सर्वोच्च न्यायालय के न्यायमूर्ति दीपक गुप्ता ने हाल ही में कहा है कि भारत के नागरिकों को सरकार की आलोचना करने का अधिकार है। उनकी कही यह बात एक महत्वपूर्ण मुददे पर सोच विचार के लिए प्रेरित कर रही है।
सरकार की आलोचना नई बात नहीं है। राजनीतिक व्यवस्थाओं का इतिहास जितना पुराना है उतना ही पुराना यह विषय भी है। तरह तरह की राजव्यवस्थाओं की आलोचना और समीक्षा करते करते ही आज दुनिया में लोकतंत्र जैसी नायाब राजव्यवस्था का जन्म हो पाया है। जाहिर है कि न्यायमूर्ति दीपक गुप्ता के कथन ने लोकतंत्र के गुणों पर नज़र डालने का मौका दिया है।
सरकार की आलोचना को अगर नैतिकता अनैतिकता की कसौटी पर कसा जाएगा तो लोकतंत्र के मूल गुण की बात सबसे पहले करनी पड़ेगी। विद्वानों ने माना है कि राजव्यवस्था का वर्गीकरण ही इस बात से होता है कि उस व्यवस्था में संप्रभु कौन है। लोकतंत्र के विचार में संप्रभुता नागरिक की मानी जाती है। लोकतंत्र का निर्माता ही नागरिक है। इस लिहाज़ से वही संप्रभु साबित होता है। अब ये अलग बात है कि नागरिकों की संप्रभुता की सीमा का ही मुददा उठने लगे। इस मामले में भारतीय लोकतंत्र के एक और गुण को देख लिया जाना चाहिए।
भारतीय लोकतंत्र को वैधानिक लोकतंत्र भी समझा जाता है। इस व्यवस्था में नागरिक एक संविधान बनाते हैं और नागरिकों के बनाए इस संविधान को ही संप्रभु माना जाता है। इसीलिए आमतौर पर कहते हैं कि संविधान के उपर कोई नहीं। यानी जस्टिस दीपक गुप्ता के वक्तव्य को इस नुक्ते के आधार पर भी परखा जाना चाहिए।
खुद जस्टिस गुप्ता ने ही संविधान का हवाला दिया है। उन्होंने संविधान के ‘प्रिएंबल’ के उस तथ्य को याद दिलाया है जिसमें कहा गया है कि हर व्यक्ति के विचार, अभिव्यक्ति, विश्वास, आस्था, पूजा अर्चना की आजादी की रक्षा की जाए। यानी यह भी कहा जा सकता है कि नागरिकों द्वारा सरकार की आलोचना करना उसका संविधान प्रदत्त अधिकार है। जस्टिस गुप्ता ने इसे मानवाधिकार की श्रेणी में रखने का सुझाव दिया है। उन्होंने कहा है कि ऐसी कोई भी लोकतांत्रिक राजव्यवस्था नहीं हो सकती जिसमें नागरिकों को वैसा सोचने का अधिकार न हो जैसा वे चाहें।
एक सवाल जरूर बन सकता है कि नागरिक के इस अधिकार की सीमा क्या है? सो इस बारे में भरा पूरा संविधान और कानून हमारे पास है। जब कभी इस सीमा के उल्लंघन का मामला बनता है तो उसके निराकरण की प्रक्रिया भी तय है। बाकायदा यह देखा जाता है कि किसी के किस काम से दूसरे के अधिकार का उल्लंघन हुआ। यानी अगर सरकार की आलोचना का मुददा आगे बढ़ा तो सरकार को यह दलील देनी पड़ेगी कि उसकी आलोचना करने से उसके कौन से अधिकार का उल्लंघन होता है। यह दलील देने के लिए भी किसी सरकार को बाकायदा न्याय प्रक्रिया से गुज़रना पड़ेगा। वह यह मानकर नहीं चल सकती कि उसके पास परमाधिकार है। वह यह तर्क तो बिल्कुल भी नहीं दे सकती है कि नागरिकों ने ही उसे परमाधिकार दे रखा है। नागरिकों ने अगर कोई अधिकार दे रखा है तो वह इतना ही है कि नागरिकों के हित में जो संविधान सम्मत हो वह ही सरकार करे।
बहरहाल, लोकतंत्र में खासतौर पर संसदीय लोकतंत्र में कोई सरकार स्थायी निकाय नहीं होती। हर सरकार को अपना नवीनीकरण कराना पड़ता है। यानी नागरिकों के बीच अपनी छवि को लेकर लोकतांत्रिक सरकारें हमेशा सतर्क या चिंतित रहती ही हैं। इसी चिंता में अपनी आलोचना का वे ज्यादा प्रचार या प्रसार नहीं होने देना चाहतीं। इस मकसद से ऐसी सरकारें अपनी उपलब्धियों के प्रचार और अपनी अच्छी छवि निर्माण के काम पर लगती हैं। अपने लोकतंत्र में हर सरकार के पास अपनी प्रशंसा करवाने की भरीपूरी व्यवस्था भी होती है। इसके लिए बाकायदा सरकारी विभाग और सरकारी प्रचार माध्यम भी होते हैं। नीति की बात यही है कि लोकतांत्रिक सरकारें अपनी आलोचना का असर खत्म करने के लिए अपने प्रचार तंत्र का इस्तेमाल कर लें। लेकिन आलोचना को बंद करवाना जायज़ नहीं ठहरता।
गौरतलब है कि हमारा लोकतंत्र अब अनुभवी भी हो चुका है। दुनिया का भी अनुभव बताता है कि किसी भी सरकार ने कितना भी जोर लगा लिया हो लेकिन नागरिकों के इस विलक्षण अधिकार को वे हमेशा हमेशा के लिए खत्म कभी नहीं करवा पाईं। एक सुखद अनुभव यह भी रहा है कि लोकतांत्रिक देशों में अधिसंख्य नागरिकों ने उसी बात का पक्ष लिया है जो सही हो यानी नैतिक हो। अपने व्यवहार से अधिसंख्यों ने कभी भूल चूक कर भी दी तो उसे वे जल्द ही सुधार भी लेते हैं। यानी लोकव्यवहार को लेकर ज्यादा चिंता होनी नहीं चाहिए।
हां, प्रायोजित आलोचना एक स्थिति हो सकती है। बल्कि आमतौर पर यह स्थिति हमेशा रहती ही है। लोकतांत्रिक विपक्ष को सत्ता पक्ष की आलोचना करते हुए ही अपनी बात कहने का मौका मिलता है। ये नई बात नहीं है। भारतीय लोकतंत्र का सात दशकों का अनुभव बताता है कि विपक्ष ने सरकारों की आलोचना का कभी भी कोई मौका नहीं छोड़ा। इस तरह से तो भारतीय लोकतंत्र में सरकार की आलोचना विपक्ष का जन्म अधिकार भी समझा जा सकता है।