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Monday, July 31, 2017

जमीन से जुड़े शहरी विद्यालयों के छात्र

पिछले हफ्ते हमने ब्रज के एक गांव में पौराणिक नाग-पंचमी का मेला आयोजित किया। जिसमें पिछले 3 वर्षों से लगभग बीस हजार ब्रजवासी उत्साह से भाग ले रहे हैं। हमें लगता था कि टी.वी. सीरियलों और यू-ट्यूब के युग में सांस्कृतिक परंपराएं लुप्त हो रही हैं। पर इस तरह के कई मेले, ब्रज में दशाब्दियों बाद दोबारा शुरू करने के बाद, हमें विश्वास हो गया कि लोक संस्कृति की जड़े गहरी हैं। यह सही है कि आज गांवों की शादियों में डी.जे. के कर्कश शोर ने महिलाओं के सारगर्भित लोकगीतों को दबा दिया है। पर अवसर मिलने पर वे स्वयं स्फुरित हो जाते हैं। उनका भाव और शैली मन को छू लेती है। ऐसे मेलों में लोक कलाकारों और ग्रामीण प्रतिभाओं को उभरने का मौका मिलता है। तब पता चलता है कि ‘इंडियन आइडियल’ या ‘डांस इंडिया डांस’ जैसे टीवी शो भी अभी गांवों को प्रदूषित नहीं कर पाऐ हैं। गांव के बच्चे कहीं ज्यादा समझदारी से और सार्थक विषयों पर अपनी बात रखने को उत्साहित रहते हैं।

इस बार हमने एक प्रयोग और किया। गांव के इस लोकप्रिय मेले में मथुरा शहर के प्रमुख विद्यालयों के छात्र-छात्राओं को अपनी-अपनी प्रस्तुतियां देने को आमंत्रित किया। इसका बहुत सुखद अनुभव हुआ और कई लाभ प्राप्त हुए। सुखद अनुभव, इस बात का कि आधुनिक शिक्षा पा रहे, हमारे शहरी बच्चे भी सही प्रशिक्षण और प्रोत्साहन मिलने पर सांस्कृतिक, सामाजिक या पर्यावरण संबंधी विषयों पर कितनी स्पष्ट समझ और सोच रखते हैं। उनकी प्रस्तुतियों ने न सिर्फ हजारों ग्रामवासियों का मन मोहा बल्कि कई सार्थक संदेश भी दिये। जिस आत्मविश्वास के साथ इन शहरी बच्चों ने देहाती माहौल में, बिना संकोच के, अपनी प्रस्तुतियां दीं, उससे ग्रामीण बच्चों को भी बहुत प्रेरणा मिली।

इस दिशा में कई अभिनव प्रयोग देश में चल रहे हैं। ‘प्रदान’, ‘अजय पीरामल फाउंडेशन’, ‘इच वन-टीच वन’ जैसी कई संस्थाऐं मुहिम चलाकर, ग्रामीण विद्यालयों में शहरी स्वयंसेवक भेज रही हैं। जो अपने व्यापक अनुभव को गाँव के सीमित दायरे में रहने वाले, शिक्षकों और विद्यार्थियों से खुलकर बांट रहे हैं। शुरू की हिचक के बाद, उन्हें ग्रामीण विद्यालय स्वीकार कर लेते हैं। फिर देखते ही देखते, पूरे विद्यालय के वातावरण में बहुत बड़ा परिवर्तन आ जाता है। ऐसा परिवर्तन, जो मात्र सरकारी नीतियों से दशाब्दियों में नहीं आता। इसलिए चीन के कामरेड माओ की तरह मोदी जी को ‘मानव संसाधन मंत्रालय’ में एक नीतिगत शुरूआत करवानी चाहिए। जिसके तहत हर शहरी स्कूल के बच्चों तथा अध्यापकों को महीने में एक दिन अपनी गतिविधियां, आसपास के देहातों के विद्यालयों आयोजित करना अनिवार्य हो। इससे दो लाभ होंगे, एक तो ग्रामीण विद्यालय को शहरी विद्यालय के मुकाबले अपने स्तर का पता चलेगा और उसमें भी वैसा कुछ करने की ललक बढ़ेगी। दूसरा हमेशा जमीनी हकीकत से कटे रहने वाले शहरों के मध्यम वर्गीय व उच्च वर्गीय विद्यार्थियों को भारत की असलियत को निकट से देखने और समझने का अवसर मिलेगा। इस विषय में मेरा व्यक्तिगत अनुभव बहुत अनूठा है।

1974 में जब मैं 18 वर्ष का था। शहर के संपन्न परिवार में परवरिश होने के कारण, मैं गांव के जीवन से अनभिज्ञ था। उन्ही दिनों मुरादाबाद के पास, अमरपुरकाशी गांव के ठा. मुकुट सिंह, अपनी आस्ट्रेलियन पत्नी के साथ लंदन से, अपने गांव का विकास करने आए। उनके इस साहसिक और अनूठे कदम ने मुझे उनके गांव जाने के लिए प्रोत्साहित किया। शुरू में मैं ग्रीष्मावकाश के लिए गया। गांव बहुत पिछड़ा और गरीब था। पर वहां के लोगों की सरलता ने मेरा मन मोह लिया। फिर तो मैं लगभग हर हफ्ते वहां जाने लगा और एम.ए. पास करने के बाद, मैंने एक वर्ष, उसी गांव में स्वयंसेवक के रूप में रहने का मन बनाया। वहां देश-विदेश के अन्य युवा भी आकर रहते थे।

अभावों में भी मुकुट सिंह जी और उनकी पत्नी के त्याग, स्नेह और प्रशिक्षण ने, हमें पूरी तरह बदल दिया। अब मुझे पैसे के पीछे भागने की कोई चाहत नहीं थी। क्योंकि जमीनी हकीकत से परिचय हो जाने के बाद, एक ही जुनून था कि जो कुछ करूंगा, समाज के हित के लिए करूंगा। चाहे कितना भी संघर्ष क्यों न करना पड़े। आज उस अनुभव को 40 वर्ष हो गये। पर सोच नहीं बदली। पत्रकारिता की, तो डंके की चोट पर की। किसी को ब्लैकमेल करने या अपना चैनल खड़ा करने के लिए नहीं, बल्कि जनहित के मुद्दों को मजबूती के साथ व्यवस्था के सामने रखने के लिए की। प्रभुकृपा से पत्रकारिता में देश में कई बार इतिहास रचा। गत 15 वर्षों से ब्रज में भगवान श्रीकृष्ण की नैसर्गिक और सांस्कृतिक लीलास्थलियों को सजाने-संवारने में जुटा हूँ, तो यहां भी प्रभु नित्य नया इतिहास रच रहे हैं। न पत्रकारिता की डगर आसान थी और न ब्रज सेवा की आसान है। पर उनकी ही कृपा से विपरीत परिस्थितियां भी डिगा नहीं पातीं। कुछ पाने की चाहत कभी नहीं रहती। केवल कर्म करने में ही आनंद आता है। इसलिए मैं अनुभव के आधार पर कह सकता हूं कि हर विद्यार्थी को, जिसका जन्म शहरों के संपन्न परिवारों में हुआ हो, नौकरी या व्यवसाय शुरू करने से पहले, कम से कम एक वर्ष किसी पिछड़े गांव में रहने का अनुभव अवश्य करना चाहिए। इससे जीवन के प्रति दृष्टि पूरी तरह बदल जाती है।