Friday, March 19, 2004

धार्मिक टीवी चैनल और धर्मगुरू


देश में धार्मिक टीवी चैनलों की बाढ़ आ गई है। आस्था, संस्कार, अहिंसा, साधना और अब जागरण। अब तक आए ये पांच टीवी चैनल दर्शकों को आध्यात्मिक ज्ञान, वैदिक संस्कार या भक्ति देने का दावा करते हैं। कुछ हद तक ये ऐसा कर भी रहे हैं। पर कुल मिलाकर पांच चैनल भी वो प्रभाव नहीं पैदा कर पा रहे, जो इतने सशक्त माध्यम से पैदा किया जा सकता है। भारत जैसे धर्म प्रधान देश में लोगांे की धार्मिक जिज्ञासओं और भावनाओं के अनुरूप बहुत कुछ दिखाया जा सकता है। उसके लिए निर्माताओं का जिज्ञासू दिल और दिमाग चाहिए। समस्या ये है कि अच्छा कार्यक्रम बनाने के लिए धन की जरूरत होती है और धन केवल विज्ञापनों से आता है। विज्ञापन तभी मिलते हैं, जब कार्यक्रम लोकप्रिय हों और कार्यक्रम लोकप्रिय तब होगा जब उसमें गुणवत्ता होगी। गुणवत्ता तब आएगी, जब उसमें सही लागत लगेगी। जितना गुड़ डालोगो, उतना ही मीठा होगा। समस्या वही मुर्गी और अण्डे वाली है। पहले मुर्गी या पहले अण्डा। नतीजा ये कि धूमधड़ाके के साथ बड़े-बड़े लंबे-चैड़े दावे करके धार्मिक चैनल शुरू तो कर दिए गए, पर उनमें दिखाने के लिए कुछ ठोस प्रोग्रामिंग की नहीं गई। नतीजतन बाजार में पहले से उपलब्ध वीडियो कवरेज को ही दिखाकर चैनलों ने अपना कर्तव्य पूरा कर दिया। फिर चाहे वो किसी के घर का निजी उत्सव हो, या कोई भौंडा भजन गायक, रेट बांध दिया गया। पांच हजार रूपए से लेकर 15 हजार रूपए रोज का रेट। इतने रूपए दो तो अपना कार्यक्रम चैनल पर प्रसारित करवा लो। जब कार्यक्रम चयन का आधार कार्यक्रम लाने वाले की आर्थिक क्षमता ही हो, तो कार्यक्रम की गुणवत्ता पर कौन ध्यान देगा। जो भी मुंहमांगे पैसे देता है, उसका कार्यक्रम प्रसारित कर दिया जाता है। इस तरह के दर्जनों प्रवचन और कार्यक्रम आजकल धार्मिक टीवी चैनलों पर आ रहे हैं। कोई सहज प्रश्न कर सकता है कि इतने सारे पैसे फीस के रूप में देकर अपने प्रवचन धार्मिक टीवी चैनलों पर प्रसारित करने से धर्म गुरू को क्या लाभ मिलता है? विशेषकर तब जबकि टीवी चैनल प्रवचन देने वाले को न तो कोई फीस देता है और न ही ऐसे कार्यक्रम के निर्माण के लागत ही। अगर 25 मिनट के एक प्रवचन आधारित कार्यक्रम की उत्पादन लागत 15 हजार रुपया प्रतिदिन मानी जाए और उसे प्रसारण करने की फीस 10 हजार रुपया प्रतिदिन हो तो 30 दिन में साढ़े सात लाख रुपया खर्च करके कोई भागवतवक्ता या दूसरा आत्मघोषित महात्मा धार्मिक टीवी चैनलों पर अपना प्रवचन प्रसारित करवा सकता है।
साफ जाहिर है कि जिस पर जितना फालतू धन होगा, उतना उसे प्रसारण का समय ज्यादा मिलेगा। अब जरा गौर करें। आध्यात्म के मार्ग पर चलने वाला न तो संग्रही होगा और ना ही उसे लोक प्रतिष्ठा के प्रति कोई आकर्षण ही होगा। आध्यात्मिक प्रगति की पहली शर्त है- व्यक्ति भौतिकता से विरक्त होता जाए। पर भागवत प्रवचन करने वाले ना तो शुकदेव महाराज जैसे विरक्त संत है और ना ही परीक्षित महाराज जैसे एकनिष्ठ श्रोता। बड़े-बड़े वातानुकूलित महलों में रहने वाले या धन कमाने के लिए भागवत कहने वाले आत्मघोषित भागवताचार्य तथ्य की बात कैसे बता सकते हैं? जो खुद ही माया में अटके हों, वो भक्तों में प्रेम कैसे जगा सकते हैंै ? दुर्भाग्य से आज ऐसे भागवताचार्य की संख्या सैकड़ों में है। भागवत कहना एक धंधा बन गया है। उसे तथ्यात्मक कम और मनोरंजन से भरपूर ज्यादा बनाया जा रहा है। पर फिर सवाल उठता है कि साढ़े सात लाख रूपया महीना खर्च करके कोई क्यों अपना प्रवचन टीवी चैनल पर प्रसारित करवाना चाहता है? साफ जाहिर है कि ऐसा करना घाटे का नहीं, मुनाफे का सौदा है। जितनी ज्यादा बार और जितने ज्यादा टीवी चैनलों पर आपका चेहरा बार-बार आएगा, उतनी ही आपकी प्रतिष्ठा भी बढ़ेगी। चेले भी बढ़ेंगे और आमदनी भी बढ़ेगी। फिर यह आध्यात्म कहां हुआ ? ये तो धर्म का व्यापार हो गया और ये व्यापार आजकल पूरे जोशोखरोश से चल रहा है। इसका बहुत बड़ा नुकसान समाज को हो रहा है। अगर प्रवचन कहने वाला विरक्त नहीं है तो उसके उपदेश में स्वार्थपरता होगी। ऐसा व्यक्ति जो भी बोलेगा, उसे सुनने वाले का आध्यात्मिक कल्याण होना तो मुश्किल है, आर्थिक दोहन जरूर हो जाएगा। क्योंकि टीवी का दर्शक उस प्रवचनकर्ता को गुरू मान बैठेगा और उसके प्रवचन को प्रभु की वाणी। इस तरह करोड़ों दर्शकों का भावनात्मक और आर्थिक दोहन तो हो जाएगा पर आध्यात्मिक कल्याण नहीं होगा।
दूसरी तरफ धार्मिक टीवी चैनल चलाने वालों की भी एक कठिनाई है। अच्छा कार्यक्रम दिखाने के लिए उनके पास साधनों की कमी है। इसलिए सब कुछ जानते हुए भी ये टीवी चैनल मालिक वो नहीं दिखा पा रहे, जो उन्हें बहुजन हिताए दिखाना चाहिए। ऐसे में ये जिम्मेदारी उन सेठों और संस्थाओं की है, जो वास्तव में समाज में धार्मिक जीवन मूल्यों की स्थापना करना चाहते है। ऐसे सभी सक्षम लोगों को आगे आना चाहिए। अपने धन और साधन मुहैया कराकर देश में अच्छे संतों की खोज करनी चाहिए और उनके प्रवचनों को या भजनों को रिकार्ड करने की समुचित व्यवस्था करनी चाहिए। इसके बाद सैटेलाइट टीवी चैनल मालिक को उसकी कीमत देकर ऐसे शुद्ध हृदय वाले संतों की वाणी प्रसारित करनी चाहिए। उससे जन कल्याण तो होगा ही, पुण्य भी मिलेगा।
जो वास्तव में ऊंचे दर्जे का संत होगा, वो किसी से कहने नहीं आएगा कि मेरी रिकाॅर्डिंग करो। वो तो जंगल में बैठकर भजन करेगा। पर उसकी वाणी में जो तेज होगा, उसका मुकाबला आत्मघोषित भगवताचार्य नहीं कर पाएंगे। गहवरवन बरसाना में पिछले 52 वर्षों से भजन गाकर साधना करने वाले विरक्त संत श्री रमेश बाबा का गायन जो एक बार सुन ले, वो बार-बार सुनने को उस जंगल में जाता है। पर बाबा ने आज तक किसी टीवी वाले को पास नहीं फटकने दिया। वे न तो किसी को शिष्य बनाते हैं, न किसी से पैसा लेते हैं और न किसी बड़े-छोटे के बीच भेदभाव करते हैं। केवल अपनी साधना के रूप में भजन गाते हैं, इसीलिए उनके भजनों में जो कशिश है, वो कहीं और देखने को नहीं मिलती। पर रमेश बाबा जैसे विरक्त संत जो अपने अच्छे कामों का भी प्रचार नहीं चाहते, गुमनाम ही रहना चाहते हैं, पैसे देकर तो अपना प्रवचन टीवी पर दिखाने से रहे। नतीजा यह होगा कि नकली लोग तो अपना आडंबर दिखाकर जनता के दिलो-दिमाग पर छा जाएंगे और फिर उसका दोहन करेंगे और दूसरी तरफ शुद्ध आध्यात्मिक ज्ञान देने वालों की सारगर्भित वाणी कभी आध्यात्म के पिपासुओं को मिल नहीं पाएगी। इसलिए अपने-अपने धर्म में आस्था रखने वाले साधन संपन्न लोगों को चाहिए कि वे लोग धर्म को व्यापार बनाने वालों से दूर रहे और ऐसे ज्ञान और अनुभव को खोजकर देश के सामने प्रस्तुत करवाएं, जो आम आदमी को उपलब्ध नहीं हो। इससे पुण्य तो मिलेगा ही, यह कार्य बहुजन हिताय भी होगा। दूसरी तरफ धार्मिक टीवी चैनलों को भी यह सोचना चाहिए कि वे ऐसे कार्यक्रम प्रस्तुत करें जिससे लोगों का धार्मिक मनोरंजन भी हो और आध्यात्मिक कल्याण भी।
धार्मिक टीवी चैनलों को कुछ ऐसी नीति बनानी चाहिए कि वे अपने प्रसारण समय के 70 फीसदी समय में तो पैसा देकर खुद का प्रचार करवाने वाले धर्माचार्यों के कार्यक्रम दिखाएंगे और 30 फीसदी कार्यक्रम ऐसे धर्माचार्यों पर प्रसारित हो, जिन्हें प्रतिष्ठा, शिष्य और धन इन तीनों में रुचि न हो और वे जो भी बोले ंवो भगवान की प्रसन्नता के लिए बोलें। ऐसे संतों की वाणी का जनता पर असर पड़ेगा और देश में आध्यात्मिकता की लहर आएगी, तभी धार्मिक टीवी चैनल अपने उद्देश्यों में सफल हो जाएंगे।

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