लोकशक्ति पार्टी नाम से एक और राजनैतिक दल का जन्म हो गया। केंद्रीय संचार मंत्री श्री रामविलास पासवान इसके संस्थापक प्रणेता हैं। उनका दावा है कि उनका नया दल गरीबों के हक के लिए लड़ाई लड़ेगा। श्री पासवान सभी पत्रकारों के मित्र हैं इसलिए उन्हें पत्रकारों की चुटकी झेलने की आदत है। पर असलियत यह है कि अब रोजाना इतने नए दल बनने लगे हैं कि जनता में किसी भी दल के प्रति उत्साह पैदा नहीं होता। किसी भी दल के नेता के आश्वासनों पर जनता को विश्वास नहीं होता। वेैसे भी आज दलों की स्थिति है क्या ? कौन सा दल ऐसा है जो इस बात का दावा कर सकता है कि उनके दल में पूरी तरह लोकतंत्र है। जवाब होगा कोई दल ऐसा नहीं है। प्रायः हर दल में विभिन्न स्तरों पर पदों के लिए चुनाव नहीं बल्कि मनोनयन होता है। जिसको चुनाव की रस्म अदायगी करके पूरा कर दिया जाता है। पिछले दिनों राजधानी दिल्ली में एक पोस्टर लगा कि इंका नेता श्रीमती सोनिया गांधी को दिल्ली प्रदेश इंका अध्यक्ष पद के लिए श्री सुभाष चैपड़ा के चुने जाने के लिए बधाई ! पोस्टर छापने वाला भ्रमित था। कहना तो वह यह चाहता था कि सुभाष चैपड़ा को अध्यक्ष चुने जाने पर बधाई पर साथ ही उसे पता था कि यह चुनाव नहीं श्रीमती गांधी द्वारा किया गया
मनोनयन है इसीलिए उसके पोस्टर की भाषा में मनोनयन और चुनाव दोनों के बीच दुविधा की भाषा झलकती है। प्रायः हर दल का नेता यह अपेक्षा करता है कि उसके दल के लोगों की पूरी निष्ठा केवल उसी नेता के प्रति हो, उसी दल के किसी अन्य नेता के प्रति नहीं। इसीलिए आए दिन सुनते रहते हैं कि फलां नेता वाजपेयी खेमे का है तो फलां नेता आडवाणी खेमे का। फलां नेता अर्जुन सिंह खेमे का है तो फलां नेता वीसी शुक्ला खेमे का। कोई नेता किसी गुट का तो कोई किसी गुट का। हर गुट का नेता अपने बाकी साथियों के सिर पर पैर रखकर अपने लिए राजनैतिक पद का जुगाड़ करता है। इसीलिए आए दिन एक ही दल के विभिन्न नेताओं के बीच सिर फूटते रहते हैं, उनके अह्म टकराते रहते हैं। बात बात पर नए राजनैतिक दल खड़े हो जाते है। हर नया दल खुद को दूसरे से ज्यादा जुझारू बता कर आम जनता को मीठे सपने दिखाता है। इस तरह चुनावों में और उसके बाद जुगाड़ करके सत्ता में शामिल होने का जुगाड़ करता है। सत्ता में पहुंचने के लिए और उसके बाद उसके मन में विचारधारा को लेकर कोई दुविधा नहीं होती। सत्ता हथियाने के लिए हर तरह के नापाक गठबंधन किए जाते हंै। आए दिन इन नए दलों के नेताओं के खिलाफ विद्रोह होते हैं, वे टूटते हैं और फिर नए दलों का गठन होता है। इतने सारे नेता हैं और इतने सारे दल हैं कि देशवासियों को यह याद करना भी संभव नहीं होता कि प्रमुख दलों के नाम क्या है और उन दलों के नेता कौन है ?
इतना ही नहीं लोकतंत्र की रक्षा की मांग करने वाले ये तमाम नेता नहीं चाहते कि इनके कार्यकर्ताओं की अपनी अलग पहचान बने। ये नेता ऐसे कार्यकर्ताओं को दल में पनपने नहीं देते जिनमें नेतृत्व की क्षमता होती है। दलों के भीतर चुनाव का नाटक करने बाद भी ऐसा कैसे होता है कि सारे सदस्य अपने नेता के भाई बेटा या बेटी को ही नया नेता चुन लेते हैं ? इस किस्म का एक महत्वपूर्ण चुनाव 31 दिसंवर 1984 को किया गया जब श्रीमती इंदिरा गांधी की हत्या के बाद उनके बेटे और राजनीति में नौसिखिए श्री राजीव गांधी को बिना दिल्ली पहुंचे ही दल का नेता चुन लिया गया। इतना ही नहीं उन्हें बिना सांसद हुए संसदीय दल का नेता भी चुन लिया गया और इस तरह हवाई अड्डे से सीधे राष्ट्रपति भवन ले जाकर उन्हें प्रधानमंत्री पद की शपथ दिलवा दी गई। 1967 में जब कांग्रेस का विभाजन हुआ था और वरिष्ठ कांग्रेसी श्री कामराज व श्री मोरारजी देसाई आदि ने कांग्रेस सिंडिकेट बनाई थी तब श्रीमती इंदिरा गांधी के नेतृत्व में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के नाम के आगे इंदिरा जुड़ गया था। शायद दल की जगह व्यक्ति को महत्व देने की यहीं से शुरूआत हुई। सिख धर्म की सेवा के लिए बने अकाली दल का भी नाम अब गुरू गोविन्द सिंह के नाम पर नहीं बल्कि प्रकाश सिंह बादल और सिमरनजीत सिंह मान के नाम पर अकाली दल (बादल) और अकाली दल (मान) है।
चुनाव आयोग के पास आज सैकड़ों दलों के नाम पंजीकृत हैं। ज्यादातर दल केवल कागजों पर ही हैं। पर सक्रिय दलों की भी कमी नहीं। समाजवादी के नाम पर ही कितने दल हैं। श्री मुलायम सिंह यादव की समाजवादी पार्टी, श्री चन्द्रशेखर का समाजवादी दल (राष्ट्रीय) व तमाम और। हकीकत यह है कि कोई भी दल न तो किसी विचारधारा के प्रति समर्पित है और न किसी विचारधारा का विरोधी है। जब जिसे जैसी सुविधा होती है वैसा गठबंधन कर लेता है और सत्ता का सुख भोगता है। राजग में ही आज वे तमाम दल हैं जो कल तक मंचों पर एकदूसरे को जम कर कोसते थे। दरअसल विचारधारा का मुखौटा पहनने के दिन अब लद गए। हर दल बेनकाब हो चुका है जनता जानती है कि जो कहा जा रहा है वह सच नहीं है। फिर भी इतने सारे दल हैं कि उनके नामों को याद रखना भी मुश्किल होता है। इस समस्या का एक सरल समाधान हो सकता है वह यह कि नए दलों के नाम भाषा या विचारधारा के शब्दकोशों में ढूंढ़ने के बजाए उन्हें दल के संस्थापक व नेता के नाम पर ही रख दिया जाए। जैसे, श्री रामविलास पासवान पार्टी, श्री चन्द्रशेखर पार्टी, श्री सुब्रमणयम स्वामी पार्टी, श्रीमती सोनिया गांधी पार्टी, श्री लालू यादव पार्टी, सुश्री जयललिता पार्टी, श्री शरद पंवार पार्टी, श्री ओम प्रकाश चैटाला पार्टी व श्री कांशी राम पार्टी। हंसिए मत यह मजाक नहीं है अगर ऐसा हो जाए तो न सिर्फ राजनैतिक कार्यकर्ताओं को सुविधा हो जाएगी बल्कि पत्रकारों को भी भारी राहत मिलेगी। क्योंकि उन्हें खबर लिखते वक्त यह आश्वस्त होने की चिंता नहीं रहेगी कि जिस दल का वह नाम लिख रहे हैं वह सही है या नहीं।
आज आमतौर पर राजनैतिक कार्यकर्ता किसी दल में देश की सेवा करने तो आते नहीं। आते हैं तो राजनीति को निजी लाभ का जरिया बनाने। इसलिए जिसका पलड़ा भारी दिखता है उधर ही दौड़ पड़ते हैं। हमारे पुराने मित्र श्री संजय सिंह राजनीति में आए इंका की मार्फत। जब श्री वीपी सिंह का पलड़ा भारी हुआ तो भाग कर उनके साथ चले गए। साल भर में जब श्री वीपी सिंह की सरकार गिरने लगी तो वे चन्द्रशेखर के दल के नेता हो गए। बाद में जब राम लहर बही तो भाजपा में आ गए। ऐसे ही तमाम दूसरे लोग भी हैं। यदि दलों के नाम व्यक्ति आधारित हों जाए तो ऐसे सभी राजनेताओं को और कार्यकर्ताओं को बड़ी सुविधा होगी। फिर इंका के सदस्य यह नहीं कहेंगे कि हम अपनी पार्टी के नेता से नाराज हैं और इसलिए तिवारी कांग्रेस में जा रहे हैं। फिर वे कहेंगे कि हम नरसिंह राव पार्टी से नाराज हैं इसलिए नारायणदत्त तिवारी पार्टी में जा रहे हैं। जरा सोचिए सबके लिए कितना सुलभ होगा दलों का नाम याद रखना ? हर नेता के नाम पर एक अलग पार्टी होगी जिसका घोषणा पत्र कहेगा, ‘हम इस दल के संस्थापक श्री क,ख,ग के विचारों के प्रति आस्था रखते हैं। इसलिए उनके श्रीचरणों में अपना राजनैतिक जीवन समर्पित करते हैं। हम शपथ लेते हैं कि हम पूरी निष्ठा ओर स्वामिभक्ति से अपने दल के नेता श्री क,ख, ग के आदेशों का पालन करंेगे। उनके स्वार्थ और अह्म के रास्तों में रोड़ा नहीं बनेंगे। उनके बेटी, बेटों, भतीजों और दामादों की सेवा उन्हें युवराज मानकर पूरी निष्ठा से करेंगे और उन्हें भी अपने सम्मानीय नेता का दर्जा देंगे।’ ऐसे घोषणा पत्र पर हस्ताक्षर करने के बाद ही कोई राजनैतिक कार्यकर्ता किसी दल में शामिल हो पाएगा। यह बात दूसरी है कि जब उसे लगेगा कि उसके दल के नेता श्री क,ख,ग उसकी उम्मीदों पर खरे नहीं उतरे। यानी उसे उसकी अपेक्षा अनुरूप आर्थिक लाभ या सामाजिक प्रतिष्ठा नहीं मिली तो उसे टिका पाना मुश्किल होगा। ऐसी स्थिति में यह कार्यकर्ता इस बात के लिए स्वतंत्र होगा कि वह श्री क,ख,ग के प्रति समर्पित अपनी स्वामिभक्ति को वापिस लेकर श्री अ,ब,स के चरणों में समर्पित कर दे, जैसा आज भी हो रहा है। इसी तरह जब श्री क,ख,ग के दाहिने हाथ श्री य,र,ल को लगेगा कि उसका नेता उसके साथ ना-इंसाफी कर रहा है तो वह भी झट से य,र,ल नाम से एक नए दल का गठन कर लेगा। अभी हाल ही में समता पार्टी में जोे कुछ हुआ वह ऐसी संभावनाओं की ताजा मिसाल है। इस व्यवस्था में किसी को कोई समस्या नहीं आएगी। जो लोग राम मंदिर बनाने की वायदा करके भाजपा में आए थे उन्हें फिर यह दिक्कत नहीं आएगी कि लोग उनसे पूछे कि सरकार में तो आप आ गए अब मंदिर का क्या होगा ?ऐसा कार्यकर्ता तपाक से कहेगा कि हमें मंदिर से क्या देना-देना हमने तो अपने नेता के प्रति समर्पण किया था और आज भी हम अपने नेता का ही राग अलप रहे हैं, मंदिर जाए भाड़ में। इस तरह एक नई परंपरा की शुरूआत होगी। कालवश जब उस राजनेता का निधन होगा तो दल का नाम पुनः बदल कर युवराज बेटे या बेटी के नाम पर रख दिया जाएगा। इस तरह भारत के लोकतंत्र में एक नया अध्याय जुड़ जाएगा। लोगों को भी किसी राजनैतिक कार्यकर्ता से कोई उम्मीद न रहेगी और दल के संस्थापक और नेता को भी अपनी गद्दी खिसकने की चिंता नहीं रहेगी क्योंकि वह आश्वस्त होगा कि उसका दल उसकी निजी जागीर है और कोई भी सदस्य उसके निर्देशन के बिना काम कर ही नहीं सकता। वैसे हो तो आज भी यही रहा है पर पर्दे की ओट में
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