरकार की तमाम आर्थिक जरूरतें पूरी हो सकती हैं और विदेशी कर्ज भी तेजी से घट सकता हैं इतना ही नहीं सरकार का वार्षिक बजट भी फिर घाटे का बजट न रह कर मुनाफे का बजट बन सकता है। अगर सरकार ईमानदारी से ऐसा करे तो उसे विनिवेशी करण की भी जरूरत नहीं पड़ेगी। बशर्ते कि सत्ताधीशों का इरादा देश से काला धन समाप्त करने का हो।असलियत यह है कि देश में देशी व विदेशी धनी वर्ग से सरकारी कर्ज वसूलने की दर पिछले दस वर्षों से लगातार गिरती जा रही है।
छत्तीसगढ़ का इलाका खनिज और वन्य संपदा से भरा पूरा है। आवश्यकता है स्थानीय संसाधनों के संतुलित दोहन की। उम्मीद की जानी चाहिए कि अन्य राज्यों के मुकाबले ज्यादा लंबा और खतरनाक संघर्ष करने के अनुभवी छत्तीसगढ़ के लोग नए राज्य में अपना शोषण नहीं होंने देंगे। वे अपने हक के लिए तो लड़ेंगे ही नए राज्य के नए सत्ताधीशों को बेफिक्री से प्रदेश लूटने की इजाजत नहीं देंगे। यदि वे ऐसा कर सकें तो छत्तीसगढ़ राज्य एक सबल राज्य होकर ऊभरेगा। तभी इसके गठन का मकसद पूरा होगा।

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