Friday, March 5, 2004

भारत में एड्स की समस्या वाकई इतनी गंभीर है


अभी कुछ दिन पहले आंध्र प्रदेश में एक परिवार ने एड्स के खौफ के चलते जान दे दी। डाॅक्टरों ने उसे बताया था कि उसके पूरे परिवार को एड्स हो गया है। इससे परेशान होकर उसे अपने पूरे परिवार को जहर देकर खुद भी आत्महत्या कर ली। यह तो सिर्फ एक मामला है। देश में हर साल सैकड़ों लोग एड्स को लेकर काल के गाल में समा रहे हैं। पिछले कुछ सालों से पूरी दुनिया में एड्स का खौफ बुरी तरह छा गया है। सरकारी और गैर सरकारी आंकड़ों के मुताबिक कुछ एशियाई देशों, जिनमें हमारा भारत भी शामिल है, में एचआईवी पाॅजिटिव रोगियों की तादाद बहुत तेजी से बढ़ती जा रही है। यह बात सही है कि हमारे देश में एचआईवी ग्रस्त मरीजों की संख्या बढ़ी तो है, पर इतनी भी नहीं जितना कि कुछ विदेशी एजेंसिया बता रही हैं। कुछ दिनों पहले अमेरिकी खुफिया एजेंसी सीआईए द्वारा जारी रिपोर्ट में भारत, चीन और रूस जैसे देशों में महामारी जैसी स्थितियां पैदा होने की बात कही गई थी तो अब पाॅपुलेशन फाउंडेशन आॅफ इंडिया (पीएफआई) नामक विदेशी अनुदान से चलने वाली भारतीय संस्था ने एक चार्ट बुक जारी की है। वास्तव में इस चार्ट बुक में सूचनाओं को जिस तरह से उलटफेर करके दिखाया गया है, उससे तो यही लगता है कि भारत में एड्स की समस्या वास्तव में बहुत ही गंभीर रूप लेती जा रही है। जाने-माने लोगों की प्रबंध समिति वाली पीएफआई ने भारत में एचआईवी मामलों की जो स्थिति दशाई है, वह विशेषज्ञ आधिकारिक संस्था नेशनल एड्स कंट्रोल आॅर्गनाइजेशन’ (नाको) द्वारा बताई गई स्थिति से बिल्कुल उलट है। जहां नाको का दावा है कि देश में एड्स रोगियों की संख्या पिछले चार सालों में सापेक्ष रूप से चालीस लाख के नीचे स्थिर है, वहीं चार्ट बुक में पीएफआई का कहना है कि एचआईवी संक्रमण बहुत तेजी से बढ़ रहा है। पीएफआई की चार्ट बुक में चकित करने वाली बात यह है कि उसने यह जानते हुए भी कि नाको पहले ही दुनिया भर में मौजूद विशेषज्ञों की मदद से सभी आंकड़ों का कैलकुलेशन कर चुका है, उसने आंकड़ों के कैलकुलेशन के लिए अमेरिकी एजेंसी पाॅपुलेशन रिफ्रेन्स ब्यूरो को क्यों शामिल किया? इस संस्था ने नाको के आंकड़ों का इस्तेमाल तो किया, लेकिन शरारतपूर्ण ढंग से गलत और बिगड़े रूप में।
पीएफआई के मुताबिक, भारत में वर्ष 2002 में एचआईवी संक्रमित लोगों की संख्या 45 हजार, 80 लाख हो गई, जबकि इससे पहले यह मात्र 39 लाख 70 हजार थी। सिर्फ एक साल में ही एड्स मरीजों की संख्या में 6 लाख 10 हजार की बढ़ोतरी हुई। इसके विपरीत नाको का कहना है कि देश के एचआईवी संक्रमण के मामलों में कमी आ रही है और हो सकता है आने वाले समय में नए संक्रमणों की संख्या नगण्य हो जाए। दरअसल, इस साल नाको ने एचआईवी संक्रमित लोगों का अनुमान निश्चित संख्या के रूप में न जारी करके एक रेंज में पेश किया है, जिसके अनुसार इसका न्यूनतम स्तर 38 लाख 20 हजार और अधिकतर स्तर 45 लाख तक होने की संभावना है। पीएफआई ने इसी का फायदा उठाते अधिकतम संक्रमण के स्तर को तथ्य के रूप में पेश किया और कहा कि 45 लाख लोग एड्स के साथ जी रहे हैं। अनुमान और संभावनाओं को जान-बूझकर तथ्य के रूप में पेश करने के साथ यह पुस्तक नाको द्वारा स्वीकृत किताब अनुमान प्रक्रिया की सीमाओंको भी अनदेखी करती है। साथ ही बिल गेट्स फाउंडेशन तथा पाॅपुलेशन रिफ्रेन्स ब्यूरो की मदद से एक तथाकथित प्रतिष्ठित संस्थान द्वारा प्रस्तुत और प्रचारित यह पुस्तक आंकड़ों (ेझूठं) की सुविधाजनक प्रस्तुति, शरारतपूर्ण व्याख्या और अति आवेशपूर्ण उद्घोषणाओं का नायाब नमूना पेश करती है।
एड्स के इस गोरखधंधे के खिलाफ आवाज उठाने वाली एक संस्था जे.ए.सी कन्नूर का कहना है कि यह कोशिश दुनिया की बड़ी दवा कंपनियों और अमेरिकी आधिपत्य के लिए काम करने वाली ताकतों की व्यापक साजिश का एक हिस्सा लगती है। जब भारत में एड्स का हौवा खड़ा हो जाएगा, तो सरकार को मजबूरी में इन बड़ी कंपनियों की दवाओं का भारी मात्रा में आयात करना होगा और यह  इन कंपनियों के लिए बड़े मुनाफे का सौदा होगा। मुलोली का यह तर्क इसलिए भी समझ में आता है क्योंकि आंकड़ों के मुताबिक 95 प्रतिशत एचआईवी पाॅजिटिव केस दक्षिण अफ्रीका और भारत जैसे गरीब समझे जाने वाले देशों में है, जबकि अमेरिका और यूरोप आदि संपन्न देशों में इसका प्रतिशत मात्र 5 फीसदी है। इससे यह साबित हो जाता है कि एड्स जैसी बीमारी सिर्फ गरीब देशों के लिए है। अमीर देशों का मकसद सिर्फ एड्स का भय दिखाकर अपनी दवाएं बेचना है।
संस्था का कहना तो यह भी है कि एड्स जैसी कोई बीमारी है ही नहीं, यह तो विदेशी दवा कंपनियों द्वारा गरीब देशों के बाजारों पर कब्जा जमाने के लिए फैलाया गया भ्रम मात्र है। सरकार द्वारा एड्स की जांच के लिए जो टेस्ट कराए जाते हैं, उनमें सबसे पहला एलिजा टेस्ट है। संस्था के संयोजक पुरुषोत्तमन मुलोली का दावा है कि एलिजा टेस्ट एचआईवी और खांसी, टीबी, गर्भावस्था समेत 72 दूसरे मामलों में पाॅजिटिव होता है। इसलिए सिर्फ एलिजा टेस्ट के आधार पर कह देना कि किसी व्यक्ति को एड्स है, सही नहीं होगा। दूसरा एड्स की पुष्टि के लिए वेस्टर्न ब्लोट टेस्ट करवाया जाता है। सरकार का कहना है कि इस टेस्ट के जरिए यह पक्का हो जाता है कि व्यक्ति को एड्स है या नहीं, जबकि मुलोली कहते हैं कि उनकी आपत्ति पर सरकार ने उन्हें यह लिखकर दिया है कि वेस्टर्न ब्लोट टेस्ट से भी एड्स की पूरी तरह पुष्टि नहीं होती। अब तीसरी तरह का पीसीआर टेस्ट, जो डीएनए पर आधारित होने के कारण बहुत महंगा है। इसकी खोज अमेरिका की वैज्ञानिक केरी यूलिक्स ने की थी। इसके लिए उन्हें नोबल प्राइज भी दिया गया था। विदेशी और अब अपनी सरकार भी यह प्रचारित कर रही है कि पीसीआर टेस्ट के जरिए एचआईवी वाइरस को अलग करके पहचाना जा सकता है। पर मुलोली के अनुसार, केरी खुद मानती हैं कि सच नहीं है। इस तरह एड्स कोई बीमारी है, यह अपने आप में एक गड़बड़झाला है। अब सवाल उठता है कि यदि एड्स कोई बीमारी ही नहीं है तो इससे लोगों की मौत कैसे होती है। मुलोली के पास इसका भी जवाब है। वे कहते हैं कि दरअसल एड्स को रोकने के लिए जो दवाइयां दी जाती हैं, वह बहुत ही ज्यादा टाॅक्सिक होती हैं और इन्हीं की वजह से शरीर के अंग खराब हो जाते हैं और व्यक्ति की मौत हो जाती है। बहरहाल, यह चिंतन का अगल मुद्दा है। इस पर व्यापक चर्चा की जरूरत है।
यह सही है कि पिछले कुछ सालों में हमारे देश में एड्स का खौफ बढ़ा है। सरकार और बहुत सी समाजसेवी संस्थाओं द्वारा लाखों-करोडों रुपया पानी की तरह बहाने के बाद लोगों में एड्स के प्रति पूरी तरह जागरूकता नहीं आ पाई है। इसमें कोई दो राय नहीं हो सकती, कि आम भारतीय अपनी सेहत के प्रति उतना सचेत नहीं रहता, जितना कि उसे होना चाहिए। प्राचीन सुसंस्कृत सभ्यता वाले हमारे देश में पुरानी मान्यताओं को दरकिनार करना ही एड्स जैसी महामारियों के पैदा होने का कारण है। पर वेस्टर्न कल्चर के रंग में डूबी नई जेनेरेशन को इस पहलू पर भी ध्यान देना चाहिए कि जिन पद्धतियों को वह दकियानूसी बताकर अपनी जिंदगी से बाहर कर रहे हैं, उन्हीं जीवन पद्धतियों को उनकी आदर्श वेस्टर्न कन्ट्रीज अपना रही हैं। वास्तविकता यह है कि इस तड़क-भड़क और भागमभाग वाली जिंदगी से वह लोग ऊब चुके हैं और अब उन्हें शांति चाहिए, जो उनके पास नहीं। इसीलिए वह भारत की प्राचीन संस्कृति की ओर देख रहे हैं। और हम हैं कि उनकी त्यागी गई माॅडर्न लाइफस्टाइल को अपने जीवन में जगह देते जा रहे हैं। हमारे दूरद्रष्टा ऋषि-मुनियों ने पहले ही इस बात का अंदाजा लगा लिया था कि आगे आने वाले समय में व्यक्ति को अपने मन पर काबू रखना कितना मुश्किल होगा, इसीलिए उन्होंने धर्म को आधार बनाकर सही और गलत को पुण्य और पाप में वर्गीकृत कर दिया। हम चाहें कितने भी माॅडर्न क्यों न हो जाएं, पर कहीं न कहीं हमारे अंदर पाप कर्मों से बचने की इच्छा रहती है। इसलिए एड्स जैसी बीमारियों के उपायों को यदि धर्म और आध्यात्म से जोड़कर प्रचारित किया जाए, तो मेरा मानना है कि इसका ज्यादा असर लोगों के दिलोदिमाग पर पड़ेगा।

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