Friday, September 26, 2003

विहिप का कहना गलत है



अभी कुछ दिन पहले दिल्ली में हुए विहिप के संत सम्मेलन में प्रस्ताव पास किया गया कि यदि सरकारें मंदिरों का अधिग्रहण करती हैं तो विहिप इसका खुलकर विरोध करेगी। विहिप के इस बयान के पीछे शायद यह आशंका है कि इस तरह के कदम से सरकारों की धर्म के क्षेत्र में दखलंदाजी बढ़ जाएगी। कायदे से तो धर्म का क्षेत्र सरकार के नियंत्रण के बाहर ही होना चाहिए, क्योंकि धर्म आस्था का सवाल है। आत्मा के परमात्मा का संबंध का सवाल है। परमात्मा तक जाने के अनेक मार्ग हैं चाहे वो हिन्दू धर्म के विभिन्न संप्रदायों के मार्ग से हों या फिर अन्य धर्मों के। धर्म निरपेक्ष देश की सरकार से यह अपेक्षा नहीं की जा सकती कि वह हर धर्म की भावनाओं के अनुरूप काम करे। यदि सरकारें मंदिरों का अधिग्रहण करती हैं और सरकार द्वारा तैनात अधिकारी या व्यक्ति धर्म प्रेमियों की भावनाओं की कद्र नहीं करते तो हालत और भी बिगड़ सकती है। विहिप के इस तर्क से कोई असहमत नहीं होगा। पर सोचने वाली बात ये है कि धर्म स्थलों के अधिग्रहण की जरूरत ही क्यों पड़ती है

पिछले ही दिनों जम्मू कश्मीर की धर्म निरपेक्ष सरकार के मुसलमान मुख्यमंत्री ने एक अध्यादेश जारी करवाकर जम्मू कश्मीर की सारी मस्जिदों का अधिग्रहण कर लिया। कारण साफ है, इनमें से अनेक मस्जिदें पिछले बहुत वर्षों से आतंकवादियों का अड्डा बनी हुई थीं। भय और आतंक से आतंकवादियों ने इन्हें अपने कब्जे में कर रखा था। यहां से हिंसक कार्रवाईयां संचालित होती थीं। जब पानी से सिर से गुजर गया तो जम्मू कश्मीर की सरकार को यह कदम उठाना पड़ा। यह कोई अकेला मामला नहीं है। धर्म स्थलों का दुरुपयोग राजनीतिक हितों को साधने के लिए या वहां से समाज विरोधी गतिविधि चलाने के लिए अक्सर होता रहा है और आज भी हो रहा है। पूर्वी उत्तर भारत के सीमांत राज्यों में ऐसे तमाम धर्मस्थल हैं जहां भारत के विरुद्ध रात दिन जहर उगला जाता है और हिंसक गतिविधियां संचालित होती हैं। ऐसे धर्म स्थलों का नियंत्रण यदि सरकार अपने हाथ में नहीं लेती है तो राज्य के अस्तित्व को खतरा हो सकता है। इसलिए विहिप का तर्क उचित नहीं है। पहले भी अमृतसर में ऐसा कटु अनुभव हो चुका है। जब पवित्र स्वर्ण मंदिर  पर भिंडरावाला ने कब्जा जमाकर हिन्दू और सिख समाज के बीच खाई पैदा कर दी। बड़ी दुखद हिंसक कार्रवाई के बाद गुरूद्वारा साहिब की मुक्ति हुई और उसके बाद उसके चारों ओर विकास और सौन्दर्यीकरण का काम तेजी से हुआ। 

जब धर्म स्थल भ्रष्टाचार या दुराचार के केन्द्र बन जाएं, तो उन्हें स्वतंत्र नहीं छोड़ा जा सकता। कभी-कभी प्रबंधकीय व्यवस्था को सुधारने के लिए भी यह करना जरूरी होता है। वैष्णो देवी का उदाहरण सबके सामने है। सरकार के अधिग्रहण से पहले यहां अव्यवस्था और अराजकता का बोलबाला था। चढ़ावे का सारा पैसा बारीदारों की जेब में जाता था। विकास अवरुद्ध था। तीर्थयात्रियों के लिए सुविधाओं के नाम पर कुछ भी नहीं था। बहुत कुछ ऐसा होता था, जिसका उल्लेख करना भी शोभनीय नहीं। जम्मू के नागरिक जो कुछ बताते हैं उसे सुनकर मन में धर्म के प्रति श्रद्धा नहीं, अश्रद्धा उत्पन्न होती है। ऐसे हालातों में जब जम्मू कश्मीर के तत्कालीन उपराज्यपाल श्री जगमोहन ने वैष्णो देवी भवन व आसपास के पहाड़ी क्षेत्र का अधिग्रहण किया तो बारीदारों यानी पंडों ने उनका महीनों विरोध किया। आखिर में श्री जगमोहन सफल रहे और उसी का परिणाम है कि आज वैष्णो माता की यात्रा का स्वरूप ही बदल गया। अब हर आदमी वैष्णो देवी श्राइन बोर्ड के विकास कार्यों की महिमा गाते नहीं थकता। इतना ही नहीं, चढ़ावे के धन से तमाम तरह के जनहित के कार्य भी हो रहे हैं। कभी-कभी तो जम्मू कश्मीर की सरकार तक को श्राइन बोर्ड से कर्जा मांगने की नौबत आ जाती है। 

ऐसा ही दूसरा उदाहरण तिरुपति बालाजी का है। जहां दर्शनों की सुन्दर व्यवस्था से लेकर तीर्थयात्रियों के ठहरने, भोजन और आराम आदि की सर्वश्रेष्ठ व्यवस्था रहती है। यह अचानक नहीं हुआ। इस मंदिर का भी बुरा हाल था। पर अधिग्रहण होने के बाद से करोड़ों रुपया मंदिर के खाते में जमा होने लगा और ट्रस्टियों ने उसका सदुपयोग करना शुरू कर दिया। आज तिरुपति एक सुव्यवस्थित धर्म स्थल का प्रत्यक्ष प्रमाण है। जहां न सिर्फ आने वाले तीर्थयात्रियों को सुख मिलता है बल्कि स्थानीय जनता भी लाभान्वित हो रही है। तिरुपति के चढ़ावे से विश्वविद्यालय, स्कूल, मेडिकल और इंजीनियरिंग काॅलेज, अस्पताल व तीर्थयात्रियों के ठहरने की तमाम व्यवस्थाएं की गई हैं। 

जबकि दूसरी ओर देश के तमाम मंदिर, गुरुद्वारे और मस्जिद हैं। जो आज भी ऐसे हैं कि उनमें आने वाला दान का करोड़ों रुपया पंडे, मौलवियों के पेट में चला जाता है। दर्शनार्थियों या श्रद्धालुओं के लिए कोई सुविधाएं नहीं है। हर पंडा उन्हें लूटने को तैयार रहता है। शांति की खोज में आने वाले लुट पिट कर जाते हैं। कुछ तो तय कर लेते हैं कि फिर कभी लौटकर नहीं आएंगे। भगवान को चढ़ाए गए धन की लूट करना और उससे मौज मस्ती करना आम बात है। इसके प्रमाण खोजने की जरूरत नहीं। किसी भी तीर्थस्थल में चले जाइए। प्रमाण आंखों के सामने दिखाई दे जाएगा। ठाकुर जी के धन का सदुपयोग हो और उससे तीर्थयात्रियों की सुविधाएं बढ़े, ऐसा शायद ही कहीं होता है। भेंट चढ़ाने वाले यह सोच सोचकर परेशान होते हैं कि हम तो अपने गोस्वामी को इतनी मोटी रकम देकर आए थे, इस उम्मीद में कि वह सारी रकम ठाकुरजी की सेवा में जमा हो जाएगी, पर असलियत ये है कि गोस्वामियों के हाथ में दी गई रकम शायद ही कभी ठाकुर जी की गुल्लक में पहंुचती हो। दर्शनार्थी तो अपनी भेंट को ठाकुर जी तक पहंुचाने के लिए इन पंडों को पकड़ाते हैं। उन्हें क्या पता कि उनके द्वारा अर्पित धन ठाकुर जी तक नहीं पहंुंचेगा। वे बार बार इन पंडों के दुव्र्यवहार की शिकायत करते हैं, पर इनका आपसी गठबंधन इतना मजबूत है कि वे कोई भी सुधार होने ही नहीं देते। दर्शनार्थियों को लगता है कि मंदिर का प्रबंधन कमजोर है। जबकि प्रबंधन को लगता है कि कैसे इन पंडों को नियंत्रित किया जाए और दर्शनार्थियों के लिए सुविधाओं का विस्तार किया जाए। ऐसे तमाम विवादास्पद मंदिरों को यदि सरकार अपने कब्जे में ले ले तो उनकी व्यवस्था सुधर सकती है। बशर्ते कि सरकार के द्वारा इन बोर्डों में उन व्यक्तियों को ही नामित किया जाए जिनकी भक्ति और उस धाम के प्रति आस्था में कोई कमी न हो। नास्तिक, भ्रष्ट, विधर्मी व्यक्ति कभी भी उस देवालय या उसके श्रद्धालुओं के प्रति न्याय नहीं कर पाएगा। इसलिए बहुत देखभाल कर लोगों को चुनना चाहिए। यदि राज्य सरकारें मंदिरों या मस्जिदों का अधिग्रहण करने के बाद उनमें अपने राजनैतिक कार्यकर्ताओं या चाटुकारों को फिट करती हैं तो इनकी दशा सुधरने के बजाए और भी बिगड़ जाएगी। तब इन सरकारों को भलाई के बजाए बुराई ही मिलेगी, जिसका खामियाजा उसे चुनावों में उठाना पड़ सकता है। इसलिए प्रतिष्ठित, साधन संपन्न, चरित्रवान, भक्त व निष्कलंक व्यक्तियों को ही ऐसे न्यासों का सदस्य बनाया जाना चाहिए। ठाकुर जी के धन का दुरुपयोग न हो और उसके खर्चे की व्यवस्था पारदर्शी हो। वैष्णो देवी और तिरुपति बालाजी की तरह मंदिर और मंदिर से जुड़े सभी क्षेत्रों के कलात्मक निर्माण की छूट दी जाए ताकि कम समय में ही ठोस परिणाम दिखाई देने लगें। हां यह बात जरूर है कि सरकार केवल उन्हीं मंदिर, मस्जिद और गुरूद्वारों का अधिग्रहण करे जिनमें या तो देशद्रोही गतिविधियों का संचालन होता हो या भ्रष्टाचार का बोलबाला हो। जिन मंदिरों मस्जिदों, गुरुद्वारों या चर्चों के न्यासी खुद ही व्यवस्था अच्छी चला रहे हों, या ठाकुरजी के धन से तीर्थयात्रियों की सुविधा के लिए अच्छे कदम उठा रहे हों, वैसे न्यासों को छेड़ने की जरूरत नहीं है क्योंकि यह जरूरी नहीं कि सरकार द्वारा नामित सदस्य पूरी निष्ठा और ईमानदारी से ही कार्य करे। यदि इन सावधानियों को बरतते हुए धर्मस्थलों का अधिग्रहण किया जाता है तो विहिप या दूसरे धार्मिक संगठनों को उसका विरोध नहीं करना चाहिए। विरोध केवल विरोध के लिए न हो, हर केस में वस्तुस्थिति का मूल्यांकन करने के बाद हो तो विरोध करने वालों की गरिमा बढ़ती है अन्यथा यह महज चुनावी स्टंटबाजी लगता है।

Friday, September 12, 2003

मायावती की दुविधा


सुश्री मायावती ने ये सोचा भी न होगा कि उनकी सत्ता इतनी आसानी से हाथ से छीन जाएगी। सत्ता जाने के सदमे में तो वो थीं ही अब उन्हें एक और झटका लगा कि उनके दर्जनों विधायक साथ छोड़ भागे और श्री मुलायम सिंह के हाथ मजबूत कर दिए। अब सुश्री मायावती के पास हाथ मलने के सिवाय कोई दूसरा चारा नहीं है। अगर श्री मुलायम सिंह यादव व उनके सहयोगी श्री अमर सिंह व अन्य नेता ये तय कर लें कि उन्हें सुश्री मायावती को मुह तोड़ जवाब देना है तो वे आसानी से ऐसा करने की स्थिति में हैं। वे चाहे तो उत्तर प्रदेश में बसपा कार्यकताओं को कचहरी और थानों में दौड़ा-दौड़ा कर मारें। हालांकि सत्ता में आने के बाद हर राजनेता यही कहता है कि उसकी सरकार बदले की भावना से काम नहीं करेगी। पर मानव का स्वभाव है कि वो जैसे को तैसा जवाब देना चाहता है। इसलिए अगर श्री यादव सुश्री मायावती और उनके कार्यकर्ताओं पर कानूनी शिकंजा कसते हैं तो कोई नई बात नहीं होगी। हां, सुश्री मायावती की उलझनें जरूर बढ़ जाएंगी। पर एक बात ऐसी है जो सुश्री मायावती के पक्ष में जाती है। अपनी जाति वाले वोटों पर उनकी पकड़ मजबूत है। बसपा जिस दल के साथ भी चुनाव में कूद पड़े उसी को जिताने की स्थिति रखती है क्योंकि उनके समर्थकों के वोट एकजुट होकर पड़ते हैं। अपने इस जनाधार के कारण ही सुश्री मायावती इतनी आत्मविश्वास से भरी रहती हैं और शायद यही कारण है कि वे राजनीति की मैदान में किसी को भी पटकनी देने को तैयार रहती हैं। पर उनके इसी आक्रामक तेवर ने उन्हें काफी विवादास्पद बना दिया है। कोई भी दल उन पर विश्वास नहीं करता। मजबूरी में ही भाजपा ने सुश्री मायावती का हाथ थामा था और शायद यही मजबूरी कांग्रेस को मजबूर करे कि वो सुश्री मायावती से हाथ मिला कर आगामी विधानसभा चुनावों में चुनाव लड़े। यदि ऐसा होता है तो यह समीकरण भाजपा को बहुत भारी पड़ेगा। शायद यही कारण है कि भाजपा नेतृत्व सुश्री मायावती के साथ दोहरा खेल खेल रहा है। एक गुट ने मायावती सरकार गिराने की कार्यवाही को अंजाम दिया और दूसरा गुट उनसे अभी भी संबंध बनाए रखे है। इस का एक ही उद्देश्य है कि किसी भी तरह से सुश्री मायावती और कांग्रेस का समझौता नहीं हो पाए, क्योंकि वह एक मजबूत गठबंधन होगा।

सब कुछ सुश्री मायावती को ही सोचना और तय करना है। शुरू-शुरू में सभी नेता सत्ता के मद में कुछ ऐसे काम कर बैठते हैं जिससे उनका घाटा ही होता है पर समय सब सिखा देता है। श्री अटल बिहारी वाजपेयी के विश्वास मत के दौरान श्री मुलायम सिंह यादव के जो तेवर थे वे आज नहीं है। अब वे ज्यादा परिपक्व हो गए हैं और दूर की राजनीति करने लगे हैं। पिछले अनुभवों से सुश्री मायावती को भी सबक लेना चाहिए। यूं राजनीति में कोई संबंध स्थायी नहीं हुआ करते। मौका और समय देखकर ये बनते और टूटते रहते हैं। लेकिन अगर विचारधारा के स्तर पर देखा जाए तो सुश्री मायावती का भाजपा से तालमेल कभी नहीं बैठ सकता क्योंकि दोनों की विचारधारा में भारी विरोधाभास है। जबकि कांग्रेस और बसपा की विचारधारा में काफी साम्य है और अगर ये दो दल साथ आ जाते हैं तो हिन्दुस्तान के प्रजातंत्र में राजनीति के धु्रविकरण का एक नया अध्याय शुरू होगा जिसमें एक तरफ होंगे समाजवादी, वामपंथी या यूं कहिए कि धर्मनिरपेक्ष ताकतों का खेमा और दूसरी तरफ होंगे दक्षिणपंथी दल। तब शायद आया-राम, गया-राम और ब्लैक मेलिंग की राजनीति से भी देश को राहत मिल पाएगी।

इसके लिए यह बहुत जरूरी है कि सुश्री मायावती अपनी सोच में बदलाव करें। राजनीति में अपनी पहचान बनाने के लिए शुरू में सभी आक्रामक तेवर अपनाते हैं। बाद में धीरे-धीरे हालात उन्हें शांत कर देते हैं। सुश्री मायावती ने शुरू के दौर में कहा था, ’तिलक तराजू और तलवार इनको मारो जूते चार।बाद में खुद ही ठाकुर, ब्राह्मण और बनियों को टिकट बांटे। अब उन्हें ये समझ लेना चाहिए कि काठ की हाड़ी रोज-रोज नहीं चढ़ा करती। जिस तेजी से वे सहयोगी दलों को झटका देती आई हैं उस तेजी से वे राजनीति में लंबे समय तक शायद कामयाब न हो पाएं। उन्हें कुछ स्थायी संबंध तो बनाने ही होंगे। ऐसा नहीं है कि दलितों के वोट सदा के लिए सुश्री मायावती के झोली में पड़े रहेंगे। सपने दिखा कर कुछ समय तक लोगों को मूर्ख बनाया जा सकता है- हमेशा नहीं। आज वे दलितों की निर्विवाद नेता हैं लेकिन जब दलित देखेंगे कि उनकी आर्थिक प्रगति में और बसपा के नेताओं की आर्थिक प्रगति में जमीन-आसमान का अंतर है तो उनमें असंतोष फैलेगा और फिर सुश्री मायावती का ही कोई दाहिना या बाॅया हाथ उनके विरूद्ध बगावत का झंडा लेकर खड़ा हो जाएगा और एक नई बसपा बना लेगा। तब उनमें न वो ऊर्जा रहेगी न वो तेवर और तब नए खून वाले दलितों का मोर्चा ले उड़ेंगे। पिछले बीस सालों में दलितों के जो नेता ऊभरे आज उनके जनाधार सिकुड़ कर बहुत सीमित हो गए हैं। इस बात का ध्यान सुश्री मायावती को हमेशा रखना चाहिए।

जहां तक दलितों का प्रश्न हैं इस विषय में भी नई सोच की जरूरत है। ये सही है कि देहातों में जातिवाद की जड़े अभी भी बहुत गहरी हैं और दलितों के साथ सहज, सामान्य व्यवहार नहीं किया जाता। लेकिन यह भी सही है कि नौकरियों और शिक्षा में आरक्षण के कारण कम से कम शहरों में तो काफी बदलाव आया है। अब अपने को ऊंची जाति का मानने वाले भी दलित अधिकारी के सामने नतमस्तक रहते हैं। पर इस प्रक्रिया में सामाजिक सद्भाव बढ़ने की बजाए वैमनस्य और द्वेष बढ़ रहा है। दलितों की बात करने वाले अब महात्मा गांधी और विनोवा भावे जैसे संत तो हैं नहीं। ज्यादातर लोग सत्ता लोलुप हैं और दलित वोट को भुनाना चाहते हैं इसलिए सामाजिक वैमनस्य बढ़े ये उनके हित में जाता है। सुश्री मायावती अगर दलितों की सच्ची हमदर्द हैं तो सत्ता से बाहर रहने का जो समय उन्हें मिला हैं उसका इस्तेमाल उन्हें दलित समाज को जागृत करने में करना चाहिए। भक्ति युग के अनेक ऐसे संत हुए हैं जिन्होंने दलित उत्थान के लिए ठोस काम किया। जैसे कबीर दास जी, श्री चैतन्य महाप्रभु, संत रैदास, गुरूनानक देव आदि इन संतों ने दलितों को शेष समाज के साथ जोड़ने में अहम भूमिका निभाई। इनके द्वारा किए गए प्रचार कार्य में सामाजिक सौहार्द बढ़ा, वैमनस्य नहीं क्योंकि इनकी भावना लोक कल्याण की थी, जनता को मूर्ख बना कर कुर्सी हथियाने की नहीं।

पर आज दलितों के नेतृत्व करने वालों की न तो चेतना का विस्तार हुआ है न उन्हें आध्यात्मिक रूचि है। आग उगल कर लोगों की भावनाए भड़काना और उसे वोटों में बदल देना फिर सत्ता में बने रहने के लिए नौकरियां और खैरात के टुकड़े बांट देना ही दलित राजनीति का निचोड़ बन कर रह गया है। यह दुखःद स्थिति है। दलित समाज को इससे निकलने की जरूरत है। तभी दलितों के बच्चे भविष्य में शेष समाज के साथ सौहार्दपूर्ण जीवन जी पाएंगे। सत्ता में रहने वालों को कुछ नया और ठोस सोचने की फुर्सत ही नहीं मिलती पर सत्ता छीन जाने के बाद ऐसे शुभ कार्य करने के लिए काफी समय मिलता है। वैसे भी श्री मुलायम सिंह की सरकार अब जल्दी गिरने वाली नहीं है। इसलिए सुश्री मायावती के आगे तीन विकल्प हैं या तो आराम से बैठें और सैर-सपाटें करें जो उनकी उम्र का कोई राजनेता कभी करना नहीं चाहेगा। दूसरा विकल्प है कि दलितांे की बैठकों में जाकर श्री मुलायम सिंह के खिलाफ जहर उगलें और तीसरा विकल्प हैं कि कुछ दिन के लिए उठापठक की राजनीति से बच कर वैचारिक स्तर पर कुछ ठोस करें जिससे दलित समाज के प्रति एक दीर्घकालिक उपलब्धि प्रस्तुत कर सकें। ऐसे ही लोग इतिहास के पन्नों में अपनी जगह आरक्षित कराते हैं। सत्ता में आने और जाने का क्रम तो चलता रहता है पर समाज को हम क्या दे कर जाते हैं, समाज उसे ही याद रखता है। सुश्री मायावती को आत्ममंथन की आवश्यकता है। उन्हें दुविधा छोड़ कर दलितों के लिए रचनात्मक और ठोस करना होगा और राजनीति को समझने का अपना नजरिया व्यवहारिक बनाना होगा।

Friday, September 5, 2003

मुलायम सिंह का तीसरा मुख्यमंत्रित्व


बहुत प्रतीक्षा के बाद आखिर श्री मुलायम सिंह यादव को उत्तर प्रदेश की गद्दी तीसरी बार मिल ही गई। अब मुलायम सिंह पहले वाले नहीं रहे। समय ने उन्हें बहुत कुछ सिखा दिया है। साझी सरकार चलाना वक्त की मांग है। साझी सरकार चलाने की कुछ सीमाएं होती हैं। जहां इसमें एक दूसरे को साथ लेकर चलना जरूरी होता है, वहीं ब्लैकमेल होने की संभावनाएं भी काफी होती हैं। इसके लिए जरूरी है कि समन्वय समिति बहुत प्रभावी ढंग से काम करे। सत्ता भोगने के लिए नहीं, जनता की सेवा के लिए मिलती है। पर आमतौर पर सभी राजनेता सत्ता मिलने से पहले तो जनता के सवालों को लेकर घूमते हैं और सत्ता मिलने के बाद मुनाफे वाले मंत्रालय के लिए खींचतान मचा देते हैं। चंूकि लोकसभा चुनाव निकट हैं इसलिए उत्तर प्रदेश की सरकार में आए दलों को ज्यादा सावधानी बरतनी होगी क्योंकि इनके काम का असर लोकसभा चुनावों पर पड़ेगा। यूं तो श्री यादव बहुत सुलझे हुए, अनुभवी और समझदार नेता हैं, पर इस दौर में उनके सामने कई चुनौतियां हैं।

सबसे बड़ी तो चुनौती तो उत्तर प्रदेश की खस्ता माली हालत की है। साधनों के बिना प्रदेश का विकास करना तो दूर, सरकार चलाना ही नामुमकिन होता है। उत्तर प्रदेश की पिछली सरकारें कर्जे लेकर तनख्वाह बांटती आई हैं। यह स्थिति कब तक चलेगी ? नए संसाधन तो जुटाने ही होंगे। समाजवादी पार्टी के वरिष्ठ नेता श्री अमर सिंह के औद्योगिक जगत में खासे संबंध हैं। इसका लाभ उठाकर श्री मुलायम सिंह यादव उत्तर प्रदेश में कई बड़े उद्योग लगवा सकते हैं, जिससे लाखों नौजवानों को रोजगार मिल सकता है। उत्तर प्रदेश के गांवों में बेरोजगारी आज सबसे बड़ी समस्या है, जिसका हल ढूंढा जाना किसी भी सरकार की प्राथमिकता होनी चाहिए। इसके साथ ही किसानों के भुगतान की समस्या को भी नजरंदाज नहीं किया जा सकता। मायावती सरकार ने इस ओर ध्यान न देकर किसानों को नाराज ही किया है

आज से दस वर्ष पहले भाजपा मुलायम सिंह पर राजनीति के अपराधीकरण का आरोप लगाती थी।  पर सत्ता में आने के लिए भाजपा ने जिस तरह नैतिक मूल्यों को तिलांजलि देकर हर व्यक्ति से हाथ मिलाया उससे उसके श्रेष्ठ होने का दावा ध्वस्त हो गया। इधर मुलायम सिंह यादव ने प्रयास करके अपनी छवि सुधारने का काम किया। अब उनकी छवि एक गंभीर राजनेता की है। अपनी इस छवि को बनाए रखने के लिए श्री यादव को अपराधी तत्वों से दूर रहना होगा। न तो उन्हें प्रश्रय दें और न ही कोई सरकारी जिम्मेदारी ही उन्हें सौंपी जाए, वरना इसका गलत संकेत जाएगा। बेरोजगारी और राजनैतिक भ्रष्टाचार के चलते उत्तर प्रदेश के हर जिले में अपराधी तत्वों का बोलबाला है। जिन पर लगाम कसना श्री यादव की सबसे बड़ी चुनौती है। अगर वे इन पर लगाम कस पाते हैं तो वे लंबे समय तक उत्तर प्रदेश की कुर्सी पर बने रह सकते हैं। साझी सरकार की सबसे बड़ी समस्या यह होती है कि दर्जनों की तादाद में मंत्री बनाए जाते हैं। हर मंत्री पर आने वाला खर्चा उत्त्र प्रदेश की गरीब जनता पर अनावश्यक भार होता है। इससे प्रदेश की बिगड़ी अर्थव्यवस्था पर और भी चोट लगती है। वैसे भी दर्जनों मंत्री बिना काम के ही लाल बत्ती की गाड़ी में घूमा करते हैं। मंत्रिमंडल का आकार छोटा और प्रभावी बनाने पर श्री यादव को आशातीत सफलता मिलेगी।

श्री यादव के सामने एक बड़ी चुनौती सुश्री मायावती से निपटने की है। हालांकि श्री अमर सिंह ने कहा है कि उनकी सरकार बदले की भावना से काम नहीं करेगी, पर अक्सर राजनीति में जो कहा जाता है उसका उल्टा किया जाता है। मतलब स्पष्ट है कि मायावती सरकार के दौरान हुए घोटालों की जांच और उन पर तेजी से कार्रवाई करने के लिए श्री यादव सभी जांच एजेंसियांे पर दबाव डालेंगे। उधर, ताज काॅरीडोर कांड में बुरी तरह फंस चुकी मायावती की गति केन्द्र सरकार जयललिता जैसी कर देगा। तब मायावती के वो तेवर नहीं रह जाएंगे, जो वे आज दिखा रही हैं। ये बात दूसरी है कि मायावती की जितनी ही छीछालेदर होगी उतना ही उनका जातिगत जनाधार ठोस बनता जाएगा। इसके लिए यादव सरकार को जरूरी होगा कि मायावती के खिलाफ की जा रही कार्रवाई को ज्यादा प्रचारित न करे। 

हां यह जरूरी है कि सुश्री मायावती ने दलित नेताओं के नाम को भुनाते हुए प्रदेश के सभी शहरों और गांवों में सार्वजनिक जमीन पर हो रहे कब्जों को अनदेखा किया है या प्रश्रय दिया है। जिससे समाज में वैमनस्य बढ़ा है। लेकिन सुश्री मायावती के आतंक के सामने बोलने की किसी की हिम्मत नहीं थी। श्री मुलायम सिंह यादव की यह नैतिक जिम्मेदारी है कि वे पूरे प्रदेश में थानों को दुरुस्त करें और यह आदेश दें कि इस तरह के सभी अवैध कब्जे फौरन हटाए जाएं ताकि जनता का विश्वास प्रशासन में फिर से कायम हो सके। 

उत्तर प्रदेश की राजनीति पिछले चैदह वर्ष से धर्म से जुड़कर चल रही है। साम्प्रदायिकता, द्वेष और दंगे इसका परिणाम हैं। सबसे दुख की बात तो यह है कि धर्म की दुहाई देकर भी भाजपा की सरकार ने हिन्दू तीर्थस्थलों के विकास के लिए कुछ भी ठोस नहीं किया। श्री यादव कई बार कह चुके हैं कि वे धर्म में आस्था रखते हैं, लेकिन धर्म की राजनीति नहीं करना चाहते। अपनी इस भावना का प्रत्यक्ष प्रमाण इस नए शासनकाल में वे दे सकते हैं। वे उत्तर प्रदेश में तीर्थस्थलों का जोर शोर से जीर्णोद्धार करवाएं। इससे उनका यश दूर दूर तक फैलेगा और अगले लोकसभा चुनाव में तो इसका फायदा उन्हें निश्चित ही मिलेगा। सबसे पहले यदुवंशी भगवान श्री कृष्ण की लीलास्थली सम्पूर्ण ब्रज क्षेत्र के विकास कार्य को गति प्रदान किए जाने की आवश्यकता है। श्री यादव को चाहिए कि वे ब्रज का स्वरूप इतना सुन्दर बना दें, कि देश विदेश से आने वाले भक्त उनका यशगान करें। यह किसी से छिपा नहीं है कि तीर्थस्थलों की दुर्दशा पिछले कुछ सालों में बहुत बढ़ गई है। राजनीतिक दल साम्प्रदायिक और गैर साम्प्रदायिक की श्रेणी में बंट गए हैं। परंतु  किसी ने भी तीर्थस्थलों की ओर ध्यान नहीं दिया, चाहे वह हिन्दुओं के हों या मुसलमानों के अथवा सिखों के या ईसाइयों के। इनकी दशा सुधारने के लिए कोई प्रयास नहीं किए। बस उनका एक ही ध्येय रहा कि कैसे भी जनता के ज्यादा से ज्यादा वोट हासिल किए जाएं।
ऐसा लगता है कि उत्तर प्रदेश का भविष्य अब कांग्रेस और समाजवादी पार्टी की जुगलबंदी से ही निर्धारित होगा। इसके लिए इन दोनों ही दलों को काफी परिपक्वता का परिचय देना होगा। चूंकि लोकसभा चुनाव निकट हैं इसलिए दोनों ही दल अपना जनाधार बढ़ाना चाहेंगे। इससे कार्यकर्ताओं के बीच टकराव की स्थिति बन सकती है, जिसे टाला जाना चाहिए। हालात की नजाकत को समझकर दोनों दलों को शीर्ष स्तर पर ही ऐसी समझदारी पैदा करनी चाहिए जिससे यह लंबे समय तक मिलकर साथ चल सकें और एक दूसरे के पूरक बन सकें, प्रतिद्वन्द्वी नहीें क्योंकि प्रतिद्वन्द्वी बनकर यह अपने ही पैरों पर कुल्हाड़ी मारेंगे। इसमंे ज्यादा जिम्मेदारी श्री यादव के ऊपर है। यदि वे लंबे समय तक उत्तर प्रदेश की सत्ता में रहना चाहते हैं तो उन्हें लोकसभा चुनाव में कांग्रेस के लिए मैदान छोड़ने में संकोच नहीं करना चाहिए। बड़ी स्पष्ट समझ बन सकती है कि समाजवादी पार्टी राज्य स्तर की राजनीति में आगे रहे और इंका केन्द्र के मामले में। इससे प्रदेश में राजनैतिक अस्थिरता भी दूर होगी और जनता के सामने एक ठोस विकल्प भी दिखाई देगा। 

पता नहीं राजनेताओं के बीच यह गलतफहमी क्यों पैदा हो गई है कि जनता मूर्ख है और वो चुनाव के पहले फुसलाई जा सकती है, चाहे विकास कार्य कोई किया जाए या नहीं। पर अब समय बदल रहा है। सूचना क्रांति के दौर में जनता पहले की तरह कूपमंडूक नहीं है। जैसे जैसे उसकी जानकारी बढ़ रही है उसकी अपेक्षा भी बढ़ रही है। बिना जन अपेक्षाओं पर खरा उतरे कोई राजनेता या दल बहुत लंबे समय तक जिंदा नहीं रह सकता। इसलिए श्री यादव को चाहिए कि उत्तर प्रदेश के प्रशासन को जनता के प्रति जवाबदेह होने के लिए मजबूर करें। इस मामले में राजस्थान और आंध्र प्रदेश का उदाहरण अनुकरणीय है। जहां के मुख्यमंत्रियों ने राजनीतिक स्टंटबाजी की जगह जनहित में कई ऐसे ठोस काम किए, जिससे प्रशासन का रवैया जनता के प्रति बदल गया है। ऐसी पहल उत्तर प्रदेश में भी होनी चाहिए। हमारी प्रशासनिक व्यवस्था का मूल उद्देश्य जनता की सेवा करना है, पर फिर भी यह हमारे प्रशासक खुद को राजा मानकर चलते हैं और जनता का प्रजा। लोकतंत्र का इससे बड़ा मजाक और क्या हो सकता है?