Sunday, November 27, 2011

जन आन्दोलन से उपजती हिंसा

Rajasthan Patrika 27Nov2011
प्रशांत भूषण की दफ्तर में पिटाई हो या केन्द्रीय कृषि मंत्री श्री शरद पवार के गाल पर पड़ा थप्पड़, दोनों खतरे की घण्टी बजा रहे हैं। अगर जनान्दोलन का नेतृत्व करने वाले जनता को भड़काने के बयान देते रहेंगे, तो स्थिति कभी भी बेकाबू हो सकती है। क्योंकि जिस भीड़ पर नियन्त्रण करने की नेतृत्व में क्षमता न हो, उसे इसे हद तक उकसाना नहीं चाहिए कि हालात बेकाबू हो जाऐं। महात्मा गाँधी जैसा राष्ट्रीय नेता, जिनकी एक आवाज पर पूरा देश सड़क पर उतर आता था, उन तक को यह विश्वास नहीं था कि वे जनता को हिंसक होने से रोक पाऐंगे। इसलिए जब आन्दोलनकारियों ने चैरा-चैरी थाने में आग लगाकर पुलिस कर्मियों को जला दिया, तो महात्मा गाँधी ने बड़े दुखी मन से फौरन ‘असहयोग आन्दोलन‘ को वापिस ले लिया। हालांकि उनकी कांग्रेस पार्टी के कुछ हिस्सों में भारी निन्दा हुई, पर गाँधी जी का कहना था कि अभी हमारा देश सत्याग्रह के लिए तैयार नहीं है। यह बात दूसरी है कि दोबारा आन्दोलन खड़ा करने में फिर कई वर्ष लग गए।

जब महात्मा गाँधी जैसी शख्सियत को भीड़ के आचरण पर भरोसा नहीं था, तो टीम अन्ना के सदस्य तो बापू के सामने बहुत छोटे कद के हैं। उनकी बात कौन सुनेगा? आज केन्द्रीय कृषि मंत्री के गाल पर थप्पड़ जड़ा है, कल राजनेताओं के समर्पित कार्यकर्ता या गुण्डे, टीम अन्ना के ऊपर वार कर सकते हैं। या फिर टीम अन्ना के समर्थक उन लोगों पर हमला कर सकते हैं, जो टीम अन्ना के तौर-तरीकों से इत्तेफाक नहीं रखते। इस तरह की हिंसा से प्रतिहिंसा पैदा होगी।

भारत जैसे विविधता के देश में, जहाँ भौगोलिक, सामाजिक, आर्थिक विषमता का भारी विस्तार है, वहाँ छोटी सी बात पर भीड़ का भड़कना और हिंसक हो जाना, या तोड़-फोड़ की गतिविधियों में लिप्त हो जाना, सामान्य बात होती है। ऐसी हालत में तीन परिणाम सामने आ सकते हैं। या तो हुक्मरान एकजुट होकर जनान्दोलन को लाठी और गोली से कुचल देंगे, अगर वे ऐसा न कर पाए और जनता इतनी बेकाबू हो गई कि सत्ता के हथियार भौंथरे सिद्ध होने लगे, तो कोई वजह नहीं है कि भारतीय सेना अपनी बैरकों से बाहर न निकल पड़े। यह कहना कि भारत का लोकतंत्र इतना मजबूत है कि यहाँ कभी सैनिक तानाशाही आ ही नहीं सकती, दिन में सपने देखने जैसा है। यह सही है कि भारतीय सेना, पाकिस्तान की सेना की तरह सत्ता के लिए जीभ नहीं लपलपाती, पर इसका मतलब यह नहीं कि सीमा पर लड़ने वाले अपनी देशभक्ति को गिरबी रख चुके हैं। अगर सेना को लगेगा कि राजनेताओं और जनान्दोलनों के नेताओं के टकराव से समाज में उथल-पुथल और अराजकता हो रही है, तो वह सत्ता की बागडोर संभालने में संकोच नहीं करेगी। हम सभी जानते हैं कि सेना की तानाशाही स्थापित हो जाने के बाद, भ्रष्टाचार का मुद्दा तो दूर, व्यवस्था की आलोचना मात्र करने की भी छूट लोगों को नहीं होती। अभिव्यक्ति की आजादी कुचल दी जाती है। फिर जन्म लेता है अधिनायक वाद, जिसके भ्रष्टाचार की कहानियों से इतिहास भरा पड़ा है। दुख और चिंता की बात है कि टीम अन्ना के सभी सदस्य, जिनमें अन्ना हजारे भी अपवाद नहीं, बिना इस हकीकत को समझे लोगों की भावनाऐं भड़का रहे हैं। इसलिए उन्हें आगाह करने की आज बहुत जरूरत है।

दरअसल मैंने तो 4 जून, 2011 को ही एक खुला पत्र छापकर दिल्ली में बंटबाया था। जिसमे बाबा रामदेव और अन्ना हजारे को भ्रष्टाचार के विरूद्ध माहौल बनाने के लिए बधाई देते हुए कुछ सावधानी बरतने की भी सलाह दी थी। उस पत्र में मैंने और मेरे मित्र समाजकर्मी पुरूषोत्मन मुल्लोली ने लिखा था कि, ‘रामदेव जी आपकी लड़ाई का सबसे बड़ा मुद्दा विदेशों में जमा धन है। आप कहते हैं कि चार सौ लाख करोड़ रूपया विदेशों में जमा है। एक जिम्मेदार और देशभक्त नागरिक होने के नाते आपका यह कर्तव्य बनता है कि ऐसा दावा करने से पहले उसके समर्थन में सभी तथ्यों को जनता के सामने प्रस्तुत करें। अगर आप इन तथ्यों को प्रकाशित नहीं करना चाहते तो कम से कम यह आश्वासन देश को जरूर दें कि इस दावे के समर्थन में आपके पास समस्त प्रमाण उपलब्ध हैं। अन्यथा यह बयान गैर जिम्मेदाराना माना जाएगा और देश की आम जनता के लिए बहुत घातक होगा, जिसे आपने सुनहरा सपना दिखा दिया है।

विदेशों में जमा धन देश में लाकर गरीबी दूर करने का बयान आप दे रहे हैं और सपने दिखा रहे हैं, वैसा तो होने वाला नहीं है। पहली बात यह धन आप नहीं सरकार लायेगी, चाहें वह किसी भी दल की हो और उसे खर्च भी वही सरकार करेगी। तो आप कैसे उस पैसे से गरीबी दूर करने का दावा करते हैं? आप कहते हैं कि विदेशों से यह धन लाकर आप देश में विकास कार्यों की रफ्तार तेज करेंगे। शायद आप जानते ही होंगे कि इस तरह के अंधाधुंध व जनविरोधी विकास कार्यों से ही ज्यादा भ्रष्टाचार पनपता रहा है। फिर आप देश की जमीनी हकीकत को अनदेखा क्यों करना चाहते हैं? रामदेव जी अनेक मुद्दों पर आपके अनेक बयान बिना गहरी समझ के, जाने-अनजाने भावनाऐं भड़का रहे हैं। इससे आम जनता में भ्रम की स्थिति पैदा हो रही है। कृपया इससे बचें।

अन्ना हजारे जी और रामदेव जी, हम आप दोनों को एक साथ मानते हैं और इसलिए आपको यह याद दिलाना चाहते हैं कि आतंकवादी ताकतें, माओवादी ताकतें और साम्प्रदायिक ताकतें विदेशी ताकतों के हाथ में खेलकर इस देश में ‘सिविल वाॅर’ की जमीन तैयार कर चुकी हैं। जरा सी अराजकता से चिंगारी भड़क सकती है। इन ताकतों से जुड़े कुछ लोग आपके खेमों में भी घुस रहे हैं। इसलिए आपको भारी सावधानी बरतनी होगी। कहीं ऐसा न हो कि आपकी असफलता जनता में हताशा और आक्रोश को भड़का दे और उसका फायदा ये देशद्रोही ताकतें उठा लें। इन परिणामों को ध्यान में रखकर ही अपनी रणनीति बनायें तो देश और समाज के लिए अच्छा रहेगा। यह हमारा पहला खुला पत्र है। आने वाले दिनों में हम आपसे यह संवाद जारी रखेंगे। कई ऐसे मुद्दे हैं, जिनमें बिना सोचे-समझे बयानबाजी करके आप दोनों गुटों ने देश के सामने विषम परिस्थितियाँ पैदा कर दी हैं। जिनके खतरनाक परिणाम सामने आने वाले हैं।’

Sunday, November 20, 2011

भारत में अभी काफी दम है


जहाँ एक तरफ धनी देश एक के बाद एक, आर्थिक संकट में फंसते जा रहे हैं, वहीं राहत की बात यह है कि एशिया की विकासशील अर्थव्यवस्थाऐं और यूरोप के पड़ौसी देशों में आर्थिक प्रगति की दर काफी उत्साहजनक रही है। टर्की का सकल घरेलू उत्पाद 2010 में नौ फीसदी सालाना रहा। जो कि चीन की विकास दर के करीब था। इसी तरह 27 देशों के यूरोपीय संघ में से पौलेंड की आर्थिक प्रगति भी ठीक रही। पर जिस तरह का आर्थिक संकट यूनान व इटली में सामने आया, उससे यूरोपीय संघ के नेतृत्व के नीचे से जमीन सरक गई है। भारी घाटे की वित्तीय व्यवस्था से चलती यूरोप के कई देशों की अर्थव्यवस्थाओं ने बैंकों का विश्वास डिगा दिया है। इन अर्थव्यवस्थाओं को उबारने के लिए जिस तरह के राहत पैकेज पेश किए गए, वे नाकाफी रहे हैं। यूरोपीय बैंकों पर दबाब है कि वे बाहर के देशों में ऋण न देकर, यूरोपीय देशों की अर्थव्यवस्था को उबारने में मदद करें। यहाँ तक कि जर्मनी के दूसरे सबसे बड़े बैंक ‘कॉमर्स बैंक’ ने कहा है कि वह अपने देश के बाहर कोई ऋण नहीं देगा। अगर बैंक यह नीति अपनाते हैं, तो पहले से खाई में सरकती यूरोपीय देशों की अर्थव्यवस्थाऐं और भी गहरे संकट में फंस जाएंगी। 

यूरोपीय देशों के इस पतन का कारण वहाँ का, अब तक का, आर्थिक मॉडल और जीवनशैली रही है। इन देशों ने पहले तो पूरी दुनिया में साम्राज्यवाद का सहारा लेकर, उपनिवेशों का शोषण किया और उनके आर्थिक संसाधनों का दोहन किया तथा अपनी अर्थव्यवस्थाओं को मजबूत बनाया। उपनिवेशवाद के बाद इन्होंने तकनीकि की श्रेष्ठता के आधार पर, दुनिया के व्यापार में अपना फायदा कमाया। 

पर जबसे एशियाई देशों की आर्थिक प्रगति ने जोर पकड़ा है, तबसे उत्पादक और उपभोक्ता, दोनों ही इन देशों  में पनपे हैं। जिससे यूरोप की श्रेष्ठता बेमानी हो गई है। अब न तो यूरोप का तकनीकि ज्ञान चाहिए और न ही उनके बाजार से कोई ज्यादा उम्मीद है। इसलिए यूरोप के देश विश्व अर्थव्यवस्था में अलग-थलग पड़ते जा रहे हैं। एक तरफ यह आर्थिक मार और दूसरी तरफ यूरोप वासियों का वैभवपूर्ण जीवन जीने का पुराना रवैया, दोनों में विरोधाभास है। ‘आमदनी अठन्नी और खर्चा रूपया’, इसलिए वहाँ बज रहा है हर घर का बाजा। जनता में भारी हताशा और असुरक्षा घर कर गई है। मौज-मस्ती और सैर-सपाटों में लगे रहने वाले यूरोपवासी अब आए दिन सड़कों पर धरने, प्रदर्शन और घेराव कर रहे हैं। इस सबके बावजूद यूरोप के राजनेताओं और नौकरशाहों ने अपना विलासितापूर्ण खर्चीला व्यवहार पूरी तरह बदला नहीं है। हालांकि उसमें पहले के मुकाबले काफी गिरावट आयी है। फिर भी यूरोपीय देशों में सबसे ताकतवर अर्थव्यवस्था वाले जर्मनी की चांसलर को यह कहना पड़ा कि इन देशों की सरकारों को आर्थिक अनुशासन के मामले में कड़ाई बरतनी पड़ेगी। 

दूसरी तरफ भारत की आर्थिक प्रगति ने दुनियाभर अपने झण्डे गाढ़े हैं। जो बात पश्चिम को सबसे ज्यादा प्रभावित कर रही है, वह है भारत का लोकतंत्र के साथ उदारीकरण को अपनाना। जबकि चीन की आर्थिक प्रगति के पीछे वहाँ कम्युनिस्ट पार्टी की तानाशाही है। भारतीय मॉडल की अपनी सीमाऐं हैं और अपने खतरे भी हैं। मसलन भारी भ्रष्टाचार, आधारभूत ढांचे की बेहद कमी और व्यापक गरीबी। जो कभी भी इस प्रक्रिया को पटरी से उतार सकती है। जहाँ तक भ्रष्टाचार की बात है, दूरसंचार साधनों की प्रगति ने, जनता में भ्रष्टाचार के प्रति जागृति पैदा की है। जो धीरे-धीरे जनान्दोलनों का स्वरूप लेती जा रही है। आधारभूत ढांचे की कमी से निपटने के लिए भारत के उद्योगपति अपनी ही व्यवस्थाऐं खड़ी कर लेते हैं। गरीबी से निपटना बहुत बड़ी चुनौती है और जब तक आर्थिक विकास के साथ आर्थिक बंटवारा भी समानान्तर रूप से साथ नहीं चलेगा, तब तक अनिश्चितता बनी रहेगी। 

इस सबके बावजूद भारतीय औद्योगिक घरानों ने जिस तरह दुनियाभर में अपने पंख फैलाए हैं, उससे पश्चिमी देश सकते में आ गए हैं। टाटा का रॉल्स रॉयस व जगुआर जैसी कम्पनियाँ खरीदना, लक्ष्मी मित्तल का स्टील साम्राज्य, इन्फोसिस का आई.टी. उद्योग में छा जाना, महेन्द्रा और हिन्दुजा जैसे घरानों का दुनियाभर में कारोबार फैलाना, कुछ ऐसे उदाहरण हैं, जो बताते हैं कि भारत का उद्यमी अब दुनिया में कहीं भी बड़े-बड़े विनियोग करने में सक्षम है। इतने महंगे दामों पर भारतीयों द्वारा विदेशी कम्पनियों को खरीदा गया है कि दुनिया के पैसे वाले और बड़े-बड़े बैंक हैरान रह गए हैं। 

भारत के उद्योगपतियों में तीन तरह की नेतृत्व क्षमता देखी गई है। एक तो वे समूह हैं, जिनके नेतृत्व ने जोखिम उठाना ठीक नहीं समझा और परिवार के नियन्त्रण में अपने पारंपरिक साम्राज्य को नियन्त्रित रखा। नए विकल्पों पर ध्यान नहीं दिया। ऐसे औद्योगिक घराने इस दौर में पीछे छूट गए। दूसरे वे हैं, जिन्होंने हवा के रूख को पहचाना और अपने साम्राज्य का विस्तार अनेक दिशाओं में किया, जैसे टाटा, महिन्द्रा आदि। तीसरे वे हैं, जो पिछले बीस सालों में अपने बलबूते पर उठे और दुनिया के नक्शे पर छा गए। जैसे इन्फोसिस, रिलायंस, अडानी, मित्तल आदि। इनमें भी दो तरह के समूह रहे हैं। एक वे, जिन्होंने व्यक्तिग योग्यता और सामूहिक प्रबन्धन को महत्व दिया और सही मायने में कॉरपोरेट संस्कृति को विकसित किया। दूसरे वे हैं, जिन्होंने इस देश की राजनैतिक व्यवस्था की कमजोर नब्ज पर अपनी उंगलियाँ रखीं और इस राजनैतिक व्यवस्था का पूरा इस्तेमाल अपनी प्रगति के लिए किया तथा आशातीत सफलता प्राप्त की। इस बात की परवाह किए बिना कि उनके तौर-तरीकों को लेकर देश में कई सवाल खड़े होते रहे हैं। 

कुल मिलाकर भारतीय उद्यमियों ने दुनिया को दिखा दिया कि उद्योग और व्यापार के मामले में हिन्दुस्तानी किसी से कम नहीं। अब तो दुनिया भी मानने लगी है कि भारत जिसे सोने की चिड़िया कहा जाता था और जिसे सैंकड़ों साल लूटा गया, वह एक बार फिर सोने की चिड़िया बनने की कगार पर है। भारत की इस नई बनती पहचान से हमें गर्व होना अस्वाभाविक बात नहीं। पर साथ ही यह भी महत्वपूर्ण है कि इसी भारत माँ के 60 करोड़ बच्चे अभी भी बदहाली की जिन्दगी जी रहे हैं। अगर इनकी आर्थिक प्रगति साथ-साथ नहीं हुई, तो इनका संगठित आक्रोश भारत के जमे जमाए उद्योग को उसी तरह उखाड़ सकता है, जैसे बंगाल के आम लोगों ने नैनो कार के प्लांट को बनने से पहले ही उठाकर बाहर फैंक दिया। 

इसलिए हमें दोनों पैरों पर चलना है, एक पैर से औद्योगिक विकास व दूसरे पैर से कृषि तथा कुटीर उद्योग से आम लोगों की आर्थिक प्रगति। इसके साथ ही भ्रष्टाचार से मुक्ति और सरकारी फिजूलखर्ची पर कड़ा अनुशासन। अगर हम ऐसा कर पाते हैं तो निश्चय ही भारत अगले 10-15 वर्षों में, दुनिया की सबसे सशक्त अर्थव्यवस्था बन सकता है।

Sunday, November 13, 2011

चाल और चरित्र की चिंता

Rajasthan Patrika 13 Nov
राजनेताओं के चरित्र और आचरण पर जनता और मीडिया की पैनी निगाह हमेशा लगी रहती है। जब तक राजनेताओं के निजी जीवन पर परदा पड़ा रहता है, तब तक कुछ नहीं होता। पर एक बार सावधानी हटी और दुर्घटना घटी। फिर तो उस राजनेता की मीडिया पर ऐसी धुनाई होती है कि कुर्सी भी जाती है और इज्जत भी। ज्यादा ही मामला बढ़ जाए, तो आपराधिक मामला तक दर्ज हो जाता है। विरोधी दल भी इसी ताक में लगे रहते हैं और एक दूसरे के खिलाफ सबूत इकट्ठे करते हैं। उन्हें तब तक छिपाकर रखते हैं, जब तक उससे उन्हें राजनैतिक लाभ मिलने की परिस्थितियाँ पैदा न हो जाऐं। मसलन चुनाव के पहले एक-दूसरे पर कीचड़ उछालने का काम जमकर होता है। पर यह भारत में ही होता हो, ऐसा नहीं है। उन्मुक्त जीवन व विवाह पूर्व शारीरिक सम्बन्ध को मान्यता देने वाले अमरीकी समाज में भी जब उनके राष्ट्रपति बिल क्लिंटन का अपनी सचिव मोनिका लेवांस्की से प्रेम सम्बन्ध उजागर हुआ तो अमरीका में भारी बवाल मचा था। इटली, फ्रांस व इंग्लैंड जैसे देशों मंे ऐसे सम्बन्धों को लेकर अनेक बार बड़े राजनेताओं को पद छोड़ने पड़े हैं। मध्य युग में फ्रांस के एक समलैंगिक रूचि वाले राजा को तो अपनी दावतों का अड्डा पेरिस से हटाकर शहर से बाहर ले जाना पड़ा। क्योंकि आए दिन होने वाली इन दावतों में पेरिस के नामी-गिरामी समलैंगिक पुरूष शिरकत करते थे, और जनता में उसकी चर्चा होने लगी थी।

आजाद भारत के इतिहास में ऐसे कई मामले प्रकाश में आ चुके हैं, जहाँ मंत्रियों, मुख्यमंत्रियों, राज्यपालों आदि के प्रेम प्रसंगों पर बवाल मचते रहे हैं। उड़ीसा के मुख्यमंत्री जी.बी. पटनायक पर समलैंगिकता का आरोप लगा था। आन्ध्र प्रदेश के राज्यपाल एन.डी.तिवारी का तीन महिला मित्रों के साथ शयनकक्ष का चित्र टी.वी. चैनलों पर दिखाया गया। अटल बिहारी वाजपयी का यह बयान कि वे न तो ब्रह्मचारी हैं और न ही विवाहित, काफी चर्चित रहा था। क्योंकि इसके अनेक मायने निकाले गए। उत्तर प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री कल्याण सिंह के सम्बन्धों को लेकर पार्टी में काफी विरोध हुआ था। उमा भारती और गोविन्दाचार्य के सम्बन्धों पर भाजपा में ही कई बार बयानबाजी हो चुकी है। ऐसे अनेक मामले हैं। पर यहाँ कई सवाल उठते हैं।

घोर नैतिकतावादी विवाहेत्तर सम्बन्धों की कड़े शब्दों में भत्र्सना करते हैं। उसे निकृष्ट कृत्य और समाज के लिए घातक बताते हैं। पर वास्तविकता यह है कि अपनी इन्द्रियों पर नियन्त्रण करना राजाओं और नेताओं को छोड़, संतों और देवताओं के लिए भी अत्यंत दुष्कर कार्य रहा है। महान तपस्वी विश्वामित्र को स्वर्ग की अप्सरा मेनका ने अपनी पायल की झंकार से विचलित कर दिया। यहाँ तक कि भगवान विष्णु का मोहिनी रूप देखकर भोलेशंकर समाधि छोड़कर उठ भागे और मोहिनी से संतान उत्पत्ति की। इसी तरह अन्य धर्मों में भी संतो के ऐसे आचरण पर अनेक कथाऐं हैं। वर्तमान समय में भी जितने भी धर्मों के नेता हैं, वे गारण्टी से यह नहीं कह सकते कि उनका समूह शारीरिक वासना की पकड़ से मुक्त है। ऐसे में राजनेताओं से यह कैसे उम्मीद की जा सकती है कि वे भगवान राम की तरह एक पत्नी व्रतधारी रहेंगे? विशेषकर तब जब सत्ता का वैभव सुन्दरियों को उन्हें अर्पित करने के लिए सदैव तत्पर रहता है। ऐसे में मन को रोक पाना बहुत कठिन काम है।

प्रश्न यह उठता है कि यह सम्बन्ध क्या पारस्परिक सहमति से बना है या सामने वाले का शोषण करने की भावना से? अगर सहमति से बना है या सामने वाला किसी लाभ की अपेक्षा से स्वंय को अर्पित कर रहा है तो राजनेता का बहुत दोष नहीं माना जा सकता। सिवाय इसके कि नेता से अनुकरणीय आचरण की अपेक्षा की जाती है। किन्तु अगर इस सम्बन्ध का आधार किसी की मजबूरी का लाभ उठाना है, तो वह सीधे-सीधे दुराचार की श्रेणी में आता है। लोकतंत्र में उसके लिए कोई स्थान नहीं होना चाहिए। यह तो राजतंत्र जैसी बात हुई कि राजा ने जिसे चाहा उठवा लिया।

ऐसे सम्बन्ध प्रायः तब तक उजागर नहीं होते, जब तक कि सम्बन्धित व्यक्ति चाहे पुरूष हो या स्त्री, इस सम्बन्ध का अनुचित लाभ उठाने का काम नहीं करता। जब वह ऐसा करता है, तो उसका बढ़ता प्रभाव, विरोधियों में ही नहीं, अपने दल में भी विरोध के स्वर प्रबल कर देता है। वैसे शासकों से जनता की अपेक्षा होती है कि वे आदर्श जीवन का उदाहरण प्रस्तुत करेंगे। पर अब हालात इतने बदल चुके हैं कि राजनेताओं को अपने ऐसे सम्बन्धों का खुलासा करने में संकोच नहीं होता। फिर भी जब कभी कोई असहज स्थिति पैदा हो जाती है, तो मामला बिगड़ जाता है। फिर शुरू होता है, ब्लैकमेल का खेल। जिसकी परिणिति पैसा या हत्या दोनों हो सकती है। जो राजनेता पैसा देकर अपनी जान बचा लेते हैं, वे उनसे बेहतर स्थिति में होते हैं जो पैसा भी नहीं देते और अपने प्रेमी या प्रेमिका की हत्या करवाकर लाश गायब करवा देते हैं। इस तरह वे अपनी बरबादी का खुद इंतजाम कर लेते हैं।

मानव की इस प्रवृत्ति पर कोई कानून रोक नहीं लगा सकता। आप कानून बनाकर लोगों के आचरण को नियन्त्रित नहीं कर सकते। यह तो हर व्यक्ति की अपनी समझ और जीवन मूल्यों से ही निर्धारित होता है। अगर यह माना जाए कि मध्य युग के राजाओं की तरह राजनीति के समर में लगातार जूझने वाले राजनेताओं को बहुपत्नी या बहुपति जैसे सम्बन्धों की छूट होनी चाहिए तो इस विषय में बकायदा कोई व्यवस्था की जानी चाहिए। ताकि जो बिना किसी बाहरी दबाव के, स्वेच्छा से, ऐसा स्वतंत्र जीवन जीना चाहते हैं, उन्हें ऐसा जीने का हक मिले। पर यह सवाल इतना विवादास्पद है कि इस पर दो लोगों की एक राय होना सरल नहीं। इसलिए देश, काल और वातावरण के अनुसार व्यक्ति को व्यवहार करना चाहिए, ताकि वह भी न डूबे और समाज भी उद्वेलित न हो।

Sunday, November 6, 2011

ज़िम्मेदार बने देश का मीडिया

Rajasthan Patrika 6Nov2011
प्रेस काउंसिल ऑफ इण्डिया के नये बने अध्यक्ष न्यायमूर्ति मार्कण्डेय काटजू के ताजा बयानों ने मीडिया जगत में हलचल मचा दी है। उनके तीखे हमलों से बौखलाए मीडियाकर्मी न्यायमूर्ति काटजू के विरूद्ध लामबंद हो रहे हैं। जरूरत श्री काटजू के बयान के निष्पक्ष मूल्यांकन की है। क्योंकि धुंआ वहीं उठता है, जहाँ आग होती है।

श्री काटजू का कहना है कि, ‘टी.वी. मीडिया क्रिकेट और फिल्म सितारों पर ज्यादा फोकस रखकर बुनियादी सवालों से जनता का ध्यान हटा रहा है। देश की समस्या गरीबी, महंगाई, बेरोजगारी और भ्रष्टाचार है। जिन पर मीडिया नाकाफी ध्यान देता है।’ श्री काटजू के इस आरोप में काफी दम है। आम दर्शक भी यह महसूस करने लगा है कि टी.वी. मीडिया गंभीर पत्रकारिता नहीं कर रहा है। पर यहाँ समस्या इस बात की है कि जो लोग गरीबी की मार झेल रहे हैं, वे टी.वी. नहीं देखते। जो टी.वी. देखते हैं, उनकी इन सवालों में रूचि नहीं है। टी.वी. मीडिया महंगा माध्यम है। इसको चलाने के लिए जो रकम चाहिए, वह विज्ञापन से आती है। विज्ञापन देने वाले उन्हीं कार्यक्रमों के लिए विज्ञापन देते हैं, जो मनोरंजक हों और लोकप्रिय हों। इसलिए धीरे-धीरे टी.वी. मीडिया पूरी तरह विज्ञापन दाताओं के शिकंजे में चला गया है। जो थोड़ी बहुत चर्चाऐं गंभीर मुद्दों पर की जाती हैं, उनकी प्रस्तुति का तरीका भी सूचनाप्रद कम और मनोरंजक ज्यादा होता है। इनमें शोर-शराबा और नौंक-झौंक ज्यादा होती है। इसलिए गंभीर लोग टी.वी. देखना पसन्द नहीं करते।

श्री काटजू का आरोप है कि टी.वी. मीडिया ज्योतिष और अंधविश्वास दिखाकर लोगों को दकियानूसी बना रहा है। जबकि भविष्य के परिवर्तन के लिए उसे तार्किक व वैज्ञानिक सोच को विस्तार देना चाहिए। ताकि समाज भविष्य के बदलाव के लिए तैयार हो सके। श्री काटजू का यह आरोप भी बेबुनियाद नहीं है। सूर्य और चन्द्र ग्रहण कब-से पड़ रहे हैं, पर टी.वी. मीडिया को देखिए तो लगता है कि हर ग्रहण एक प्रलय लेकर आने वाला है। जबकि होता कुछ भी नहीं। आश्चर्य की बात है कि टी.वी. मीडिया के आत्मानुशासन के लिए बनी ‘न्यूज ब्राॅडकास्टिंग स्टैण्डडर््स आॅथोरिटी’ टेलीविजन के इस गिरते स्तर को रोक पाने में नाकाम रही है। इस कमेटी के अध्यक्ष जस्टिस जे.एस. वर्मा हैं।

श्री काटजू का आरोप है कि, ‘मीडियाकर्मी राजनीति, कानून, इतिहास, दर्शन, अन्र्तराष्ट्रीय सम्बन्ध जैसे गंभीर विषयों पर बिना जाने और बिना शोध किए रिपोर्ट लिख देते हैं। जिससे उनका हल्कापन नजर आता है।’ उनकी सलाह है कि पत्रकारों को गंभीर अध्ययन करना चाहिए। श्री काटजू को इस बात से भी शिकायत है कि मीडिया बम विस्फोट की खबरों को इस तरह से प्रकाशित करता है कि मानो हर मुसलमान आतंकवादी है। उनका मानना है कि हर धर्म में ज्यादा प्रतिशत अच्छे लोगों का है। इस तरह की रिपोर्टिंग से समाज में विघटन पैदा हो जाएगा। जबकि हमें समाज को जोड़ने का माहौल बनाना चाहिए। जस्टिस काटजू को इस बात से भी नाराजगी है कि मीडिया वाले बिना पूरी तहकीकात किए ही किसी भी प्रतिष्ठित व्यक्ति को जरा देर में ध्वस्त कर देते हैं। जिससे समाज का बड़ा अहित हो रहा है। उनका मानना है कि उच्च पदों पर आसीन भ्रष्ट लोगों के खिलाफ, चाहें वे न्यायाधीश ही क्यों न हों, मीडिया को लिखने का हक है, पर ईमानदार लोगों को नाहक बदनाम नहीं करना चाहिए। श्री काटजू चाहते हैं कि प्रिंट और टेलीविजन, दोनों माध्यमों को ‘प्रेस काउंसिल ऑफ इण्डिया’ के आधीन कर देना चाहिए और इसका नाम बदलकर ‘मीडिया काउंसिल ऑफ इण्डिया’ कर देना चाहिए। वे चाहते हैं कि उन्हें मीडिया को नियन्त्रित करने और सजा देने का अधिकार भी मिले।

उपरोक्त सभी मुद्दे कुछ हद तक सही हैं और कुछ हद तक विवादास्पद। विज्ञापन लेने की कितनी भी मजबूरी क्यों न हो, कार्यक्रमों और समाचारों का स्तर गंभीर बनाने की कोशिश होनी चाहिए। अन्यथा धीरे-धीरे टी.वी. मीडिया केवल सनसनी फैलाने का माध्यम बनकर रह जाऐगा। श्री काटजू को मीडिया के खिलाफ कड़े कानून बनाने का हक तो नहीं मिलना चाहिए, पर ऐसी व्यवस्था जरूर बननी चाहिए कि गैर जिम्मेदाराना पत्रकारिता करने वाले अखबारों, चैनलों और पत्रकारों को सही रास्ते पर लाया जा सके। प्रेस की आजादी के नाम पर मीडिया का एक वर्ग अपनी कारगुजारियों से पूरे मीडिया को बदनाम कर रहा है। मीडिया के लोग खबरों और मुद्दों को उठाने में पूरी पारदर्शिता नहीं बरतते और विशेष कारणों से किसी मुदद् को जरूरत से ज्यादा उछाल देते हैं और वहीं दूसरे मुद्दे को पूरी तरह दबा देते हैं, जबकि समाज के हित में दोनों का महत्व बराबर होता है।

इस सबके साथ यह भी कहने में काई संकोच नहीं होना चाहिए कि न्यायपालिका के सदस्य समाज के हर वर्ग पर तीखी टिप्पणी करने में संकोच नहीं करते। जबकि न्यायपालिका में व्याप्त भारी भ्रष्टाचार के खिलाफ उनके कोई कदम नहीं उठ रहे। जस्टिस काटजू अगर मीडिया के साथ ही न्यायपालिका को भी इसी तेवर से लताड़ें तो उनकी बात अधिक गंभीरता से ली जाऐगी। ‘अदालत की अवमानना कानून’ का दुरूपयोग करके न्यायाधीश पत्रकारों का मुंह बन्द कर देते हैं। जबकि अगर किसी पत्रकार के पास न्यायाधीश के दुराचरण ठोस परिणाम हों, तो उन्हें प्रकाशित करना ‘अदालत की अवमानना’ कैसे माना जा सकता है? प्रेस काउंसिल के अध्यक्ष के नाते व पूर्व न्यायाधीश होने के नाते श्री काटजू का फर्ज है कि वे ‘अदालत की अवमानना कानून’ में वांछित संशोधन करवाने की मुहिम भी चलवाऐं।