Sunday, May 4, 2008

क्या बताना चाहते हैं राहुल गांधी ?

Ranchee Express 5-5-2008
राहुल गांधी देश के पिछड़े इलाकों में दौरे करके आम आदमी की बदहाली का जायजा ले रहे हैं। इससे पहले सभी दलों के युवा सांसदों ने भी ऐसी ही एक साझी कोशिश की थी। ये युवा सांसद हैरान है कि सरकार की तमाम नीतियां गरीबों के हक में होने के बावजूद जमीनी हकीकत इतनी हृदयविदारक क्यों हैं ? ये बात दूसरी है कि इनमें से सभी बहुत सफल, संपन्न और दीर्घ काल तक सत्ता में रहे राजनेताओं के साहबजादे और साहेबजादियां हैं। आश्चर्य की बात यह है कि जो बात इस देश के साधारण स्कूलों में पढ़ने वाले बच्चे भी जानते हैं, उस बात को जानने के लिए विदेशों में पढ़े इन युवा सांसदों को इतनी कवायद करने की क्या जरूरत है ? खुद राहुल गांधी के पिता और पूर्व प्रधानमंत्री यह स्वीकार चुके हैं कि रूपए में 14 पैसे भी आम आदमी तक नहीं पहुंचते। नोबल पुरास्कार विजेता भारतीय मूल के अर्थशास्त्री डा. अमत्र्यसेन भी यही मानते हैं कि भारत में गरीबी का कारण भ्रष्टाचार है। इसलिए देश की गरीबी, बेरोजगारी और बदहाली पर आंसू बहाने की बजाए इन युवा सांसदों को प्रशासनिक भ्रष्टाचार के विरूद्ध मोर्चा खोलना चाहिए। क्योंकि गरीबी और बेरोजगारी का कारण है भ्रष्टाचार।

विकास की नीतियां बनाने वालों का जमीन से कोई मतलब नहीं होता। ये नीतियां राजनैतिक फायदे के लिए ज्यादा और आम आदमी को राहत पहंुचाने के लिए कम होती हैं। दूसरी तरफ नीतियां लागू करने वाली राज्य सरकारें और उसकी मशीनरी का मकसद हर योजना के आवंटन का अधिकतम पैसा अपनी जेब में पहुंचाना होता है। इसलिए कोई भी राजनैतिक दल इस बुनियादी समस्या पर चोट नहीं करता। क्योंकि हमाम में सब नंगे हैं। राजनैतिक लाभ के लिए भ्रष्टाचार पर केवल शोर मचाने का नाटक किया जाता है। वैसे भी हर आदमी दूसरे पर ही अंगुली उठाता है और खुद के दामन के दागों को छुपाता हैं। इसमें कोई अपवाद नहीं। यहां तक कि देश की सर्वोच्च न्यापालिका भी नैतिकता के मामले में दोहरे मानदंडों का समर्थन कर रही है। सूचना के अधिकार के दायरे में लाए जाने से न्यायपालिका खुश नहीं है। जबकि न्यायपालिका में फैले भ्रष्टाचार से निपटने का कोई तरीका आज उपलब्ध नहीं है। फिर भी न्यायपालिका न तो अपने ऊपर अंकुश चाहती है और ना ही जवाबदेही।

जबसे संसद की सलाहकार समिति ने न्यायपालिका को सूचना के अधिकार कानून के दायरे में लेने की सिफारिश की है तब से भारत के मुख्य न्यायाधीश काफी उखड़े हुए हैं। उनका कहना है कि वे संवैधानिक पद पर हैं और संवैधानिक पदों को ऐसे कानून के दायरे में नहीं लिया जा सकता। जबकि लगभग सभी सांसदों और सभी राजनैतिक दलों का मानना है कि न्यायपालिका की जवाबदेही सुनिश्चित होनी चाहिए। लोकतंत्र के चार खम्बों में से एक है न्यायपालिका। जो किसी के प्रति जवाबदेह नहीं हैं। बाकी तीन खम्बें हैं कार्यपालिका, विधायिका और मीडिया। कार्यपालिका की जवाबदेही विधायिका के प्रति होती है और विधायिका की जनता के प्रति और मीडिया की जवाबदेही उसके पाठकों के प्रति होती है। आदर्श स्थिति में ये चारों अंग एक-दूसरें के पूरक और एक दूसरे पर निगाह रखने का काम करें तो लोकतंत्र सुदृढ़ होता है। संविधान के निर्माताओं ने न्यायाधीशों को बाकी तीन अंगों के प्रति जवाबदेह न बना कर न्यायपालिका की गरिमा को स्थापित किया था। पर आज वह गरिमा न्यायपालिका के आचरण से ही टूट रही है। इसलिए देश में यह मांग उठ रही है। न्यायपालिका का आचरण अगर पारदर्शी नहीं होगा तो गरीब को उसका हक कैसे मिलेगा ?

जहां तक सरकार की नीतियों के क्रियान्वयन का प्रश्न है तो उसका एक दूसरा प्रभावी तरीका हो सकता है कि इन योजनाओं को लागू करने में समाज सेवी और जागरूक लोगों व प्रतिष्ठित स्वयं सेवी संस्थाओं की मदद ली जाए। क्यांेकि ये लोग सेवाभावना से, निष्ठा से और कम खर्चीले तरीके से काम करने के आदी होतीे है। मुश्किल इस बात की है कि सच्चे और अच्छे लोगों और संस्थाओं को ऐसे कार्यक्रमों में शामिल नहीं किया जाता। एन.जी.ओ. के नाम पर भी आला अफसरों और नेताओं के घरों की महिलाएं और बच्चे संगठन बना लेते हैं और योजनाओं का करोड़ो रूपया डकार जाते हैं। इसलिए देश के गरीब और आदिवासी बदहाल हैं।

कैसी विडंबना है कि सरकार के पास देश की बदहाली दूर करने के लिए हजारों करोड रूपया है। सैकड़ों योजनाएं हैं। लाखों कर्मचारी हैं। पर जमीनी हालत नहीं बदलती। एक तरफ हम विकास की दौड़ में तेजी से बढ़ना चाहते है और दूसरी तरफ हम अपनी बदहाली के कारणों को देखकर भी अनदेखा कर देते हैं। इसीलिए कुछ नहीं बदलता। हर नया नेता, नए सपने दिखाकर मतदाताओं को लुभाना चाहता है। राहुल गांधी भी ऐसे ही सपने दिखा रहे हैं। लोग सब समझते हैं। फिर भी कुछ कर नहीं पाते। क्योंकि उनके पास कोई विकल्प है ही नहीं। हां इतना बदलाव जरूर आया है कि अब मतदाताओं को आसानी से ठगा नहीं जा सकता। ठोस काम करने वाला मतदाता की निगाह में चढ़ता जरूर है। इसलिए राहुल गांधी को भी कुछ ठोस कार्यक्रम बनाने चाहिए। जिनसे देश में बदलाव आए। अभी उनके पास काफी वक्त है। वे जोखिम उठा सकते हैं। इसलिए जनता की बदहाली पर आंसू बहाने से बेहतर हो कि वे स्थायी बदलाव की कोशिश करें।

Sunday, April 27, 2008

भाजपा को मुद्दों की तलाश


Rajasthan Patrika 27-04-2008
गत दिनों संघ समर्थित स्वदेशी जागरण मंच का राष्ट्रीय सम्मेलन वृन्दावन में हुआ। जिसमें भाजपा से बहुत पहले अलग हट चुके गोविन्दाचार्य को वैकल्पिक राजनीति के नेता के रूप में प्रस्तुत किया गया। देश भर से आये सैकड़ों लोगों ने जो जमीनी स्तर पर रचनात्मक  कार्यों से जुड़े हैं, देश में नई और देशी राजनीति की जरूरत पर जोर दिया। कई वक्ताओं ने साफ-साफ कहा कि गोविन्दाचार्य को देश के अगले प्रधानमंत्री के रूप में जनता के सामने पेश किया जाना चाहिए। क्योंकि उनकी सोच और जीवन जमीन से जुड़ा है। वे बेदाग है। उनमें राजनीतिक सूजबूझ है और उनको स्वीकारने में अनेक दलों को संकोच नहीे होगा। आश्चर्य की बात यह है कि जब इस तरह के वक्तव्य दिये जा रहे थे तो संघ के सह-सरसंघचालक मदन दास देवी, भाजपा के सांसद बलबीर पुंज, लालकृष्ण आडवाणी के निकट सहयोगी एस गुरू मूर्ति और तमाम दूसरे भाजपा नेता भी वहीं मौजूद थे। ऐसे में कई प्रश्न खड़े हुए।

 क्या संघ आडवाणी जी की प्रधानमंत्री की उम्मीदवारी से संतुष्ट नहीं है ? क्या गोविन्दाचार्य को फिर से भाजपा में लाने की तैयारी की जा रही है? क्या वास्तव में गोविन्दाचार्य यह महसूस करते हैं कि देश में वैकल्पिक राजनीति खड़ी करने का वक्त आ गया ? या फिर ये सारी कसरत भाजपा के लिए चुनावी मुद्दे तय करने को की जा रही है ? दशकों से देश के विभिन्न हिस्सों में काम करने वाले इन समर्पित लोगों को देश की मौजूदा परिस्थिति से घोर निराशा है। उनकी चिंता का विषय है आम आदमी का जीवन। देश के जंगल, पर्वत, पानी और जमीन पर मंडराते खतरे। कृषि की तेजी से बिगड़ती हालत। युवाओं में तेजी से बढ़ती बेरोजगारी, हताशा और हिंसा। अमीर और गरीब के बीच चैड़ी होती खाई और राजनेताओं में समाज के प्रति घटती प्रतिबद्धता। ऐसे लोगों को इस बात पर बेहद नाराजगी है कि देश की मौजूदा समस्याओं के समाधान देश में ही मौजूद होने के बावजूद हमारे हुक्मरान और वैज्ञानिक पश्चिम के बाजारीकरण के शिकंजे में फंसते जा रहे है। अपने ही हाथों अपने देश की स्वस्थ परंपराओं, संसाधनों और क्षमताओं का गला घोंट रहे हैं। इसलिए देश को आज वैकल्पिक राजनीति की जरूरत है।

जिस तरह के क्रान्तिकारी फैसले ऐसे सम्मेलनों में लिए जाते हैं उनका कोई प्रभावी क्रियान्वन कभी हो पाता हो ऐसा पिछले तीस साल में तो देखा नहीं गया। 1977 के जनता शासन के बाद से ही ऐसे तमाम सम्मेलन देश भर में होते रहे हैं और उनमें सŸाा पलटने के मंसूबे दोहराए जाते रहे हैं। पर व्यवाहरिक समझ की कमी और राजनीति की शतरंज पर बिछी गोटियों को पार पाने की कुटिलता के अभाव में ऐसे मंसूबे धरे के धरे रह जाते हैं। फिर ये गबायद क्यों की गई। एनडीए के राष्ट्रीय संयोजक जाॅर्ज फर्डानीज की मौजूदगी में इस तरह की बातें करना साफ जाहिर करता है कि इस सम्मेलन में कुछ लोगों का छिपा उदेश्य भाजपा के लिए मुदों की तलाश करना ही था।

 जहां तक भाजपा या एनडीए के नेतृत्व का प्रश्न है इसमें कोई संदेह नहीं कि लाल कृष्ण आडवाणी को नेता स्वीकार कर लिया गया है। अगर केन्द्र में एनडीए की सरकार बनती है तो प्रधान मंत्री पद के लिए उन्हीं का नाम रहेगा। हां अगर यह सरकार बसपा जैसे दलों के सहयोग से बनती है तो समीकरण बदल सकते हैं। गोविन्दाचार्य अगर भाजपा से फिर जुड़कर काम करना चाहेंगे तो उनके विचारों को तरजीह दी जा सकती है। उन्हें चुनावी रणनीति बनाने की छूट मिल सकती है। उनकी दिक्कत यह है कि पिछले कुछ वर्षों में उन्होंने अपनी जो छवि बनाई है वह उन्हें भाजपा में लौटने से रोक रही है।

दूसरी तरफ आज देश के हालात कुछ ऐसे है कि लोकसभा चनावों के परिणाम चैंकाने वाले आ सकते हैं। पिछले 10 वर्षों से देश की जनता को यह अनुभव हुआ है कि कई दलों कीसाझी सरकार से काफी नुकसान होता है। हर सहयोगी दल मोल-तोल की राजनीति करके Ÿाा में अपना हिस्सा बढ़ाना चाहता है। इन दलों की नजर मलाईदार विभागों पर रहती है। इनकी मंशा जनहित से अधिक अपना फायदा करने की होती है। दूसरी तरफ इस खींचतान में
सरकार कड़े निर्णय नहीं ले पाती। इसलिए लगता ये है कि इस बार जनता कांग्रेस या भाजपा को बहुमत देकर सŸाा में भेजे। आज यह आंकलन अटपटा लग सकता है। खासकर उन लोगों को जो खुद को राजनीति का पंडित मानते है। पर ये वही लोग है जिन्हें गुजरात और उ. प्रके विधानसभा के चुनावों के मतदान के दिन तक यह पता नहीं था कि हवा का रूख किस तरफ होगा। समस्या ये है कि टेलीविजन चैनलों पर ही नहीं राजनैतिक दलों के भीतर भी विश्लेक्षण करने वाले लोग जमीन से कटे हुए है। पर लगता यही है कि इस बार मतदाता चैकाने वाले परिणाम देगा। इसलिए दोनों ही दलों को ठोस मुदों की तलाश है।

जहां तक भाजपा का सवाल है उसके पास वाकई ठोस मुदों और विश्वसनीय चेहरों का अभाव है। इसलिए भाजपा का शिखर नेतृत्व हर संभव माध्यम से सूचना संचय करके अलगे चुनाव की ठोस रणनीति बनाना चाहता है। लगता है कि संघ की सभी इकाई मुद्दे खोजो अभियान में जुट गयी है। स्वदेशी जागरण मंच का राष्ट्रीय सम्मेलन भी इसी कड़ी में किया गया एक प्रयास था। पर जिन मुद्दों पर इस सम्मेलन में सहमति बनी उनको स्वीकारना भाजपा के लिए आसान नहीं है। दुख की बात ये है कि क्रान्तिकारी कदमों के बिना हालात बदलेंगे नहीं और दक्षिण पंथी दल क्रान्तिकारी फैसले लिया नहीं करते। इसलिए कुछ ठोस बदलता भी नहीं। आज के हालात में सŸाा चाहे भाजपा की हो या इंका की या यूं कहे कि एनडीए की हो या यूपीए की नीतियां बदलने वाली नहीं हैं। गत 10 वर्षों से दोनों सरकारों के कार्यकाल में ऐसा ही अनुभव देशवासियों का रहा है। जरूरत इस बात कि है कि भाजपा उन सवालों को उठाए जिन्हें हल करना उसके बस में हो। अगर कथनी और करनी में भेद की गुंजाइश कम से कम होगी तो विश्वसनीयता भी बढ़ेगी और जीत की संभावना भी। देश के सामने ऐसे तमाम सवाल हैं जिनका हल मौजूद है। बशर्तें कि भाजपा जनता को वायदों से आगे बढ़कर कुछ ठोस देना चाहती हो।

Sunday, April 20, 2008

खुदा के लिए कुरान को समझो

Rajasthan Patrika 20-04-2008
पुरानी कहावत है कि ’अति सर्वत्र वर्जते यानी किसी भी चीज का ’हद से गुजर जाना है दवा हो जाना’। आंसमय से फिरकापरस्ती के खिलाफ इस्लाम के दीनी लोग ही खुलकर आवाज उठाने लगे हैं। जब से न्यूयार्क के वल्र्ड ट्रेड सेंटर की इमारतें आतंकवादियोंतकवाद जिस तेजी से पूरी दुनिया में फैला उससे गैर मुस्लिम ही नहीं इस्लाम के मानने वाले भी परेशान हो गए। इसलिए पिछले कुछ के हवाई हमले का शिकार हुई हैं तब से पूरी दुनिया के लोग इस्लाम को मानने वालों को शक की नजर से देखने लगे हैं। पर गेहूं के साथ अक्सर घुन भी पिसता है। ऐसा नहीं है कि इस्लाम को मानने वाले सभी लोग फिरकापरस्त हैं, जेहादी हंै या आतंकवादी हैं। हकीकत यह है कि ज्यादातर मुसलमान अमन चैन और तरक्की चाहते हैं। वे आतंकवाद के सख्त खिलाफ हैं। पर आतंकवादियों और कठ्मुल्लों के डर के कारण चुप रह जाते हैं। खुलकर विरोध नहीं करते। इस रवैए में पिछले कुछ महीनों में तेजी से बदलाव आया है। मुस्लिम समाज के अलग-अलग वर्गों के लोग अब आतंकवाद के खिलाफ खुलकर बोलने लगे हैं।

पूरी दुनिया के मौलवियों को दीनी तालीम देने के लिए मशहूर जमीयत उलेमा-ए-हिंद, देवबंद में पिछले दिनों दुनियाभर के मौलवियों का एक सम्मेलन हुआ। आपसी रजामंदी के बाद इस्लामवेत्ताओं ने एक अंतर्राष्ट्रीय फतवा जारी किया। जिसमें आतंकवाद की कड़े शब्दों में आलोचना की गई और यह कहा गया कि आतंकवाद इस्लाम का विरोधी है। यह भी कहा गया कि कुरान पाक आतंकवाद की इजाजत नहीं देती। इस फतवे के माध्यम से दुनियाभर के मुसलमानों को आतंकवाद का विरोध करने का आदेश दिया गया। यह एक ऐतिहासिक घटना थी जिसे पूरी दुनिया के मीडिया ने प्रचारित किया।

इसी क्रम में और भी कई तरह के प्रयास इस्लाम को मानने वालों ने हाल के दिनों में किए हैं। जिससे आतंकवाद को हतोत्साहित किया जा सके। पर पिछले दिनों भारत में आई पहली अधिकृत पाकिस्तानी फिल्म ’खुदा के लिए’ ने तो कमाल ही कर दिया। पाकिस्तान में बनी इस फिल्म ने पूरी दुनिया के मुसलमानों को फिरकापरिस्ती का घिनौना चेहरा उघाड़ कर दिखा दिया है।

इस फिल्म की खासियत यह है कि कट्टरपंथी जिन-जिन बातों पर युवाओं को बरगलाते हैं, उनका दिमाग काबू में कर लेते हैं और उन्हें फिदाईन बना देते हैं उन सभी बातों को कुरान शरीफ की ही आयतों की मार्फत इतनी खूबसूरती और तर्क के साथ काट कर रखा गया है कि कट्टरपंथी बेनकाब हो जाते है। फिल्म में दिखाई गई सैद्धांतिक तकरार अगर कोई गैर मजहबी फिल्म निर्माता दिखाता या गैर मजहबी कलाकारों के माध्यम से रखी जाती तो शायद अब तक बबेला मच जाता। पर ये फिल्म पाकिस्तान में बनी है और इसको बनाने वाले और इसमें भूमिका अदा करने वाले सभी किरदार मुसलमान है इसलिए विरोध की गुंजाइश नहीं बचती। इसकी सबसे प्रभावशाली बात तो यह है कि इस फिल्म में मौलवियों की टक्कर मौलवियों से ही करवायी गई है और हर सवाल का जवाब तर्का से और कुरान की आयातों से इस तरह दिया गया है कि कठ्मुल्ले खुद ही बगले झांक रहे हैं। आश्चर्य की बात यह है कि आमतौर पर फिरकापरस्त माने जाने वाले पाकिस्तान में यह फिल्म बेहद लोकप्रिय हो रही है। साफ जाहिर है कि पाकिस्तान की जनता कठ्मुल्लों के कारनामों से आजि़ज आ गई है और खुली हवा में सांस लेना चाहती है। वरना यह फिल्म पाकिस्तान में चलने नहीं दी जाती।

भारत की निरीह जनता अर्से से आतंकवाद का शिकार हो रही है। भारत के सूचना तकनीकि केन्द्र बंगलूर से लेकर कश्मीर की घाटी तक कितने ही पढ़े लिखे मुसलमान नौजवान कठ्मुल्लों के जाल में फंसकर बर्बाद हो रहे हैं। ऐसे में यह फिल्म महत्वपूर्ण भूमिका अदा कर सकती है। भारत में बनी मिशन कश्मीर, फिज़ा, ब्लैक एंड व्हाइट, रोज़ा, बोम्बे, दिल से जैसी फिल्में भी इसी मकसद से बनाई गईं थीं। जिनमें आतंकवाद का अमानवीय पक्ष और दोनों मजहबों की इंसानियत की मिसालें पेश की गईं। पर ‘खुदा के लिए’ फिल्म में जो कोशिश की गई है वह सबसे अलग और ज्यादा प्रभावी है। भारत सरकार को इस फिल्म को मनोरंजन कर से मुक्त करके दूरदर्शन व दूसरे टीवी चैनलों पर भी इसका प्रसारण करवाना चाहिए। इससे समाज में जागृति फैलेगी।

वैसे सरकार कोई निर्णय ले या न ले देश की जनता खुद ही इस फिल्म को देखेगी जरूर। जिसका अच्छा असर समाज पर पड़ेगा। दरअसल फिरकापरस्ती या धर्मान्धता किसी भी धर्म की क्यों न हो घातक ही होती है। जो धर्मगुरू नफरत, हिंसा और दूसरों को सताने या दुख पहुंचाने की सलाह देते हैं वे धर्म के व्यापारी तो हो सकते हैं पर आध्यात्मिक या रूहानी नहीं। हमेशा से ऐसे ही धर्मगुरूओं ने समाज में वैमनस्य के बीज बोए हैं। भोली भाली जनता को ठग कर ये लोग समाज को गुमराह करते हैं। समझदार लोग इनकी असलियत देख सुनकर भी खामोश रह जाते हैं। इनके आगे बोलने या इनकी बात काटने की हिम्मत नहीं जुटा पाते। नतीजतन समाज अंधेरी सुरंग में अनजाने ही धकेल दिया जाता है। जैसा मुस्लिम समाज के साथ अर्से से हो रहा है। ’खुदा के लिए’ फिल्म के निर्माता ने बहुत बहादुरी का काम किया है। हर मजहब के खोखलेपन को उजागर करने के लिए ऐसी बहादुरी समय-समय पर फिल्म निर्माताओं को दिखानी चाहिए। तभी फिल्म उद्योग जनता का हित कर पाएगा। वैसे भी फिल्म का माध्यम संदेश देने के लिए बहुत सशक्त तरीका है। जिसका अगर सही उपयोग हो तो समाज और देश को बहुत लाभ मिल सकता है।

Sunday, April 6, 2008

दलित आकांशाएं नएं शितिज पर

Rajasthan Patrika 06-04-2008
भारतीय किसान यूनियन के जाट नेता महेन्द्र सिंह टिकैत का बिजनौर की अदालत में माफी मांगना कोई साधारण घटना नही हैं। ये वही टिकैत है जिन्होंने 1987 में मेरठ की कमिश्नरी का तीन हफ्ते तक घिराव करके उत्तर प्रदेश की सरकार को हिला दिया था। बाद के वर्षों में दिल्ली के बोट क्लब पर टिकैत की किसान रैलियों से भारत सरकार भी घबरा गई थी। टिकैत आज भी पश्चिमी उत्तर प्रदेश के किसानों के काफी ताकतवर नेता है। पिछले हफ्ते अपनी पुरानी ठसक में उन्होंने उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री मायावती के खिलाफ जाति सूचक अपमानजनक टिप्पणी की तो उन्हें सपने में भी अहसास नहीं होगा कि मायावती अपनी ताकत के बल पर घुटने टिकवा देंगी। दलित ताकत के सामने इस तरह समर्पण करने के गहरे मायने हैं।

पिछले 50 वर्षों के सफर के बाद दलित राजनीति और दलित आत्मस्वाभिमान आन्दोलन आज उस मुकाम पर पहुच गया है जहां दलित अब केवल हरिजनजैसे अलंकरणों से संतुष्ट होने वाले नहीं। अब उन्हें अपनी खुद की राजनैतिक सत्ता चाहिए वह भी अपनी शर्तों पर, कोई खैरात की तरह नहीं। भारत के सामाज सुधार आन्दोलनों की दिशा में यह एक ऐतिहासिक स्थिति पैदा हुई है। आज उत्तर प्रदेश के ब्राहमण विधायक मंत्री पद की शपथ लेते समय बहनजी के  चरण छूते है। सत्ता में हो या सत्ता के बाहर मायावती के तेवरों में दलित क्रान्ति की धार है और व्यवहार में दलित उत्पीड़न के इतिहास का आक्रोश। उधर अंबेडकर का धर्म परिवर्तन आन्दोलन भी अब महाराष्ट्र, तमिलनाडु, उड़ीसा व आन्ध्र प्रदेश में तेजी से फैल रहा है। जहां दलित बड़ी तादाद में बुद्ध धर्म स्वीकार कर रहे हैं।

दरअसल डा¡. भीमराव अंबेडकर ने इस बात को बहुत पहले समझ लिया था कि ब्राह्मणवादी हिन्दू व्यवस्था में दलितों के सामाजिक उत्थान की बहुत संभावना नहीं है। उनका मानना था कि भक्ति युग के सुधार आन्दोलनों में वो धार नहीं कि दलितों को राजनैतिक सत्ता में हिस्सा दिला सकें। इसीलिए उन्होंने एक तरफ तो दलितों को बुद्ध धर्म में दीक्षित कराने का अभियान चलाया। जिससे दलितों को एक निर्विवाद सामाजिक हैसियत मिल सके। दूसरी ओर उन्होंने रिपब्लिकन पार्टी आ¡फ इंडिया बनाकर दलितों के राजनैतिक भविष्य की आधारशिला रखी। अंबेडकर का मानना था कि आधुनिक लोकतंत्र में हिन्दू धर्म आधारित पारंपरिक सामाजिक व्यवस्था के चलते दलित अपनी अछूतछवि के कारण बहुत आगे तक नहीं जा पाएंगे जबकि आधुनिक राजनैतिक व्यवस्था में हर नागरिक को उसका हक और सत्ता में हिस्सा मिल सकता है।

समाजशास्त्री हरीश वानखेड़े का कहना है कि डा¡. अंबेडकर भगवान बुद्ध की शिक्षाओं से बहुत प्रभावित थे। उन्हें बुद्ध धर्म में नैतिकता, सादगी, स्वतंत्रता, शुद्धता जैसे मूल्यों के प्रति आकर्षण था। वे अहिंसा के रास्ते सामाजिक परिवर्तन लाना चाहते थे। उन्हें लगता था कि भगवान बुद्ध के मार्ग पर चलकर भारत के दलित अपनी सामाजिक अवस्था सुधार पाएंगे। अंबेडकर के बाद के दलित आन्दोलनों ने इन नैतिक पक्षों की उपेक्षा कर दी। इसलिए ये आन्दोलन सामाज सुधार की दिशा में प्रगति नहीं कर पाए। केवल राजनैतिक सत्ता हासिल करने तक का लक्ष्य लेकर उलझ गये।

काशीराम ने बहुजन सामाज पार्टी के माध्यम से दलितों को एक जुट करने का, उन्हें भविष्य की दृष्टि देने का और उन्हें अंधविश्वासों से मुक्त करने का काम भी साथ साथ किया। इसीलिए शुरू से ही बसपा दलितों की राजनैतिक महत्वाकांक्षाओं को हासिल करने का मंच बनी। काशीराम ने अपने सोशल इंजीनियरिंग के फोर्मूले से दलितों को एक वैचारिक आधार दिया और ये समझा दिया कि धर्म, वर्ण व धर्मनिरपेक्षता के शब्द जालों से वे उंची जातियों के प्रभुत्व से अलग नहीं हो पाएंगे। इसलिए उन्होंने अल्पसंख्यकों को दलितों के साथ जोड़कर अपना वोट बैंक तैयार किया। बावजूद इसके काशीराम सत्ता में अपनी उल्लेखनीय भागीदारी सुनिश्चित नहीं कर पाए।

मायावती ने इस कमी को समझा और ये महसूस किया कि ब्राह्मण जैसी कुछ  सवर्ण जातियों को भी साथ लिये बिना कुर्सी पर काबिज नहीं हुआ जा सकता। उनका ये प्रयोग उतर प्रदेश में सफल हो गया। शायद यही वजह है कि अब वे इसी फोर्मूले को अन्य प्रांतों में अन्य जातियों के साथ जोड़कर परखना चाहतीं है। जैसे हरियाणा में उन्होंने दलित जाट एकता का नारा दिया। पर मायावती की रणनीति में बुद्ध धर्म की शिक्षाओं का कहीं स्थान दिखाई नहीं दे रहा। इस तरह पूरा दलित आन्दोलन केवल सत्ता हासिल करने की जोड़-तोड़ तक सिमट कर रह गया है। इसलिए इस रणनीति में दलितों के सामाजिक सुधार की संभावनाएं धूमिल पड़ गयी हैं। ये डा¡. अंबेडकर की विचारधारा और रणनीति के बिल्कुल विपरीत स्थिति है। जिसके चलते दलितों का सामाजिक उत्थान होना संभव नहीं है। केवल संवर्णों के राजनैतिक वर्चस्व को चुनौती देने की मानसिकता से मैदान में उतरी बसपा बहुत दूर तक नहीं चल पाएगी। इसके अंतर्विरोध व असंतुष्ट नेताओं की राजनैतिक महत्वाकाक्षांऐ इसे कई खंडों में विभाजित कर सकती है। जरूरत इस बात की है कि मायावती इन गंभीर विषयों को समझें और भारतीय समाज के यर्थाथ को ध्यान में रखते हुए अपना आगे का एजेंडा तय करें। केवल विरोध से कुछ हासिल होने वाला नहीं है। यह उन्होंने उत्तर प्रदेश में अनुभव कर लिया है। अगर वे शेष देश के दलितों को भी जोड़कर उनका हक दिलाना चाहती है। तो उन्हें और भी उदारता का परिचय देना होगा। दूसरे की भावनाओं  और आस्थाओं पर हमला किए बिना वे दलितों का ज्यादा भला कर पाएंगी। जिसके लिए उन्हें अपने आन्दोलन के नैतिक व आध्यात्मिक पक्ष को भी मजबूत बनाना होगा। दोनों प्रक्रिया साथ-साथ चलानी होगी। वरना राजनीति की शतरंज में कभी भी हाशिए पर बिठा दी जाएंगी।

Sunday, March 30, 2008

वायु सेवा में कोहराम

 Rajasthan Patrika 30-03-2008
उतर प्रदेश की मुख्य मंत्री मायावती ने जब राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली के निकट नोयडा में अंतर्राष्ट्रीय हवाई अड्डा बनाने की बात कही थी तो उनकी तीखी आलोचना हुई। आलोचकों का मानना था कि दिल्ली में जब पहले से ही हवाई अड्डा मौजूद है तो मात्र 50 कि.मी. दूर एक और हवाई अड्डा बनाने की क्या जरूरत ? पर आज इस दूसरे हवाई अड्डे की जरूरत हर हवाई यात्री महसूस कर रहा है। वजह साफ है दिल्ली का हवाई अड्डा अब मछली बाजार से भी बदतर हो चुका है। हवाई यात्रा करने वालों को इस हवाई अड्डे पर रोजाना ढेरों दिक्कतों का सामना करना पड़ रहा है। दिल्ली से अगर हवाई जहाज पकड़ना हो तो यह किसी जंग लड़ने से कम नजर नहीं आता। हवाई अड्डे तक पहुंचने वाले सारे मार्ग हर वक्त ट्रैफिक जाम से अवरुद्ध रहते हैं। पहले दक्षिणी दिल्ली में रहने वालों को लगता था कि आधा घंटा पहले घर से निकलने पर भी समय से हवाई अड्डा पहुंच जाएंगे। दूरी वही है पर अब समय लगाता है दो से ढाई घंटा। इसलिए अब ज्यादातर लोग अपनी गाडी से न जाकर टैक्सी से जाते हैं। फिर भी गाडियों का इतना बड़ा जाम वहां लगता है कि अब तो हवाई यात्री ओटो रिक्शा भी लेने लगे है।

हवाई अड्डे पर पहुंचने के बाद टिकिट काउंटरों के आगे भी काफी भीड़ रहती है। हर एअर लाइंस के काउंटर कम है और टिकिट खरीदने वाले बहुत ज्यादा। टिकिट काउंटर और चैकइन काउंटर ना काफी है और वहां एक यात्री को औसतन 45 मिनट खराब करने पड़ते हैं। एक्सरे मशीन पर यात्रियों में धक्का-मुक्की और गाली गलौज तक हो जाती है। चैकइन काउंटर के सामने भी चींटियों सी लंबी कतार लगी होती है। लोग अधीर होते हैं और ग्राउंड स्टाफ फुर्ती से काम कर नहीं पाता। लोगों का रक्त चाप बढ़ जाता है इस तनाव में कि कहीं फ्लाइट न छूट जाए। दो बार तो इस अव्यवस्था का शिकार होकर मेरी फ्लाइट भी छूट चुकी हैं। प्रस्थान लाउंज में इतनी भीड़ रहती है कि अक्सर लोग मूर्च्छित तक हो जाते है। जबसे वायु सेवायें सस्ती हुई हैं तब से हवाई यात्रियों की संख्या बहुत तेजी से बढ़ी है। आज से पांच साल पहले भारत में एक वर्ष में मात्र तीन करोड़ लोग हवाई यात्रा करते थे आज उनकी संख्या बढ़कर छः करोड़ हो गयी है। सबसे ज्यादा यात्री दिल्ली और मुंबई के बीच यात्रा करते हैं। इसलिए इन हवाई अड्डों पर सबसे ज्यादा अफरातफरी मची है। वैसे आजकल दिल्ली हवाई अड्डे का जीर्णोद्धार कार्य भी चल रहा है। पर यह कार्य केवल दिन में होता है। जबकि इन हालातों में यह कार्य चैबीस घंटे चलना चाहिए ताकि हवाई अड्डा जल्दी अपना बोझ सहने के लिए तैयार हो जाए। दरअसल उड्डयन से जुड़े सभी आला अधिकारियों को अपने पांच सितारा दफ्तरों से बाहर निकल कर दिल्ली हवाई अड्डे पर फैली अव्यवस्था का खुद जायजा लेना चाहिए। खास कर रात में जब सबसे ज्यादा कोहराम मचा होता है।

पिछले वर्षों में जाड़ों के महीनों में जब उत्तर भारत में कोहरा ज्यादा होता था तो हवाई जहाज उतर नहीं पाते थे और उन्हें दूसरे शहरों की ओर भेज दिया जाता था। कभी कभी जब प्रधान मंत्री, राष्ट्रपति या दूसरे देशों के राष्ट्राध्यक्षों के विशेष वायुयान उतरते थे तो भी पैसेंजर वायुयानों को आकाश में ही रोककर रखा जाता था। पर आजकल बिना कोहरे के भी अक्सर हवाई जहाज समय पर उतर नहीं पाते। क्योंकि हवाई पट्टियों पर भी टैªफिक बहुत बढ़ गया है और दिल्ली हवाई अड्डे पर हवाई जहाजों को खड़ा करने के लिए पार्किंग की जगह की भारी कमी है। आज भारत में 10 एअर लाइंस औपरेट कर रही हैं। जिनके वायुयानों की संख्या गत वर्ष 310 थी। जो तीन वर्ष के बाद 500 सौ तक पहुंचने वाली है। खुले आकाश की नीति के तहत हमारी सरकार ने प्राइवेट औपरेटरों को लाइसेंस तो जारी कर दिए पर यह आंकलन नहीं किया कि उनके हवाई जहाज उतरेंगे कहां और कैसे ? नतीजतन आज दिल्ली हवाई अड्डे के ऊपर अक्सर हवाई जहाजों को उतरने से पहले रोक दिया जाता है। क्योंकि एयर टैफिक कंट्रोल टावर इतना ट्रैफिक हैंडिल नहीं कर पाती। नतीजतन रोजाना
हवाई जहाजों को एक-एक घंटे आसमान में चक्कर लगाने पड़ते हैं या फिर उन्हें अहमदाबाद भेज दिया जाता है। इस प्रक्रिया में काफी ईंधन की बर्बादी होती है और लगभग डेढ़ सौ करोड़ रूपया हर साल बर्बाद होता है। अगर यही पैसा हवाई अड्डे की सुविधाओं के विस्तार पर लगाया जाय तो यात्रियों को आराम मिलेगा और पैसे की बर्बादी भी नहीं होगी। दरअसल एअर ट्रैफिक कंट्रोल करने का प्रशिक्षण केवल इलाहाबाद और हैदराबाद में दिया जाता है। इन संस्थानों में जितने तकनीशियन एक वर्ष में तैयार होते हैं उससे चैगुने तकनीशियनों की हर वर्ष आवश्यकता पड़ रही है। इसलिए वायु सेवाओं के विस्तार के साथ जुड़े विभिन्न आयामों पर प्रशिक्षण के लिए संस्थानों के विस्तार की भी बहुत आवश्यकता है। इसमें खास सावधानी बरतनी होगी। कहीं ऐसा न हो कि मांग की पूर्ति करने के चक्कर में व्यवसायिक संस्थानों की लाइन लग जाए और गुणवत्ता की उपेक्षा कर दी जाए। ऐसा हुआ तो हवाई ट्रैफिक में खतरे बढ़ जाएंगे।

ए. पी. दत्त की जांच बताती है कि सारे देश के हवाई अड्डों पर रडार कवरेज एक सा न होने के कारण भी हवाई यात्रा संचालन में काफी दिक्कत आ रही है। पहली बात तो देश के सभी 82 हवाई अड्डे रडार कवरेज में नहीं है। जो हैं भी उनके रडार अलग-अलग माॅडल के होने के कारण उनमें आपस में तालमेल नहीं बन पाता। नतीजतन एक दूसरे की जानकारी का हवाई अड्डे फायदा नहीं उठा पाते। अगर यह तालमेल होता तो पूरे देश के आकाश पर मंडराने वाले हवाई जहाजों का आंकलन रखना सरल और संभव होता। उससे काफी बर्बादी बच जाती। नागरिक उड्डयन मंत्रालय को इस दिशा में कुछ ठोस कदम उठाना चाहिए। दरअसल वायुसेवा का विस्तार एक खर्चीला कार्यक्रम है। देश में जब एक बड़ा हिस्सा पीने के पानी को तरस रहा हो। बिजली नहीं मिल रही हो। तब वायुसेवा विस्तार या मैट्रो रेल निर्माण आलोचना का शिकार तो बनते ही हैं। पर शायद समय के साथ चलना देश की भी मजबूरी होती है। इन सेवाओं का विस्तार करने में राजनेताओं की अनेक कारणों से विशेष रूचि भी रहती है। ऐसे में जब यह होना ही है तो क्यों ना सही तरीके से हो। पैसे की बर्बादी कम से कम हो। सेवाओं का विस्तार इस कुशलता से हो कि वे लंबे समय तक प्रभावी रहे। नागरिक उड्डयन मंत्री प्रफुल्ल पटेल के सामने काफी चुनौतियां हैं। उनकी सरकार का यह आखिरी साल है। पर वे सक्षम व्यक्ति हैं। उन्हें कुछ ऐसे फैसले करने चाहिए कि इन समस्याओं काहल निकले और वायु सेवायें बेहतर हो सके।


Sunday, March 23, 2008

बिन पानी सब सून


गर्मी अभी शुरू भी नहीं हुई कि देश की राजधानी दिल्ली में पानी का संकट गहरा गया है। यह पहली बार है कि पानी की किल्लत आम आदमी ही नहीं देश के प्रधानमंत्री तक के घर में महसूस की जा रही है। पिछले दिनों खबर छपी कि प्रधानमंत्री की पत्नी श्रीमती गुरशरण कौर जल्दी सुबह उठकर पानी भरवाने की चिंता कर रहीं थीं। दिल्ली की विधान सभा में पानी के संकट को लेकर पक्ष और विपक्ष में जमकर मार पिटाई हुई। दरअसल मई 2000 के सर्वोच्च न्यायालय के आदेश के बाद से हरियाणा दिल्लीको 600 क्यूसेक पानी देता आया है। अब उसने 100 क्यूसेक पानी देना कम कर दिया है। इतने में ही दिल्ली में हाहाकार मच गई है। दिल्ली सरकार सर्वोच्च न्यायालय से लेकर इंका आलाकमान तक केदरबार में अपनी फरियाद लेकर जा रही है। दोनों ही राज्यों में इंका की सरकार है इसलिए फौरी तौर परकुछ हल निकल भी सकता है। पर हरियाणा का यह आरोप सही है कि दिल्लीवासी अपने पश्चिमी रहनसहन के कारण पेय जल का भारी दुरूपयोग करते है। हरियाणा का कहना है कि औसत दिल्ली वासी को प्रतिदिन 10 लीटर पानी चाहिए। जबकि वे इससे कई गुना पानी बर्बाद करते हैं। इसलिए उन्हें अपनी आदत सुधारनी चाहिए।

जो ठोकर खा कर संभल जाए उसे अकलमंद मानना चाहिए। पर जो ठोकर खाकर भी न संभले और बार-बार मुंह के बल गिरता रहे, उसे महामूर्ख या नशेड़ी समझना चाहिए। हिंदुस्तान के दिल्ली जैसे महानगरों में रहने वाले हम लोग दूसरी श्रेणी में आते हैं। हम देख रहे हैं कि हर दिन पानी की किल्लत बढ़ती जा रही है। हम यह भी देख रहे हैं कि जमीन के अंदर पानी का स्तर घटता जा रहा है। हम अपने शहर और कस्बों में तालाबों को सूखते हुए भी देख रहे हैं। अपने अड़ौस-पड़ौस से हरे-भरे पड़ों को भी गायब होता हुआ देख रहे हैं। पर ये सब देख कर भी मौन हैं। जब नल में पानी नहीं आता तब घर की सारी व्यवस्था चरमरा जाती है। बच्चे स्कूल जाने को खड़े हैं और नहाने को पानी नहीं है। नहाना और कपड़े धोना तो दूर पीने के पानी तक का संकट बढ़ता जा रहा है। जो पानी मिल भी रहा है उसमें तमाम तरह के जानलेवा रासायनिक मिले हैं। ये रासायनिक कीटनाशक दवाइयों और खाद के रिसकर जमीन मेंजाने के कारण पानी के स्रोतों में घुल गए हैं। अगर यूं कहा जाए कि चारों तरफ से अकाल के पास आते खतरे को देखकर भी हम बेखबर हैं तो अतिश्योक्ति न होगी। पानी का संकट इतना बड़ा हो गया है कि कई टीवी समाचार चैनलों ने अब पानी की किल्लत पर देश के किसी न किसी कोने का समाचार नियमित देना शुरू कर दिया है।

देश के पर्यावरणवादी वर्षों से पानी के खतरे को लेकर चेतावनी देते आए हैं। इस काॅलम में भी हमनेबार-बार पानी के प्रबंध के सस्ते, पारंपरिक और अजमाए हुए तरीकों पर लिखा है। पर सत्ता के मद में मद-मस्त सरकारें कुछ भी सुनने को राजी नहीं हैं। सत्ताधीशों की जिंदगी राजसी ठाट-बाट से गुजरती है। देश भले ही प्यासा मर जाए पर नेताओं के घर के तो कुत्ते और कार तक ठंडे पानी के फव्वारों में नहाते हैं। भला वे क्यों परवाह करने लगे ? पर तकलीफ तो इस बात की है कि हम खुद भी कितने बेपरवाह हैं। हर शहर में एक से एक बढ़कर आधुनिक बंगले और बहुमंजिली इमारतें खड़ी होती जा रही है। अखबारों में बड़े-बड़े विज्ञापन देकर इन्हें बेचा जाता है और आरामदायक सुनहरे भविष्य के सपने दिखाए जाते हैं। बेशक ये भवन बहुत सुंदर और कलात्मक होते हैं पर पानी का संकट इन्हें भी झेलना पड़ता है। शुरू-शुरू में ऐसी नई काॅलोनियों या इमारतों में कम ही लोग रहने जाते हैं इसलिए पानी बहुतायत से मिलता है। इस तरह उनमें बसने गए लोग ये सोचकर आश्वस्त हो जाते हैं कि यहां तो पानी की कोई कमी नहीं है। वे अपने मित्रों और रिश्तेदारों को भी प्रेरित करते हैं कि वे भी नए इलाकों में आकर बस जाएं। पर कुछ ही वर्षों में जब ये इमारतें और पाॅश कालोनियां पूरी तरह भर जाती हैं तो यहां पानी की किल्लत शुरू हो जाती है। तब लोग इन्हें छोड़-छोड़ कर भागते हैं। इतिहास साक्षी है कि पानी की कमी से बड़ी-बड़ी राजधानियांतक उजड़ गई। पर हम इतने मूर्ख है कि अपने घर या फ्लैट के बाॅथरूम में नहाने का टब जरूर लगवाते हैं। चाहे उसे भरने के लिए पानी हो या न हो। बड़े शहरों का कोई भी मध्यमवर्गीय घर ऐसा नहीं होगा जिसने बाॅथ टब न लगवाए हों या उन्हें लगाने का हसरत न रखता हो। इसी तरह कोई सरकारी इमारत न होगी जिसके आरकीटैक्ट ने उसमें फव्वारे या सरोवर का इंतजाम न किया हो। पर पानी की कमी से इन इमारतों के सरोवर सूखे पड़े रहते हैं और उनमें कूड़े का ढेर जमा होता रहता है। फिर भी यह मूर्खतापूर्ण कार्यवाही बार-बार की जाती है।

पानी का संकट बढ़ाने में जिस चीज ने सबसे ज्यादा भूमिका अदा की है वो हैं पानी के सबमर्सिबिल पंप। इन्हें चाहे जहां बोरिंग करके लगा दिया जाता है और फिर बिजली का बटन दबाते ही असीमित जल जमाहो जाता है। जिसका हम लोग बेदर्दी से इस्तेमाल करते हैं। बिना ये सोचे कि जमीन के नीचे का पानीकिस तरह तेजी से खत्म होता जा रहा है और जमीन अंदर ही अंदर पोली होती जाती है। गुजरात में भूकंप के दौरान तमाम बहुमंजिली इमारतें जमीन के अंधर ऐसे समा गई जैसे सीता माता पृथ्वी में समा गई थीं। उन्हीं दिनों दिल्ली-जयपुर हाइवे के पास बनी एक व्यावसायिक इमारत भी अचानक दो मंजिल तक जमीन में धस गई। दिल्ली के ही सबसे पाॅश इलाके महरौली फार्म हाउस इलाके में भूजल स्तर इतना नीचे चला गया है कि बोरिंग के बाद कम से कम 300 फुट नीचे जाकर पानी मिलता है। ये वो इलाका है जहां देश के अनेक मशहूर लोगों और सप्रग की नेता श्रीमती सोनिया गांधी तक के फार्म हाउस हैं। जब वीवीआईपी इलाके का ये हाल है तो सामान्य लोगों का क्या हाल होगा। पानी के संकट पर और अधिक लिखने की जरूरत नहीं है। सवाल है कि इस संकट का हल क्या है ?

वही पुरानी बात फिर काम आएगी। हर शहर और कस्बे में ज्यादा से ज्यादा तालाब खोदे जाएं। पुराने तालाबों की गाद साफ करके उनके नए स्रोत खोदे जाए और उनका जीर्णोद्धार किया जाए। बरसात के पानी को हर घर में रीचार्ज करने की व्यवस्था की जाए। बोर-वैल लगाने पर सख्त पाबंदी की जाए। भारी मात्रा में वृक्षारोपण किया जाए और वनों की कटाई पर पूर्ण प्रतिबंध लगाए जाए। अपने नजरिए में बदलाव किया जाए और अपनी जीवनशैली ऐसी बनाई जाए जिसमें पानी की बर्बादी कम से कम हो। इस सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण है कि स्वच्छ जल स्रोतों को प्रदूषण से बचाना। सरकार के निकम्मे और भ्रष्ट अफसरों के चलते ज्यादातर उद्योगपति अपने औद्यौगिक कचरे से प्राकृतिक जल स्रोतों को प्रदूषित करने में लगे हैं। उन पर लगाम कसी जाए और जल को प्रदूषण करना, मनुष्य की हत्या करने जैसा संगीन अपराध बनाया जाए, जिसके लिए जेल में कैद किया जाना अनिवार्य सजा हो। दरअसल, पानी की कमी नहीं है। वर्षा अगर ठीक समय पर पूरी मात्रा में हो तो भारत के किसी भी कोने में पानी की कमी नहीं रहेगी। क्योंकि इन्द्र देवता जितना जल भारत के भूभाग पर बरसाते हैं उसका 10 फीसदी भी हम संचय नहीं कर पाते। 90 फीसदी जल नदी-नालों के रास्ते समुद्र में जाकर खारा हो जाता है। जल संकट से निपटने के समाधान सरकार के पास है। पर उनको लागू करने में किसी की रूचि नहीं है। क्यांेकि जितने बडंे बांध, जितनी बड़ी जल परियोजनाएं बनती है, उतना ही सत्ताधीशों का कमीशन भी बढ़ता है इसलिए पिछले 50 वर्ष में जल प्रबंधन पर किए गए खर्च का मामूली हिस्सा भी जल प्रबंध के पारंपरिक तरीकों पर खर्च नहीं किया गया। किया जाता तो आज ये नौबत न आती। पर उस तरीके के विकास माॅडल में कमीशन खाने की गुंजाइश नहीं बचती।

सरकार किसी भी दल की क्यों न हो उसे अपनी कुर्सी बचाने और आपसी झगड़े निपटाने से ही फुर्सत नहीं मिलती। इसलिए यह जिम्मेदारी तो हम सब की है कि अपने-अपने गांव, शहर और कस्बे में जल प्रबंधन दलों का गठन करें और सक्रिय रह कर इन संगठनों के माध्यम से अपने इलाके के जल स्रोतों को बचाएं। वो सब कदम उठाए जिससे जमीन के भीतर पानी का स्तर क्रमशः बढ़ता जाए। अगर हम अब भी न जगे तो वह दिन दूर नहीं जब हमारे खूबसूरत बाथरूम सूखे नाकारा और खाली पड़े होंगे। पूरे परिवार के लिए एक बाल्टी पानी भी हासिल करना असंभव हो जाएगा।

Sunday, March 16, 2008

कैसी हो पत्रकारिता

Rajasthan Patrika 16-3-2008
जिस अखबार में अपने लेख छपते हों उसकी अगर तारीफ की जाए तो यह चाटुकारिता लगेगा। इसलिए गत बुद्धवार को दिल्ली में जब राजस्थान पत्रिका के के.सी कुलिश पुरस्कार समारोह के बाद पत्रकरिता की दशा और दिशा पर कुछ लिखने कामन हुआ तो संकोच लगा। फिर भी लिख रहा हूं क्योंकि इस समारोह में भारत के पूर्व राष्ट्रपति डा¡. ए.पी.जे. अब्दुल कलाम, लोक सभा के स्पीकर श्री सोमनाथ चटर्जी व राजस्थान की मुख्यमंत्री श्रीमती वसुंधरा राजे ने पत्रकारों को बहुत सी नसीहतें दीं। राजस्थान पत्रिका ने जो पहल की वह अनूठी है। देश भर के अखबारों में बढि़या काम करने वाले पत्रकारों को सम्मानित करने की जो उदारता इस समारोह में दिखाई दी वह प्रशंसनीय है। गोवहाटी के दैनिक जन्मभूमि का युवा पत्रकार हो या गुजरात के सौराष्ट्र आस-पास का, पाकिस्तान के डा¡न के संवाददाता हों या केरल के राष्ट्र दीपिका डेली के सभी इस समारोह में सम्मानित हुए। इस समारोह का स्वरूप कुछ ऐसा था मानों पत्रकारिता के फिल्मफेयर  एवा¡र्ड की शुरूआत हुई हो। आने वाले वर्षों में कुछ और नवीन प्रयोग करने के बाद यह एवा¡र्ड वास्तव में दक्षिण एशिया के देशों में अपनी पहचान बना सकता है।

आज पत्रकारिता के स्तर को देखकर हर समझदार व्यक्ति को कोफ्त होने लगी है। अखबारों में अब खबर और विचार कम और विज्ञापन और विज्ञप्ति की मात्रा अधिक होने से अखबार अरुचिकर लगने लगे है। चंडीगढ़ के विश्वविद्यालय ने एक शोध के बाद बताया कि एक दैनिक अखबार में औसतन चालीस हजार शब्द रोज छपते हैं। जबकि एक औसत पाठक मात्र 115 शब्द ही रोज पढ़ता है। अखबार चलाना है तो विज्ञापन भी देने होगेa और विज्ञप्ति भी। पर यह भी ध्यान रखना होता है कि अखबार सही सूचना और अच्छे विचार भी अपने पाठकों को दें। ऐसा न हो कि विज्ञापन, विज्ञप्ति के साथ सूचना और विचार भी बाजारू किस्म के ही परोसे जांए। जैसा आज प्रायः हो रहा है। ऐसे अखबारों में साफ दिखता है कि पत्रकारिता नहीं दुकानदारी की जा रही है। इसीलिए अब इन अखबारों को खबरों के सहारे नहीं बल्कि आकर्षक इनामी योजनाएं चलाकर बेचा जा रहा है। गला काट प्रतियोगिता चल रही है। एक दूसरे से बढ़ चढ़ कर झूठे दावे किए जा रहे हैं। एक दूसरे के इलाके में सेंध लगाई जा रही है। लोग तोड़े जा रहे हैं। पत्रकारिता के मूल्यों के निर्वाहन के अलावा वह सब कुछ हो रहा है जो नहीं होना चाहिए। इसलिए ऐसे माहौल में राजस्थान पत्रिका की यह पहल वास्तव में काफी सुखद और प्रभावी है।

रही बात पत्रकारों के लिए राजनेताओं की सलाह को गंभीरता से लेने की तो इस समारोह में काफी सलाह दी गई। पूर्व राष्ट्रपति ने तो पत्रकारों को शपथ भी दिलवाई कि वे नैतिकता का आचरण करें। जो ऐसा नहीं कर रहे उन्हें संभलना चाहिए। पर जो कर रहे हैं उनके सवालों का जवाब नसीहत देने वालों को देना चाहिए। अपना ही एक अनुभव बताता हूं । श्रीमती सोनिया गांधी ने राजनीति में कदम रखा तो उन पर भाजपा ने करारा हमला कर दिया। उनके मुकाबले श्री अटल बिहारी वाजपेयी को कहीं ज्यादा काबिल नेता बताया गया। अपने एक साप्ताहिक लेख में मैंने दोनों के गुण दोषों का विवेचन किया। उस दिन मुझे नागपुर विश्वविद्यालय के मीडिया सेंटर का उद्घाटन करने नागपुर जाना था। वहां के दो अखबारों में मेरे लेख छपते थे। एक का झुकाव इंका की तरफ था तो दूसरे का भाजपा की तरफ। मजा देखिए कि पहले वाले ने लेख का केवल वही अंश छापा जिसमें मैने वाजपेयी जी का बेबाक मूल्यांकन किया था और दूसरे ने इसी लेख का केवल उतना भाग छापा जिसमें मैंने श्रीमती गांधी का मूल्यांकन किया था। इंत्तफाकन उस समारोह में सभी स्थानीय अखबारों के संपादक मौजूद थे। मैने नाम लिए बिना छात्रों से इसका उल्लेख किया और कहा कि इसका परिणाम यह होगा कि कुछ पाठक मुझे कांग्रेसी समझेंगे और कुछ भाजपाई। जबकि मैंने अपनी निष्पक्षता को कायम रखा है। पर नुकसान तो हो ही गया। बाद में उन दोनों संपादकों ने क्षमा मांगते हुए अपनी मजबूरी बताई। यह तो एक उदाहरण है। ऐसी घटनाएं हर पत्रकार के जीवन में अनेक बार घटती हैं। इनसे हम बहुत कुछ सीखते हैं। कितना अड़ना है? कितना लड़ना है और कितना झुकना है? अगर हम लड़ें भी नहीं और झुके भी नहीं तो एक बीच का रास्ता भी निकल सकता है। सांप भी मर जाए और लाठी भी न टूटे। बशर्तें हम अपने आचरण में खरे और पारदर्शी हों। तब कोई हम पर उंगली नहीं उठा सकेगा। अगर हमारा आचरण तो ठीक हो नहीं और पत्रकारिता के दंभ पर हम बड़े लोगों पर तोपें दागे तो हमारी साख को बट्टा लगेगा ही। यदि लंबे समय तक सार्थक, चर्चित और सम्मानपूर्ण जीवन जीना चाहते हैं तो हमें इन बातों पर ध्यान देना ही होगा।

अखबार मालिक की भी बड़ी भारी समस्या है। जुनूनी पत्रकारों को अगर खुली छूट दे दे तो वे उनका अखबार ही बंद करवा देंगे। वे बिचारे आज के राजनैतिक और व्यवसायिक यर्थाथ के बीच में झूलते रहते हैं। उनकी भी बहुत सी मजबूरियां हैं। पर वैसी नहीं जैसे आजादी के पहले आज, लीडर, हरिजन जैसे देशभक्त अखबारों की थीं। उन पर तो अंग्रेज सरकार का डंडा चलता था। आज यदि एक अखबार पर डंडा चले तो पत्रकारों के संगठन और जागरूक लोग उसके समर्थन में उठ खड़े होते हैं। अंतर्राष्ट्रीय संगठन भी बावेला मचा देते हैं। इसलिए मालिकों को भी उतना ही झुकना चाहिए जिससे कमर टूटे भी नहीं और अखबार की अस्मिता भी बची रहे। पर जब अखबार मालिक अखबार के हित से इतर अपने अन्य व्यवसायिक हित अखबार के माध्यम से साधना चाहते हैं तो वे सत्ताधीशks के आगे साष्टांग दण्डवत कर देते हैं। सफाई ये देते हैं कि ऐसा किए बिना अखबार चलाना असंभव था। दक्षिण भारत का द हिन्दू अंगेजी का एक ऐसा अखबार है जो किसी के आगे नहीं झुका। उसके संपादक एन.राम को राजस्थान पत्रिका ने अपनी जूरी का सदस्य बनाकर यह संदेश देने की कोशिश की कि के. सी. कुलिश एवा¡र्ड के चयन में सही पत्रकारिता को ही तरजीह दी जाएगी। जिस समय नंदीग्राम में सी.पी.एम. की fहaसा पर रिर्पोटिंग के लिए द स्टेसमैन के संवाददाता सुकुमार मित्र को पुरूस्कार दिया जा रहा था उस समय वहां मौजूद सभी दलों के नेताओं की निगाह लोक सभा अध्यक्ष श्री सोमनाथ चटर्जी पर टिकी थीं। सबके चेहरों पर एक शरारती मुस्कान थी। पर श्री चटर्जी ने बुरा न मानकर उसी मंच से पत्रकारों को निडर और निष्पक्ष होने की सलाह दी। यही लोकतंत्र की स्वस्थ पंरपरा है। दुर्भाग्य से आज ज्यादातर बडे़ नेता ऐसे हैं जो अपनी आलोचना सुनना पसंद नहीं करते। चाटुकारिता करने वालों को पद्मभूषण और राज्य सभा की सदस्यता तो रोज मिलती है। क्या किसी राजनैतिक दल ने सत्ता में आने के बाद अपने आलोचक पत्रकार को पद्मभूषण देने की पेशकश की है। नहीं की। इसीलिए उनके उपदेशों असर नहीं होता।

पत्रकार हों या अखबार मालिक, राजनेता हों या पाठक सबको लगातार मूल्यांकन करते रहना चाहिए कि आखिर हम लोकतंत्र के चैथे खंबे से चाहते क्या हैं। एक सजग प्रहरी की भूमिका या एक जन संपर्क अधिकारी की भूमिका। कहावत है कि लोगों को वैसी ही सरकार मिलती है जिसके वे योग्य होते हैं। पाठकों को भी वैसा ही अखबार मिलता है जैसा वे चाहते हैं।