कहने को तो अमरीका और भारत में लोकतंत्र है और सरकार जनता के द्वारा चुनी जाती है। बालने व लिखने की आजादी है। पर क्या वाकई लोगों की सुनी जाती है ? इराक पर मंडराते अमरीकी हमले के सवाल को ही लें। अमरीका इराक के सर्वाधिक लोकप्रिय नेता सद्दाम हुसेन को नेस्तोनाबूत करना चाहता है। शायद इसलिए कि सद्दाम हुसेन अमरीका के सामने नस्तमस्तक होने को तैयार नहीं है। इराक के नागरिक ही नहीं पूरी दुनिया इस संभावित युद्ध के बारे में सोच कर चिंतित है और इसका विरोध कर रही है। यहां तक कि अमरीका के भी ज्यादातर नागरिक नहीं चाहते कि अमरीका इराक पर हमला करे। विश्व समुदाय की चिंता बहुत स्वाभाविक है। इस फिजुल के युद्ध में जानमाल की जो हानी होगी, उसका भार तो केवल इराक और अमरीका पर पड़ेगा पर इस युद्ध के कारण सारी दुनिया की अर्थव्यवस्था लड़खड़ा जाएगी। पेट्रोलियम पदार्थों के दामों में भारी वृद्धि जिसके कारण माल की ढुलाई का खर्चा भी बढ़ जाएगा और इस तरह महंगाई भी बहुत बढ़ जाएगी। सवाल है कि अपनी प्रजा सहित विश्व समुदाय की संभावित युद्ध रोकने की मांग को राष्ट्रपति बुश का प्रशासन क्यों उपेक्षा कर रहा है? अमरीकी राजनीति और अर्थव्यवस्था के जानकार बताते हैं कि अमरीका में सशत्र उत्पादक उद्योगों के मालिक बहुत प्रभावशाली हैं और अमरीकी सरकार पर उनका तगड़ा शिकंता कसा रहता है। अमरीका की विदेश नीति निर्धारण में ‘आम्र्स लाॅबी’ अहम भूमिका निभाती है। इस बात के तमाम प्रमाण हैं कि दुनिया में अनेक छोटी-बड़ी लड़ाइयों के पीछे इस लाॅबी के निहित स्वार्थ छिपे रहते हैं क्योंकि हर युद्ध से इस लाॅबी को बेहतद मुनाफा होता है। आपस में लड़ने वाले देश लड़ाई के लिए भारी मात्रा में सशत्र और गोला-बारूद खरीदते हैं जिससे जाहिरन सशत्र उत्पादक उद्योगा को मुनाफा होता है। एक शोध के अनुसार पूरे दुनिया के आयुद्ध उत्पादन पर मुट्टी भर अमरीकी औद्योगिक घरानों का कब्जा है, कहीं ये प्रत्यक्ष और कहीं ये अप्रत्यक्ष। इसी शोध के अनुसार हर युद्ध के बाद इन औद्योगिक घरानों की हैसियत कई गुना बढ़ा जाती हैं। यदि अमरीका ओर इराक के बीच युद्ध होता है तो जाहिरन इन उद्योगपतियों को भारी मुनाफा होगा। इसलिए विश्व समुदाय कुछ भी कहे, अमरीका के नागरिक कुछ भी कहें पर राष्ट्रपति बुश अंततोगत्वा वहीं करने पर मजबूर होंगे जो आम्र्स लाॅबी चाहती हैं।
पिछले दिनों मेरा परिचय स्वीट्जरलैंड के एक ऐसे व्यक्ति से हुआ जो पूरी दुनिया के सबसे धनी लोगों की संपत्ति और धन का प्रबंधन करने हैं। अरबों रूपया कहां लगाया जाए जहां सुरक्षित भी रहे और उससे आमदनी भी होती रहे। इन सज्जन से मैंने पूछा कि तुम तो रोज ही दुनिया के अरब-खरबपतियों से मिलते हो, क्या तुम्हें ऐसा लगा कि उनके सीने में भी किसी मानव का दिल है ? अगर है तो क्या वजह है कि मुनाफा कमाने के लालच में वे इतने अंधे हो जाते हैं कि दुनिया का हित और अहित भी उन्हें ध्यान नहीं रहता। वे जानते हैं कि उनके उत्पादन समाज के लाभ के लिए नहीं है फिर भी वे उस व्यवसाय को नहीं छोड़ते। चाहे घातक कीटनाशक हों, रासायनिक खाद्य हो, जहरीली गैस हों ऐसी तमाम चीजों का उत्पादन करते ही जाते हैं, आखिर क्यों ? उन स्विज बैंकर का जवाब था कि, ‘‘इंसान की हवस की कोई सीमा नहीं होती।’’ चाहे जितना मिल जाए फिर भी हमें कम ही लगता है। कुछ लोग यह तर्क दे सकते हैं कि अधिक कमाने का अर्थ यह तो नहीं कि आमदमी काम करना बंद कर दे। पर सवाल है कि ऐसा काम क्यों किससे समाज की हानी हो ?
इराक पर युद्ध हो या न हो ये तो बहुत दिनों तक रहस्य नहीं रह पाएगा। पर ऐसे तमाम सवाल उन लोगों के मन में घुमते रहते हैं जो इस लोकतंत्र में आम आदमी के अधिकारों को लेकर चिंता करते हैं। भारत की ही बात लें यहां फलता-फुलता लोकतंत्र है। हर किस्म की आजादी है। काम न करने की, जनता को मूर्ख बनाने की, झूठ बोलने की, खुलेआम रिश्वत लेने की। पर क्या वास्तव में इस देश के नीतियों के निर्धारण में आम आदमी के हितों को ध्यान रखा जा रहा है। देश की राजधानी दिल्ली सहित अनेक महानगरों में लाखों लोग जिन नारकीय स्थिति में रह रहे हैं उसके लिए उन्होंने कोई सपना नहीं संजोया था। उनके जंगत, जमीन, नदी, पहाड़ उनसे छीन लिए गए और औद्योगिक विकास के नाम पर उन्हें बेघरबार कर दिया गया। पेट की आग बुझाने को मजबूर ये लाखों लोग बड़े शहरों में आगर बस गए, इस उम्मीद में कि कुछ न कुछ काम करके पेट पाल लेंगे। इसी तरह लाखों लोग झुग्गियों में रह रहे हैं। ये कैसा लोकतंत्र है जो इन लोगों को जिने की बुनियादी सुविधाएं भी नहीं देता और उसी शहर में, इन्हीं लोगों द्वारा चुने गए प्रतिनिधि सत्ता में बैठकर राजा-महाराजाओं सा जीवन जीते हैं। इतना ही नहीं हर राजनैतिक दल अपने बेटे, भाई, भतीजे और बहु को ही उत्तराधिकारी बनाता है। किसी राजनैतिक दल में आमदनी और खर्चे का कोई ठीक हिसाब नहीं रखा जाता। किसी भी राजनैतिक दल में कनिष्ठ कार्यकर्ताओं को वरिष्ठ नेताओं के विरूद्ध कुछ भी कहने की आजादी नहीं है। ऐसा कहने वाले दल से निकाल दिए जाते हैं। ये कैसा लोकतंत्र है जिसमें गरीबों को समाजवाद, साम्यवाद, गांधीवाद या हिंदू राष्ट्र के सपने दिखा कर वोट मांगे जाते हैं पर जब उनके वोटों से विधायक चुन लिए जाते हैं तो वो सरेबाजार लाखों रूपए में अपनी कीमत लगवा कर मेंढकों की तरह दल बदलते रहते हैं। इतना ही नहीं हर दल अब तो बाकायदा खुलल्मखुल्ला बड़े उद्योगपतियों को ही राज्यसभा में लेकर आता है। जाहिर है करोड़ों रूपए का लेनदेन होता है। उद्योगपतियों के राज्य सभा में जाने से भला किसी को क्या आपत्ति हो सकती हैं आखिर में भी वो भी इस देश के नागरिक हैं पर अगर यही प्रवृत्ति चलती रही तो राज्यसभा इस देश के 100 करोड आम हिंदुस्तानी का नहीं आधा फीसदी अति संपन्न वर्ग का ही प्रतिनिधित्व करेगी। फिर ये कैसा लोकतंत्र है ?
ये कैसा लोकतंत्र है जहां मानव अधिकारों के हनन करने वाले घोटालेबाज न्यायधीश बिना सजा पाए बच निकलते हैं। बच ही नहीं निकते हैं बल्कि मानव अधिकारों के रक्षा के लिए तैनात कर दिए जाते है। ये कैसा लोकतंत्र है जहां कानून की निगाह में सब बराबर हैं पर सजा केवल छोटे अपराधिओं को की मिलती है। बड़े अपराध या घोटाले करने वालों को प्रमुख राजनैतिक पद दिए जाते हैं। कहने वाले ये भी कहेंगे कि ये तो नजरिए का सवाल है किसी को बोतल आधी भरी दिखाई देती हैं और किसी को आधी खाली। यह बात ठीक है कि इन सब कमियों के बावजूद भारत का लोकतंत्र दूसरे देशों के मुकाबले बहुत पीछे नहीं है। पर यहां लोकतंत्र चुनावच के बाद समाप्त हो जाता है। क्योंकि चुनाव हो जाने के बाद जनता अपने चुने हुए प्रतिनिधियों पर नियंत्रण नहीं रख पाती और वे निरंकुश होकर सत्ता सुख भागते हैं और राष्ट्रीय व अंतर्राष्ट्रीय निहित स्वार्थों के हाथों में खेलते हैं।
ऐसे माहौल में जब लोगों के घर और जमीन छीन लिए जाए, रोजगार के अवसर न मिलें, पुलिस अपराधियों से मिली हो, न्यायपालिका भ्रष्टाचार के प्रभाव में आ चुकी हो, तो एक नौजवान नक्सलवादी या आतंकवातदी बनने के सिवाए क्या कर सकता है ? इसलिए जब वाजपेयी जी दुनिया के देशों से आतंकवाद के मामले पर दोहरी चाल न चलने की चेतावनी देते हैं तो बड़ा अटपटा लगता है। फिलहाल भारत का माहौल कुछ ऐसा बनता जा रहा है मानो आतंकवाद और मंदिर निर्माण के अलावा कोई दूसरे अमह मुद्दे देश के सामने हैं ही नहीं। टीवी के चैनलों पर आने वालेे कार्यक्रम देखिए या अखबारों में छपने वाले लेख। सारा ध्यान इन्हीं मुद्दों पर केंद्रित किया जा रहा है। जबसे टेलीविजन चैनलों की भरमार हुई है तब से लोक क्या सोचें ये मीडिया तय कर रहा है। वो क्रिकेट के बारे में सोचे या किसी और अंतर्राष्ट्रीय घटना के बारे में इसका फसला मीडिया मुगल करते हैं और मीडिया मुगल औद्योगिक घराने की बाजारनीतियों से नियंत्रित होते हैं। जनता की अपेक्षाओं और आकांक्षाओं से नहीं। यानी लोकतंत्र का चैथा खंभा भी अब आम आदमी का प्रतिनिधित्व नहीं कर रहा। ऐसे माहौल में कैसे माना जाए कि हमारी लोकतांत्रित परंपराएं मजबूत हो रही है। हर ओर एक धुंध सी छाई है। हड़बड़ाहट है रातों रात धनी और मशहूर बनने की। निजी लाभ के लिए सांस्कृतिक, आधयात्मिक व पारंपरिक मूल्यों को पीछे धकेला जा रहा है। प्रतिस्पर्धा का एक नकली माहौल तैयार किया जा रहा है। जनता को लगातार तनाव व आर्थिक असुरक्षा के माहौल में रहने को मजबूर किया जा रहा है। समाज का सूख-चैन छीना जा रहा है। उसे आनंद की नई परिभाषाएं बताई जा रही है। जिससे युवाओं में भारी हताषा फैल रही है। हर गांव, गस्बों में सैकड़ों-हजारों बेरोजगार नौजवान पैसे के लिए आंतकवादी और तस्तकर तक बनने के लिए तैयार हो रहे हैं। यह भयानक स्थिति है। हम सीमा पार के आतंकवाद से तो जरूर लड़ें पर अपने घर के भीतर पैदा हो रहे इन हालातों को नजरंदाज करते जाएं तो आतंकवाद घटेगा नहीं बढ़गा ही। यदि हमें दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र होने का गर्व है तो देश के बहुत सारे लोगों को आगे बढे कर यह सुनिश्चित करना होगा कि लोकतंत्र की जड़े बजबूत हों। ये महज नारा न रह कर हकीकत बने। हर आम मतदाता की सुनी जाए, उसकी प्राथमिकताओं का निर्धारण उसकी मर्जी से हो। ऊपर से थोपा न जाए, मौजूदा हालात में इसकी संभावना क्षीण होती जा रही है। यह चिंता की बात है।
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