Sunday, May 17, 2009

आगे का एजेण्डा

अब सब सफलता और असफलता के मूल्यांकन में जुटे हैं। बात होनी चाहिए आगे के एजेण्डा की। वामपंथी दलों ने ठीक ही निर्णय लिया है कि वे विपक्ष में बैठेंगे। उनकी सप्रंग को जरूरत भी नहीं है। पर नीतिश कुमार का यूपीए के साथ आना नीतिश के फायदे में रहेगा। इससे बिहार के विकास के लिए बड़ा पैकेज और सहूलियतें मिल पायेंगी, ठीक वैसे ही जैसे राजग के शासन में चन्द्रबाबू नायडू ने केन्द्र से वसूली थीं। जाहिर है कि भाजपा के सहयोग पर टिकी बिहार सरकार फिर चल नहीं पायेगी। जिसका सरल उपाय नीतिश कुमार के पास यही होगा कि वे अपनी लोकप्रियता के शिखर के इस दौर में सरकार गिर जाने दें और विधानसभा भंग करवाकर नये चुनावों की घोषणा कर दें। जनता को बतायें कि अगर बिहार का विकास करना है तो उन्हें स्पष्ट बहुमत दें। हालांकि ऐसी हालत में कांग्रेस उनसे सीटों का बंटवारा चाहेगी जो विवाद का विषय बन सकता है। पर खुले दिमाग और बड़ी सोच के साथ ऐसे झंझटों से निपटा जा सकता है। इससे नीतिश को एक लाभ और होगा कि उनके दल के कुछ लोग केन्द्रीय मंत्रिमण्डल में भी आ जायेंगे। जाहिर है कि इन हालातों में वे राजद को सप्रंग के साथ नहीं देखना चाहेंगे। पर लालू और इंका का सुख-दुख का साथ रहा है। हालांकि लालू का जो रवैया इस चुनाव के पहले रहा और जैसे परिणाम आये हैं उससे उनकी कोई उपयोगिता अब सप्रंग को नहीं है। फिर भी वे सप्रंग को सहयोग देना चाहेंगे और सप्रंग उनसे बिगाड़ेगा नहीं। हाँ, उनके और नीतिश के बीच एक संतुलन कायम करने की जरूरत होगी। जो इन हालातों में असंभव नहीं है।

ममता बनर्जी के साथ इंका को आर्थिक नीतियों पर दृष्टि साफ करनी होगी ताकि भविष्य में विवाद पैदा न हो। पर नवीन पटनायक के साथ जुगलबंदी शायद मुश्किल पड़े क्योंकि वहाँ भी उनका सीधा विरोधी दल इंका है। बिहार की तरह वह भी अपने राज्य की तरक्की के लिए ऐसे निर्णय ले सकते हैं जो उन्हें बड़ा फायदा दिला सके। सप्रंग के बाकी सहयोगी दलों को तो कोई दिक्कत नहीं है। वे मानते हैं कि सबसे बड़ा दल होने के नाते उन्हें सप्रंग की अध्यक्ष के निर्णय स्वीकार होंगे। प्रधानमंत्री पद की आकांक्षा रखने वाले शरद पवार तक यह स्वीकार कर रहे हैं।

असली मामला तो राहुल गाँधी के भविष्य का है। इंका की संस्कृति के अनुसार वे निश्चय ही भावी प्रधानमंत्री हैं। पर राहुल की विनम्रता और सोनिया व राहुल का चुनाव के पहले डाॅ. मनमोहन सिंह को ही प्रधानमंत्री बनाये जाने का उद्घोष इतनी जल्दी बदला नहीं जा सकता। पर ऐसी हालत में जब युवाओं ने राहुल के नेतृत्व में विश्वास व्यक्त किया है तो उनमें सत्ता हासिल करने की अधीरता भी होगी। ज्योतिरादित्य सिंधिया ने तो कह ही दिया कि राहुल को प्रधानमंत्री बनना चाहिए। खुद राहुल शायद इसके लिए अभी तैयार न हों। पर एक रास्ता है। प्रधानमंत्री तो मनमोहन सिंह ही बने पर राहुल को उपप्रधानमंत्री बनाकर युवाओं से जुड़े मंत्रालयों का कार्यभार सौंपा जा सकता है। इससे इंका को दो लाभ होंगे। एक तो दोनों तरह का नेतृत्व मजबूत बना रहेगा, बुजुर्गों का भी और युवाओं का भी। दोनों के अनुभव और ऊर्जा का लाभ मिलेगा। सबसे बड़ी बात तो ये होगी कि समय-समय पर उठने वाली अफवाहों की गंुजाइश नहीं बचेगी। वर्ना बात-बात पर खबरें उड़ा करेंगी कि सप्रंग में नेतृत्व परिवर्तन की संभावना। इसका एक लाभ और भी होगा कि राहुल गाँधी को सरकार चलाने का अनुभव मिलने लगेगा। इतना ही नहीं, उपप्रधानमंत्री का पद उनकी पारिवारिक विरासत, इंका संस्कृति और युवा नेताओं की महत्वाकांक्षाओं के अनुरूप होगा। जिसमें हताशा की गुंजाइश नहीं होगी। इंका को यह समझ लेना होगा कि जनता आर्थिक स्थायित्व के साथ विकास चाहती है। वैश्वीकरण इसका समाधान नहीं है। मंदी की मार से बचने के लिए आत्मनिर्भर अर्थव्यवस्था की बुनियादी सोच ही कारगर रहेगी।

जहाँ तक भाजपा की बात है, अब तो सब यही कर रहे हैं कि आडवाणी की पारी खत्म। सपना चूर। प्रधानमंत्री पर हमले का अभियान उल्टा पड़ा। हमने तो 19 अपै्रल,09 को अपने इसी काॅलम में आडवाणी को चेताया था कि ये अभियान का तरीका ठीक नहीं है। बार-बार टी.वी. पर सीधी बहस की चुनौती देकर वे क्या सिद्ध करना चाह रहे हैं। अगर डाॅ. सिंह ने उनसे हवाला काण्ड से जुड़े सवाल पूछ लिये तो वे क्या जबाव देंगे? यह रोचक बात है कि अगले दिन ही अमर उजाला जैसे कई दैनिकों में खबर छपी कि आडवाणी जी अब मनमोहन सिंह पर हमला नहीं करेंगे। कारण जो भी हो, देर आये, दुरस्त आये। अब उनके ससम्मान राजनैतिक सन्यास का समय आ चुका है। युवा नेतृत्व को विपक्ष के नेता व दल के नेता की कमान देकर उन्हें दल का भीष्म पितामह बन जाना चाहिए।  तभी लम्बे समय तक दल को उनकी अनुभव और ज्ञान का लाभ मिल सकेगा और उनको उनका यथोचित सम्मान भी मिलता रहेगा।

भाजपा की दिक्कत यह है कि न तो वह हिन्दुत्व की विचारधारा के प्रति ईमानदार है और न ही वह इस देश के संस्कृति और परिस्थितियों के अनुरूप अपनी विचारधारा को ठोस रूप दे पायी है। हमने बार-बार यह दोहराया है कि हिन्दुत्व के मुद््दे पर भाजपा का नेतृत्व भ्रमित और कमजोर नजर आता है। इसलिए उसे भावनात्मक वोट भी नहीं मिल पाता। दूसरी ओर उसके नेतृत्व में कोई ऊर्जा, भविष्य का सपना और लोगों को आकर्षित करने का करिश्मा दिखायी नहीं देता। इसलिए सफलताऐ ंतो मिलती हैं पर एक लहर नहीं बन पाती। अब वह समय आ गया है जब उसे पाँच वर्ष और इंतजार करना है। इस दौर में इन दोनों ही कमजोरियों को दूर करना होगा। नहीं करेगी तो जैसा कभी भाजपा के चाणक्य माने जाने वाले गोविन्दाचार्य ने कहा है कि भाजपा झीने केसरिया आवरण वाली कांग्रेस ही बनकर रह जायेगी।आज तो वह न कांग्रेस है और न ही जनसंघ।

सरकार तो अब बन गयी और चलेगी भी। पर क्या आम आदमी के हक में नीतियाँ और कार्यक्रम लागू हो पायेंगे? ये सवाल गम्भीर लोगों के मन में हमेशा रहता है। सवा चार सौ सांसद लाकर भी 1984 में इंका लड़खड़ा गयी थी। डाॅ. सिंह व राहुल गाँधी दोनों को खुले दिमाग से इस तथ्य को स्वीकारना चाहिए और यह भी कि उनके दल का राजनैतिक भविष्य ठोस परिणामों पर निर्भर होगा। जनता तक अगर नीतियों का लाभ पहुँचेगा तभी वे मजबूत बनेंगे। वैसे इस बार भी जो जनादेश उन्हें मिला है, वह सकारात्मक वोट है। जिसके लिए उनका खुश और संतुष्ट होना लाजमी है।

No comments:

Post a Comment