Sunday, June 13, 2010

क्या टीवी समाचारों पर सेंसर हो

पिछले दिनों अजमल कसाब को जब फांसी की सजा सुनाई गई तो देश के टीवी चैनलों पर रिपोर्टिंग देखकर सिर धुनने को मन करा। रिपोर्टर दौड़ दौड़ कर ओबी वैन के सामने आकर कचहरी के कमरे की खबर ऐसे दे रहे थे मानों कोई बहुत गहरी और गोपनीय जानकारी निकाल लाए हों। ऐंकर पर्सन भी उसी उत्तेजना में ऐसे बोल रहे थे मानों भारत की पाकिस्तान के विरुद्ध युद्ध में विजय हो गई हो। कसाब के कृत्य, उसके विरुद्ध मौजूदा सबूत और गवाहों के बयान आने के बाद इससे इतर और क्या फैसला अदालत दे सकती थी फिर इतनी उत्तेजना और हड़बड़ी किस बात की। 

क्या आपको नहीं लगता कि आज टीवी चैनलों पर जो समाचार दिखाए जा रहे हैं उनपर सेंसर लगाया जाए। बीस बरस पहले सन 1990 में दिल्ली हाई कोर्ट में मैंने वीडियो समाचारों पर सेंसर के विरुद्ध एक जनहित याचिका दायर की थी। तब देश में टीवी चैनल नहीं आए थे। कालचक्र वीडियो की मार्फत मैंने देश में पहली बार हिन्दी टीवी पत्रकारिता की शुरुआत की थी। जितनी पैनी और खोजी टीवी रिपोर्ट इस वीडियो में तब दिखाई गई थी उनसे घबराकर सरकार ने वीडियो समाचारों पर सेंसर लगा दिया। इसके विरूद्ध हमने एक लंबी लड़ाई लड़ी। बाद में टीवी चैनल आ गए। इसी बीच प्रसार भारती का भी गठन हुआ। बीजी वर्गीज समिति की रिपोर्ट आई। कुल मिलाकर, टीवी समाचारों की स्वतंत्रता सुनिश्चित हो गई। टीवी दर्शकों और देश के जागरूक नागरिकों ने राहत की सांस ली। फिर तो समाचार चैनलों की बाढ़ सी आ गई।

आज जितने समाचार चैनल हैं कि आम दर्शक को उनके नाम तक याद नहीं हैं। ज्यादातर चैनलों को विज्ञापन नहीं मिल रहे या इतने कम मिल रहे हैं कि वे घाटे में चल रहे हैं। कोई घाटे में टीवी चैनल भला क्यों चलाएगा? जाहिर है इससे कुछ दूसरे हित साधे जा रहे हैं। नतीजतन खबरों की जगह कचरा परोसा जा रहा है। चाहे वो लोगों की निजी जिन्दगी में ताकझांक हो या अश्लीलता की नुमाईश। इन समाचार चैनलों में न तो विषय के प्रति गंभीरता दिखाई देती है न चैनल की कोई संपादकीय नीति समझ में आती है। दिशाहीन और आत्मविमोहित एंकर पर्सन और रिपोर्टर बौराए से दीखते हैं। बहुतों की तो प्रस्तुति देखकर उन्हें एक थप्पड़ जड़ने का जी होता है। इनमें कई नामी चेहरे भी हैं जिन्हें सवाल पूछने तक की तमीज नहीं है। जिन गिने चुने चेहरों ने विज्ञापनों के माध्यम से खुद को देश का सर्वश्रेष्ठ टीवी ऐंकर स्थापित किया था उनके नाम बड़ी बड़ी दलालियों में आने के बाद वे भी अपनी चमक खो चुके हैं। ऐसे में दर्शक परेशान हैं कि समाचार के नाम पर उसके साथ कैसा मजाक किया जा रहा है।     

टीवी चैनलों पर आने वाले विभिन्न कार्यक्रमों के बारे में अलग-अलग लोगों की राय अलग-अलग हो सकती है और भिन्न लोग भिन्न कार्यक्रमों को पसंद करते हैं। पहले का बुद्धु बक्सा जब एक साथ कई तरह के कार्यक्रम दिखा सकने वाले मनोरंजन यंत्र में बदल रहा था तो इसका विरोध भी किया गया था और यह आशंका जताई गई थी कि विदेशी कार्यक्रमों से देश की संस्कृति खराब होगी। अब इतने समय बाद कहा जा सकता है कि बाजार रूपी इस विशाल देश ने चैनलों को भारतीय रंग में रंगने के लिए मजबूर कर दिया । कुछेक चैनलों ने अपने कार्यक्रमों का भारतीयकरण भले ही नहीं किया हो और आप चाहे उन्हें अच्छा न मानें पर यह तो सत्य है कि भारतीय बाजार में बने रहने के लिए उन्हें भारतीय भाषाओं को अपनाना पड़ा है।

पर जहां तक खबरों का सवाल है, खबरों का मतलब ही बदल गया है और आज की स्थिति में मैं मानने लगा हूं कि टेलीविजन समाचारों पर नियंत्रण जरूरी है। खबरों को फूहड़ और बिकाऊ बनाने के लिए टीआरपी को बहाना बनाया जाता है और खबरों के नाम पर ज्यादातर चैनल जो कुछ परोस रहे हैं उसे झेलना बेहद मुश्किल हो गया है। एक समय था जब रात में सिर्फ एक बार नौ बजे खबरें प्रसारित होती थीं। पहले रेडियो पर और फिर टीवी पर। उस समय खबरें सुनने या जानने में जो दिलचस्पी होती थी वह क्या अब किसी में रह गई है। तब खबरें नई होती थीं वाकई खबर होती थीं। पर अब दिन भर चलने वाली खबरों को जानने के लिए वो उत्सुकता नहीं रहती है। एक तो संचार के साधन बढ़ने और लगातार सस्ते होते जाने से लोगों तक सूचनाएं बहुत आसानी से और बहुत कम समय में पहुंचने लगी हैं। ऐसे में दर्शकों को खबरों से जोड़ने के लिए कुछ नया और अभिनव किए जाने की जरूरत है। पर ऐसा नहीं करके ज्यादातर चैनल फूहड़पन पर उतर आए हैं।

दूसरी ओर, नए और अपरिपक्व लोगों को समाचार संकलन और संप्रेषण जैसे काम में लगा दिए जाने का भी नुकसान है। किसी भी अधिकार के साथ जिम्मेदारी भी आती है। नए और युवा लोग अधिकार तो मांगते हैं पर जिम्मेदारी निभाने में चूक जाते हैं। उन्हें मीडिया की आजादी तो मालूम है पर इस आजादी के प्रभाव का अनुमान नहीं है। आपने देखा होगा कि दिन भर चलने वाले समाचार चैनल अपने प्रसारण में हिन्सा और अपराध की खबरें खूब दिखाते हैं और कई-कई बार या काफी देर तक दिखाते रहते हैं। दर्शकों को आकर्षित करने के लिए ये अपने हिसाब से अपराधी तय कर लेते हैं और अदातल में मुकदमा कायम होने से पहले ही किसी को भी अपराधी साबित कर दिया जाता है। बाद में अगर वह निर्दोष पाया जाए तो उसकी कोई खबर दिखाई बताई नहीं जाती है। ऐसी खबरों से आहत होकर लोगों के आत्म हत्या कर लेने के भी मामले सामने आए हैं पर टेलीविजन चैनल संयम बरत रहे हों, ऐसा नहीं लगता है। दुर्घटना या प्राकृतिक आपदा की स्थिति में पीड़ितों से बेसिर-पैर के सवाल पूछे जाने के कई उदाहरण हैं। नए और गैरअनुभवी लोगों पर समाचारों के चयन और प्रसारण की महत्त्वपूर्ण जिम्मेदारी डाल दिए जाने और टीआरपी की भूख से ऐसा हो रहा है। समय की मांग है समाचार चयन और चनेल का संचालन अनुभवी हाथों में हो और हम तक निष्पक्ष खबरें ही पहुंचें। 

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