जब हार हो जाती है तो पोस्टमार्टम तो होता ही है। आज भाजपा में भी यही हो रहा है। अब भाजपाई खुलकर मान रहे हैं कि लालकृष्ण आडवाणी को भावी प्रधानमंत्री बनाकर प्रस्तुत करना गलत रहा। जीवन के नवें दशक में वे न तो नयी ऊर्जा का संचार कर पाये और न ही उनमें देश के युवाओं को अपना भविष्य दिखायी दिया। जरूरत भाजपा को भी युवा नेतृत्व प्रस्तुत करने की थी। ऐसा युवा कौन होता, इस पर भाजपा में आज भी मतभेद हैं। भाजपा का आम कार्यकर्ता नरेन्द्र मोदी को अपना आदर्श मानता है। जबकि संघ और भाजपा के कुछ नेता इससे सहमत नहीं हैं। यह कहने से नहीं चूक रहे कि चुनाव के बीच नरेन्द्र मोदी को प्रधानमंत्री पद का दूसरा प्रबल दावेदार बताकर ठीक नहीं किया गया। इससे भी दल को हार का मुँह देखना पड़ा। जबकि दूसरा पक्ष मानता है कि अगर शुरू से नरेन्द्र मोदी को सामने रखा जाता तो देश में एक नई ऊर्जा का संचार होता। यह सही है कि उन पर गोधरा को लेकर हमले होते तो भी मोदी अपने काम के बूते लोगों को आश्वस्त कर देते और भाजपा की नैया पार लगा देते। भविष्य में यही होने जा रहा है।
जिस महत्वपूर्ण बात पर अभी चर्चा नहीं हो रही, वो यह है कि भाजपा की इस हार के लिए मुसलमान वोटों का एकसाथ इंका के पक्ष में चले जाना भी है। अयोध्या में विवादास्पद ढाँचे के विध्वंस के बाद से इंका के पारंपरिक वोट बैंक मुसलमानों ने इंका का साथ छोड़ दिया था। 19 वर्ष बाद उन्हें लगा कि मौजूदा हालात में इंका ही इनके हितों का बेहतर संरक्षण कर सकती है। दूसरा कारण यह भी है कि जनता को लगा कि भाजपा के पास जनहित का कोई मुद्दा ही नहीं है। भाजपा के चुनावी घोषणा पत्र में आम आदमी को ध्यान में रखकर कई राहत योजनाओं का जिक्र था। पर पता नहीं क्यों अरूण जेटली की टीम ने इन मुद्दों को नहीं उछाला और सारी ताकत प्रधानमंत्री को कमजोर सिद्ध करने में लगा दी।
दरअसल रामजन्मभूमि आन्दोलन के बाद से ही भाजपा नेतृत्व अपने भ्रमित होने का संदेश देता रहा है। इस देश की सनातनी सांस्कृतिक विरासत को हिन्दुत्व के तंग दायरे में सीमित कर उसकी रक्षा करने का दम्भ भाजपाई भरते रहे हैं। सच्चाई यह है कि उनके जीवन मूल्य और आचरण ऐसा कोई परिचय नहीं देते। इसके विपरीत भाजपा का चेहरा इंका की दसवीं कार्बन काॅपी जैसा रहा है। न खुदा ही मिला, न विसाले सनम, न इधर के रहे, न उधर के रहे। न तो भाजपा नेतृत्व सनातनी दिखायी देता है और न ही धर्मनिरपेक्ष, न तो उसकी नीतियाँ इस देश की जमीनी हकीकत से जुड़ी हैं और न हीं विकास के आधुनिक प्रारूप से। एक तरफ उसके कार्यकर्ता डिस्को में जाकर तोेड़-फोड़ करते हैं और जनता के नैतिक पुलिसिए बन जाते हैं, दूसरी तरफ उसके ही चुनावी प्रत्याशी पाश्चात्य संगीत को गगनभेदी स्वर में बजाकर रातभर शराब की दावत करते हैं और टोकने पर कहते हैं कि कार्यकर्ताओं को खुश करने के लिए चुनाव में यह सब करना पड़ता है। भाजपा का नेतृत्व यह सब देखता रहता है और भूल जाता है उस दौर को जब भाजपा के मात्र 2 सांसद लोकसभा में होते थे। रामजन्म भूमि का आन्दोलन चलाकर, जनसभाओं में रामधुन की अलख जगाकर और ‘सौगंध राम की खाते हैं, हम मन्दिर वहीं बनायेंगे’ जैसे गगनभेदी नारे गुंजायमान करके भाजपा यहाँ तक पहुँची कि 1998 में उसकी केन्द्र में पहली बार सरकार बन गयी। फिर भी भाजपाईयों को समझ में नहीं आया। सबको खुश करने के चक्कर में वह अपनी पहचान खो बैठी। चैबे जी चले थे छब्बे बनने, दुबे बनकर लौटे।
इसी तरह आर्थिक विकास के मामले में भी भाजपा नेतृत्व भ्रमित रहा है। एक तरफ उसका सहोदर स्वदेशी जागरण मंच बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के विरूद्ध राष्ट्रव्यापी जागरण करता है और दूसरी ओर राजग के शासनकाल में उदारीकरण इस सीमा तक बढ़ जाता है कि राजग पर अमरीकी हितों का प्रतिनिधित्व करने का आरोप लगता है। अब अगर भाजपा विकास के माॅडल को लेकर ही स्पष्ट नहीं है तो जनता को क्या सपना दिखायेगी? गुजरात, हिमाचल, छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश, कर्नाटक में भाजपा के मुख्यमंत्रियों के काम को लोगों ने पसन्द किया है। इसलिए उसे वहाँ सफलता मिली है। पर सफलता का यह ग्राफ इसलिए गिरा भी है क्योंकि यह चुनाव राष्ट्रीय मुद्दों पर लड़ा गया। इसलिए इन राज्यों में भी इंका की छिपी लहर ने काम किया।
जो होना था सो हो गया। अब तो भाजपा को आगे की बात सोचनी होगी। आडवाणी जी को उनकी इच्छा के विरूद्ध विपक्ष का नेता बनाना ठीक नहीं है। जब वे घोषणा ही कर चुके थे तो उनको अब आराम करने देना चाहिए। पुस्तकें लिखें, देश-विदेश में भाषण दें और पार्टी नेतृत्व को अपने जीवन के अनुभवों का लाभ देते रहें। प्रधानमंत्री का सपना देखने वाला और इस उम्र में भी इस जीवट से चुनाव लड़ने वाला व्यक्ति अब घायल और हताश विपक्ष का नेतृत्व उत्साह से कैसे कर सकता है? यह उन पर अत्याचार है। पर भाजपा की अन्दरूनी कलह और वर्चस्व की लड़ाई में आडवाणी जी को ढाल बनाकर इस्तेमाल किया जा रहा है। इससे पहले कि यह गन्दगी और बढ़े, इस विषय पर भाजपा की चिन्तन बैठक होनी चाहिए और खुले दिमाग और साझी समझ से भाजपा का नया नेता चुना जाना चाहिए। जरूरी नहीं कि वो पुराने थके-पिटे चेहरों में से कोई हो। बेहतर तो यह होगा कि एक ऐसा चेहरा सामने आये जो उसी तरह नयी ऊर्जा का संचार कर सके जैसा इंका में राहुल गाँधी ने, रालोद में जयंत चैधरी ने, नेकाँ में उमर अब्दुल्ला ने किया है। बहुसंख्यक हिन्दु समाज से जुड़े ऐसे तमाम सवाल हैं जिन्हें अगर ठीक से और ईमानदारी से लेकर चला जाए तो एक बहुत बड़ा वर्ग साथ खड़ा रह सकता है। यह मानना गलत है कि अब इन मुद्दों की सार्थकता नहीं रही। तकलीफ इस बात की है कि इन मुद्दों को भाजपा के नेतृत्व ने कभी भी न तो ठीक से समझा, न अपनाया और न ही उनकी वकालत की। राजनीति में कभी कोई हाशिए पर नहीं जाता। फिर इतने बड़े हिन्दु समाज के हित साधने का लक्ष्य रखने वाले अगर ईमानदार हांेगे तो वे फिर से ताकत खड़ी कर पायेंगे।