2010 में इसी कालम में कश्मीर के हालात और
उनसे समाधान पर जो कुछ मैंने यहां लिखा था। उन परिस्थतियों में गत 8
वर्षों में कोई उल्लेखनीय परिवर्तन नहीं आया। जबकि इस दौरान यूपीए और एनडीए दोनों
सरकारों ने अपने-अपने प्रयोग किये हैं। लगातार पुलिस और सेना की मौजूदगी से घाटी
के लोग आज़िज आ गये हैं। उन्हें लगता है कि भारत की लोकतांत्रिक, सम्प्रभुता सम्पन्न सरकार ने उनके साथ किया गया अपना वायदा नहीं निभाया।
कश्मीर 15 अगस्त 1947 को भारत का अंग नहीं था। कई महीने बाद कबीलाई हमलों से घबराकर कश्मीर के राजा
हरी सिंह ने भारत के साथ एक समझौता किया जिसके तहत कश्मीर को विशेष दर्जा देते हुए
भारतीय गणराज्य में शामिल कर लिया गया। इस समझौते के तहत कश्मीर को गृह, विदेश,
संचार और रक्षा जैसे मामले छोड़कर बाकी में स्वायता दे दी
गयी थी। पर बाद के वर्षों में धीरे-धीरे उसकी यह स्वायता समाप्त कर दी गयी। जिससे
घाटी की राजनीति में एक ऐसी अस्थिरता पैदा हुई जो आज तक थम नहीं पायी।
उल्लेखनीय है कि कश्मीर के संदर्भ में
संविधान की धारा 370 समाप्त करने की जो मांग जनसंघ या बाद में भाजपा उठाती रही है, उसने हमेशा घाटी के लोगों को उत्तेजित किया है। यह उस समझौते के खिलाफ है जो
विलय के समय किया गया था। कानून का सम्मान करने वाले राष्ट्र अन्तर्राष्ट्रीय
बिरादरी में ऐसे समझौतों को तोड़ा नहीं करते। वैसे भी धारा 370 समाप्त करने की बजाय अगर विलय के समझौते की शर्तों को पूरा सम्मान दिया जाये
तो भी कश्मीर भारत का ही अंग रहता है। जिसका अर्थ यह हुआ कि पाकिस्तान का कश्मीर
पर कोई भी कानूनी हक न कभी था, न आज है और न होगा। कश्मीर के जिस
हिस्से को पाकिस्तान ने फिलहाल दबा रखा है, उसे पाकिस्तान का हिस्सा
नहीं माना जाता,
बल्कि ‘पाक अधिकृत कश्मीर’ माना जाता है। पाकिस्तान, कश्मीर,
भारत और पूर्वी पाकिस्तान (बांग्लादेश) ब्रिटिश संसद के जिस
कानून से बने थे,
उस कानून की अगर अवमानना करके पाकिस्तान कश्मीर पर किसी भी
तरह का दावा कहीं भी पेश करता है तो इसका मतलब यह हुआ कि उस कानून में पाकिस्तान
की आस्था नहीं है। इसका मतलब यह भी हुआ कि दक्षिणी एशिया के इन देशों की आजादी के
लिए जो कानून बना था,
वो पाकिस्तान को स्वीकार्य नहीं है। उल्लेखनीय है कि ऐसा
करने पर पाकिस्तान का वजूद ही समाप्त हो जाता है। क्योंकि यह कानून ही है जिसने
पाकिस्तान को एक स्वतंत्र राष्ट्र का दर्जा दिया, वरना
तो वह भारत का अंग था।
पूर्व केन्द्रीय मंत्री कमल मोरारका का
कहना है कि भाजपा जैसे भारत के कुछ राजनैतिक दल गलत मुद्दे उछाल कर कश्मीर के
मामले में भारत का पक्ष कमजोर करते रहे हैं। दूसरी तरफ घाटी के कांग्रेसी नेता
अपने स्वार्थों के लिए दिल्ली दरबार को बरगला कर अपनी रोटियाँ सेंकते रहे हैं।
इनका मानना है कि अगर घाटी से कांग्रेस व भाजपा जैसे दल अपनी सियासती शतरंज के
मोहरे उठा लें और घाटी के लोगों को अपने ही राजनैतिक दलों के बीच चुनाव करने के
लिए छोड़ दें,
तो वे ज्यादा आजाद महसूस करेंगे। क्योंकि तब उनकी राजनीति
शेष भारत की राजनीति से प्रभावित नहीं होगी। इससे मनोवैज्ञानिक रूप से भी अपने
राज्य के विशेष दर्जे की हैसियत का अहसास होता रहेगा। इसके साथ ही भारत के सभी
राजनैतिक दल यह करें कि पूरी दुनिया के हर मंच पर एकजुट होकर एक ही आवाज उठाऐं कि
कश्मीर व भारत के बीच हुए द्विपक्षीय समक्षौते का पूरी दुनिया सम्मान करे और
पाकिस्तान को मजबूर करे कि वह कश्मीर का जबरन कब्जाया हिस्सा खाली करके वहाँ से
निकल जाये। उल्लेखनीय है कि जहाँ भारत ने कश्मीर के साथ 1948 में हुए करार का सम्मान करते हुए आज तक कश्मीर में भारतीयों को अचल सम्पत्ति
खरीदने की इजाजत नहीं दी,
जबकि कश्मीरियों को भारत में कहीं भी सम्पत्ति खरीदने की
इजाजत है,
वहीं पाकिस्तान ने अधिकृत कश्मीर में जबरन सम्पत्तियाँ
खरीदवाकर पंजाबियों को भारी मात्रा में बसा दिया है और स्थानीय जनता को डरा-धमकाकर
कश्मीर के उस हिस्से का सामाजिक तानाबाना ही तार-तार कर दिया है। साफ जाहिर है कि
कश्मीर के आवाम के साथ झूठी हमदर्दी दिखाने वाला पाकिस्तान ही उनका असली दुश्मन
है। इसलिए कश्मीर से उसे निकाले जाने के लिए पूरी दुनिया में दबाव बनाना चाहिए।
अगर वह न माने तो न सिर्फ पाकिस्तान की सार्वजनिक भत्र्सना की जाये बल्कि उसको
संयुक्त राष्ट्र से निकालने की भी धमकी दी जाये और उसके साथ अन्तर्राष्ट्रीय
व्यापार पर कड़े प्रतिबंध लगाये जायें। आर्थिक तंगी, आतंकवाद, भ्रष्ट सेना,
नाकारा सिविल प्रशासन और क्षेत्रीय गुटवाद से ग्रस्त
पाकिस्तान की औकात नहीं है कि वो ऐसे दबावों को झेल पाये। जो पाकिस्तान अपने देश
की दो करोड़ बाढ़ग्रस्त जनता को रसद तक नहीं पहुँचा सकता, वो ऐसे प्रतिबंधों के आगे कितने दिन ठहर पायेगा ?
इस तरह कश्मीर से पाकिस्तान का हटना और
भारत के मुख्य राजनैतिक दलों का घाटी की राजनीति से अपने को समेटना, घाटी के लोगों में एक नये उत्साह का संचार करेगा और तब वे अपने क्षेत्र के
विकास और राजनैतिक व्यवस्था के बारे में खुद निर्णय लेने में सक्षम होंगे। यह सही
है कि घाटी के कट्टरपंथियों के चलते वहाँ से हिन्दुओं का जो जबरन पलायन हुआ उसको
लेकर यह आशंका उठ सकती है कि ऐसी स्थिति में जम्मू कश्मीर रियासत के अल्पसंख्यकों
का क्या हाल होगा जिनमें हिन्दु, बौद्ध, सिक्ख
और ईसाई शामिल हैं। तो उसके बारे में रियासत की सरकार पर मानवाधिकार के दायरे में
काम करने के लिए दबाव बनाया जा सकता है। यह दबाव जम्मू और लद्दाख की जनता भी
बनायेगी, मीडिया भी और शेष भारत के लोग भी।
यह ऐसी सोच है जिससे देश
में बहुत से भावुक लोग सहमत नहीं होंगे। पर ये वो लोग हैं, जिन्हें शायद
अंतर्राष्ट्रीय कानूनों की बारीकियों की जानकारी नहीं है। असलियत ये है कि कश्मीर
की घाटी में जो हालात हैं, उनसे निपटने के दूसरे सभी उपाय अल्पकालिक ही सिद्ध होंगे, दीर्घ कालिक नहीं। कश्मीर
के नेता घाटी में कुछ भी करें, पर दिल में जानते हैं कि कश्मीर का भविष्य और नियति
भारत के साथ सुरक्षित है। उन्हें ‘‘आजादी नहीं स्वायता’’ चाहिए। हाँ एक उपाय और है
कि फौज और पुलिस को गोली चलाने की खुली छूट दे दी जाये और हर सिर उठाने वाले का
सिर कुचल दिया जाये। पर ऐसा तानाशाह सरकारों के अधीन या कट्टरपंथी देशों में तो हो
सकता है, लोकतंत्र में सम्भव नहीं।