Friday, December 19, 2003

जूदेव और जोगी कांड में खामियां


प्रधानमंत्री ने संसद में ठीक ही कहा कि दिलीप सिंह जूदेव के खिलाफ कोई मामला नहीं बनता। इसलिए सीबीआई केस दर्ज नहीं कर रही है। यह ठीक इसलिए है कि जिस धमाके के साथ जूदेव कांड की वीसीडी जारी हुई थी, उतने ही सन्नाटे में खो गई इस कांड को उजागर करने वालों की पहचान। अंगे्रजी दैनिक इंडियन एक्सप्रेस ने इस खबर को छापा था। चुनावी माहौल में इससे खलबली मचना स्वाभाविक ही था। भाजपा को लगा कि छत्तीसगढ़ हाथ से गया। पर, चुनावी नतीजों ने जूदेव की मूंछ तो बचा ही ली, साथ ही भाजपा को भी आक्रामक बना दिया। ऐसा न भी होता तो भी जूदेव कांड कई सवाल खड़़े करता है। मीडिया और राजनीति से सरोकार रखने वाले सभी लोग जानते हैं कि भारत में छिपे कैमरे से खोजी पत्रकारिता की शुरुआत आज से चैदह वर्ष पहले हमने कालचक्र वीडियो मैग्जीन में की थी। तब इस विधा की जानकारी भारत में लोगों को नहीं थी। प्रसिद्ध मीडिया क्रिटिक श्रीमती अमिता मलिक ने हमारी इस खोजी पत्रकारिता पर इंडियन एक्सप्रेस में लिखा था, ‘‘कालचक्र उन मुद्दों को उठाता है जिन्हें दूरदर्शन बांस भर की दूरी से भी नहीं छुएगा’’। टाइम्स आॅफ इंडिया ने लिखा, ‘‘कालचक्र में छिपे कैमरे का प्रयोग वह विधा है जिसे दूरदर्शन अभी नहीं सीख पाया है।’’ फिर भी हमारी इस खोजी पत्रकारिता पर देश की राजनीति में काफी बबाल मचा था। नेताओं में यह डर बैठ गया कि अब उनके कारनामों पर कालचक्र के कैमरे की नजर पड़ सकती है। 

पर, बारह वर्ष बाद जब तहलका ने यही विधा अपनाई तो उसे वाहवाही मिली। क्योंकि तब तक इलेक्ट्रानिक मीडिया और सैटेलाइट चैनल देश पर छा चुके थे और लोग छिपे कैमरे की संभावना से वाकिफ हो चुके थे। बहरहाल, यहां यह बात महत्वपूर्ण है कि कालचक्र ने जब-जब इस तरह की खोजी टीवी पत्रकारिता की, तो उसे पत्रकारिता की मर्यादा के भीतर रहकर किया। कुछ ऐसे कदम उठाए, जिससे हमारी विश्वसनीयता पर उंगली न उठ सके। मसलन, छिपे कैमरे का इस्तेमाल करने से पहले हमने स्थानीय पुलिस को सूचना दी कि हम कहां और क्या रिपोर्ट करने जा रहे हैं ताकि कल अगर घटनास्थल पर रिकाॅर्डिंग के समय कोई बबाल खड़ा हो जाए तो हम पर किसी को धमकाने या ब्लैकमेल करने का आरोप न लगे। इसलिए हमने पुलिस वालों को साथ लेकर ऐसी रिकाॅर्डिंग की। इतना ही नहीं, मीडिया जगत की सहमति भी हमारे इस अनूठे काम में हो, इसके लिए हमने दो-तीन राष्ट्रीय अखबारों के संवाददाताओं को भी ऐसी खोज के समय साथ रखा। यही कारण था कि जब हमारी रिपोर्ट पर देश भर में बबेला मचा, तो हम अपनी बात मजबूती से रख सके। हमें किसी तरह के कानूनी विवाद में नहीं फंसना पड़ा। सीबीआई जैसी संस्था को यह जानने की जहमत नहीं उठानी पड़ी कि यह रिकाॅर्डिंग किसने की? किस मकसद से की? कहां की? कब की? किसकी मौजूदगी में की? और किस उद्देश्य से की? इन सब सवालों के जवाब हमारी वीडियो कैसिट में पहले ही मौजूद रहते थे। पर जूदेव कांड में ऐसा कुछ सामने नहीं आया। इस कांड को खोजने वाला कौन था? क्या कोई पत्रकार था या किसी राजनेता का एजेंट? अगर पत्रकार था तो उसे अपनी पहचान बताने में संकोच क्यों? अगर पत्रकार नहीं था तो सवाल उठता है कि इस वीसीडी की विश्वसनीयता ही क्या है? इसकी कानूनी वैधता क्या है? किसने इस काम को करवाया? वो सामने क्यों नहीं आता? ऐसे तमाम सवालों के जवाब जूदेव कांड को उठाने वाले लोग नहीं दे पा रहे हैं। कारण साफ है कि वे परदे के पीछे छिपे हैं। फिर ये खोजी पत्रकारिता का नमूना कैसे हुआ? और जब ये पत्रकार के द्वारा की गई रिपोर्ट ही नहीं है तो इसे ऐन चुनाव के पहले उछालकर किसको क्या हासिल हुआ

वीडियो कैमरे से सच्चाई की खोज करना एक जोखिम भरा काम है। हमने ऐसे जोखिम बार-बार उठाए हैं। बड़े से बड़े लोगों के विरुद्ध खोज करने की हिम्मत की है। पर, हमारे कामकी विश्वसनीयता पर सवाल नहीं उठा। कारण साफ है, जब आप देश के प्रतिष्ठित और ताकतवर लोगों के खिलाफ संगीन आरोप लगाते हैं तो आपको सामान्य से ज्यादा सावधानी बरतनी होती है। ऐसी खबरें जल्दबाजी में या उत्साह के अतिरेक में प्रकाशित या प्रसारित नहीं की जा सकती। क्योंकि उनका दूरगामी प्रभाव पड़ता है।  किसी की साख को बट्टा लगाना  आसान है, पर बिगड़ी बात को संभालना बहुत मुश्किल। 

ऐसा नहीं है कि सभी राजनेता दूध के धुले हैं और उनके विरुद्ध कुछ कहा ही नहीं जा सकता। पर, गलत आरोप लगाने पर आरोप लगाने वाला भारी मुश्किल में पड़ सकता है। ये भी सही है कि आज राजनेताओं की जो छवि जनता के बीच बन चुकी है, उसे इस तरह की खोजी रिपोर्ट पुष्ट ही करती हैं। इसलिए जनता इन रिपोर्टों पर फौरन विश्वास कर लेती है। टीवी माध्यम की इस ताकत और इसके व्यापक प्रभाव को ध्यान में रखकर तो और भी ज्यादा जरूरी हो जाता है कि सब सावधानियां पहले ही बरती जाएं। मसलन, जिस रिपोर्ट की खोज की जा रही है, उसे कैमरे पर उतारना जितना जरूरी है, उतना ही जरूरी है उससे संबंधित अन्य प्रमाणों को जुटाना। इसके साथ ही परिस्थितिजन्य साक्ष्य भी हमें जुटाने होते हैं।

मसलन, जैन हवाला कांड में हमने एक पूर्व केंद्रीय मंत्री पर आरोप लगाया कि उन्होंने जैन बंधुओं से मोटी रकम ली। इसके प्रमाण स्वरूप हमने उन ठेकों का हवाला दिया, जिन्हें इस मंत्री ने जैन बंधुओं को अपने कार्यकाल में दिया था। इसी तरह अन्य परिस्थितिजन्य साक्ष्य भी जुटा लेने के बाद ही कैमरे के लैन्स से निकली रिपोर्ट को बंदूक की गोली बनाकर दागा जा सकता है। क्योंकि तब आरोपित व्यक्ति यह कहकर नहीं बच पाएगा कि यह वीडियो टेप फर्जी हैं। परिस्थितिजन्य व अन्य साक्ष्य इसकी पुष्टि कर देंगे कि उसने कब, किसकी मौजूदगी में, किससे, किस काम के लिए, कितने रुपये की रिश्वत ली। जब यह सिद्ध ही हो जाएगा तो फिर जांच की और जरूरत ही कहां बचेगी। फिर तो पैसा लेने और देने वालों पर भारतीय कानून के तहत केस दर्ज किया जाएगा। जूदेव कांड में अभी तक ऐसा कुछ नहीं हुआ। इस वीसीडी का प्राकट्य अंधकार में से हुआ है और इसीलिए यह कांड लोकतंत्र के अंधेरे को दूर करने में नाकाम रहा है। 

दूसरी तरफ जोगी कांड में खोजकर्ताओं ने अनेक परिस्थितिजन्य साक्ष्य पहले ही जुटा लिए। इसलिए श्री अजित जोगी रंगे हाथों पकड़े गए। सीबीआई ने उन पर मुकदमा कायम किया और अब उन्हें अपने बचाव के लिए लड़ना होगा। यहां एक बात महत्वपूर्ण है और वो यह कि श्री अजीत जोगी के विरुद्ध इस खोज को करने वाले भी कोई पत्रकार नहीं थे, बल्कि भाजपा से जुड़े कुछ लोग थे जिन्होंने श्री अजीत जोगी को अपने जाल में फंसाया और जोगी कुर्सी खोने की बेचैनी और उसे दोबारा हासिल करने के लालच में फिसल गए और अपनी मिट्टी पलीद करवा बैठे। वरना ऐसा नहीं है कि लोकतंत्र में चुने हुए प्रतिनिधियों को खरीदने-बेचने का यह काम पहली बार हुआ हो। प्रांतों की सरकारों से लेकर केंद की सरकारें तक ऐसे तमाम प्रयास करती हैं, जिनमें ऐसी खरीद का खुला बाजार लगता है। ज्यादा बोली लगाने वाला सौदा मार लेता है। ऐसा न होता तो दलबदल कानून को दोबारा बदलने की जरूरत नहीं पड़ती। पर यह खोज पत्रकारों द्वारा की जानी चाहिए। भाजपा ने यह खुफिया अभियान चलाकर नैतिकता का सवाल खड़ा कर दिया है। आज भाजपा ने ये किया है, कल उसके विरोधी करेंगे। 

उधर, पत्रकारों को भी अपनी मर्यादा और सीमाओं का ध्यान रखना होगा। काॅलगर्ल का इस्तेमाल करके और नकली कहानी बनाकर तहलका ने जिसे रक्षा घोटाला कहा, उसमें भी ऐसे तमाम सवाल उठे थे। इतना ही नहीं, इस रिपोर्ट में जिस पर आरोप लगाया गया उससे सफाई तक नहीं मांगी गई। टीवी पत्रकारिता अब देश से जाने वाली नहीं है। जब आ ही गई है तो इसे परिपक्व और जिम्मेदार होना पड़ेगा। बिना समुचित प्रमाणों के सनसनी फैलाना पत्रकारिता के दायरे में नहीं आता। राजनेता कितने भी भ्रष्ट क्यों न हो चुके हों, उन्हें पकड़ने का एक सलीका तो होना ही चाहिए। वरना ऐसी पत्रकारिता की विश्वसनीयता पर तमाम सवाल खड़े जा जाएंगे, जो आज हो रहे हैं। पत्रकारिता के लिए यह स्वस्थ प्रवृत्ति नहीं है।

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