Friday, September 13, 2002

कैसे हों शमशान घाट ?

जो लोग कलकत्ता से आने वाली राजधानी एक्सप्रेस में जल समाधि ले गये उनके परिजनों को इस दुखद हादसे से उबरने में अभी बहुत वक्त लगेगा। मौत कैसी भी क्यों न हो परिजनों को भारी पीड़ा देती है। घर का बुजुर्ग भी अगर चला जाए तो एक ऐसा शून्य छोड़ जाता है जो फिर कभी भरा नहीं जा सकता। उसकी उपस्थिति का कई महीनों तक परिवारजनों को आभास होता रहता है। उसकी दिनचर्या को याद कर परिजन दिन में कई बार आंसू बहा लेते हैं। घर में कोई उत्सव, मांगलिक कार्य या अनुष्ठान हो तो अपने बिछुड़े परिजन की याद बरबस आ जाती है। जब कभी परिवार किसी संकट में फंसता है तो उसे अपने परिजन की सलाह याद आती है। अच्छे लोग मर कर भी मरते नहीं। किसी न किसी रूप में उनकी स्मृति बनी रहती है। अपने परिजनों के बिछुड़ने के बाद भी उन्हें याद रखने की संस्कृति बहुत पुरानी है। चीन, मिसोपोटामिया, माया संस्कृति, सिन्धु  घाटी ऐसे अवशेषों से भरी पड़ी है जो यह प्रमाणित करते हैं कि आने वाली पीढि़यां अपने बिछुड़े परिजनों को जीवन से अलग नहीं कर पातीं। दक्षिण पूर्वी एशियाई देशों में तो हर घर के आंगन में एक पांच फुट के खम्भे पर बुद्ध पगोडे के स्वरूप का छोटा सा मंदिर बना होता है जिसमें परिजनों के स्मृति चिह्न रखे होते हैं। सिंगापुर जैसे आधुनिक और अति व्यस्त शहर में भी काम पर जाने से पहले घर के सदस्य पूर्वजों के इस मंदिर में माथा टेककर जाते हैं। इतना ही नहीं हर सुबह नाश्ते में बनने वाले सभी व्यंजनों का अपने पूर्वजों को भोग लगाकर ही चीनी लोग नाश्ता करते हैं। जब मृतकों की स्मृति के लिये इतना कुछ किया जाता है तो जब कोई अपना जीवन समाप्त कर अंतिम यात्रा को प्रस्थान करता है उस समय परिजनों के हृदय की व्यथा शब्दों में व्यक्त नहीं की जा सकती। घर में जैसे ही मौत होती है पहली प्रतिक्रिया तो आघात की होती है। सारा परिवार महाशोक में डूब जाता है। फिर तुरंत ही अंतिम यात्रा की तैयारी शुरू कर दी जाती है। जीते जी हम अपने प्रियजन को कितना ही प्यार क्यों न करते रहे हों उसकी मौत के बाद, शव को कोई बहुत समय तक घर में नहीं रखना चाहता। अर्थी सजाने से लेकर शमशान जाने तक का कार्यक्रम बहुत व्यस्त कर देने वाला होता है। जहां घर की महिलायें रुदन और विलाप में लगी होती हैं वहीं पुरुष सब व्यवस्था में जुट जाते हैं। अपनी क्षमता और भावनानुसार लोग अपने प्रियजन की इस अंतिम यात्रा को अधिक से अधिक भव्य बनाने का प्रयास करते हैं। अगर कोई नाती-पोते वाला बहुत बुजुर्ग चल बसे तब तो गाजे-बाजे के साथ, रंग गुलाल उड़ाते हुए विदाई होती है। पर भारत के अधिकतर शहरों में इस यात्रा का अंतिम पड़ाव इतना झकझोर देने वाला होता है कि शोकाकुल परिवार का शोक और तनाव और भी बढ़ जाता है।



शमशान घाटों की दुर्दशा पर बहुत समाचार नहीं छपते। यह एक गंभीर विषय है और आश्चर्य की बात है कि मरते सब हैं पर मौत की बात करने से भी हमें डर लगता है। जब तक किसी के परिवार में ऐसा हादसा न हो वह शायद ही शमशान तक कभी जाता है। उस मौके पर शवयात्रा में आये लोग शमशान की दुर्दशा पर बहस करने के लिये बहुत उत्साहित नहीं होते। जैसा भी व्यवहार मिले, सहकर चुपचाप निकल जाते हैं। पर एक टीस तो मन में रह ही जाती है कि हमारे प्रियजन की विदाई का अंतिम क्षण ऐसी अव्यवस्था में क्यों गुजरा? क्या इससे बेहतर व्यवस्था नहीं हो सकती थी? प्रायः देश के शहरों में शमशान घाट पर और उसके चारों ओर गंदगी का साम्राज्य होता है। जली लकडि़यां, बिखरे सूखे फूल, पहले आये शवों के साथ फेंके गये पुराने वस्त्र, प्लास्टिक के लिफाफे, अगरबत्तियांे के डब्बे, घी के खाली डिब्बे, टूटे नारियल, टूटे घड़ों के ठीकरे जैसे तमाम सामान गंदगी फैलाये रहते हैं जिन्हें महीनों कोई नहीं उठाता। उन पर पशु पक्षी मंडराते रहते हैं। जहां शव लाकर रखा जाता है वह चबूतरा प्रायः बहुत सम्माननीय स्थिति में नहीं होता। उसका टूटा पलस्तर और उस पर पड़ी पक्षियों की बीट जैसी गंदगी परिजनों का दिल तोड़ देती है। सबसे ज्यादा तो शमशान घाट के व्यवस्थापकों का रूखा व्यवहार चुभता है। यह ठीक है कि नित्य शवयात्राओं को संभालते-संभालते उनकी चमड़ी काफी मोटी हो जाती है और भावनायें शून्य हो जाती हैं, पर उन्हें यह नहीं भूलना चाहिये कि जिन लोगो से उनका रोज सामना होता है उनके लिये यह कोई रोज घटने वाली सामान्य घटना नहीं होती। टूटे मन, बहते नयन और बोझिल कदमों से चलते हुए लोग जब शमशान घाट के व्यवस्थापकों से मिलते हैं तो उन्हें स्नेह, करुणा, ढांढस और  हर तरह के सहयोग की तत्परता का भाव मिलना चाहिये। दुर्भाग्य से हम हिन्दू होने का गर्व तो करते हैं पर अपने शमशान घाटों को कसाईखाने की तरह चलाते हैं। जबकि पश्चिमी देशों में कब्रिस्तान तक जाने की यात्रा में चर्च और समाज की भूमिका अनुकरणीय होती है। वहां तो हर सामुदायिक केन्द्र के पुस्तकालय में एक विशेष खण्ड ऐसी पुस्तकों का होता है जिसमें मृत्यु से जूझने के नुस्खे बताये जाते हैं। पिछले दिनों लंदन के एक सामुदायिक केन्द्र में ऐसे ही पुस्तकालय में मेरी नजर इस खण्ड पर पड़ी। अंग्रेजी में छपी ये छोटी-छोटी पुस्तिकायें उत्सुकता बढ़ाने के लिये काफी थीं। एक पुस्तक का शीर्षक था पति की मृत्यु से कैसे सामना करें ?’ एक पुस्तक का शीर्षक था घर में मौत के बाद आप क्या करें ?’ एक पुस्तक का शीर्षक था अंतिम यात्रा की तैयारी कैसे करें ?’ एक और पुस्तक का शीर्षक था मृत्यु की स्थिति से निपटने में मदद देने वाली संस्थाओं के नाम-पते। यह तो पश्चिमी समाज की बात है जहां संयुक्त परिवार और शेष समाज अब आपके जीवन में दखल नहीं देते। पर भारतीय समाज में ऐसा शायद ही होता हो कि किसी के घर मौत हो और उसे स्थिति से अकेले निपटना पड़े। उसके नातेदार और मित्र बड़ी तत्परता से उस परिवार की सेवा में जुट जाते हैं और कई दिन तक उस परिवार को सांत्वना देने आते रहते हैं। इसलिये हमारे समाज में शमशान घाट का ऐसा विद्रूपी चेहरा तो और भी शर्म की बात है। पर ऐसा है, यह भी मृत्यु की तरह एक अटल सत्य है। इस मामले में आशा की किरण जगाई है कुछ शहरों के उन उत्साही लोगों ने जिन्होंने सामान्य से भी आगे बढ़कर शमशान घाट को एक दर्शनीय स्थल बना दिया है।

इस क्रम में सबसे पहला नाम राजकोट और जामनगर का याद आता है। गुजरात के इन नगरों में बने शमशान घाट इतने भव्य और सुन्दर हैं कि पर्यटक उन्हें देखने आते हैं। जामनगर के शमशान घाट में जब शवयात्रा प्रवेश करती है तो पूरे मार्ग पर देवी देवताओं की भव्य प्रतिमायें बड़े आकर्षक रूप में उसका स्वागत करती हैं। ऐसे ही दिल्ली नगर निगम ने भाजपा के शासनकाल में निगम बोध घाट का सौन्दर्यीकरण किया था। यहां सबसे आकर्षक चीज तो यह है कि शव के अंतिम स्नान के लिये एक अत्यंत सुन्दर सरोवर बनाया गया है जिसके एक छोर पर मां गंगा और मां यमुना के विग्रह हैं जिनके चरणों से वास्तव में गंगा और यमुना का जल आता हुआ इस सरोवर में गिरता है। ऐसे पुण्य सरोवर में अपने बिछुड़े परिजन के शव को स्नान कराते वक्त निश्चित ही परिजन संतोष का अनुभव करते हैं। बरेली, लखनऊ और जैतपुर जैसे स्थानों पर भी शमशान घाटों का स्वरूप सुधारा गया है। दिल्ली के पंजाबी बाग के नागरिकों ने हाल ही में शमशान घाट की व्यवस्था में भारी सुधार किया है। पर इस दिशा में सबसे ताजा उदाहरण मथुरा नगरी का है।

सदियों से देश भर के कृष्णभक्त मथुरा या ब्रज मण्डल में शरीर त्यागने की भावना से आते रहे हैं। उनमें अगर बंगाल की दरिद्र विधवायें थीं तो देश के अनेक प्रतिष्ठित पदों पर आसीन रहे बड़े लोग और धनी जन भी अपनी अंतिम श्वांस ब्रज प्रदेश में छोड़ने की भावना से आते रहे हैं। क्योंकि मथुरा या काशी में शरीर छोड़ने से मुक्ति होती है, यह विश्वास हर हिन्दू के मन में है। ऐसी भावना लेकर मथुरा वास करने वाले लोगों को वहां के शमशान घाट की दुर्दशा देखकर बड़ी पीड़ा होती थी। इसी पीड़ा को अनुभव करके मथुरा के कुछ सभ्रांत नागरिकों ने महावन रमणरेती के स्वामी श्रीगुरू शरणानंद जी महाराज व मथुरा के श्रीजी बाबा महाराज की प्रेरणा से और भाजपा के पूर्व मंत्री रविकांत गर्ग व अन्य स्थानीय नागरिकों के सहयोग से एक ऐसे भव्य शमशान घाट का निर्माण किया है जिसे देखने भविष्य में तीर्थयात्री यहां आया करेंगे। इसका नाम रखा गया है मोक्ष धाम। इसका द्वार मथुरा के यमुना तट पर बने प्रसिद्ध विश्राम घाट की वास्तुकला का नमूना है। जिसके शिखर पर गरुड़ासीन भगवान विष्णु विराजे हुए हैं। भाव यह है कि जब शव इस द्वार से प्रवेश करेगा तो भगवान विष्णु के श्रीचरणों की कृपा प्राप्त करेगा। मोक्षधाम में अनेक सुविधा सम्पन्न वृहद हाॅल, शव के विश्राम के लिये विष्णुजी के मंदिर के चरणों में मोक्ष शिला, यमुना स्नान के लिये एक वृहद सरोवर जिसके एक ओर चट्टान पर यमुना महारानी विराजी हैं और उनके चरणों से जल बहकर सरोवर में आ रहा है। इसके अतिरिक्त अनेक सुन्दर लाॅन, स्नान घर आदि की व्यवस्था की गयी है। कुल डेढ़ करोड़ की लागत से बना यह मोक्ष धाम मृतकों के दाह संस्कार की सभी सेवायंे बिना भेदभाव के निशुल्क प्रदान कर रहा है। श्री रविकांत गर्ग बताते हैं कि जब इन लोगों ने इस परियोजना का प्रारूप बनाया और उसे लेकर नगर के धनी लोगों के पास गये तो उन्हें आशातीत सफलता मिली। हर व्यक्ति ने माना कि यह एक अत्यंत आवश्यक कार्य है और इस पुनीत कार्य में उसने अपनी क्षमता अनुसार सहयोग दिया। यहां तक कि एक निर्धन जाटव ने भी उत्साह से पांच सौ रुपये का अनुदान दिया। आज मथुरा वासियों के इस सामूहिक प्रयास से मोक्ष धाम बनकर तैयार हुआ है जो निश्चय ही भविष्य में मृतकों के दाह संस्कार की अविस्मरणीय सेवायें देता रहेगा। थोड़े ही समय में सफल हुए मथुरा के इस प्रयोग के अनुभव के आधार पर यह निश्चित रूप से कहा जा सकता है कि भारत के सभी प्रांतों के शहरों में अगर कुछ उत्साही नागरिक इसी तरह एक स्वयंसेवी संगठन का गठन कर अपने शहर के शमशान घाट की कायाकल्प करने का बीड़ा उठा लें तो उन्हें बहुत अड़चनें नहीं आयेंगी। यह एक ऐसा कार्य है जो संतोष भी देगा और पुण्य लाभ भी। चूंकि यह लेख देश के कई प्रांतों में पढ़ा जाता है इसलिये ऐसी इच्छा हुई कि इस सद्विचार को ज्यादा से ज्यादा लोगों तक पहंुचाया जाए ताकि देश के तमाम नगरों से लोग जाम नगर या मथुरा (उत्तर प्रदेश) जाकर इन शमशान घाटों को देखें और उनसे प्रेरणा लेकर अपने शहर में भी ऐसी पहल करें। यह सार्वजनिक हित का कार्य है अतः इसके लिये अपने क्षेत्र के सांसद और विधायकों की विकास राशि से भी मदद ली जा सकती है। पर सरकारी धन पर निर्भर रहने से बेहतर होगा कि लोग निज प्रयासों से इस काम को पूरा करें।

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