विहिप का श्रीराम मंदिर आंदोलन और गुजरात के दंगे, इन दो मुद्दों पर अटकी है फिलहाल देश की राजनीति। राजनीतिज्ञ ही नहीं अपने को बुद्धिजीवी मानने वाले भी खेमों में बंट गए हैं। जिसको जिस खेमे से फायदा मिलता है वह वैसी ही बोली बोल रहा है। समस्याओं के हल के लिए वैसे ही समाधान सुझा रहा है। दोनों ही खेमों की कोशिश या तो इस स्थिति से राजनैतिक लाभ कमाने की है या अपने राजनैतिक आकाओं से कुछ खैरात बटोरने की। समस्या के सही और ईमानदार हल में किसी की रूचि नहीं। होती तो हल कब का निकल जाता। पर राजनीति समस्याओं के हल खोजने के लिए नहीं की जाती, समस्याएं पैदा करके उलझाने के लिए की जाती हैं। ताकि फिर उसे सुलझाने की राजनीति चलती रहे। बयान दिए जाएं। टेलीविजन के पर्दे पर समस्या की गंभीरता पर उत्तेजित होने का नाटक कर अपनी संजीदगी का इश्तहार लगाया जाए। धर्मनिरपेक्षता या धर्म की रक्षा के नाम पर सेमिनार किए जाएं। फिल्में और टीवी शो बनाने के ठेके लिए जाएं। यह सब भी तभी तक जब तक आम लोगों के बीच उत्तेजना फैली है।
सब कुछ शांत होते ही सत्ताधीशों और कुलीन कहे जाने वाले लोगों के ‘सोशल सर्किल’ में फिर जाम छलकने लगते हैं। भड़काऊ वस्त्रों और जेवरों की नुमाइश लगने लगती है। अर्धनग्न महिलाओं के गलबहियां डाले आत्मघोषित बुद्धिजीवी भी अपने बड़े और ‘ग्लैमरस’ होने के गुमान में मगन हो जाते हैं। फिर सब भूल जाते हैं उन सवालों को जिन पर कल तक ये उत्तेजित होने का नाटक कर रहे थे। दरअसल इनकी उत्तेजना सिर्फ नाटक ही नहीं होती। उसका कुछ वास्तविक आधार भी होता है। अपने राजनैतिक संपर्कों का फायदा उठाकर मोटी कमाई में खेलने वाले लोग सामाजिक हिंसा या जनआक्रोश के विस्फोट से भयाक्रांत हो जाते हैं। उन्हें लगता है कि अगर ये आग यूं ही फैलती गई तो उनकी दुकानदारी फिर कैसे चल पाएगी। इसलिए वे ऐसे सुझाव देते हैं जिनसे फिलहाल बला टल जाए। अयोध्या के मामले पर भी ऐसा ही हो रहा है। शांति स्थापना के लिए अयोध्या मसले को दो वर्ष के लिए टालने की सलाह दी जा रही है। पर सोचने वाली बात है कि इस बेसिरपैर के सुझाव से क्या कोई हल निकल सकता है? ये तो वही बात हुई कि बिल्ली को आता देख कबूतर से कहो कि आंख बंद कर ले।
इसमें शक नहीं कि विहिप ने पिछले कुछ महीनों से श्रीराम मंदिर निर्माण का जो आंदोलन फिर से खड़ा करने की कोशिश की उसके पीछे छिपा एजेंडा भाजपा का वोट बैंक बढ़ाना था। यही कारण है कि इस कार्यक्रम की रूपरेखा विधानसभा के चुनावों के साथ तालमेल बैठाते हुए रखी गई। ऐसा कहने का पर्याप्त आधार है। क्योंकि इससे पहले भी जब-जब चुनाव आए तब-तब ही विहिप ने श्रीराम मंदिर का मुद्दा उठाया। चुनाव समाप्त होते ही मंदिर का यह बुखार बड़ी होशियारी से उतार दिया गया। जनता ये बात अच्छी तरह समझ चुकी है। इसलिए इस बार विहिप और भाजपा की यह साझी रणनीति नाकाम रही। भाजपा को चुनावों में मुंह की खानी पड़ी। ऐसे में विहिप अपने ही चक्रव्यूह में फंस गई। अगर वह श्रीराम मंदिर के मुद्दे पर अड़ी रहती है तो भाजपा की गुजरात और केंद्र में रही-सही गद्दी भी छिन जाएगी और अगर इस मुद्दों को छोड़ देती है तो भाजपा का रहा-सहा वोट बैंक भी निबट लेगा। इसलिए विहिप, संघ और भाजपा के लिए फिलहाल यह मुद्दा न उगलते बन रहा है और न निगलते बन रहा है। पर अंततोगत्वा भगवान् श्रीराम की भक्ति से ज्यादा कुर्सी का मोह उन्हें इस आंदोलन को ठंडा करने को मजबूर कर देगा। यह सोचकर कि ये मुद्दा तो भविष्य में फिर कभी जिंदा किया जा सकता है विहिप कोई न कोई रास्ता ढूंढकर बच निकलेगी। यह बड़े दुख की बात है कि श्री लाल कृष्ण आडवाणी की रामरथ यात्रा से हिंदू स्वाभिमान की जो जागृति दुनिया भर के हिंदुओं के बीच हुई थी उसे धर्म और संस्कृति की रक्षा में किसी रचनात्मक दिशा के की ओर मोड़ा नहीं गया। जिस तरह लोकनायक जय प्रकाश नारायण के प्रयासों से पूरे देश में जनजागरण के बावजूद सारा प्रयास जनता पार्टी के निर्माण के साथ ही ध्वस्त हो गया। उसी प्रकार अयोध्या मंदिर से उठा हिंदू नवजागरण का उफान भाजपा की केंद्र में सरकार बनते ही ठंडा कर दिया गया। लोगों में यह संदेश गया कि भाजपा ने कुर्सी के लिए लोगों की धार्मिक आस्थाओं का दुरूपयोग किया। यदि विहिप वास्तव में हिंदू धर्म के उत्थान की उत्प्रेरक बनना ही चाहती है तो उसे सत्ता की राजनीति से स्वयं को तुरंत अलग करना होगा। अपने नेतृत्व में नई उर्जा और नए रक्त का संचार करना होगा। उसे हेडगेवार जी का यह उद्घोष याद रखना होगा कि व्यक्ति से संगठन बड़ा है और संगठन से राष्ट्र। उसे यह भी याद रखना होगा कि हमारे शास्त्रों में धर्म को अर्थ, काम और मोक्ष का आधार माना गया है। दुर्भाग्यवश धर्म की सेवा का व्रत लेने वाली विहिप ने अर्थ यानी राजनीति को धर्म का आधार मान लिया है। इसीलिए वह अपने कार्यक्रमों में लगातार विफल होती जा रही है और अपना जनाधार खोती जा रही है।
जहां तक बात अयोध्या की है तो यह बड़ा हास्यादपद है कि बड़े-बड़े संपादक टीवी पर आकर सुझाव देते हैं कि अयोध्या मसले को दो वर्ष के लिए टाल दिया जाए। दो वर्ष बाद क्या हालात बदल जाएंगे ? जो सवाल पिछली कई दशाब्दियों से भारतीय समाज को उद्वेलित करता रहा है। जिसके कारण बार-बार हिंसा में जान-माल की हानि होती रही है, उस सवाल को टालने से तनाव और विद्वेष बना ही रहेगा। आवश्यकता उसके फौरी हल की है। सर्वोच्च अदालत से यह उम्मीद की जानी चाहिए कि मामले की नाजुकता को देखते हुए वह प्रतिदिन इस मामले की सुनवाई करके अपना फैसला जल्दी से जल्दी सुना दे। सब जानते हैं कि अदालती फैसले के बाद भी बात सुलझने वाली नहीं है। हारने वाला पक्ष फिर चुप नहीं बैठेगा। इस समस्या का हल दोनों संप्रदायों के समझदार और धर्मप्रेमी लोग बैठकर ही सुलझा सकते हैं। धर्मनिरपेक्षता का चोला पहनने वालों की सलाह हिंदुओं को स्वीकार्य नहीं होगी। क्योंकि उनकी धर्मनिरपेक्षता में मुस्लिम तुष्टिकरण छिपा है। दोनों पक्षों की तरफ से धर्म की राजनीति करने वाले भी इसका हल नहीं निकाल पाएंगे, क्योंकि तब सांप्रदायिकता की उनकी ही दुकान बंद हो जाएगी। इसका हल केवल रूहानी लोग निकाल सकते हैं, आध्यात्मिक लोग निकाल सकते हैं। जिनके दिल की लौ उस परवरदिगार से जुड़ी है जो खुद तकलीफ उठा कर दूसरे को सुकून देने की हिदायत देता है। मुसलमानों को यह समझना होगा कि भगवान् श्रीराम, श्रीकष्ष्ण व भोलेशंकर से जुड़े अयोध्या, मथुरा और काशी में जब तक मस्जिदें खड़ी रहेंगी तब तक हिंदुओं के मन में नासूर की तरह चुभती रहेंगी, क्यांेंकि ये तीनों स्थान हिंदू समाज की आस्था के शिखर हैं। क्या कोई भी मुसलमान काबे शरीफ के प्रांगण में किसी हिंदू मंदिर की इमारत को बर्दाश्त कर सकता हैं ? इसलिए उन्हें अगर वास्तव में ये मुल्क और इसमें अमन-चैन प्यारा है तो इन तीन स्थानों पर से मस्जिदें बाइज्जत दूसरी जगह ले जाने की पहल करनी होगी। ऐसा तमाम मुस्लिम मुल्कों में भी हुआ है। यह सच है कि देश में सैकड़ों मंदिरों को तोड़कर मस्जिदें बनाई गई हैं। पर इस तरह गड़े मुर्दे उखाड़ कर देश तरक्की नहीं कर सकता। इसलिए हिंदू संगठनों को भी इस बात पर तसल्ली करनी होगी कि अयोध्या, मथुरा और काशी के बाद और किसी भी मस्जिद को हटाने की बात वे सोचेंगे भी नहीं। जिन्हें हिंदुओं की धार्मिक भावनाओं की राजनीति करनी है वे इस पर कभी राजी नहीं होंगे। पर जिन्हें मुल्क और आवाम की चिंता है वे इससे इत्तफाक रखेंगे। इस वक्त राजनीति में एक ताकतवर महिला ऐसी हैं जो जाति और धर्म के बंधनों से मुक्त रहकर भी पूरी तरह भारतीय बन चुकी हैं। देश के सबसे ताकतवर राजनैतिक दल इंका की नेता होने के नाते श्रीमती सोनिया गांधी को ही इस पहल के लिए सामने आना चाहिए। साथ ही उन्हें यह भी घोषणा करनी चाहिए कि उनका दल ईमानदारी से जातिवाद और सांप्रदायिकता के खिलाफ कठोर कदम उठाएगा। समान नागरिक संहिता लागू करना ऐसा ही एक कदम होगा। यदि वे ऐसा करती हैं तो जातिवादी और सांप्रदायिक दलों की दलदल में फंसा बहुसंख्यक हिंदू समाज का वोट तो इंका की तरफ लौट ही आएगा, अमन-चैन और तरक्की चाहने वाले मुसलमान भी इंका की रहनुमाई में खुद को सुरक्षित महसूस करेंगे।
रही बात गुजरात की तो इसमें शक नहीं कि वहां हुए दंगे रोके जा सकते थे। आश्चर्य की बात यह है कि अपने सत्ता के पूरे कार्यकाल में भाजपा ने कहीं दंगे नहीं होने दिए। क्या वजह है कि जब उसका वोट बैंक हाथों से फिसला जा रहा है तभी उसके राज्य में दंगे भड़के ? पर इसके साथ ही इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता कि गोदरा के नृशंस हत्या कांड पर धर्मनिरपेक्षवादियों की प्रतिक्रिया असामान्य रूप से ठंडी और बेदम थी। जिससे बहुसंख्यकों का दुखी और क्रोधित होना स्वाभाविक है। मानवीय संवेदनाओं को इस तरह अगर राजनैतिक लाभ-हानी से जोड़कर व्यक्त किया जाएगा तो दो दर्जन नहीं, चार दर्जन राजनैतिक दलों को सरकार चलाने पर मजबूर होना पड़ेगा। क्योंकि जनता किसी पर विश्वास नहीं करेगी। अयोध्या और सांप्रदायिकता के सवालों पर अब राजनीति बंद होनी चाहिए। अगर हम निरीह लोगों की ऐसी नृशंस हत्याएं भविष्य में वाकई रोकना चाहते है तो इन समस्याओं के ईमानदाराना हल खोजना हमारी प्राथमिकता होनी चाहिए। उन्हे टालने से काम नहीं चलेगा।
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