भाभा परमाणु अनुसंधान केंद्र, मुंबई का युवा वैज्ञानिक पृथविश पूछता है कि वो सेन आत्म हत्या क्यों न करे ? उसके जीने का क्या मकसद है जब उसे अपनी मातृभूमि की सेवा करने के जुर्म में फुटपाथ पर लाकर पटक दिया गया है। मुंबई और दिल्ली के सभी बड़े अंग्रेजी अखबार उसकी दर्दनाक कहानी कई बार छाप चुके हैं। इंका नेता श्री प्रियरंजनदास मुंशी व सीपीएम नेता श्री सोमनाथ चटर्जी सरीखे कई वरिष्ठ सांसद उसके साथ हुए अत्याचार पर संसद में गरज चुके हैं। देश की सर्वोच्च अदालत के दरवाजे भी वह खटखटा चुका है। फिर भी उसे न्याय नहीं मिला। उसका दोष सिर्फ इतना है कि उसने भाभा परमाणु अनुसंधान केंद्र, मंुबई के अपने साथी और कुछ वरिष्ठ वैज्ञानिकों के भ्रष्टाचार, दुराचरण, निकम्मेपन और सरकारी पैसे की बर्बादी के खिलाफ आवाज उठाई थी। नतीजा, उसके अनुसार, पहले तो उसको प्रशासनिक स्तर पर डराया-धमकाया गया। फिर उस पर झूठे आरोप लगा कर उसकी नौकरी ले ली गई। जब वह अदालत की शरण में गया तो उसके सरकारी आवास पर गुंडे भेज कर उसे पिटवाया गया। जिसकी रिपोर्ट मुंबई के सभी प्रमुख अखबारों में छपी है बड़े वैज्ञानिकों के भेजे इन गुंडों का इतना आतंक व्याप्त है कि सेन के अड़ौस-पड़ौस के सरकारी घरों में रहने वाले भाभा परमाणु अनुसंधान केंद्र के दूसरे वैज्ञानिक भी कुछ बोलने से डरते हैं। वे नाम न छापने की शर्त पर इस बात की पुष्टि करते हैं कि पृथविश सेन को उसकी सच्चाई और ईमानदारी की एवज में लगातार प्रताडि़त किया जा रहा है। पश्चिमी बंगाल के वर्धमान जिले में उसकी विधवा मां को धमकी दी जा रही है- ‘अपने बेटे से कहो कि वह भाभा परमाणु अनुसंधान केंद्र, मुंबई के वैज्ञानिकों के विरूद्ध दर्ज शिकायतें वापस ले ले वरना उसकी हत्या कर दी जाएगी।’ इतने भारी अन्याय के बावजूद 33 वर्षीय सेन समझौता करने को तैयार नहीं हैं। इस धर्मयुद्ध में उसका सब कुछ तबाह हो गया। घर की मेज-कुर्सी, बर्तन-भांडे यहां तक कि विज्ञान की अपनी महंगी पुस्तकें तक बेच देनी पड़ी। आज वह दिल्ली के फुटपाथों पर सोता है। गुरूद्वारे के लंगर में रोटी खाता है। दिल्ली के बाजारों में दुकानदारों के कंप्युटर पर उनका कुछ काम करके 20-30 रूपए रोजाना जेब खर्च के लिए कमा लेता है। इतना ही कि डीटीसी की बसों का भाड़ा दे सके। ऐसा नहीं है कि उसके मित्र उसे दिल्ली या मुंबई में आश्रय, आर्थिक मदद या नौकरी दिलवाने को तैयार नहीं हैं। पर वह किसी की खैरात नहीं लेना चाहता। भगवान में उसकी आस्था नहीं है, पर सत्य में है। उसकी जिद है कि वह यह लड़ाई अधूरी छोड़कर नहीं भागेगा। इसलिए वह दिल्ली में राजनेताओं और पत्रकारों के दरवाजों पर दस्तक देता है। पर कहीं से भी अब आशा की कोई किरण दिखाई नहीं देती। वह पूछता है कि मैं और क्या कर सकता हूं ? मेरी मां मुझे यही खत भेजती है कि- -बेटा तुम सच की लड़ाई से मुंह मत मोड़ना,’ पर उस बेचारी को नहीं पता कि उसका बेटा कि हालातों में यह लड़ाई लड़ रहा है। पृथविश सेन बड़ी सरलता से एक हिला देने वाला प्रश्न पूछता है- आत्म हत्या के सिवाए मेरे पास और विकल्प ही क्या है ? मैं उसे समझाने की कोशिश करता हूं। तीन विकल्प सुझाता हूं। भाभा परमाणु अनुसंधान केंद्र, मंुबई से इस्तीफा दे और कहीं दूसरी जगह नौकरी कर लो। दूसरा विकल्प यह है कि सेन नक्सलवादी आंदोलन में शामिल हो जाए और बंदूक उठा ले। तीसरा विकल्प यह है कि वह उन संगठनों के साथ जुड़ जाए जो देश की आम जनता के हक के लिए अलग-अलग किस्म के मोर्चे बना कर लड़ते रहते हैं। हो सकता है कि ये समूह पृथविश का मुद्दा न उठा पाएं पर इतना तो जरूर है कि वे पृथविश के दिल में धधक रही ज्वाला को किसी दूसरे रचनात्मक काम में लगा सकते हैं। पर सेन इनमें से किसी विकल्प को मानने को तैयार नहीं है। वह फिर बुनियादी सवाल करता है। जब भाभा परमाणु अनुसंधान केंद्र प्रधानमंत्री के सीधे अधीन है तो श्री अटल बिहारी वाजपेयी उसके आरोपों की फौरी जांच क्यों नहीं करवाते ? सेन जो बताता है वह बहुत खौफनाक बात है। खासकर पर्यावरणवादियों के तो कान खड़े् हो जाएंगे। सेन बताता है कि भाभा परमाणु अनुसंधान केंद्र, मुंबई की कुछ प्रयोगशालाओं से आणविक कचरा सीधे समुद्र में या हवा में फेका जा रहा है। जिस कारण तट पर रहने वाले गरीब लोगों के स्वास्थ पर बहुत ही बुरा असर पड़ रहा है। पर किसी ने उसकी शिकायत पर तबज्जों नहीं दी। उसे यह देखकर भारी दुख हुआ कि भाभा परमाणु अनुसंधान केंद्र के तमाम बड़े वैज्ञानिक शोध के नाम पर सरकार पैसा बर्बाद कर रहे हैं और देश-विदेश में गुलछर्रे उड़ा रहे हैं। चूंकि यह विभाग गोपनीय श्रेणी में आता है अतः इसकी कारगुजारियों की खबर देश की जनता तक नहीं पहुंच पाती। पर जब पृथविश जैसा कोई युवा वैज्ञानिक सरकार को सरकारी प्रयोशालाओं में हो रहे भ्रष्टाचार की शिकायत करने का जोखिम उठाता है तो भी सरकार जागती क्यों नहीं ? वह पूछता है कि क्या वैज्ञानिकों का भी कोई माफिया होता है जो सच्चे और समर्पित युवा वैज्ञानिकों को रौंद कर आगे बढ़ता है? शोहरत, पद और एवार्ड हासिल करता है, हर गलत धंधे में शामिल होता है फिर भी पकड़ा नहीं जाता।
सेन यह भी सवाल करता है कि अगर किसी वैज्ञानिक की आत्मा देशद्रोह के ऐसे अनैतिक काम करने को तैयार न हो तो उसके लिए क्या विकल्प है ? वह पूछता है कि यह कैसे संभव है कि संसद में सवाल उठाने के बावजूद उसकी शिकायत पर ध्यान नहीं दिया गया ? हमारे लोकतंत्र में क्या संसद से भी बड़ा कोई मंच है जहां इस देश के आम आदमी को उसका हक मिल सके ? वह पूछता है कि अगर देश की न्याय व्यवस्था के बावजूद लोगों को न्याय न मिले तो वे कहां जाएं ? क्या ऐसे लोगों के लिए यही तीन रास्तें हैं या तो वे लड़ाई छोड़ दें या बंदूक उठा लें या फिर आत्म हत्या कर लें। सेन का कहना है कि पिछले कुछ वर्षों में उसने भ्रष्ट व्यवस्था की जो मार सही है उससे यह बखूबी समझ में आ गया है कि आए दिन युवा वैज्ञानिक आत्महत्या क्यों करते रहते हैं।
सेन की कहानी बहुत दर्दनाक है। पर ये अकेली कहानी नहीं है। देश में अनेक विभागों में ऐसे लोग हैं जो अपनी साफ गोई और बेबाक बयानी की एवज में लगातार मार खाते रहते हैं। फिर भी न तो झुकते हैं, न बिकते हैं और न चुप ही बैठ पाते हैं। समाज की पीड़ा देख कर उनके मन में अपने हालात से पलायन करने की बात नहीं आती। वे युद्ध क्षेत्र में डटे रहते हैं। बिना इसकी परवाह किए कि जीत किसकी होगी ? सत्य के लिए युद्ध लड़ने में जो आनंद उन्हें प्राप्त होता है वह किसी फल की प्राप्ति मंे भी नहीं होता। पर दुर्भाग्य से समाज के हर क्षेत्र में ऐसे लोगों की संख्या न सिर्फ तेजी से घटती जा रही है बल्कि बुरी बात यह है कि अब सच्चाई, ईमानदारी और देशभक्ति को किसी व्यक्ति का आभूषण नहीं बल्कि उसके अव्यवहारिक होने का परिचायक माना जाता है। आपने कितना ही बड़ा घोटाला क्या न किया हो, पर एक बार जब आप सार्वजनिक मंच पर अपनी दुकान जमा लेते हैं तो कोई आपसे यह नहीं पूछता कि आपके पास इतने साधन कहां से आए। फिर तो देश के हर ज्वलंत मुद्दे पर ऐसे ही रंगे सियारों के ‘उच्च विचार’ सुने जाते हैं और मीडिया पर प्रसारित किए जाते हैं। इलेक्ट्रानिक मीडिया के प्रसार ने स्थिति को और भी भयावह बना दिया है। अब हर मुद्दे पर विचार व्यक्त करने वही पचास-साठ चेहरे घूम-घूम कर सामने आते रहते हैं। वे जो कहते हैं वहीं देश की नीयति मानी जाती है। मानो सौ करोड लोगों का प्रारब्ध इन चंद लोगों की मुट्ठी में कैद हो। जनता तो बेचारी मूर्ख बनने के लिए है ही। सिनेमा के पर्दें पर मरियल सा हीरो भी बीस-मुसटंडों की अकेले ही धज्जियां उड़ाता है तो जनता खुशी से सीटी और ताली बजाती है और उस हीरो की मुरीद बन जाती है। इसी तरह लफ्फाजी करने वालों की भी छवि बनाई जाती है। इनकी असलियत को जब पृथविश सेन जैसा कोई पत्रकार देश के सामने लाने की कोशिश करता है तो उसे सनकी, अव्यवहारिक, व्यवस्था विरोधी या विध्वंसक बता कर बदनाम किया जाता हैै। उसके रास्ते बंद करने की कोशिश की जाती है। अगर वह फिर भी हिम्मत नहीं हारता तो सत्ताधीशों के बीच हड़कंप मच जाता है। ऐसी परिस्थिति में हुक्मरान अपने तथाकथित मतभेद भुला कर एकजुट हो जाते हैं और जनता द्वारा अपनी जांच की सभी संभावनाओं को रोकने में पूरी ताकत झोंक देते हैं। फिर भी सच दब नहीं पाता। कभी न कभी वह लावे की तरह फूट पड़ता है और तब वे सारे माफिया, देशद्रोही और दुराचारी एक झटके में बेनकाब हो जाते है। पृथविश सेन जैसे जुझारू युवा वैज्ञानिकों और दूसरे क्षेत्रों में काम कर रहे ऐसे ही दूसरे लोगों को एक दूसरे की मदद करनी चाहिए। हिम्मत और साधन देना चाहिए। ताकि वह झुके नहीं, टूटे नहीं, आत्म हत्या करने को मजबूर न हो। बल्कि अपने अनुभव, जानकारी और ऊर्जा को समाज में बांटे ताकि उसकी नैतिक ज्योति से समाज में करोड़ों नए दीपक प्रज्जवलित हों और भारत भूमि पर बढ़ते आ रहे अंधकार के बादलों को छांटने में सक्षम हो सकें। शायद यही प्रथविश सेन के सवालों का जवाब है।
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