सिक्ख धर्म संस्थापक
परमादरणीय गुरू नानक देव जी के जीवन व शिक्षाओं पर आधारित फिल्म ‘नानक शाह फकीर’
काफी विवादों में है। सुना है कि शिरोमणि गुरूद्वारा प्रबंधक कमेटी और कुछ सिक्ख
नेता इसे रिलीज नहीं होने देना चाहते। उनका कहना है कि गुरू नानक जी पर फिल्म नहीं
बनाई जा सकती । क्योंकि उनका किरदार कोई मनुष्य नहीं निभा सकता। उनकी और बाकी
गुरुओं की सारी शिक्षा गुरू ग्रंथ साहिब
में संग्रहीत है। गुरु गोविंद सिंह जी ने हुकुम दिया था,
"गुरु मान्यो ग्रंथ" ।
इसी भाव से हर गुरूद्वारे में ग्रंथ साहब की सेवा-अर्चना की जाती है।
अकसर ही एतिहासिक
फिल्मों पर विवाद होते रहते हैं। ताजा उदाहरण 'पद्मावत’ का
है। इसमें राजपूतों की प्रतिष्ठा धूमिल करने का आरोप लगाकर राजपूत समाज ने काफी
लम्बा विवाद खड़ा किया। राजपूत समाज के हस्तक्षेप के बाद फिल्म के निर्माता संजय
लीला भंसाली ने फिल्म के कुछ दृश्यों या कुछ डायलग्स को बदला व फिल्म का नाम भी
बदला। अंत में जब फिल्म सामने आई तो उसमें कहीं भी ऐसा कोई दृश्य नहीं था जिससे
राजपूत समाज को ठेस लगती। बाद में कर्णीं सेना और अन्य विरोध करने वालों ने भी यही
अनुभव किया। ये विवाद दूसरा है कि पद्मावती का चरित्र ऐतिहासिक था या मलिक मौहम्मद
जायसी की कल्पना । जो बिना एतिहासिक प्रमाणों के सही या गलत नहीं ठहराया जा सकता।
लेकिन ये सत्य है कि इस कथा को संजय लीला भंसाली ने बहुत प्रभावशाली ढंग से प्रस्तुत किया।
इससे पहले 80 के दशक में इंग्लैंड के फिल्म निर्माता रिचर्ड एटिनबरो ने महात्मा गांधी
पर जब फिल्म बनाई तो गांधीवादियों ने कड़ा विरोध किया था। प्रदर्शन किये, हस्ताक्षर अभियान चलाये व प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी को ज्ञापन
दिये। उनका कहना था कि एक अंग्रेज महात्मा गांधी पर फिल्म कैसे बना सकता है?
जबकि अंग्रेजों के अत्याचारों के विरूद्ध ही तो महात्मा गांधी का
राजनैतिक जीवन शुरू हुआ था और अंग्रेजों को जाना पड़ा। 190
साल तक उन्होंने भारत को लूटा और अत्याचार किये। इसलिए एक अंग्रेज को ये नैतिक
अधिकार कैसे मिल सकता है कि वह महात्मा गांधी पर फिल्म बनाए? इन तमाम विवादों के बावजूद फिल्म
बनी । रिचर्ड एचिनबरो ने एक बेहतरीन फिल्म
बनाई। जो पूरे विश्व में सराही गई। सबसे बड़ी बात यह थी कि गांधी को उस वक्त की पीढ़ी लगभग भूल चुकी थी।
उनके लिए गांधी एक प्रतीक थे। 2 अक्टूबर को उनके जन्म और 30 जनवरी को श्रद्धांजलि तक उनकी
याद सीमित थी। गांधी का जीवन व उनकी सोच
क्या थी ? किस तरह उन्होंने सीमित संसाधनों में इतने बड़े
साम्राज्य को चुनौती दी, इस सब के बारे में व्यापक स्तर पर भारतीय समाज को कोई समझ नहीं
थी। विदेशी समाज को तो बिल्कुल ही नहीं थी। ठीक वैसे ही जैसे आम
भारतीयों को मार्टिन लूथर किंग के बारे में कितना पता है? पर गांधी फिल्म ने गांधी जी को
पूरे विश्व में पुर्नस्थापित किया। न सिर्फ गांधी जी के जीवन के प्रति बल्कि उनकी
विचारधारा के प्रति पूरी दुनियां में एक अजीब आकर्षण पैदा हुआ। जिसका परिणाम हुआ
कि पूरी दुनिया से जिज्ञासु गांधी को समझने भारत आने लगे। गांधी और उनके विचार
पुनः दुनिया के पटल पर चर्चा का विषय बन गये। एक पूरी पीढ़ी ने गांधी के जीवन को
समझा। उनके लिखे प्रकाशित ग्रंथों की मांग बढ़ी। इस तरह रिचर्ड एडिनबरो ने विरोध
सहकार भी गांधी जी की महान सेवा की।
मौजूदा संदर्भ में यही
बात 'नानक शाह फकीर' के बारे में भी कही जा सकती है। इसको
बनाने का जुनून हरिंदर सिक्का नामके उस व्यक्ति का है, जो
पेशे से फिल्मकार नहीं है बल्कि पीरामल समूह का कम्युनिकेशन डायरेक्टर है। जाहिरन इस फ़िल्म से उनका
उद्देश्य पैसा कमाना नहीं बल्कि सिख पंथ की सेवा करना है। इस फिल्म को बनाने की
सिक्का को बहुत दिनों से लगन थी। फिल्म को बने हुए भी काफी समय हो गया है। मैंने
अभी फिल्म देखी नहीं है। जिन्होंने देखी होगी वे ही इस पर प्रकाश डाल सकते हैं। पर
इतना मैं जरूर कहूंगा कि अगर कोई सिक्ख धर्म का अनुयायी, अपनी
श्रद्धा के पात्र गुरूनानक देव जी के जीवन पर फिल्म बनाने का जुनून लेकर बैठा हो,
तो उससे ये अपेक्षा करना कि वो उनके चरित्र को आहत कर देगा या उनके
बारे में कुछ ऐसा दिखा देगा जिससे सिक्ख धर्म की भावनाओं को ठेस पहुंचे, ये संभव नहीं है। गल्ती हर इंसान से हो सकती है, समझ
की कमी हो सकती है और फिल्म बनाने के अनुभव में भी कमी हो सकती है। पर सिक्का की
भावनाओं पर संशय नहीं किया जा सकता। जब अंदर से कोई दैवीय प्रेरणा होती है,
तभी व्यक्ति ऐसे कार्यों में आगे बढ़ता है। हो सकता कि 'नानक शाह फकीर' इतनी खराब बनी हो कि दर्शक फिल्म को
पसंद ही न करें । तब जैसे सैकड़ों फिल्में डिब्बे में बंद हो जाती है ये फ़िल्म भी
हो जाएगी । पर ये भी हो सकता है कि यह फिल्म गुरू नानक देव की शिक्षा और जीवन पर
प्रकाश डालने वाली हो । वही फिल्मकार की सफलता का मापदंड माना जाएगा। वही उसके
कठिन प्रयास का परितोषक होगा। अगर ऐसा हुआ
तो न सिर्फ सिक्ख युवा पीढ़ी को गुरू नानक देव का परिचय भलीभांति मिलेगा,
बल्कि भारत में जो सिक्ख धर्म के अनुयायी नहीं हैं, चाहे वह हिंदू हों, मुसलमान हों, ईसाई हों, नास्तिक हो या फिर दूसरे देशों के रहने
वाले लोग हों, उन सबको गुरू नानक जी के चरित्र और शिक्षाओं
के बारे में जानने का मौका मिलेगा। मैं मानता हूं कि अगर तो गुरूद्वारा प्रबंधक कमेटी ने इस फिल्म
को जारी होने का सहयोग प्रमाण पत्र दे दिया है, तो उत्सुकता
से इस फिल्म का इंतेजार किया जाना चाहिए
और अगर इसमें कोई अवरोध आ रहा है, तो उसे इसी पवित्र भावना
से दूर करना चाहिए। क्योंकि फिल्में 21वीं सदी में संचार का
सबसे सशक्त माध्यम हैं। फिल्मों के जरिये जो बात कही जाती है, तो वह समाज में बहुत व्यापक स्तर तक पहुंचती है। सिक्ख धर्म को मानने वाले
बहुत समर्पण के साथ अपने धर्म का प्रचार-प्रसार और सेवा करते हैं। लेकिन क्या हम
यह दावे से कह सकते हैं कि जो बहुत बड़ी
तादाद सिक्ख धर्म के न मानने वालों की है, उनको गुरू नानक
देव के बारे में पूरी जानकारी है ? ठीक वैसे ही जैसे सिक्ख
धर्म के मानने वालों को ईसामसीह में कितनी रूचि है या इस्लाम मानने वालों को राम
और कृष्ण के जीवन में कितनी रूचि है। तो बड़ा
समाज जो फिल्म को केवल मनोरंजन के उद्देश्य से देखता है, उसे मनोरंजन के साथ अगर शिक्षा भी मिल जाए तो वह ‘एंटरटेंनमेंट’ न होकर
‘इंफोटेंनमेंट’ हो जाता है।आदमी जाता तो है सिनेमा मनोरंजन के लिए देखने लेकिन
लौटता है ज्ञानी बनकर। महाभारत, रामायण व चाणक्य सीरियल से भारतीय संस्कृति और इन
महापुराणों के बारे में पूरी दुनियां में
उत्सुकता बढ़ी । नई पीढ़ी को इनके बारे में जानकारी हुई और घर-घर पिताश्री, माताश्री, भ्राताश्री जैसे शब्दों का लोग इस्तेमाल
करने लगे। जो कम पढ़े-लिखे लोग थे, उनको भी इन पुराणों की
बारीकियों का पता चला।
इससे जातीय द्वेष करने
वाले गोरों को सिखों और तालिबानों के बीच भेद पता चलेगा। अभी लंदन की संसद में
पहले सिख सांसद तनमनजीत को कहना पड़ा कि वहां लोग सिखों को तालिबान समझकर उनपर हमला
कर रहे हैं।
मैं समझता हूं कि हरिंदर
सिक्का की इस मेहनत को दर्शकों तक जाने देना चाहिए। जो सिक्ख समाज के धार्मिक
नेता है उनको फिल्म देखकर, यदि कोई
कमी हो सुधार कर, इसे मान्यता दे देनी चाहिए। ताकि व्यापक
विश्व समाज गुरू नानक देव जी के जीवन के बारे में जान सके।
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