ज्यों ज्यों आधुनिकता और उपभोक्तावाद बढ़ रहा है त्यों त्यों समाज में असुरक्षा और कुंठा भी बढ़ रही है। इसलिये लोगों की रुचि धर्म, कथा, सत्संग व तीर्थाटन में बढ़ रही है। हर तीर्थ पर सारे साल श्रद्धालुओं का मेला लगा रहता है, चाहे वह किसी भी धर्म का क्यों न हो। जहां श्रीनाथद्वारा, वष्न्दावन, तिरुपति, श्रवणबेलगोला जैसे तीर्थ विशेष धर्म या सम्प्रदाय के भक्तों को आकर्षित करते हैं वहीं स्वर्ण मंदिर, अमष्तसर, अजमेर शरीफ, अरविंद आश्रम पांडिचेरी जैसे तीर्थ दूसरे धर्मों के भक्तों को भी आकर्षित करते हैं। इन तीर्थ स्थानों पर आने वाले श्रद्धालुओं की संख्या अब इतनी ज्यादा होने लगी है कि उसकी व्यवस्था करना एक बड़ी चुनौती बनता जा रहा है। अमष्तसर स्थित स्वर्ण मंदिर के दर्शन करने हजारों श्रद्धालु रोज वहां पहंुचते हैं पर उनको पहला धक्का तब लगता है जब वे अमष्तसर रेलवे स्टेशन पर उतरते हैं। कूडे़ के ढेर, प्लेटफार्मों में फैला सामान, बिना वर्दी के कुली, तीर्थयात्रियों की कमीज फाड़ने को तत्पर टैम्पो और रिक्शा वाले एक ऐसा नजारा पेश करते हैं कि ‘वाहे गुरू’ की शरण में आने वाला तौबा कर बैठता है। स्टेशन से स्वर्ण मंदिर तक का सफर भी कोई आनंद देने वाला नहीं होता। सड़कों परबने बड़े बड़े गड्ढे रिक्शा में बैठकर जाने वाले तीर्थया़ित्रयों की हड्डियों की मजबूती से बार बार परीक्षा लेते हैं। स्वर्ण मंदिर के प्रबंधकों ने कई महलनुमा सराय बनवाई हैं। खासकर गुरूअर्जुन निवास, गुरू हरगोविन्द निवास व माता गंगा निवास ऐसी सराय हैं जिनमें हरेक में एक साथ तीन चार सौ परिवार तक ठहर सकते हैं। इन सरायों के चमचमाते संगमरमर के फर्श और इनकी भव्यता इनके महल होने का आभास देती है। पर यहां तैनात सेवादारों का रुखा व्यवहार तीर्थयात्रियों का दिल तोड़ देता है। गुरूद्वारा प्रबंधक कमेटी को चाहिये कि वे इस विशाल व्यवस्था के प्रबंधन में विनम्रता, स्नेह और सेवा का भाव भी बढ़ायें। उधर पंजाब के स्कूलों से बच्चों की बड़ी बड़ी टोलियां ऐतिहासिक और धार्मिक महत्व के स्थलों को देखने अमष्तसर आती हैं। इनमें से ज्यादातर बच्चे ऐसे होते हैं जिनके लिये यह यात्रा जीवन में पहला बड़ा पर्यटन होता है। उन्हें गर्मजोशी से आतिथ्य मिलना चाहिये ताकि वे सुखद अनुभूति लेकर घर लौटें। साधन की कमी नहीं है। उपलब्ध साधनों का ही बेहतर इस्तेमाल करने की जरूरत है। गुरूद्वारे द्वारा संचालित लंगर अपनी कार्यकुशलता की मिसाल है। हजारों लोगों को अनवरत 24 घंटे लंगर प्रसाद का वितरण जिस सफाई, फुर्ती और कुशलता से होता है वह दुनिया के लिये एक उदाहरण है।
जहां तक गुरूद्वारे के अंदर दर्शन की व्यवस्था का प्रश्न है। वह काफी सुचारू रूप से चली रहती है। हर व्यक्ति को पंक्ति में चलते हुए अपनी बारी आने पर दर्शन भी मिलते हैं और प्रसाद भी।ये बात दूसरी है कि ब्रह्म मुहूर्त में जब पालकी साहब की सवारी निकलती है तब भीड़ को नियंत्रित करने की कोई माकूल व्यवस्था नहीं होती। बच्चों, बूढ़ों और गर्भवती महिलाओं को ऐसी भीड़ में अपनी रक्षा करना काफी कठिन होता है। इस व्यवस्था में सुधार की आवश्यकता है। बहुत से दर्शनार्थी सुबह अमष्तसर आते हैं और शाम की ट्रेन सेलौट जाते हैं इन चंद घंटों के लिये वे न तो होटल का किराया बर्बाद करना चाहते हैं और न कहीं और कमरा लेना चाहते हैंऐसे लोग अपना हल्का फुल्का सामान अपने कंधों पर लिये दिन भर मंदिर के परिसर में भ्रमण करते हैं कभी कभी यह असुविधाजनक हो जाता है। मंदिर में जो लाॅकर की सुविधा है वह नाकाफी है इसे और विस्तष्त और व्यवहारिक बनाने की आवश्यकता है ताकि हरमंदिर साहब के दर्शनों की अभिलाषा लिये आने वाली हर जीवात्मा प्रसन्नता और संतोष का भाव लेकर लौटें व्यवस्था में सुधार हो सके इसके लिये जहां गुरूद्वारा प्रबंधक कमेटी को ध्यान देने की जरूरत है वहीं अमष्तसर के आधारभूत ढांचे को सुधारने और संवारने की जिम्मेदारी पंजाब के मुख्यमंत्री कैप्टन अमरेन्द्र सिंह की है।
ठीक ऐसी ही बात अजमेर शरीफ पर भी लागू होती है। स्टेशन से लेकर दरगाह तक के सफर में प्रशासनिक इंतजाम को सुधारने की जरूरत है। दरगाह में प्रवेश करने और निकलने के वक्त जो धक्का मुक्की होती है उससे रूहानी सुकून मिले न मिले जिस्मानी दर्द जरूर मिलता है। जाएरिनों के आराम के लिये दरगाह में भीड़ को नियंत्रित करने का माकूल इंतजाम होना चाहिये। उर्स के मौके पर अजमेर पहंुचने वाले लाखों जाएरिन बसों में सफर करते हैं जिन्हें सड़क के किनारे खड़ा कर लोग अपने खाने का बंदोंबस्त रकरते हैं। तमाम चूल्हे सड़क के किनारे बनते जाते हैं, जिनसे भारी गंदगी फैलती है। फिर हाजत का काम भी सड़क के किनारे ही निपटा लिया जाता है। दरगाह के मैनेजमेंट के पास पैसे की कमी नहीं है। लोग काफी पैसा चढ़ाते हैं। जरूरत इस बात की है कि ऐसे मौकों पर बेहद सस्ती दरों पर, हो सके तो सब्सिडाइज्ड करके, दाल रोटी मुहैया कराने का लंबा चैड़ा बंदोबस्त करना चाहिये ताकि गरीब जाएरिनों को रोटी बनाने की जहमत न उठानी पड़े। सुलभ इंटरनेशनल जैसी संस्थाओं की मदद से ऐसे मौकों पर टाॅयलेटों का भी बढ़ी तादाद में इंतजाम करना चाहिये। ये उम्मीद की जानी चाहिये कि दरगाह का मैनेजमेंट राजस्थान सरकार के साथ मिलकर लगातार सुविधाओं में विस्तार करता जाएगा।
अभी पिछले दिनों जन्माष्टमी पर्व पर मथुरा और वष्न्दावन में दुनिया भर के श्रीकष्ष्ण भक्तों का जमघट लगा। सबसे ज्यादा भीड़ श्रीकष्ष्ण जन्मभूमि, मथुरा और बांके बिहारी मंदिर, वष्न्दावन में थी। इन दोनों ही शहरों की आधारभूत व्यवस्था मसलन, सड़क, सफाई और यातायात प्रबंधन आम दिनों में ही इतना खस्ता हाल रहता है तो पर्व पर अगर व्यवस्था चरमरा जायें तो कोई आश्चर्य नहीं।अलबत्ता इस बार मथुरा के पुलिस अधाीक्षक प्रेम प्रकाश ने बाहर से आने वाली कारों को काफी पहले ही रुकवा कर स्थिति को बिगड़ने से रोक लिया। यह एक अच्छा प्रयोग था जो सफल रहा। भविश्य के लिये भी यह नियम बन जाना चाहिये कि वष्न्दावन के स्थायी नागरिकों को छोड़़कर बाहर से आने वाली सभी कारों, बसों आदि को पर्व के दिन या शनिवार और इतवार को, शहर से पहले ही रोक कर पार्किंग में ले जाया जाए जहां से तीर्थयात्री रिक्शे में दर्शन करने जा सकें। इस मामले में अपवाद नहीं होना चाहिये। एक वीआईपी के साथ दस सरकारी गाडि़यांे का काफिला दर्शन करने आता है और तीर्थयात्रियों के लिये भारी तकलीफ पैदा करता है। बेहतर हो कि जिला प्रशासन कार पार्किंग में सरकारी गाडि़यों को रुकवा दे और विशिष्ट व्यक्तियों के आवागमन के लिये पर्व के अवसर पर दो तीन गाडि़यों को पार्किंग पर तैनात कर दे जहां से उन्हें मंदिर लाया ले जाया जा सके। बिहारी जी के मंदिर के भीतर प्रवेश करने और निकलने के मार्ग और द्वार बिल्कुल अलग होने चाहिये। जब एक ही दिशा में भीड़ घुसती और निकलती है तो भारी अराजकता फैल जाती है। अक्सर महिलाओं की चीख इस भीड़ में सुनाई देती है जो भीड़ के रेले में दब जाती हैं। कभी भारी दुर्घटना भी हो सकती है। ब्रज प्रदेश के आधारभूत ढांचे की बात करते हुए वर्षों बीत गये पर भाजपा की प्रांतीय सरकार के कान पर जूं नहीं रेंगी। लगता है यह काम भी कष्ष्ण भक्तों को ही करना पड़ेगा।
ये तो तीन उदाहरण हैं।देश के हर प्रांत में अनेक धर्म और सम्प्रदायों से जुड़े तीर्थ स्थल हैं। जिन पर प्रतिवर्ष अलग अलग पर्वों के हिसाब से तीर्थयात्रियों के भारी मेले जुड़ते हैं। कुछ तीर्थ ऐसे भी हैं जहां साल के बारह महीने तीथयात्रियों का भारी तादाद में आना जारी रहता है। ऐसे में देश के तीर्थस्थलों के प्रबंधन के लिये सामान्य से हटकर विशेष प्रशिक्षण की आवश्यकता है। वह पुलिस अधीक्षक या जिलाधिकारी जो चंबल जैसे आपराधिक इलाके को कुशलता से संभालता आया हो जरूरी नहीं कि हरिद्वार की धार्मिक भीड़ को भी उसी कुशलता से संभाल सके; फिर चुनौती इस बात की नहीं कि कोई जिलाधिकारी भीड़ को कैसे नियंत्रित करता है बल्कि इस बात की है कि जिला प्रशासन भीड़ को नियंत्रित करने के साथ ही तीर्थयात्रियों के सुख व सुविधा का पूरा ध्यान रखता है कि नहीं। जब अपने घर कोई धार्मिक अनुष्ठान करवाता है और इष्ट मित्रों को उसमें सम्मिलित होने का न्यौता देता है तो वह अपने मेहमानों के भोजन, आराम और ठहरने का समुचित प्रबंध करता है। अगर उसके मेहमान उसके आतिथ्य से सुखी व प्रसन्न होते हैं तो उसे भी अपार हर्ष होता है। धर्मक्षेत्रों में तैनात प्रशासनिक अधिकारियों से ऐसे ही व्यवहार की अपेक्षा की जाती है ताकि आने वाला हर तीर्थ यात्री, तीर्थ यात्रा की सभी मधुर स्मष्तियों को लेकर घर लौटें हर तीर्थयात्री को बेटी की बारात में आये बाराती की तरह सत्कार देना चाहिये। आज तीर्थाटन घरेलु पर्यटन उद्योग का एक महत्वपूर्ण अंग बन चुका है। इसलिये इस पर विशेष नीतियां बनाकर व्यापक सुधार करने की आवश्यकता है। केन्द्रीय स्तर पर भी और प्रांतीय स्तर पर भी।
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