Rajasthan Patrika 11Dec |
जबसे टेलिकॉम मंत्री कपिल सिबल ने फेस बुक पर सेंसर लगाए जाने की बात की है, तब से इंटरनेट से जुड़े देश के करोड़ों लोगों में उबाल आ गया गया है। श्री सिबल ने इससे पहले इंटरनेट कंपनियों के मालिकों से बात की थी। सरकार ने गुगल, याहू, माइक्रोसाफ्ट व फेस बुक के अधिकारियों से कहा था कि वे अपनी इन साइट्स पर से कांग्रेस अध्यक्षा श्रीमती सोनिया गांधी, प्रधानमंत्री डा मनमोहन सिंह व मोहम्मद साहब से जुड़ी अपमानजनक, भ्रामक व भड़काऊ सामग्री हटाए। पर इन अधिकारियों का जवाब था कि अगर कोई सामग्री धार्मिक भावनाएं भड़काती हैं या उससे सुरक्षा को खतरा है तो वे उसे हटाने को तैयार हैं पर लोगों की राय और टिप्पणियां हटाना उनके लिए संभव नहीं है। यह बात श्री सिबल को नागवार गुजरी। उन्होंने आनन-फानन में घोषणा कर डाली कि इस मामले में अब सरकार ही पहल करेगी। उनके इस वक्तव्य को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता में दखलंदाजी माना जा रहा है। अब यहां कई प्रश्न खड़े होते हैं।
पहली बात तो यह कि दुनिया भर के लोकतांत्रिक देशों में अब यह चलन आम हो गया है कि जनता राजनेताओं या मशहूर हस्तियों के संबंध में अपनी राय खुलकर, बेधड़क सोशल नेटवर्किंग साइट्स पर व्यक्त करतीं हैं। यह तकनीकी का कमाल है कि कोई घटना घटित होते ही दुनिया भर से हजारों-लाखों लोग उस पर अपनी प्रतिक्रिया देने लगते हैं। मसलन, क्रिकेट मैंच हारने वाली टीम को उसके प्रशंसक इतना जलील करते हैं कि बिचारे खिलाड़ी मुंह दिखाने लायक न बचें।
पर सबसे ज्यादा लक्ष्य राजनेताओं को बना कर टिप्पणियां की जाती हैं। जनता के चुने हुए प्रतिनिधि होने के बावजूद राजनेताओं का सम्वाद जनता से लगभग टूट जाता है क्योंकि व्यवहारिक रूप से भी एक राजनेता के लिए यह संभव नहीं होता कि वो हर व्यक्ति से व्यक्तिगत वार्ता कर सके। ऐसे में उसके मतदाता उसके प्रति अपने विचार और आक्रोश सोशल नेटवर्किंग साइट्स पर अब अभिव्यक्त करने लगे हैं। लोकतंत्र के नजरिए से इसे एक अच्छी शुरूआत माना जाना चाहिए क्योंकि लोगों की राय जानने के बाद राजनेता या मंत्री अपना स्पष्टीकरण दे सकते हैं और अगर उनके आचरण में कोई कमी है तो उसे दूर कर सकते हैं। अगर इतना ही हो तो सेंसर की कोई जरूरत नहीं है।
पर पिछले दिनों देखने में आया है कि राजनैतिक दल और सिविल सोसायटी के कुछ समूह बहुत सारे प्रोफेशनल्स को महंगे वेतन देकर इसी काम में लगा रखे हैं जो उनके विरोधियों के मुंह काले करें। कॉल सेंटर की तरह आउटसोर्स किए जाने वाले ये टेलेंट्स तालिबान की तरह आक्रामक होते हैं। इनकी भाषा और अभिव्यक्ति इतनी हमलावर और घातक होती है कि इनका लक्ष्य तिलमिला कर रह जाता है। अक्सर देखने में आ रहा है कि इस तरह से एक अभियान चला कर हमला करने वालों की फौज बिना तथ्यों की तहकिकात किए हमला बोल देते हैं और बिना प्रमाण के आरोपों के बौछार कर देते हैं। बात यहीं तक नहीं रूकी। अपने अभियान में ये समूह इस हद तक आगे चले जाते हैं कि सामने वाले का चरित्र हनन करने या अश्लीलता की हद तक उस पर कीचड़ उछालने में संकोच नहीं करते। चूंकि इन हमलावरों को सीधे पकड़ना संभव नहीं है इसलिए इनके विरूद्ध कोई कानूनी कार्यवाही नहीं हो पाती। फिर जरूरी नहीं कि हमलावरों की यह टोली उसी देश में बैठी हो जिस देश के नेतृत्व को लक्ष्य बना कर ये हमला कर रहे हों। इंटरनेट की दुनिया में सूचना का आदान-प्रदान सेंकेंड़ों में एक देश से दूसरे देश को हो जाता है। टिप्पणी सही हो या गलत आनन-फानन में आग की तरह पूरी दुनिया में फैल जाती है। फिर प्रतिष्ठा का जो नुकसान होता है उसकी भरपाई करना आसान नहीं है। शायद इस परिस्थिति से निपटने के लिए ही टेलीकॉम मंत्री सिबल ने यह कदम बढ़ाया है।
पर उनके आलोचक उनसे तीखे सवाल पूछ रहे हैं, मसलन, जब इन साइट्स पर अत्यंत अश्लील और समाज के लिए हानिकारक सामग्री प्रचारित होती है तब मंत्री महोदय कहां सोए रहते हैं ? जब भ्रष्टाचार के मामलों में सबूत के बावजूद हर दल के केन्द्रीय और प्रांतीय सरकारें आरोपियों को बचाने में लगी रहती हैं, तब जनता क्या करें ? क्या अपनी भड़ास भी न निकाले। बात यह भी कही जा रही है कि अगर ऐसी भड़ास न निकालने दी गई तो फिर जनता हिन्सक होकर सड़कों पर भी निकल सकती है। इसलिए उन्हें सलाह दी जा रही है कि वे सोशल नेटवर्किंग साइट्स पर शिकंजा कसने की बजाय अपनी सरकार की छवि सुधारने का काम करें। इन आरोपों में दम हैं। पर फिर सवाल उठता है कि क्या यह प्रतिक्रिया वास्तव में उन लोगों की है जो मतदाता हैं, पीड़ित हैं और नाराज हैं ? या फिर उन लोगों की है जो भाड़े के टटू हैं और किसी एक दल या समूह के राजनैतिक लाभ के लिए इस हमले में जुड़े हैं। अगर ऐसा है तो यह प्रवृत्ति ठीक नहीं क्योंकि राजनैतिक हमले की जगह संसद है। छिप कर वार करना ठीक नहीं। इसलिए कि अगर यह प्रवृत्ति बढ़ती गई तो फिर इस आग की लपेट से कोई नहीं बचेगा। हर दल, हर राजनेता और हर जागरूक समूह ऐसे हमलों का शिकार बन सकता है। इससे समाज में भारी अराजकता फैलेगी।
आवश्यकता इस बात की है कि इस मामले पर देशभर में एक बहस छेड़ी जाए जिसके बाद इस खेल के नियम तय हों, इस माध्यम को स्वस्थ्य लोकतांत्रित परम्पराओं के विस्तार के लिए अवश्य इस्तेमाल किया जाए। अभिव्यक्ति की आजादी पर अंकुश न लगे पर भाड़े के टटू इसे राजनैतिक हथियार के रूप में प्रयोग न करें। ये पहल भी समाज को करनी होगी सरकार को नहीं।
पहली बात तो यह कि दुनिया भर के लोकतांत्रिक देशों में अब यह चलन आम हो गया है कि जनता राजनेताओं या मशहूर हस्तियों के संबंध में अपनी राय खुलकर, बेधड़क सोशल नेटवर्किंग साइट्स पर व्यक्त करतीं हैं। यह तकनीकी का कमाल है कि कोई घटना घटित होते ही दुनिया भर से हजारों-लाखों लोग उस पर अपनी प्रतिक्रिया देने लगते हैं। मसलन, क्रिकेट मैंच हारने वाली टीम को उसके प्रशंसक इतना जलील करते हैं कि बिचारे खिलाड़ी मुंह दिखाने लायक न बचें।
पर सबसे ज्यादा लक्ष्य राजनेताओं को बना कर टिप्पणियां की जाती हैं। जनता के चुने हुए प्रतिनिधि होने के बावजूद राजनेताओं का सम्वाद जनता से लगभग टूट जाता है क्योंकि व्यवहारिक रूप से भी एक राजनेता के लिए यह संभव नहीं होता कि वो हर व्यक्ति से व्यक्तिगत वार्ता कर सके। ऐसे में उसके मतदाता उसके प्रति अपने विचार और आक्रोश सोशल नेटवर्किंग साइट्स पर अब अभिव्यक्त करने लगे हैं। लोकतंत्र के नजरिए से इसे एक अच्छी शुरूआत माना जाना चाहिए क्योंकि लोगों की राय जानने के बाद राजनेता या मंत्री अपना स्पष्टीकरण दे सकते हैं और अगर उनके आचरण में कोई कमी है तो उसे दूर कर सकते हैं। अगर इतना ही हो तो सेंसर की कोई जरूरत नहीं है।
पर पिछले दिनों देखने में आया है कि राजनैतिक दल और सिविल सोसायटी के कुछ समूह बहुत सारे प्रोफेशनल्स को महंगे वेतन देकर इसी काम में लगा रखे हैं जो उनके विरोधियों के मुंह काले करें। कॉल सेंटर की तरह आउटसोर्स किए जाने वाले ये टेलेंट्स तालिबान की तरह आक्रामक होते हैं। इनकी भाषा और अभिव्यक्ति इतनी हमलावर और घातक होती है कि इनका लक्ष्य तिलमिला कर रह जाता है। अक्सर देखने में आ रहा है कि इस तरह से एक अभियान चला कर हमला करने वालों की फौज बिना तथ्यों की तहकिकात किए हमला बोल देते हैं और बिना प्रमाण के आरोपों के बौछार कर देते हैं। बात यहीं तक नहीं रूकी। अपने अभियान में ये समूह इस हद तक आगे चले जाते हैं कि सामने वाले का चरित्र हनन करने या अश्लीलता की हद तक उस पर कीचड़ उछालने में संकोच नहीं करते। चूंकि इन हमलावरों को सीधे पकड़ना संभव नहीं है इसलिए इनके विरूद्ध कोई कानूनी कार्यवाही नहीं हो पाती। फिर जरूरी नहीं कि हमलावरों की यह टोली उसी देश में बैठी हो जिस देश के नेतृत्व को लक्ष्य बना कर ये हमला कर रहे हों। इंटरनेट की दुनिया में सूचना का आदान-प्रदान सेंकेंड़ों में एक देश से दूसरे देश को हो जाता है। टिप्पणी सही हो या गलत आनन-फानन में आग की तरह पूरी दुनिया में फैल जाती है। फिर प्रतिष्ठा का जो नुकसान होता है उसकी भरपाई करना आसान नहीं है। शायद इस परिस्थिति से निपटने के लिए ही टेलीकॉम मंत्री सिबल ने यह कदम बढ़ाया है।
पर उनके आलोचक उनसे तीखे सवाल पूछ रहे हैं, मसलन, जब इन साइट्स पर अत्यंत अश्लील और समाज के लिए हानिकारक सामग्री प्रचारित होती है तब मंत्री महोदय कहां सोए रहते हैं ? जब भ्रष्टाचार के मामलों में सबूत के बावजूद हर दल के केन्द्रीय और प्रांतीय सरकारें आरोपियों को बचाने में लगी रहती हैं, तब जनता क्या करें ? क्या अपनी भड़ास भी न निकाले। बात यह भी कही जा रही है कि अगर ऐसी भड़ास न निकालने दी गई तो फिर जनता हिन्सक होकर सड़कों पर भी निकल सकती है। इसलिए उन्हें सलाह दी जा रही है कि वे सोशल नेटवर्किंग साइट्स पर शिकंजा कसने की बजाय अपनी सरकार की छवि सुधारने का काम करें। इन आरोपों में दम हैं। पर फिर सवाल उठता है कि क्या यह प्रतिक्रिया वास्तव में उन लोगों की है जो मतदाता हैं, पीड़ित हैं और नाराज हैं ? या फिर उन लोगों की है जो भाड़े के टटू हैं और किसी एक दल या समूह के राजनैतिक लाभ के लिए इस हमले में जुड़े हैं। अगर ऐसा है तो यह प्रवृत्ति ठीक नहीं क्योंकि राजनैतिक हमले की जगह संसद है। छिप कर वार करना ठीक नहीं। इसलिए कि अगर यह प्रवृत्ति बढ़ती गई तो फिर इस आग की लपेट से कोई नहीं बचेगा। हर दल, हर राजनेता और हर जागरूक समूह ऐसे हमलों का शिकार बन सकता है। इससे समाज में भारी अराजकता फैलेगी।
आवश्यकता इस बात की है कि इस मामले पर देशभर में एक बहस छेड़ी जाए जिसके बाद इस खेल के नियम तय हों, इस माध्यम को स्वस्थ्य लोकतांत्रित परम्पराओं के विस्तार के लिए अवश्य इस्तेमाल किया जाए। अभिव्यक्ति की आजादी पर अंकुश न लगे पर भाड़े के टटू इसे राजनैतिक हथियार के रूप में प्रयोग न करें। ये पहल भी समाज को करनी होगी सरकार को नहीं।