Friday, December 12, 2003

महासंग्राम की तैयारी


विधानसभा चुनाव में जो होना था, सो हो चुका। अब तो सबका ध्यान लोकसभा चुनाव की तरफ है। जहां भाजपा अपनी सफलता से उत्साहित है। वहीं उसके चुनाव प्रबंधक श्री प्रमोद महाजन, श्री अरुण जेटली व श्री सुधांशु मित्तल सरीखे लोग अभी से तलवार की धार पैनी करने में जुट गए हैं। श्री जेटली का श्री अजित जोगी पर ताजा वार इसका एक नमूना है। अब भाजपा और भी आक्रामक होकर चलेगी। सब मानते हैं कि श्रीमती सोनिया गांधी ही उनका मुख्य निशाना होंगी। उनका विदेशी मूल, उनकी हिंदी भाषा पर सीमित पकड़ और राजनैतिक अनुभव की कमी जैसे विषय भाजपा ने अभी से उठाने शुरू कर दिए हैं। भाजपा इस मुद्दे को उछालने में कोई कसर नहीं छोड़ेगी, यह तय है।

इलेक्ट्राॅनिक मीडिया में भाजपा ने अच्छी पैंठ बना ली है। एक - दो टीवी चैनल को छोड़कर लगभग सभी चैनलों पर भाजपा की खासी पकड़ है। हिटलर और स्टाॅलिन सिखा गए हैं कि प्रोपेगेण्डा करने के क्या-क्या तरीके होते हैं। यह जरूरी नहीं कि इन चैनलों पर भाजपा का सीधा प्रचार हो, बल्कि उन मुद्दों को उठाकर, जिनसे भाजपा की छवि बनती हो या उन मुद्दों को उठाकर जिनसे इंका की छवि गिरती हो, कोई भी टीवी चैनल बड़ी आसानी से प्रोपेगेण्डा कर सकता है। उदाहरण के तौर पर एक चैनल यह कह सकता है कि भ्रष्टाचार के कांडों में फंसी जयललिता ने कहाऔर दूसरा चैनल यह कह सकता है कि तमिलनाडु की राजनीति में सबसे ताकतवर नेता जयललिता ने कहा।दोनों बातें सच हैं, लेकिन कहने के अंदाज से संदेश अलग-अलग जाते हैं और यही तरीका आज इलेक्ट्राॅनिक मीडिया में अपनाया जाता है। वाजपेयी जी को भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ने वाला मसीहा भी बताया जा सकता है और उनके बारे में यह प्रश्न भी खड़ा किया जा सकता है कि इतने लंबे समय तक विपक्ष में रहने के बावजूद वह कभी किसी भ्रष्ट नेता को पकड़वा क्यूं नहीं पाए या बोफोर्स अथवा चारा घोटाला जैसे मामलों पर बरसों शोर मचाने वाले वाजपेयी जैन हवाला कांड उजागर होने पर खामोश क्यों हो गए? यह तो एक उदाहरण है। ऐसे तमाम उदाहरण दिए जा सकते हैं जिनसे यह सिद्ध किया जा सकता है कि टीवी रिपोर्ट्स के चयन, उनके प्रस्तुतिकरण में चालाकी से खेल खेलकर किस तरह जनता को गुमराह किया जा सकता है। ये बात दूसरी है कि इन टीवी चैनलों का असर शहरी जनता पर ही ज्यादा पड़ता है। देहात की जनता बुनियादी सवालों से जूझती है। 

जहां वाजपेयी सरकार की सबसे बड़ी उपलब्धि यह रही कि तमाम झंझावात झेलकर भी वह एकजुट बनी रही, वहीं यह बात भी महत्वपूर्ण है कि राजग सरकार के कार्यकाल में भारत के देहातों में बेरोजगारी बेइंतहा बढ़ी है। सत्ता में पांच साल पूरे कर चुकी सरकार देहातों में रोजगार पैदा करने में पूरी तरह नाकाम रही है। इससे ग्रामीण युवाओं में भारी निराशा है। इसी तरह भ्रष्टाचार के सवाल पर बार-बार अपने पाक-साफ होने की दुहाई देने वाली राजग सरकार कई बार घोटालों में फंसती रही। इसके कार्यकाल में शिखर से लेकर देहात के स्तर तक कहीं भी भ्रष्टाचार में रत्ती भर भी कमी नहीं आई। हिंदू धर्म की रक्षक होने का दावा करके राजनीति में अपना कद बढ़ाने वाली भाजपा ने राम जन्मभूमि, समान नागरिक संहिता और धारा 370 को समाप्त करने के शाश्वत एजेंडे को बार-बार पीछे धकेला है और कई बार तो उससे अपनी दूरी स्वीकारने में संकोच भी नहीं किया है। इसलिए लोग यह सवाल जरूर पूछेंगे कि आखिर भाजपा की विचारधारा है क्या? आज जिस विकास के मुद्दे को लेकर भाजपा उछल रही है, वह विकास का मुद्दा क्या हमेशा ही उसका मुद्दा बना रहेगा? या अपनी नैया डूबती देख वो फिर रामनाम का सहारा लेगी? एक वर्ष पहले गुजरात के स्वाभिमान को जगाने की बात कहने वाले नरेन्द्र मोदी जिस कामयाबी से जीतकर आए, उससे भाजपा ने अपने उन आलोचकों का मुंह बंद कर दिया जो उसके धार्मिक मुद्दों का मखौल बनाते थे। पर प्रश्न है कि क्या श्री मोदी एक वर्ष में गुजरात की जनता को फिर से आर्थिक विकास की पटरी पर ला पाए हैं? अगर नहीं तो फिर क्या केवल भावनाओं की रोटी खिलाकर देहातों की गरीबी और बेरोजगारी को दूर किया जाएगा? ऐसे तमाम सवालों के जवाब देने के लिए भाजपा को तैयार रहना होगा।

पर भाजपाइयों को इन सवालों से ज्यादा चिंता नहीं है। वे लोकसभा के चुनावों को जीता हुआ मानकर चल रहे हैं। उनका मानना है कि श्रीमती सोनिया गांधी को उनके दल के ही बहुत से नेता प्रधानमंत्री के रूप में नहीं देखना चाहते। पार्टी के कड़े अनुशासन के चलते वे ऐसा कह पाने में संकोच भले ही कर रहे हों, पर उनकी नीयत साफ नहीं है। और यही कारण है कि जिस तत्परता और आक्रामक शैली से श्री प्रमोद महाजन और श्री अरुण जेटली सरीखे लोग भाजपा को जिताने के लिए तत्पर हैं, वैसा एक भी नेता इंका के खेमे में दिखाई नहीं देता। भाजपाई मानते हैं कि इंका के अस्तबल में बूढ़े, थके हुए और आरामतलब घोड़े बंधे हैं। जिनकी फितरत में सत्ता का सुख भोगना तो है, पर मैदान ए जंग में लड़ना नहीं। नई पीढ़ी के नाम पर जब ये बूढ़े घोड़े अपने बेटों को आगे करते हैं तो उससे इंका के कैडर में कोई नए रक्त का संचार नहीं होता, बल्कि इसके विपरीत बचे खुचे कार्यकर्ताओं में निराशा ही फैलती है क्योंकि उन्हें अपना भविष्य अंधकार में दिखता है। इसीलिए वे सुश्री मायावती, श्रीमुलायम सिंह जैसे क्षेत्रीय नेताओं के खेमों की तरफ दौड़ रहे हैं। भाजपाई यह भी मानते हैं कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की तरह इंका के पास कोई भी जमीनी संगठन नहीं है और उसके नेताओं में न तो यह क्षमता बची है और न ही उत्साह कि वे अपने दल का जमीनी संगठन पुनस्र्थापित करें। ऐसे में भाजपा को अपना प्रतिद्वंद्वी काफी कमजोर विकेट पर खड़ा दिखाई देता है। 

राजग के सहयोगी दल विधानसभा चुनावों में भाजपा की आशातीत सफलता के बाद अब उसका साथ नहीं छोड़ेंगे, इसमें कोई संदेह नहीं। राजग के सभी घटक लोकसभा का चुनाव एकजुट होकर ही लड़ेंगे, ऐसा न मानने का कोई कारण नहीं है। उधर, इंका अन्य दलों के साथ साझी चुनावी रणनीति बनाने के बारे में अभी पूरी तरह स्पष्ट नहीं है। इस अनिश्चितता के कारण ही उसे छत्तीसगढ़ में मुंह की खानी पड़ी और भविष्य में भी यह अनिश्चितता उसके लिए नुकसानदेह सिद्ध हो सकती है। इसके साथ ही इंका में सबसे बड़ी कमी इस वक्त अनुभवी नेताओं की है। राजनीति की कुटिल चालें और चुनाव जीतने की रणनीति बनाने वाले लोग इंका में या तो बचे नहीं हैं या उनकी सुनी नहीं जाती। इसलिए इंका को आत्मविश्लेषण करने की जरूरत है। क्रिकेट के खेल की तरह चुनाव आखिरी मिनट तक अनिश्चितता की स्थिति में रहता है। अभी काफी लंबा समय बाकी है। दोनों ही दलों के कुछ गुण भी हैं और दोष भी। जहां भाजपा अपने आत्मविश्वास, संगठन, कुशल रणनीति के बल पर जीतने का सपना देख रही है, वहीं इंका को भाजपा के सत्ता में होने का फायदा मिल सकता है और वह सरकार की जमीनी हकीकत को उछालकर आम जनता से जुड़ सकती है बशर्ते उसमें ऐसा करने की इच्छा हो। इच्छा ही नहीं, सफलता के लिए जूझने का माद्दा और आक्रामक तेवर भी होने चाहिए। अभी इतना समय है कि कांग्रेस पूरे देश में उन लोगों को ढूंढकर इकट्ठा करे जिनकी विश्वसनीयता है। जो जमीन से जुड़े हैं। जिनमें नेतृत्व करने की क्षमता है। जिन्होंने समाज के लिए कुछ किया है और जो भाजपा की विचारधारा से इत्तफाक नहीं रखते। ऐसे लोगों की काफी संख्या हर शहर में है। इनमें युवा भी बड़ी तादाद में हैं। ऐसे युवाओं को संगठन में लेकर इंका अपना संगठन भी मजबूत कर सकती है और जनाधार भी। पर इस प्रयास में सबसे ज्यादा मुश्किल इंका को बाहर से नहीं बल्कि भीतर से आएगी। उसके अपने ही लोग इस नई व्यवस्था को चलने नहीं देंगे। क्योंकि इससे उनको अपने अस्तित्व पर खतरा नजर आएगा। पर यह किए बिना इंका की नैया पार लगना मुश्किल है।

आने वाले महीने इस महासंग्राम की तैयारी में देश की जनता को बहुत से राजनैतिक करतब दिखाएंगे। ऐसे में टीवी चैनलों के लिए मसाले की कमी नहीं रहेगी। ऐसे में इस देश के मतदाताओं को बहुत संजीदगी से अपने हित और अहित का ध्यान करते हुए फैसला लेना होगा।

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