Monday, July 23, 2018

‘मॉब लिंचिंग’ पर बढ़ती चिंता


हाल में सर्वोच्च न्यायालय ने सरकार को ‘मॉब लिंचिंग’ रोकने के प्रभावी कानून बनाने और अपराधियों को कड़ी सजा देने के निर्देश दिये हैं। ‘मॉब लिंचिंग’ का सबसे पुराना उदाहरण समय-समय पर देश में होने वाले दंगे हैं। जिनमें एक धर्म के मानने वालों की भीड़ दूसरे धर्म के मानने वाले किसी व्यक्ति को घेरकर बुरी तरह हमला करती है, उसे बुरी घायल कर देती है और मार भी डालती है। भारत के इतिहास में पिछली सदी में इसके लाखों उदाहरण हैं।

दूसरा उदाहरण है, चुनावी हिंसा का। जिन दिनों भारत के कुछ राज्यों में चुनावों में ‘पूत कब्जा करना’ आम बात होती थी। उन दिनों भी आक्रामक भीड़ वुनाव अधिकारियों या राजनैतिक दल के कार्यकर्ताओं को घेरकर इसी तरह मारा करती थी। आजाद भारत के इतिहास में ‘मॉब लिंचिंग’ का सबसे वीभत्स उदाहरण 31 अक्टूबर 1984 के बाद देखने को मिला। जब इंदिरा गांधी की हत्या के बाद बेकाबू कांग्रेसी कार्यकर्ताओं ने पूरे उत्तर भारत में सिक्ख समुदाय के लोगों को बहुत निर्दयता से मारा, जलाया या लूटा।

आजकल जो ‘मॉब लिंचिंग’ का शोर मच रहा है, उसके पीछे हाल के वर्षों में हुई घटनाऐं प्रमुख हैं। जिनमें भाजपा से सहानुभूति रखने वाले हिंसक युवा कभी गौरक्षा के नाम पर, कभी मंदिर के नाम पर या कभी देशभक्ति के नाम पर, अपने राजनैतिक प्रतिद्वंदियों की जमकर कुटाई करते हैं, लूटपाट करते हैं, उनके नाम के साईन बोर्ड मिटा देते हैं और हत्या तक कर डालते हैं। चूंकि ऐसी घटनाऐं देशभर में लगातार पिछले 4 वर्षों में बार-बार हो रही हैं। इसलिए आज यह सर्वोच्च न्यायालय और सिविल सोसाईटी की चिंता का विषय बन गया है। बावजूद इसके शिकयत यह है कि देश का टीवी और प्रिंट मीडिया इतने संवेदनशील मुद्दे पर खामोशी धारण किये हुए है। जबकि इस पर लगातार तार्किक बहस होनी चाहिए। क्योंकि इस तरह का आचरण मध्ययुगीन सामंतवादी बर्बर कबीलों का होता था। 19वीं सदी से लगभग सभी देशों में लोकतंत्र का पदार्पण होता चला गया। नतीजतन सामंतशाही की ताकत बिखरकर आम मतदाता के हाथ में चली गई। ऐसे में ‘मॉब लिंचिंग’ जैसे जंगली व्यवहार को अब कोई सामाजिक मान्यता नहीं है। पश्चिम ऐशिया के कुछ देश इसका अपवाद जरूर है, जहां शरियत के कानून का सहारा लेकर ‘मॉब लिंचिंग’ जैसी परिस्थितियों को सामाजिक स्वीकृति प्राप्त है। उदाहरण के तौर पर व्यभिचारिणी महिला को पत्थरों से मार-मारकर घायल कर देना। पर भारत जैसे सभ्य सुंस्कृत समाज में ‘मॉब लिंचिंग’ जैसी हिंसक गतिविधियों को कोई स्वीकृति प्राप्त नहीं है। हर अपराध के लिए स्पष्ट कानून है और कानून के मुताबिक अपराधी को सजा दी जाती है। इसमें अपवाद भी होते हैं, पर वे अंगुलियों पर गिने जा सकते हैं। आम जनता का विश्वास अभी भी न्यायपालिका में कायम है।

इन परिस्थितियों में न्यायपालिका, राजनैतिक दलों और सामाजिक कार्यकर्ताओं के लिए और भी बड़ी चुनौती है, कि वे अपने पारदर्शी आचरण से ऐसा कुछ भी न होने दें, जिसे ‘मॉब लिंचिंग’ की संज्ञा दी जा सके। पर ये कहना सरल है, करना कठिन। फिर भी एक सामूहिक प्रयास तो किया ही जाना चाहिए। फिर वो चाहे राज्य स्तर पर हो या केंद्र स्तर पर। ‘मॉब लिंचिंग’ किसी  एक सम्प्रदाय के विरूद्ध सीमित रह जाए, यह संभव नहीं है। अगर इसे यूंही पनपने दिया, तो जिसके हाथ में लाठी होगी, उसकी भैंस। फिर तो छोटी-छोटी बातों पर बेकाबू हिंसक भीड़ अपने प्रतिद्धंदियों, विरोधियों या दुश्मनों पर इसी तरह हिंसक हमले करेगी और पुलिस व कानून व्यवस्था तमाशबीन बनकर देखते रहेंगे। इससे तो समाज का पूरा तानाबाना ही छिन्न-भिन्न हो जाऐगा और हम बर्बर जीवनशैली की ओर उलटे लौट पडेंगे। इसलिए हर उस व्यक्ति को जो किसी भी रूप में ‘मॉब लिंचिंग’ के खिलाफ आवाज उठा सकता है या माहौल बना सकता है, बनाना चाहिए। ‘मॉब लिंचिंग’ चाहे  सामंतवादियों की हो, ऊँची-नीची जात मानने वालों के बीच हो, विभिन्न धर्मावलंबियों के बीच हो या फिर कांग्रेस, भाजपा, सपा, तृणमूल कांग्रेस के राजनैतिक कार्यकर्ताओं के प्रतिनिधियों और विरोधियों के बीच हो। हर हालत में आत्मघात ही होगी।

इसे राजनैतिक स्तर पर भी रोकना होगा। एक सामूहिक राजनैतिक इच्छाशक्ति की जरूरत है। अन्यथा हालात बलूचिस्तान जैसे हो जाऐंगे। जहां केवल बंदूक का राज चलेगा। फिर लोकतंत्र और सामान्य सामाजिक जीवन भी खतरे में पड़ जाऐंगे।

सर्वोच्च न्यायालय अगर अपना रूख कड़ा किये रहे और राजनैतिक दल इसे अहमतुष्टि का मुद्दा न बनाकर और राजनैतिक स्वार्थों की परवाह न करके व्यापक समाज के हित में ‘मॉब लिंचिंग’ को रोकते हैं, तो कोई बजह नहीं कि यह नासूर कैंसर बनने से पहले ही खत्म न हो जाऐ। अब तक मीडिया की जो खमोशी रही है, खासकर टीवी मीडिया की, वह बहुत चिंता का विषय है। टीवी मीडिया को वाह्यिात मुद्दे छोड, नाहक की बहस में न पड़कर, समाज को सही दिशा में ले जाने वाले मुद्दों पर बहस करनी चाहिए। जिससे समाज में इन कुरीतियों के विरूद्ध जागृति पैदा हो।

Monday, July 9, 2018

धर्मस्थलों के मामले में सर्वोच्च न्यायालय की अच्छी पहल

पिछले हफ्ते सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीशों ने जगन्नाथ जी मंदिर के प्रवेश के नियमों की समीक्षा के दौरान पूरे देश के जिला जजों को एक अनूठा निर्देश दिया। उनसे कहा गया है कि उनके जिले में जो भी धर्मस्थल, चाहें किसी धर्म के हों, अगर अपनी व्यवस्था भक्तों के हित में ठीक से नहीं कर रहे या अपनी आय-व्यय का ब्यौरा पारदर्शिता से नहीं रख रहे या इस आय को भक्तों की सुविधाओं पर नहीं खर्च कर रहे, तो उनकी सूची बनाकर अपने राज्य के उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीशों के माध्यम से 31 अगस्त 2018 तक सर्वोच्च न्यायालय को भेजें।
इस पहल से यह स्पष्ट है कि सर्वोच्च न्यायालय का ध्यान धर्मस्थलों में हो रही भारी अव्यवस्थाओं और चढावे के धन के गबन की तरफ गया है। अभी सुधार के लिए कोई आदेश जारी नहीं हुए हैं। लेकिन सुझाव मांगे गये हैं। ये एक अच्छी पहल है। समाज के हर अंग की तरह धार्मिक संस्थाओं का भी पतन बहुत तेजी हुआ है। अपनी आकांक्षाओं की पूर्ति के लिए धर्मस्थलों पर आने वाले धर्मावलंबियों की भीड़ लगातार बढ़ रही है। हर श्रद्धालु अपनी हैसियत से ज्यादा दान भी देता है। इससे ज्यादातर धर्मस्थलों की आय में तेजी से इजाफा हुआ है। पर दूसरी तरफ देखने में ये आता है कि दान के इस पैसे को भक्तों की सुविधा विस्तार के लिए नहीं खर्च किया जाता बल्कि उस धर्मस्थल के संचालकों के निजी उपभोग के लिए रख लिया जाता है।

जबकि होना यह चाहिए कि एक निर्धारित सीमा तक ही इस चढ़ावे का हिस्सा सेवायतों या खिदमदगारों को मिले। शेष भवन के रखरखाव और श्रद्धालुओं की सुविधाओं पर खर्च हो। मौजूदा व्यवस्थाओं में चढ़ावे के पैसे को लेकर काफी विवाद समाने आते रहते हैं। मुकदमेबाजियां भी खूब होती हैं। जनसुविधाओं का प्रायः अभाव रहता है। आय-व्यय की कोई पारदर्शी व्यवस्था नहीं है। इन स्थानों की प्रशासनिक व्यवस्था भी बहुत ढुलमुल होती है, जिससे विवाद होते रहते हैं। अच्छा हो कि सर्वोच्च न्यायालय सभी धर्मस्थलों के लिए एक सी प्रशासनिक व्यवस्था की नियमावली बना दे और आय-व्यय पारदर्शिता के साथ संचालित करने के नियम बना दे। जिससे काफी हद तक व्यवस्थाओं में सुधार आ जायेगा।
यहां कुछ सावधनियां बरतने की जरूरत होगी। सरकारें या उनके द्वारा बनाये गए बोर्ड इन धर्मस्थलों के अधिग्रहण के हकदार न हों। क्योंकि फिर भ्रष्ट नौकरशाही अनावश्यक दखलअंदाजी करेगी। वीआईपी संस्कृति बढेगी और भक्तों की भावनाओं को ठेस लगेगी। बेहतर होगा कि हर धर्मस्थल की प्रशासनिक व्यवस्था में दो चुने हुए प्रतिनिधि सेवायतों या खिदमदगारों के हों, छह प्रतिनिधि पिछले वित्तिय वर्ष में उस धर्मस्थल को सबसे ज्यादा दान देने वाले हों। दो प्रतिनिधिः जिला अधिकारी व जिला अधीक्षक हों और दो प्रमुख व्यक्ति, जो उस धर्मस्थल के प्रति आस्थावान हो और जिसके सद्कार्यों की उस जिले में प्रतिष्ठा हो, उन्हें बाकी के सदस्य की सामूहिक राय से मनोनीत किया जाए। इस तरह एक संतुलित प्रशासिक व्यवस्था की स्थापना होगी। जो सबके कल्याण का कार्य करेगी।
यहां एक सावधानी और भी बरतनी होगी। यह प्रशासनिक समिति कोई भी कार्य ऐसा न करे, जिससे उस धर्मस्थल की परंपराओं, आस्थाओं और भक्तों की भावनाओं ठेस लगे। हर धर्मस्थल पर भीड़ नियंत्रण, सुरक्षा निगरानी, स्वयंसेवक सहायता, शुद्ध पेयजल व शौचालय, गरीबों के लिए सस्ता या निशुल्क भोजन उपलब्ध हो सके, यह प्रयास किया जाना चाहिए। इसके साथ ही अगर उस धर्मस्थल की आय आवश्यक्ता से बहुत अधिक है, तो इस आय से उस जिले के समानधर्मी स्थलों के रखरखाव की भी व्यवस्था की जा सकती है। जिन धर्मस्थलों की आय बहुत अधिक है, वे शिक्षा, स्वास्थ्य व अन्य जनसेवाओं में महत्वपूर्णं योगदान कर सकते हैं और कर भी रहे हैं।
जब सर्वोच्च न्यायालय ने यह पहल कर ही दी है। तो हर जिले के जागरूक नागरिकों का यह कर्तव्य बनता है कि वे अपने जिले के, अपने धर्म के स्थलों, का निष्पक्षता से सर्वेक्षण करे और उनकी कमियां और सुधार के सुझाव यथाशीघ्र बाकायदा लिखकर जिला जज के पास जमा करवा दें। जिससे हर जिले के जजों को इनको व्यवस्थित करके अपने प्रांत के मुख्य न्यायाधीश को समय रहते भेजने में सुविधा हो। जो नौजवान कम्प्यूटर साइंस के विशेषज्ञ हैं, उन्हें इस पूरे अभियान को समुचित टैंपलेट बनाकर व्यवस्थित करना चाहिए। जिससे न्यायपालिका बिना मकड़जाल में उलझे आसानी से सभी बिंदुओं पर विचार कर सके।अगर इस अभियान में हर धर्म के मानने वाले बिना राग द्वेष के उत्साह से सक्रिय हो जाऐ, तो इस क्षेत्र में आ रही कुरीतियों पर रोक लग सकेगी। जो भारत जैसे धर्मप्रधान देश के लिए बहुत बड़ी उपलब्धि होगी। सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश भी साधुवाद के पात्र हैं जिन्होंने यह पहल की है। आशा है ये किसी ठोस अंजाम तक पहुचेगी।

Monday, July 2, 2018

मगहर में प्रधानमंत्री मोदी का मजाक क्यों?

पिछले हफ्ते प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी जी, संत कबीर दास जी की समाधि दर्शन के लिए उ.प्र. के मगहर नामक स्थान पर गऐ थे। जहां उनके भाषण के कुछ अंशों के लेकर सोशल मीडिया में धर्मनिरपेक्ष लोग उनका मजाक उड़ा रहे हैं। इनका कहना है कि मोदी जी को इतिहास का ज्ञान नहीं है। इसीलिए उन्होंने अपने भाषण में कहा कि गुरुनानक देव  जी, बाबा गोरखनाथ जी और संत कबीरदास जी यहां साथ बैठकर धर्म पर चर्चा किया करते थे। मोदी आलोचक सोशल मीडिया पर लिख रहे हैं कि ‘बाबा गोरखनाथ का जन्म 10 वी शताब्दी में हुआ था। संत कबीर दास का जन्म 1398 में हुआ था और गुरुनानक जी का जन्म 1469 में हुआ था। उनका प्रश्न है? फिर कैसे ये सब साथ बैठकर धर्म चर्चा करते थे? मजाक के तौर पर ये लोग लिख रहे हैं कि ‘माना कि अंधेरा घना है, पर बेवकूफ बनाना कहाँ मना है’।

बंदर क्या जाने अदरक का स्वाद’? अध्यात्म जगत की बातें अध्यात्म में रूचि रखने वाले और संतों के कृपा पात्र ही समझ सकते हैं। धर्म को अफीम बताने वाले नहीं। इस संदर्भ में मैं श्री नाभा जी कृत व भक्त समाज में अति आदरणीय ग्रंथ ‘भक्तमाल’ के प्रथम खंड से एक उदाहरण देकर ये बताने जा रहा हूं कि कैसे जो मोदी जी ने जो कहा, वह उनकी अज्ञानता नहीं बल्कि गहरी धार्मिक आस्था और ज्ञान का परिचायक है।

झांसी के पास ओरछा राज्य के नरेश के राजगुरू, शास्त्रों के प्रकांड पंडित पंडित श्री हरिराम व्यास जी का जन्म 16वीं सदी में हुआ था। बाद में ये ओरछा छोड़कर वृंदावन चले आए और श्री राधावल्लभ सम्प्रदाय के प्रमुख आचार्य श्रीहित हरिवंश जी महाराज से प्रभावित होकर उसी सम्प्रदाय में दीक्षित हुए। जिसमें भगवान श्रीराधाकृष्ण की निभृत निकुंज लीलाओं का गायन और साधना प्रमुख मानी गई है। इस सम्प्रदाय की मान्यतानुसार वृंदावन में भगवान श्रीराधाकृष्ण और गोपियों की रसमयी लीलाऐं आठोप्रहर निरंतर चलती रहती है। गहन साधना और तपश्चर्या के बाद रसिक संतजनों को इन रसमयी लीलाओं का दर्शन ऐसे ही होता है, जैसे भौतिक जगत का प्राणी टेलीवीजन के पर्दे पर फिल्म देखता है। इसे ‘अष्टायाम लीला दर्शन’ कहते हैं।

श्री हरिराम व्यास जी ने वृंदावन में रहकर घोर वैराग्य और तपश्चर्या से इस स्थिति को प्राप्त कर लिया था कि उन्हें समाधि में बैठकर आठों प्रहर की लीलाओं के दर्शन सहज ही हो जाया करते थे। इसलिए श्री हरिराम व्यास जी का स्थान राधावल्लभ सम्प्रदाय के महान रसिक संतों में अग्रणी माना जाता है।

भक्तमाल’ में वर्णन आया है कि एकबार श्री हरिराम व्यास जी यमुना तट पर समाधिस्थ होकर ‘अष्टायाम लीलाओं’ का दर्शन कर रहेे थे। तभी उनके मन में अचानक यह भाव आया कि जिस लीला रस का आस्वादन मैं सहजता से कर रहा हूं, वह रस संत कबीर दास जी को प्राप्त नहीं हुआ। ये विचार मन में आते ही उन्हें लीला दर्शन होना बंद हो गया। एक रसिक संत के लिए यह मरणासन्न जैसी स्थिति होती है। उनकी समाधि टूट गई, नेत्र खुल गये, अश्रु धारा प्रवाहित होने लगी और उनकी स्थिति जल बिन मछली जैसी हो गई। इस व्याकुलता में अधीर होकर, वे हित हरिवंश जी महाराज के पास गऐ और उनसे लीला दर्शन न होने का कारण पूछा। हित हरिवंश जी महाराज ने कहा कि अवश्य ही तुमसे कोई वैष्णव अपराध हुआ है। जाओ जाकर उसका चिंतन करो और जिसके प्रति अपराध हुआ है, उससे क्षमा याचना करो।

हरिराम व्यास जी पुनः यमुना तट पर आऐ और समाधिस्थ होकर अपराध बोध से चिंतन करने लगे कि उनसे किस संत के प्रति अपराध हुआ है। तब उन्हें ध्यान आया कि चूंकि कबीर दास जी ज्ञानमार्गीय संत थे, इसलिए व्यास जी के मन में ये भाव आ गया था कि कबीरदास जी को भगवान श्री राधाकृष्ण की अष्टायाम लीला के दर्शन का रस प्राप्त नहीं हुआ होगा। जो कि भक्ति मार्ग के रसिक संतों सहज ही हो जाता है। जैसे ही ये विचार आया, हरिराम व्यास जी ने अश्रुपूरित कातर नेत्रों से, दीनहीन भाव से संत कबीरदास जी के श्री चरणों में अपने अपराध की क्षमा याचना की।

व्यास जी यह देखकर आश्चर्यचकित हो गऐ कि संत कबीरदास जी उनके सामने ही यमुना जी से स्नान करके बाहर निकले और हरिराम व्यास जी से ‘राधे-राधे’ कहकर सत्संग करने बैठ गऐ। जबकि कबीरदास जी को पूर्णं समाधि लिए लगभग 150 वर्ष हो चुके थे। फिर ये कैसे संभव हुआ? हरिराम व्यास जी ने पुनः अपने अपराध की क्षमा मांगी और तब शायद उन्होंने ही यह पद रचा, ‘मैं तो जानी हरिपद रति नाहिं’। आज मैंने जाना कि मेरे हृदय में आज तक भगवान के श्रीचरणों के प्रति अनुराग ही उत्पन्न नहीं हुआ है। आज तक तो मैं यही मानता था कि हमारा ही सम्प्रदाय सर्वश्रेष्ठ है और हमारे जैसे ही रसिक संतों को निकुंज लीला के दर्शनों का सौभाग्य मिल पाता है। आज मेरा वह भ्रम टूट गया। आज पता चला कि प्रभु की सत्ता का विस्तार सम्प्रदायों में सीमाबद्ध नहीं है।

इसी तरह महावतार बाबाजी के शिष्य पूरी दुनिया में हैं और उनका विश्वास है और दावा है कि वे जब भी पुकारते हैं, बाबा आकर उन्हें दर्शन और निर्देश देते हैं। ऐसा हजारों वर्षों से उनके शिष्यों के साथ हो रहा है।

अब अगर नरेन्द्र भाई मोदी ने अपने इसी आध्यात्मिक ज्ञान और अनुभव को दृष्टिगत रखते हुए, यह कह दिया कि बाबा गोरखनाथ, संत कबीरदास और श्री गुरूनानक देव जी मगहर में एक साथ बैठकर धर्म चर्चा किया करते थे, तो इसमें गलत क्या है? हमारे देश का यही दुर्भाग्य है कि यवन और पाश्चात्य संस्कृति के प्रभाव में हम अपनी सनातन संस्कृति को भूल गऐ हैं। उसमें हमारा विश्वास नहीं रह गया है और यही भारत के पतन का कारण है।