Friday, October 22, 2004

कौन नहीं करता सेंसर

Punjab  kesari 22-10-2004
अनुपन खेर बड़े नाराज हैं। उन्हें बेआबरू करके सेंसर बोर्ड से बाहर कर दिया गया। उनका आरोप है कि सरकार ने बिना कारण उन्हें हटाया है ताकि अपनी मर्जी का आदमी सेंसर बोर्ड में बिठा सके। सेंसर बोर्ड हमेशा से विवादों के घेरे में रहा है। इसको बनाने का मकसद यह सुनिश्चित करना होता है कि समाज के हित के विरूद्ध कोई फिल्म जन प्रदर्शन के लिए न जाए। माना जाता है कि जिन फिल्मों में हिंसा या कामुकता दिखाई जाती है या जिनसे साम्प्रदायिक उन्माद फैलता हो या देश की सुरक्षा को खतरा पैदा होता हो या समाज के किसी वर्ग की भावनाओं को ठेस पहुंचती हो तो ऐसी फिल्मों को प्रदर्शन की अनुमति न दी जाए। क्या दिखाया जाए और क्या न दिखाया जाए इसका फैसला करने के लिए सेंसर बोर्ड में जिनको मन¨नीत किया जाता है आम तौर पर वे लोग कोई बहुत पहुंची हुई हस्ती नहीं होते बल्कि चमचे और चाटुकार होते हैं। इसलिए उनके फैसले व्यक्तिगत रागद्वेषों से प्रभावित होते हैं। जिस दौर में सेटैलाईट चैनलों का अवतरण नहीं हुआ था तब सेंसर बोर्ड का काफी महत्व होता था। अक्सर फिल्में बोर्ड के पास महीनों अटकी रहती थीं। पहुंच वाले या पैसा देने वाले अपनी फिल्में पास करा ले जाते थे।

सेंसर बोर्ड को हमेशा से सत्तारूढ़ दल ने अपने विरोधियों की कलाई मरोड़ने के लिए इस्तेमाल किया है। आपात काल में किस्सा कुर्सी का फिल्म को इसी तरह रोका गया। बाद में उस पर काफी विवाद हुआ। उन दिनों ऐसा लगता था मानो कांगे्रसी ही मीडिया की स्वतंत्रता का हनन करती है बाकी विपक्षी दल तो मीडिया की स्वतंत्रता के हामी है, खासकर भाजपा के नेता खुद को बहुत उदारवादी बताते थे। पर राजग की सरकार की छःह वर्षों में इस देश ने आपात काल से भी ज्यादा बुरी सेंसरशिप का नमूना देखा। पहले दिन से मीडिया को नियंत्रित करने की जालसाजी शुरू हो गई। साम, दाम, दण्ड भेद का इस्तेमाल करके भाजपा के नेताओं ने छःह वर्ष में हिन्दुस्तान में स्वत्रंत पत्रकारिता की रीढ़़़ तोड़ दी। वैसे भी संघ की मानसिकता के लोग अपनी आलोचना सुनना पसंद नहीं करते। गुजरात के दंगों के बाद श्री दीनानाथ मिश्र और श्री बलवीर पुंज ने पत्रकारों का एक सम्मेलन बुलाया और उसमें गुजरात की हिंसा को टेलीविजन पर दिखाने के लिए पत्रकारों को बुरा भला कहा। इत्तफाक से उस सम्मेलन में मैं भी मौजूद था मैंने याद दिलाया कि n के दौर में जब देश में स्वतंत्र हिन्दी टीवी पत्रकारिता के नाम पर केवल मेरे द्वारा निकाली जा रही वीडियो पत्रिका कालचक्रही चलन में थी और उसमें मैंने अयोध्या में कार सेवकों पर हुई हिंसा का सजीव चित्रण किया था तब भाजपा ने उस वीडियो कैसेट को गांव-गांव, गली-गली दिखाया था और इस तरह अपना जनाधार बढ़ाने का काम किया।  मैंने आयोजकों से प्रश्न किया कि तब टीवी पर हिंसा दिखाना आपके फायदे में था इसलिए आपने उसका समर्थन किया और आज घाटे में दीख रहा है तो आप विरोध कर रहे हैं।
1993 में जब कालचक्र वीडियो पत्रिका में जैन हवाला कांड का पर्दाफाश किया गया तो उस वीडियों को देखकर सेंसर बोर्ड में हड़कंप मच गया। सेंसर बोर्ड ने इस पर अपने निर्णय बार-बार बदले और अंत में कालचक्र के इस अंक को प्रतिबंधित कर दिया। उस समय केन्द्र में नरसिंह राव की सरकार थी। पर तब भाजपा या जनता दल समेत किसी ने इस प्रतिबंध का विरोध नहीं किया क्योंकि इन दलों के भी बड़े नेताओं के नाम हवाला कांड में शामिल थे। इसलिए ये भी नहीं चाहते थे कि कालचक्र का दसवां अंक देश की जनता तक पहुंचे। वो तो न्यायमूर्ति वी. लैंटिन ऐसे व्यक्ति थे कि उन्होंने अपने निर्णय से ये प्रतिबंध हटा दिया और सेंसर बोर्ड को इसके लिए काफी लताड़ा।

कहने को तो सेंसर बोर्ड एक स्वायत्त संस्था है। पर उसमें मन¨नीत सदस्य सत्तारूढ़ दल के चरण और भाट होंगे तो स्वयं ही वही करेंगे जो उनके आका चाहेंगे। यही कारण है कि सेंसर बोर्ड के वजूद के बावजूद ढेरो कूड़ा करकट विवेकहीन तरीके से देश की जनता को परोसा जा रहा है। हां, यह जरूरत है कि सेटैलाईट चैनलों के अचानक बड़ जाने से सेंसर बोर्ड की भूमिका अब काफी कम हो गई है। पहले चुम्बन के दृश्य पर ही फिल्म अटकी रहती थी पर अब कामोत्तेजक दृश्य खुले आम टीवी चैनलों पर दिखाए जाते हैं। समाचार वाले दुनिया के हर कोने में हो रही हिंसा का खुला प्रदर्शन करते है। राजनेताओं और आतंकियों के भड़काऊ बयान प्रसारित किए जाते है। बिल लादेन तक के बयान दुनिया को टीवी पर दिखाए गए। ऐसे माहौल में सेंसर बोर्ड की कोई खास अहमियत नहीं है। फिर भी माना ये जाता है कि अगर खुली छूट दे दी जाएगी तो स्थिति नियंत्रण के बाहर हो जाएगी। इसलिए अंकुश बना रहना जरूरी है। यदि यह बात है तो संेसर बोर्ड में गंभीर व्यक्तित्व वाले निष्पक्ष और समाज के प्रति जागरूक लोगों को ही भेजना चाहिए। उनके चयन की प्रक्रिया पारदर्शी होनी चाहिए। पर कोई भी सरकार इसे स्वीकार नहीं करेगी। कहा यही जाएगा कि सेंसर बोर्ड पूरी तरह स्वायत्त है पर बोर्ड वही करेगा जो उससेे कहा जाएगा। इसलिए श्री अनुपम खेर को उत्तेजित होने की कोई आवश्यकता नहीं है। जब भाजपा की सरकार थी तो अनुपम खेर की चांदी थी। अब सरकार नहीं रही तो उन्हें मौजूदा सरकार के हुकूमबरदारों के लिए रास्ता छोड़ देना चाहिए और भाजपा के सत्ता में लौटने की प्रतीक्षा करनी चाहिए।

वैसे कानून चाहे कितने भी बना लिए जाए। जब तक उन्हें लागू करने वाली एजेंसियां ईमानदारी से काम नहीं करेंगी तब तक कोई फायदा नहीं। पूरे देश के छोटे शहरों और गांवों में आज कल कामुक फिल्में खुलेआम धड़ल्ले से दिखाई जाती हैं। हर फिल्म के शुरू में सेंसर बोर्ड का प्रमाण पत्र भी दिखाया जाता है। पर फिल्म के दौरान एक दो रील वो चला दी जाती है जिसे दिखाने की अनुमति नहीं ली गई होती है। इसी रील में वह सब कुछ होता है जिसे देखने भारी भीड़ इन सिनेमा हालों में आती है। यह धंधा पुलिस और मनोरंजन कर विभाग की मिलीभगत से फलता-फूलता है। वैसे भी अगर कोई विरोध करना ही चाहे तो सरकार उसका क्या बिगाड़ लेगी। सेंसर बोर्ड के बावजूद अपनी फिल्में आतंकवादी या नक्सलवादी ही नहीं बांटते बल्कि भाजपा के नेता मदन लाल खुराना तक ने नई दिल्ली के पालिका बाजार में अयोध्या पर बनी डा0 जेके जैन की वीडियों फिल्म को सरेआम जारी किया था। पर दिल्ली पुलिस ने उनके खिलाफ कोई कारवाई नहीं की।

इन हालातों में सेंसर ब¨र्ड के औचित्य पर एक खुली बहस की आवश्यकता है। फरवरी 1990 में दिल्ली उच्च न्यायालय में वीडियो समाचारों पर सेंसर के विरोध में मैंने एक जनहित याचिका दायर की थी तब इस विषय पर सारे देश में खूब बहस चली। संपादकीय भी लिखे गए। पर वह मामला तब से अभी तक अदालत में लंबित है। प्र्रकाश झा की जयप्रकाश नारायण पर फिल्म को लेकर यह मामला फिर फोकस में है। इसका स्थायी समाधान निकाला ही जाना चाहिए। एक तरफ तो हम मुक्त बाजार और मुक्त आकाश की हिमायत करते हैं और दूसरी तरफ देश के फिल्मकारों सेंसर की कैंची से पकड़कर रखना चाहते हैं, यह कहां तक सही है ?

Friday, October 15, 2004

प्रोफेशनल कोर्सों के नये संस्थान

Panjab kesari 15-10-2004
आगरा से दिल्ली आने वाले राष्ट्रीय राजमार्ग पर 20-22 वर्ष का नौजवान लिफ्ट मिलने की हसरत लिए खड़ा था। गाड़ी रुकवाकर उसे बिठा लिया। परिचय मिला कि वो वहीं नये खुले इंजीनियरिंग कालेज का मैकेनिकल इंजीनियरिंग का लेक्चरर है। पलवल (हरियाणा) आने पर वह उतर गया। उसकी यही दिनचर्या है। इसी वर्ष इंजीनियरिंग की डिग्री लेकर अपने घर पलवल आया तो कोई अच्छी नौकरी नहीं मिली। सोचा कि प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी करे। इस समय का सदुपयोग करने के लिए उसने मथुरा में खुले इंजीनियरिंग कालेज में नौकरी ले ली। पूछने पर पता चला कि इस कालेज में ज्यादातर दूसरे शिक्षक भी ऐसी ही पृष्ठभूमि के हैं। ऐसे नौसिखियों से छात्रों को इंजीनियरिंग के गहन और तकनीकी विषयों की पढ़ाई करवाई जा रही है। जाहिर है कि जिस कालेज की इमारत ही अभी पूरी तरह बनकर तैयार नहीं हुई हो। जहां न तो बढि़या पुस्तकालय हो और न ही प्रयोगशालाएं। जहां की प्रबन्ध कमेटी में ऐसे लोग हों जिन्हें कल तक छोटे व्यापारी या जमीनों के दलाल के रूप में जाना जाता था वहाँ प्रबन्ध समिति की दृष्टि और प्राथमिकता क्या होगी ?

कुछ किलोमीटर पीछे ऐसा ही एक नया बना मेडिकल कालेज है। वहां भी तमाम बच्चे बच्चियों को देखकर यही लगा कि ये सब विद्यार्थी होंगे। पूछने पर पता चला कि वे सब प्राध्यापक हैं और पिछले दो सालों में ही डिग्री लेकर लौटे हैं। क्योंकि निजी पे्रक्टिस करना सबके लिए सम्भव नहीं था। नौकरियां मिल नहीं रही थीं, इसलिए ये काम ले लिया। अभी अस्पताल की सब इमारतें बनकर तैयार भी नहीं हुईं। जो बनी हैं उसकी रूप सज्जा तो बाहर से देखने में प्रभावशाली है, पर एक प्रोफेशनल संस्थान के परिसर में जो अकादमिक गरिमा और गहराई होनी चाहिए उसका नितान्त अभाव है।

ये तो मात्र दो उदाहरण हैं। पर देश के किसी भी राजमार्ग पर निकल जाइए आपको मैनेजमेंट, कंप्यूटर, इंजीनियरिंग, मेडिकल, फैशन डिजाइनिंग, केटरिंग आदि के दर्जनों नये संस्थान एक-एक सड़क पर मिल जायेंगे। सबकी मुख्य इमारत बहुत प्रभावशाली होगी। पर जितने कोर्स पढ़ाने का ये संस्थान दावा करते हैं उसको देखकर इनका पूरा साजोसामान और प्रयत्न बहुत बचकाना आता है। ऐसे संस्थानों में भी दाखिला लेने वालों की लम्बी कतारें लगी हैं और इसीलिए ये खूब फलफूल रहे हैं। दाखिले की मोटी फीस अभिभावकों से वसूली जा रही है। चूंकि ये सब डिग्रियां हासिल करना आज फैशनेबल बन चुका है। इसलिए कस्बे-कस्बे में बच्चे इनके लिए लालायित रहते हैं। टी.वी. व पत्रिकाओं में आने वाले लेख और विज्ञापन उनकी भूख और बढ़ा देते हैं। जो मेधावी हैं वे देश की प्रतिष्ठित संस्थाओं की प्रतियोगी परिक्षाओं में बैठते हैं और कहीं-न-कहीं दाखिला पाकर अपने लक्ष्य की ओर आगे बढ़ते हैं। पर इंजीनियर, डाक्टर या अन्य प्रोफेशनल डिग्री पाने की हसरत रखने वालों की संख्या तो देश में करोड़ों में है और प्रतिष्ठित संस्थानों में दाखिला कुछ लाखों को ही मिलता है। शेष करोड़ों प्रत्याशियों की हसरत पूरी कर रहे हैं कुकुरमुत्ते की तरह उग रहे ये नये संस्थान। हकीकत ये है कि इन डिग्रियों से इन बच्चों की हसरत पूरी नहीं होने जा रही है। यह दूसरी बात है कि इनके निम्न मध्यवर्गीय माता-पिताओं ने अपने जीवन भर की कमाई इन बच्चों के भविष्य पर दांव लगा दी है। इस उम्मीद में कि बच्चा समाज में प्रतिष्ठित हो जायेगा। जबकि रोजगार का बाजार बढ़ नहीं रहा, बेरोजगारी बढ़ रही है। निजी क्षेत्र में अगर रोजगार मिलते भी हैं तो उन्हीं को जो वास्तव में योग्य हैं या फिर अपने उच्च स्तरीय सम्पर्कों से कंपनी को मोटा मुनाफा दिलवा सकते हैं।

इन नये खुले संस्थानों के कितने नौजवानों को नौकरी मिल रही है, कैसी नौकरी मिल रही है और कहां मिल रही है इसका गहराई से अध्ययन होना चाहिए और उसकी रिपोर्ट व्यापक रूप से प्रकाशित होनी चाहिए। ताकि लोग जानबूझ कर धोखा न खायें। हो यह रहा है कि भ्रष्ट राजनेताओं, अधिकारियों व व्यापारियों ने मिल कर देश में ऐसे हजारों संस्थानों को खड़ा कर दिया है। क्योंकि उन्हें यह बहुत मुनाफे का सौदा दिखाई दिया। इधर तो सूचना क्रान्ति से देश में प्रोफेशनल कोर्सों के प्रति जागरूकता और जिज्ञासा बढ़ी और उधर देश में पहले से मौजूद संस्थानों में आगे सीट बढ़ाने की गुंजाइश नहीं थी। नतीजा यह कि इस अचानक बढ़ी मांग को पूरा करने के लिए रातो-रात देश में ऐसे संस्थानों का  जाल खड़ा हो गया। जानकर आश्चर्य होता है कि कैसे कैसे लोग इन कालेजों को चला रहे हैं। एक दरोगा जिसने करोड़ों रूपया रिश्वत में कमाया और जिसका नौजवान बेटा चार आदमियों के बीच अपना परिचय तक ठीक से नहीं दे सकता वो इंजीनियरिंग कालेज का प्रबन्धक और मालिक है और खूब फलफूल रहा है। जाहिर है कि इन संस्थानों के चलाने वालों के लिए यह भी एक धन्धा है। जिन्हें 30 वर्ष पहले के खाद्य संकट का दौर याद होगा उन्हें ध्यान होगा कि सरकार ने एफ.सी.आई. के गोदाम बनवाने की स्कीम चलवाई थी। लोगों को सस्ती दर पर जमीन और ऋण उपलब्ध करवाकर एफ.सी.आई. के लिए बड़े बड़े गोदाम बनवाने के लिए कहा गया। देश को सपना दिखाया गया कि इन गोदामों में अनाज का संरक्षण होगा। सरकारी फायदा लेने के लिए प्रभावशाली लोगों ने हर जिले में इन गोदामों की भारी-भारी इमारतें खड़ी कर दीं। आज इनकी क्या दशा है ? पैसा बनाने वाले पैसा बनाकर सरक लिए अनाज आज भी खलिहानों में मौसम की मार झेलता रहता है। इसी तरह इन कालेजों को खोलने वालों की दृष्टि बड़ी साफ है। जब तक युवावर्ग अपने माता-पिता को लाखों रूपये की फीसे के बंडलों के साथ इन संस्थानों के प्रवेश द्वार तक खींच कर ला रहा है। इनकी शानशौकत बनी रहेगी। जिस दिन इनसे निकले नौजवानों की बेरोजगारी और हताशा की खबरें लौट कर कस्बों में पहुंचेंगी उस दिन इनका ग्लैमर कपूर की तरह उड़ जायेगा। तब इनमें दाखिले की क्रेज नहीं रहेगी। तब ये मालिकों के लिए घाटे का सौदा बन जायेंगे। जो इन्हें बन्द करने में एक दिन नहीं लगायेंगे। ऐसे संस्थान जिस तेजी से खुलते हैं उतनी ही तेजी से रात के अंधेरे में गायब भी हो जाते हैं। ये संस्थान ऐसे लोगों द्वारा तो शुरू नहीं किए गये जो समाज में शिक्षा के कीर्तिमान स्थापित करना चाहते है।

इन संस्थानों के पक्ष में सरकार के लोगों द्वारा एक तर्क यह भी दिया जाता है कि इससे देश में टेक्निकल लिटेªसी बढ़ेगी। एक बहुत बड़ी तादाद ऐसे नौजवानों की खड़ी हो जायेगी जो देश को तकनीकी क्राति की ओर ले जाने की जमीन तैयार करने का काम करेंगे। इसलिए इनका विस्तार दूरदृष्टि से ठीक ही है। यह भी तर्क दिया जाता है कि इस तरह की शिक्षा के प्रसार से समाज में प्रतियोगिता बढ़ेगी और योग्य और मेधावी छात्र स्वयं निखरकर सामने आ जायेंगे। यह कोरी बकवास है। अगर ऐसा होता तो जितने पोलिटेक्निक संस्थान सरकारों ने अलग-अलग प्रांतों में खोले उनसे तकनीकी क्रांति हो चुकी होती। पर देश की सड़कों पर आटोमोबाइल मरम्मत से लेकर जेनरेटर और पम्प मरम्मत जैसे श्रम आधारित छोटे-छोटे उद्यम लगाने वाले करोड़ों नौजवान किसी पाॅलिटेक्निक से पढ़कर नहीं आये बल्कि खेतों और कारखानों में मशीनों पर काम करके अपने अनुभव से आगे बढ़े। अगर यही तर्क है तो फिर इन संस्थानों को इतनी भारी फीस लेने की छूट क्यों दी जा रही है ? जाहिर है कि ये संस्थान जो सब्जबाग दिखा रहे हैं उसे पूरा नहीं कर पायेंगे और इनके संचालन में अनेक राजनैतिक निहित स्वार्थ छिपे हैं इसलिए इन्हें फलने फूलने दिया जा रहा है। ठीक वैसे ही जैसे सहकारिता समितियों और चिटफन्ड कंपनियों को पनपने दिया गया और वे आम जनता को मोटे ब्याज का सपना दिखाकर वर्षों ठगती रहीं और रातों-रात माल समेट कर गायब हो गईं। एक के बाद एक जब घोटाले खुले तो पता चला कि इलाके के बड़े-बड़े नेताओं का उन पर वरदहस्त था।

इस संस्थानों से तो ऐसा धोखा नहीं होगा। क्योंकि जनता को लूटने का इनका तरीका बड़ा साफ है। पहले अपने संस्थान के कोर्सों की बढि़या मार्केटिंग की जाती है जब दाखिले को भीड़ आती है तो मुंहमागी फीस वसूली जाती है। फिर 3-4 वर्ष बच्चा संस्थान में रहकर पढ़ेगा ही। उसे जाते वक्त एक डिग्री भी थमा दी जायेगी। अब उस डिग्री की बाजार में कीमत है या नहीं ये सिरदर्दी संस्थान वालों की तो है नहीं। इसलिए आप उन पर यह दोष नहीं लगा पायेंगे कि उन्होंने आपके साथ धोखा किया। उनका जवाब होगा कि हमने फीस ली, पढ़ाया और डिग्री दी तो यह       धोखा कहां हुआ ? पर यही पूरा मायाजाल आपको अंधेरे में रखकर खड़ा किया जा रहा है। इसलिए हर नौजवान और उसके अभिभावक को चाहिए कि वो ऐसे किसी संस्थान के मायाजाल में फंसने से पहले खूब तहकीकात करे। यह पता लगाये कि वहां से पढ़कर निकले छात्रों की आज स्थिति क्या है ? हड़बड़ी में कोई फैसला न लिया जाए। अपने मां-बाप पर दबाव डालकर सिर्फ इसलिए दाखिला न लिया जाए कि आपको फलां डिग्री चाहिए। मैं एक स्कूल के ऐसे प्राध्यापक को जानता हूं जिन्होंने बड़ी ईमानदारी और सादगी से जीवन जिया और अपने सीमित साधनों में अपनी तीन बेटियों को ससुराल विदा किया। बेटा कंप्यूटर पढ़ना चाहता था। आज आई.आई.टी. के कंप्यूटर पढ़े लड़के खाली बैठे हैं। पर यह लड़का 3,50,000 रूपया फीस देकर ऐसे ही एक संस्थान में पढ़ रहा है। स्पष्ट है कि अगले वर्ष जब उसका कोर्स खत्म होगा तो उसे 3500 रूपये महीने की नौकरी मिलना मुश्किल होगा। जबकि उसके पिता उम्मीद लगाये बैठे है कि उनका बेटा उनके बुढ़ापे का सहारा बनेगा।

Friday, September 17, 2004

भाजपा और हिन्दू धर्म ?


जब कभी हिंदुओं की भावना भड़काने का मौका मिलता है भाजपा चूकती नहीं। वीर सावरकर वाला मामला कुछ ऐसी ही घटना है। भाजपा दावा करती है कि हिंदुओं की चिंता सिर्फ उसे ही है और किसी दल को नहीं। रामजन्म भूमि आन्दोलन को पकड़कर भाजपा ने हिंदुओं को संगठित करने का काम किया भी इसमें संदेह नहीं। हर घर से राम मंदिर के नाम पर ईंट और चंदा लेकर भाजपा और विहिप ने पूरे देश के ही नहीं विदेशों में रहने वाले हिंदुओं को भी आंदोलित कर दिया। पर सत्ता में आने के बाद उसने जो रंग दिखाया उससे सभी धर्म पे्रमी हिन्दू हतप्रभ रह गये। राम मंदिर निर्माण को लेकर भाजपा नेताओं ने बार बार बयान बदले। धर्म पे्रमी निष्पक्ष लोगों ने बार बार अपने लेखों और वक्तव्यों से भाजपा नेताओं को सलाह दी कि मंदिर का विवाद जब हल होगा, हो जायेगा, तब तक कम से कम तीर्थ स्थलों की दुर्दशा तो सुधार दो। पर इस मामले में भाजपा के शासन काल में ऐसा कुछ भी ठोस नहीं हुआ जिससे हिंदू धर्म या समाज को लाभ मिला हो। बल्कि सत्ता के लालच में भाजपा नेता हिंदूवादी मुद्दों से पल्ला झाड़ते नज़र आए।

संघ के कार्यकर्ताओं को हमेशा की तरह बहका दिया गया कि साझी सरकार की सीमाएं होती हैं इसलिए कुछ ठोस नहीं हो पा रहा। इसी तरह आतंकवाद के सवाल पर भाजपा ने देशवासियों को खूब डराया और वोट सीधे किए पर इस काॅलम में मैं कई बार लिख चुका हूँ और प्रमाण दे चुका हूँ किस तरह देश में आतंकवाद के फैलने के लिए भाजपा भी जिम्मेदार है। इस विषय पर भाजपा के हर बड़े नेता से मैं किसी भी टी.वी. चैनल पर खुली बहस करने को तैयार हूँ। अपनी बात प्रमाण के साथ रखने को भी तैयार हूँ। पर वे ऐसी बहस करने की हिम्मत नहीं करते। एक बार जी.टी.वी. के कार्यक्रम में ऐसा अवसर आया तो भाजपा नेताओं के होश उड़ गए। फौरन कार्यक्रम का रूख बदलवा दिया।

फिलहाल चर्चा भाजपा के हिंदू पे्रम की करना चाहता हूँ। भाजपा और उसके सहयोगी संगठन बार बार हिंदू धर्म और अपनी पुरातन संस्कृति की रक्षा करने का दावा करते हैं। संस्कृति की रक्षा में सांस्कृतिक अवशेषों की रक्षा बहुत ज़रूरी होती है। इससे कोई असहमत नहीं होगा। बामियान (अफगानिस्तान) में बुद्ध भगवान की मूर्ति ध्वस्त कर दी गई तो बुद्ध धर्म का वहाँ अवशेष भी नहीं बचा। मूर्ति बनी रहती तो शायद वहां कभी फिर बौद्ध़ धर्म फिर फैल सकता था। अगर मक्का मदीना या वेटिकन सिटी नहीं रहेंगे तो इस्लाम और ईसायत भी नहीं रहेगी। इसी तरह हिंदू धर्म की भी कुछ सांस्कृतिक विरासतें हैं। जिनकी रक्षा होनी चाहिए। पर केन्द्र और जिन राज्यों में भी भाजपा की सरकार थी वहां भी हिन्दू सांस्कृतिक विरासतों का खुलेआम विनाश होता रहा पर किसी ने परवाह नहीं की। जगमोहन जी जैसे व्यक्ति कुछ कर सकते थे पर उन्हें कुछ करने नहीं दिया गया। दूसरी तरफ अगर किसी भी शहर में किसी मंदिर - मसजिद का विवाद हो जाए तो भाजपा और संघ वाले फौरन आग में घी देने पहुँच जाते हैं। पर पांच हजार वर्ष पुरानी ब्रज संस्कृति की रक्षा की उन्हें कोई चिन्ता नहीं है। राधाकृष्ण के पे्रम की रसमयी लीलाओं के साक्षी स्थल और भगवान् की बाल लीलाओं को समेटे सांस्कृतिक स्थलों का जितना और जैसे विनाश भाजपा के शासन काल में हुआ है उतना शायद पहले कभी नहीं हुआ। इसके तमाम प्रमाण हैं। 

देश विदेश में भागवत सुना सुनाकर करोड़ों बटोरने वाले अपने भक्तों को भी नहीं बताते कि ब्रज का कैसा विनाश हो रहा है। जिन लीला स्थलियों की कथा सुनाकर वे आपका मन द्रवित कर देते हैं वे सब विनाश के कगार पर खड़ी हैं या उनका विनाश हो चुका है। भगवान की कोई लीला ब्रज के आज मशहूर हो चुके मंदिरों, मठों, आश्रमों, गेस्ट हाउसों में नहीं हुई थी। भगवान की तो सब लीलाएं ब्रज के वनो, पर्वतों, कुण्डों व यमुना तट पर हुई थीं। ये सब काफी तेजी से नष्ट किये जा रहे हैं। इनकी रक्षा के लिए कभी भाजपा, विहिप या संघ ने कोई पहल नहीं की। गुजरात में भाजपा को सत्ता में बैठाने वाली कृष्ण भक्त जनता के मन में यमुना माई के प्रति अगाध पे्रम और श्रद्धा है। पर उन्हें सुनकर आघात लगेगा कि वृंदावन में यमुना मां की गोद में भाजपा शासन के दौरान अवैध निर्माणों की होड़ लग गई। वृंदावन वासी शोर मचाते रह गए और देखते देखते भाजपा सरकार ने यमुना तट को अवैध नगर में बदल दिया। यमुना मैया के घाटों के सामने, तट के बीच में, अवैध सड़क का निर्माण कर दिया ताकि कालोनियां काटी जा सकें। यह दृश्य इतना हृदय विदारक है कि हर भक्त रो देता है। दुनिया के तमाम देशों में रेत हटाकर नदी पुनः साफ की गई है व  तटों पर लाई गई है। जबकि यूरोप अमेरिका के देशों की नदियों का वो महत्व नहीं है जो हिन्दुओं के लिए यमुना जी का है। यमुना में भी रेत और गाद हटाकर वही करने की जरूरत थी। इस ओर बार बार ध्यान दिलाया गया पर हिंदू धर्म के प्रति असंवेदनशील भाजपा नेताओं के कान पर जूं तक नहीं रेंगी। सुश्री मायावती ने जो आगरा में यमुना के साथ किया उसके मुकाबले यह अवैध निर्माण कहीं ज्यादा बड़ा अपराध है और अगर एक भी जनहित याचिका सुप्रीम कोर्ट में इस मांग के साथ आ जाये कि वृंदावन में यमुना पर हुए अवैध निर्माण के लिए जिम्मेदार लोगों को अदालत सजा दे और भारत व उत्तर प्रदेश सरकार को आदेश दे कि वे दोनों मिलकर यमुना की ड्रैजिंग करवायें जिससे यमुना फिर अपने ऐतिहासिक घाटों पर लौट सके, तो इस याचिका के सर्वोच्च न्यायालय में आते ही भाजपा नेताओं के होश उड़ जायेंगे। 

संघ, विहिप व भाजपा के कार्यकर्ताओं को समझा दिया गया कि जनता को बता दो कि साझाी सरकार के कारण राम मंदिर नहीं बन सका। पर भाजपा के पास इस बात का क्या जवाब है कि ब्रज के हजारों प्राचीन मंदिर और लीला स्थलियाँ क्यों जीर्णशीर्ण अवस्था में पड़ी रहीं ? उनका जीर्णोद्धार कराने में भाजपा की केन्द्र व राज्य सरकारों को क्या दिक्कत थी ? भगवान की रास लीलाओं के साक्षी ब्रज के 48 वनों को सजाने संवारने में क्या दिक्कत थी ? वृदंावन की हरित पट्टी की रक्षा करने में क्या दिक्कत थी ? जबकि इसी काॅलम में 1998 से इन मुद्दों की ओर मैं भी भाजपा नेतृत्व का ध्यान आकर्षित करता रहा। आज वृंदावन कंक्रीट का जंगल बन चुका है। जबकि सुप्रीम कोर्ट का आदेश है कि देश में 33 फीसदी हरित क्षेत्र होना चाहिए। मथुरा-वृदांवन की सड़कों की दुर्दशा तो वर्णन से परे है। इतनी खराब सड़कें किसी तीर्थ में नहीं होंगी। कूड़े के ढेरों से तीर्थ पटा पड़ा है। भाजपा की सरकारों को ब्रज की सड़कें ठीक करवाने और सफाई सुनिश्चित करने से कौन सा मुकदमा रोक रहा था ? ब्रज के पर्वतों पर भगवान के तमाम लीला चिन्ह हैं जिन्हें डायनामाइट से उड़ाया जा रहा है। इनमें से ज्यादातर पहाड़ राजस्थान के भरतपुर जिले की कामा तहसील में पड़ते हैं। राजस्थान में भाजपा की सरकार है। इस खनन को रोकने में इतनी देर क्यों हो रही है। खनन और डायनामाइट से भगवान की लीला स्थलियों को रात-दिन मिट्टी के ढेर में बदला जा रहा है। हिंदू धर्म की रक्षा करने वाली भाजपा मौन क्यों है ? अंडमान और हुबली जाकर जो आंदोलन खड़ा किया जा रहा है या रामजन्म भूमि की रक्षा के नाम पर जो ऊर्जा व धन खर्च किया गया उसका 10 प्रति भी अगर ब्रज की सांस्कृतिक धरोहरों की रक्षा के प्रयासों पर किया गया होता तो 5000 वर्ष पुरानी यह हिन्दू धरोहर इतनी तेज़ी से नष्ट नहीं होती। पर भाजपा ने ब्रज में विकास के नाम पर अपने नेताओं के आराम के लिए तीन भव्य आश्रम बनवाए और वन संस्कृति पर आधारित ब्रज की धार्मिक भावनाओं की परवाह न करके वहां तमाम पुराने वृक्षों को काट डाला और कौडि़यों के दाम पर वह जमीन अपनी नेता साध्वी ऋतम्भरा को अलाट कर दी। तीर्थयात्रियों और धर्म पे्रमी जनता और साधुसंतों की सुविधा के लिए कौड़ी खर्च करना तो दूर रहा उल्टा ब्रज के विनाश का काम तत्परता से किया। फिर भाजपा कैसे हिन्दू धर्म की ठेकेदारी का दावा करती है ? यही कारण है कि मथुरा की धर्म पे्रमी जनता ने भाजपा को लोकसभा व विधानसभा चुनावों में हरा दिया।

जनसंख्या वृद्धि में हिन्दुओं का प्रतिशत गिरने का सवाल हो, सावरकर जी की नामपट्टी हटाने का सवाल हो या फिर मथुरा, काशी और अयोध्या के धर्म स्थलों का सवाल हो भाजपा भावनात्मक मुद्दे उठाकर आंदोलन खड़ा करने में माहिर है। पर उसके कृत्य ऐसे नहीं हैं जिससे यह प्रमाण मिले कि भाजपा और उसे जुड़े संगठन हिन्दुओं के  धर्म स्थलों और सांस्कृतिक विरासत के संरक्षण व संवर्द्धन में कोई रुचि लेती हो। दूसरी तरफ इंका है जो हिन्दुओं के तमाम धर्म स्थलों का अपने शासन काल में विकास करती आई है। पर मुस्लिम वोटों के लालच में कभी उसका प्रचार नहीं करती। प्रचार करे या न करे पर यह सही है कि इंका को सत्ता में बैठने वाले मतदाताओं में हिन्दुओं की ही संख्या सबसे अधिक है। ये हिन्दू भी धर्म पे्रमी हैं। पर वे भाजपा के छद्म हिन्दूवाद से दुखी और नाराज हैं। इसलिए इंका के साथ खड़े हैं। इसलिए इंका और सपा की सरकारों का यह नैतिक दायित्व है कि वे ब्रज के वनों, कुण्डों, पर्वतों, यमुना व ऐतिहासिक स्थलों के संरक्षण व संवर्द्धन में कोताही न दिखायें। चुनाव आने का इन्तजार न करें। ठोस काम करके दिखायें। फिर उन्हें प्रचार की जरूरत नहीं पड़ेगी। देश भर के करोड़ों हिन्दू जब ब्रज आयेंगे तो देखकर अवश्य प्रसन्न होंगे कि भाजपा उनकी सुविधा के लिए ब्रज में कुछ भी न कर सकी जबकि धर्मनिरपेक्षता का झंडा उठाने वाले लोगों ने ब्रज को सजा संवार कर रख दिया। धर्मनिरपेक्षता का अर्थ धर्म विमुखता नहीं है। सभी धर्मों के तीर्थ स्थलों का भक्तों की भावना के अनुरूप संरक्षण व संवर्द्धन होना चाहिए। ब्रज की संस्कृति से सारा देश प्रभावित हुआ। मणिपुर से गुजरात और केरल से कश्मीर तक ब्रज की संस्कृति पर आधारित कलाओं का प्रदर्शन होता है। ब्रज से सारे देश के हिन्दुओं का रागात्मक लगाव है। ब्रज का उत्थान ब्रज के प्राकृति सौंदर्य को बचाकर और वहां तीर्थाटन की सुविधा बढ़ाकर किया जा सकता है। जो दल भी इस कार्य को निष्काम भावना से करेगा वो धाम कृपा से दीर्घकाल तक सत्ता का सुख भोगेगा। इसमें कोई सन्देह नहीं। भाजपा के आन्दोलन केवल जनता को भड़काने के लिए होते हैं उसकी ठोस सेवा के लिए नहीं। इसीलिए छः वर्ष सत्ता में रहकर भी भाजपा यह कृपा प्राप्त नहीं कर सकी।

Friday, September 3, 2004

राजनीति में दागी कौन ?


संसद में बिना बहस के बजट पास हो गया। विपक्ष ने इसका बहिष्कार किया। सरकार में शामिल दागी मंत्रियों को लेकर विपक्ष नाराज है। जबसे सरकार बनी है उसने लगातार प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह पर दबाव बना रखा है। इसमें शक नहीं कि अपराधियों के राजनीति में प्रवेश को लेकर हर समझदार भारतवासी चिंतित है। पर असहाय भी है। कुछ कर नहीं सकता। पहल तो राजनैतिक दलों को ही करनी होगी। भाषण सब झाड़ते हैं पर किसी भी राजनैतिक दल के नेता में यह नैतिक साहस नहीं कि राजनीति से अपराधियों को निकालने के सवाल पर जनता को आंदोलित करे। राजनीति में अपराधियों का आना सबके लिए घातक है। जनता के लिए ही नहीं बल्कि उन राजनेताओं के लिए भी जो अपराधी नहीं हैं। यह कैंसर अगर जड़ से निर्मूल नहीं किया गया तो कुछ समय बाद डाॅक्टर मनमोहन सिंह नहीं बल्कि दाउद जैसे लोग इस देश में प्रधानमंत्री बन जायेंगे। पर बिल्ली के गले में घंटी कौन बांधे ? सत्ता हासिल करने की होड़ में हर दल वही करता है जिसकी वह आलोचना करता है।

वैसे अपराधी कौन है या दागी कौन है ? इसका फैसला इतना आसान नहीं। राजग के सदस्य तपाक से उत्तर देते हैं कि हत्या, लूट, अपहरण और हिंसा में शामिल व्यक्ति को अपराधी नहीं तो और क्या माना जाये। यह तर्क सही है और इस कोई बहस की भी नहीं जा सकती। सब एक मत होंगे। पर सवाल उठता है कि क्या केवल ये अपराध ही अपराध है। देश द्रोह करना या देश के खिलाफ षड्यंत्र करने वालों को प्राश्रय देना तो इससे भी बड़ा अपराध है। दुख की बात यह है कि दागी मंत्रियों का मुद्दा उछालने वाली राजग का दामन कुछ ऐसे ही जघन्य अपराधों से भरा पड़ा है। उदाहरण के तौर पर स्टैंप घोटाले में बम्बई के पुलिस आयुक्त श्री राधेश्याम शर्मा को इसलिए गिरफ्तार किया गया कि उन्होंने इस मामले में एफ.आई.आर. दर्ज करने में ढील रखी और समय पर कार्यवाही नहीं की। क्या राजग सरकार के गृहमंत्री संसद को ये बताने को तैयार है कि हिजबुल मुजाहिद्दीन के आतंकवादियों को विदेशी मदद पहुंचाने वाले लोगों को सी.बी.आई के जिन पुलिस अधिकारियों ने चार वर्ष तक बचाये रखा उन्हें गिरफ्तार क्यों नहीं किया गया ? सजा देना तो दूर राजग सरकार ने देशद्रोह के काण्ड में लिप्त इन अधिकारियों को समय से पहले पदोन्नति देकर, राष्ट्रपति के पदक दिलवाकर और विदेशों में तैनाती देकर पुरस्कृत क्यों किया ? यदि राजग सरकार देश के प्रति अपना फर्ज ईमानदारी से निभाती और जैन हवाला काण्ड की जांच में हुई कोताही को ध्यान में रख कर इस जघन्य काण्ड की ईमानदारी से जांच करवाती तो आतंकवाद देश में इतने पांव नहीं पसारता।
क्या राजग सरकार में शामिल दलों के नेता बतायेंगे कि तीन बार आंतकवाद पर श्वेतपत्र लाने की घोषणा करने के बावजूद राजग सरकार के गृहमंत्री ने यह श्वेतपत्र देश के सामने प्रस्तुत क्यों नहीं किया ? ऐसा क्या संशय था, क्या डर था और क्या हिचक थी जिसने गृहमंत्री को देश हित में यह काम नहीं करने दिया। केवल सामाजिक अपराध करने वाला ही अपराधी नहीं होता। आर्थिक अपराध समाज में विषमता को जन्म देते हैं। बेईमानी से और गरीबों का हक छीनकर हासिल की गई आर्थिक प्रगति समाज में हिंसा को जन्म देती है। इसलिए अपराध शास्त्री हर अपराध को समाज के लिए घातक मानते हैं।
राजनीति में विरोध केवल विरोध के लिए किया जाता है। जब तत्कालीन रक्षामंत्री के विरुद्ध तहलका काण्ड को लेकर इंका विरोध कर रही थी तब भी मैंने ये सवाल उठाया था कि ऐसा क्यों होता है कि भ्रष्टाचार के विरुद्ध शोर मचानेवालों को केवल अपने राजनैतिक प्रतिद्वन्द्वियों का भ्रष्टाचार ही नज़र आता है अपने सहयोगियों का नहीं। साफ जाहिर है कि शोर केवल राजनैतिक लाभ के लिए मचाया जाता है, जनता को भ्रष्टाचार से बचाने के लिए नहीं। यही कारण है कि ऐसे किसी भी आन्दोलन का स्थाई परिणाम नहीं निकलता। मान लें कि डाॅक्टर मनमोहन सिंह सरकार से दागी मंत्री हटा दिये जाएं तो क्या हिन्दुस्तान की राजनीति से भ्रष्टाचार समाप्त हो जायेगा। क्या राजग के हर नेता को यह पे्ररणा मिलेगी कि वह अपने पूरे परिवार और नातेदारों की आर्थिक हैसियत को सार्वजनिक करने को तैयार होगा ? क्या राजग के नेता उस कानून को लाने की पहल करेंगे जिसके तहत सी.बाी.आई. को बड़े नेताओं और अफसरों के खिलाफ जांच करने की खुली छूट मिल जायेगी। उल्लेखनीय है कि वाजपेई सरकार के दौरान जो सी.वी.सी. विधेयक पारित हुआ उसमें राजग सहित किसी भी दल ने सी.बी.आई. या सी.वी.सी. को स्वायत्त्ता नहीं मिलने दी। जब कि सर्वोच्च न्यायालन ने ऐसा किए जाने के आदेश दिए थे। क्या राजग के नेता इस बात पर भी डटेंगे कि जब तब राजनीति में अपराधियों के प्रवेश को प्रतिबंधित करनेवाला कानून पास नहीं हो जाता तब तक संसद को नहीं चलने देंगे ? जाहिर है कि वे ऐसा कुछ भी नहीं करेंगे। ये शोर तो केवल डाॅक्टर मनमोहन सिंह को घेरने के लिए मचाया जा रहा है। राजग के नेता इस बात से बुरी तरह बौखला गये हैं कि डाॅक्टर मनमोहन सिंह जैसी साफ छवि का व्यक्ति प्रधानमंत्री कैसे बन गया ? विज्ञापन ऐजेंसियों और चारण और भाट किस्म के पत्रकारों को खैरात बांट कर नेतृत्व की छवि कितनी ही क्यों न बनाई जाए कहते हैं कि सच्चाई छुप नहीं सकती बनावट के उसूलों से कि खुशबू आ नहीं सकती कभी कागज के फूलों से
डाॅक्टर मनमोहन सिंह की ईमानदारी किसी के सर्टिफिकेट की मुरीद नहीं है। जब देश के भूखे किसान अपने परिवारों सहित जहर खाकर आत्महत्या कर रहे थे तब वाजपेई जी ने इस देश के गरीबों का उपहास उड़ाते हुए करोड़ों  रूपयों की बेहद मंहगी बी.एम.डब्ल्यू. कारों का काफिला अपने आराम के लिए खरीदा। डाॅक्टर सिंह ने इन मंहगी कारों के काफिलों को चुपचाप लौटा दिया। इस प्रशंसनीय कदम की कोई चर्चा तक जनता के बीच में नहीं की। टिकट की लाईन में खुद लगना, अपनी मारूति खुद चलाकर सार्वजनिक कार्यक्रमों में पहुंच जाना, दावे कम करना और काम ज्यादे करना, किसी विवाद में न पड़ना, गलत काम को अगर रोक न सकें तो स्वयं उससे बचकर रहना उनके कुछ ऐसे गुण हैं जिन्हें देशवासियों को जानना चाहिए। मेरा छोटा पुत्र बचपन से डाॅक्टर सिंह के नाती के साथ पढ़ता भी है और दोनों घनिष्ठ मित्र भी हैं। आमतौर पर बच्चे जब राजनेताओं के घर जन्मदिन की पार्टियों में जाते हैं तो उन पार्टियों के वैभव से दिग्भ्रमित हो जाते हैं। हम साधारण मध्यमवर्गीय लोग उस स्तर के जश्न जन्मदिन के नामपर मनाने की सोच भी नहीं सकते। इसलिए प्रायः ऐसी जगह जाना टाल जाते हैं। पर डाॅक्टर सिंह के घर हर वर्ष जन्मदिन की पार्टी में जाना ऐसा ही अनुभव होता है जैसा अपने जैसे लोगों के बीच। न कोई तामझाम, न कोई वैभव। घर के बने दो-चार सामान और नाना-नानी की आत्मीय आतिथ्य शैली जहां नौकरों का भी प्रवेश नहीं। ऐसे सहज, सरल और ईमानदार व्यक्ति को हर राजनैतिक दल का समर्थन मिलना चाहिए ताकि देश की राजनैतिक संस्कृति में बदलाव की शुरुआत हो सके। पर ये बदलाव चाहता कौन है ? राजग के नेता ऐसा क्यूं चाहेंगे ? राजग छोड़ इंका में भी बहुत से लोग इस स्थिति से खुश नहीं हैं। चाहे जो भी कारण रहे हों पर इस कदम के लिए श्रीमती सोनिया गांधी की जितनी प्रशंसा की जाये कम है। उन्होंने एक ऐसे व्यक्ति के हाथ में देश की बागडोर सौंपी जिसके भाई तक उससे किसी लाभ की उम्मीद नहीं रखते। ऐसा व्यक्ति आज के बिगड़े राजनैतिक माहौल में अपने बूते पर चुनाव जीतकर कभी भी प्रधानमंत्री के पद पर नहीं पहुंच सकता था। देश को पता ही नहीं चलता कि प्रधानमंत्री के पद पर सच्चे और ईमानदार व्यक्ति भी बैठ सकते हैं। राजग की यही तड़प है। दागी मंत्रियों के हक में कोई नहीं है। पर राजग को यह नहीं भूलना चाहिए कि सुखराम के खिलाफ 13 दिन तक संसद न चलने देने वाली भाजपा ने बाद में उन्हीं सुखराम के साथ मिलकर सरकार चलाई थी। अगर ये दागी मंत्री आज राजग का दामन थाम लें तो उसे इनके साथ सरकार चलाने में कोई संकोच नहीं होगा। फिर ये ढोंग क्यों ?
दरअसल राजनीति के हमाम में सब नंगे हैं। हर दल सत्ता में रह कर वही करता है जो उसके अपने फायदे में होता है और विपक्ष में बैठ कर जनता के हितों की दुहाई देता है। दुर्भाग्य से लोकतंत्र का अब यही स्वरूप बन गया है। लोकतंत्र लोक आधारित न होकर कुलीन तंत्र बन गया है। नेता के बेटे-बेटी चाहे काबलियत न हो तो भी रातोरात नेता या टीवी स्टार बन जाते हैं। जबकि योग्य लोग वर्षों चप्पलें घिसते रहते हैं। सारी सत्ता कुछ कुलीनों के हाथ में केंद्रित है। इनमें से बहुत से भ्रष्ट तरीकों से ताकतवर बने हैं। जब ताकतवर बन ही गये तो फिर कुलीनों के क्लब में भी आसानी से शामिल हो जाते हैं। ऐसे तमाम राजनेता सत्ता अपने हाथ से निकलने नहीं देना चाहते। हर जा-बेजा काम कर सत्ता में बने रहना चाहते हैं और अपने गलत कामों को छिपाते हैं या उन्हें जनहित में बताकर जनता को गुमराह करते हैं। सत्ता से हट जाने के बाद वे हताशा में सरकार को गिराने में जुट जाते हैं। चूंकि देश में लोकतंत्र है और किसी को तलवार के जोर पर गद्दी से नहीं उतारा जा सकता। इसके लिए लोगों के पास वोट मांगने जाना होता है। लोग वोट उसी को देंगे जो उनकी गरीबी और बेरोजगारी को दूर करने के सपने दिखाये। इसलिए विपक्ष के सभी दल जब तक सत्ता के बाहर रहते हैं तब तक गरीबी, बेरोजगारी और भ्रष्टाचार के सवाल पर डटकर शोर मचाते हैं। खूब बयानबाजी करते हैं। सम्वाददाता सम्मेलन बुलाते हैं। संसद नहीं चलने देते। पर जब खुद सत्ता में होते हैं तो वही सब करते हैं जिसके विरुद्ध शोर मचा रहे थे। जब खुद घोटालों में फंस जाते हैं तो खतरनाक खामोशी अख्तियार कर लेते हैं। क्या राजग के नेता बतायेंगे कि देशद्रोह के जैन हवाला काण्ड की ईमानदारी से जांच करवाने की मांग उन्होंने कभी भी क्यों नहीं की? जिस काण्ड ने इस देश के दर्जनों मंत्रियों को कटघरे में खड़ा कर दिया क्या उसमें जांच की मांग करना भी जरूरी नहीं था ? फिर दागी मंत्रियों के विरुद्ध चल रहे हंगामें का नैतिक आधार क्या है ?

Friday, June 4, 2004

सोनिया का त्याग और भाजपा की नौटंकी


जब तक श्रीमती सोनिया गांधी एक विधवा के रूप में अपने घर की चारदीवारी में बंद रहीं, तब तक किसी को उनसे कोई खतरा महसूस नहीं हुआ। पर कांग्रेस की दुर्गति देखकर 1998 में जब उन्होंने राजनीति में प्रवेश किया तो भाजपा के नेता बौखला गए। तब सुश्री सुषमा स्वराज और कुछ दूसरे बड़े नेताओं ने श्रीमती सोनिया गांधी के विदेशी मूल पर करारा प्रहार किया। उस वक्त इसी काॅलम में मैंने वैदिक दर्शन के आधार पर तर्क देते हुए इस हमले के खोखलेपन को सिद्ध करने का प्रयास किया था। 21 फरवरी 1998 को देश भर के अनेक प्रांतीय अखबारों में मेरा यह लेख छपा, ‘सोनिया गांधी को विदेशी कहना कहां तक उचित है?’ इसके कुछ समय बाद जब श्री पी.ए. संगमा ने संविधान संशोधन समिति से इसी मुद्दे पर इस्तीफा दिया, तब भी मैंने अंग्रेजी में एक कड़ा पत्र लिखकर उन्हें कटघरे में खड़ा किया और इसको प्रेस को जारी किया। एक बार फिर जिस तरह से श्रीमती सुषमा स्वराज और सुश्री उमा भारती ने श्रीमती गांधी के चयन को लेकर नौटंकी की, उससे भाजपा की हिंदु धर्म की समझ पर प्रश्नचिह्न खड़ा हो गया। हवाला कांड से लेकर सर्वोच्च न्यायपालिका के भ्रष्टाचार को उजागर करते समय मैंने भाजपा के कई बड़े नेताओं को इतने निकट से देखा है कि मैं यह मानने को तैयार नहीं हूं कि जिसका जन्म इस देश में हुआ है, वही देशभक्त हो सकता है। जिसका जन्म यहां नहीं हुआ, वह नागरिक बन जाने के बाद भी देश भक्त नहीं हो सकता। भाजपा के साढ़े पांच साल के शासन में आतंकवाद, भ्रष्टाचार और न्यायपालिका की जवाबदेही को लेकर जितने गंभीर सवाल मैंने उठाए, उन सबके समर्थन में इतने प्रमाण मेरे पास थे और आज भी हैं कि पूरे देश का दिल दहलाने के लिए काफी होते। पर मुझे जानकारी मिली कि भाजपा के वरिष्ठ नेताओं के प्रभाव के चलते इन तथ्यों को देश की जनता के सामने किसी टीवी चैनल के माध्यम से कभी नहीं आने दिया गया। दरअसल 5 फरवरी 2000 को एनडीटीवी के बिग फाइट शो में जिस तरह मैंने भारत के मुख्य सतर्कता आयुक्त श्री एन. विट्ठल को हवाला कांड की जांच को लेकर कटघरे में खड़ा किया था और 10 फरवरी 2000 को जी न्यूज के प्राइम टाइम शो में जिस तरह के तथ्य भाजपा के नेताओं के हवाला कांड में शामिल होने को लेकर सुश्री सुषमा स्वराज के सामने रखे थे, उससे इन दोनों ही शो को लेकर भाजपा के सांसदों ने संसद और मीडिया में काफी बवाल मचाया। सुषमा जी हवाला कांड में फंसे अपने वरिष्ठ नेताओं की रक्षा में असफल रहीं और बौखला कर अनर्गल तर्क देने लगीं। इसके बाद से ही एक मूक संदेश दे दिया गया कि किसी भी चैनल पर मेरे विचार जनता के सामने मत आने दें। अगर वो तथ्य जनता के सामने आज भी आ जाएं, तो बीजेपी का देश प्रेम और आतंकवाद को लेकर उसकी चिंता पर कई सवालिया निशान लग जाएंगे। फिर ये सवाल देश पूछेगा कि देश में ही जन्म लेने वालों ने ऐसा क्यों किया?
खैर श्रीमती सोनिया गांधी ने प्रधानमंत्री पद के संदर्भ में वही किया जो उनसे अपेक्षित था। जब भी लोग पिछले छह बरसों में यह सवाल पूछते कि अगर श्रीमती सोनिया गांधी देश की प्रधानमंत्री बनती हैं, तो आपको कैसा लगेगा? हमारा उत्तर यही होता कि वे कभी नहीं बनेंगी। पर वैदिक शास्त्रों में जीवात्मा को परमात्मा से मिलने या उनकी सेवा करने का निर्देश दिया गया है। यह नहीं कहा गया कि यह अधिकार केवल हिंदुओं तक सीमित है। जाति, धर्म और देश की पहचान व्यक्तियों ने बनाई है, भगवान ने नहीं। पर जो बात हम अपनी अंतप्र्रेरणा के आधार पर कहते थे, वो उस दिन सच हो गई, जब श्रीमती गांधी ने वाकई प्रधानमंत्री पद को लात मारकर डाॅ. मनमोहन सिंह को प्रधानमंत्री बनवा दिया। उन्होंने अपने ससुराल के देश की संस्कृति को न सिर्फ आत्मसात किया बल्कि एक अभूतपूर्व आदर्श की स्थापना की। दूसरी तरफ भाजपा की नेताओं सिर मुड़ाने जैसी बचकानी घोषणाएं करके पूरी दुनिया में अपना मजाक उड़वाया। शंकराचार्य तक ने कहा है कि सुश्री उमा भारती और श्रीमती सुषमा स्वराज का यह नाटक वैदिक परंपरा के प्रतिकूल था।
यह कोई पहली बार नहीं है जो भाजपा ने हिंदू धर्म का इस तरह मखौल उड़ाया है। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के स्वयंसेवक जिस तरह एक हाथ को मोड़कर ध्वज प्रणाम करते हैं, वो किस वैदिक या हिंदू परंपरा का हिस्सा है? हमारी परंपरा तो करबद्ध प्रणाम करने की या साष्टांग दंडवत प्रणाम करने की है। ये अधूरा प्रणाम तो हिटलर के दिमाग की उपज है, जिसे पता नहीं किस मानसिकता से संघ परिवार ने अपना लिया है। इसीलिए संघ के अनेक विचारों से सहमत होते हुए भी मैं उनके प्रणाम करने की इस मुद्रा को कभी स्वीकार नहीं कर पाता। अगर संघ साष्टांग दंडवत या करबद्ध प्रणाम को ही अपना लेता, तो उसकी वैचारिक यात्रा में कौन सा व्यवधान पड़ जाता? पर शायद वैदिक मान्यताओं को तोड़ मरोड़कर अपने तरीके से पेश करना और उसे जबरन हिंदू समाज पर थोपना ही संघ का हिंदूवाद है। इसी तरह खाकी निकर भी कहीं से कहीं तक हिंदू संस्कृति का हिस्सा नहीं है। पर संघ वाले इसे पहनकर ही स्वयं को भारत मां का सच्चा सपूत मानते हैं। जबकि इस्काॅन जैसी संस्था ने पूरे विश्व के देशों के भक्तों को धोती-कुर्ता पहनाकर यह सिद्ध कर दिया है कि आधुनिक समाज में भी वैदिक परिधान पहना जा सकता है। मैं और मेरे जैसे तमाम लोग संघ और भाजपा की इस बात से सहमत हैं कि धर्मनिरपेक्ष देश में हिंदुओं और मुसलमानों के साथ समान व्यवहार होना चाहिए। पर जिस तरह से हिंदुओं के हित के हर सवाल पर भाजपा ने बार-बार हिंदुओं की भावनाओं का मजाक उड़ाया है और उनसे लगातार खिलवाड़ किया है, उससे अब हिंदुओं को यह लगने लगा है कि दरअसल भाजपा के लिए हिंदुवाद सत्ता प्राप्ति का हथकंडा मात्र है।
दूसरी तरफ कांग्रेस को भी समझ लेना चाहिए कि हिंदुओं के पक्ष में बोलने से संकोच करने के  दिन लद गए। कांग्रेस का स्वरूप सर्वधर्म समभाव का रहा है और वही उसके व्यवहार में दिखना चाहिए। इस चुनाव में दिल्ली समेत जिन राज्यों में भी इंका को सफलता मिली है, उसमें बहुसंख्यक मतदाता हिंदु ही हैं। श्रीमती सोनिया गांधी के हिंदूवादी व्यवहार से उनकी स्वीकार्यता बढ़ती जा रही है। असलियत तो यह है कि हिंदु धर्म में इंका के नेताओं की भाजपाइयों से कहीं ज्यादा आस्था है, पर वे उसका राजनैतिक लाभ लेने का प्रयास नहीं करते। साढ़े पांच साल केंद्र में और इससे कहीं ज्यादा बरसों तक उत्तर प्रदेश में भाजपा की सरकार रहीं, पर भाजपा बताए कि उसने अयोध्या, मथुरा और काशी के विकास के लिए क्या किया? केवल जन्मभूमि पर मंदिर बनाने का ढोंग रचती रहीं। जबकि इंका के शासनकाल में सोमनाथ, तिरुपति और वैष्णो देवी जैसे तीर्थों का प्रशंसनीय विकास हुआ। दुख की बात ये है कि पिछले छह सालों में भाजपा के तमाम वरिष्ठ नेताओं से मैं व्यक्तिगत रूप से मिलकर ब्रज के तीर्थस्थलों के विकास की मांग करता रहा। लेख लिखता रहा और पत्र भेजता रहा। पर सत्ता के मद में चूर इन नेताओं ने तीर्थों के लिए कुछ भी नहीं किया। दूसरी तरफ इंका के जिन राजनेताओं को हवाला कांड केि मेरे युद्ध को लेकर राजनैतिक वनवास झेलना पड़ा था, वे भी इतने स्नेह और उदारता से मिले और सहयोग किया कि लगा कि इंका नेता वाकई शासन करने के योग्य हैं और तंग दिल नहीं हैं। यह भी विश्वास दृढ़ हुआ कि सभी धर्मों के धर्मक्षेत्रों का जीर्णोद्धार भी केवल इंका के ही शासनकाल में हो सकता है।
अब जब श्रीमती सोनिया गांधी ने तपोभूमि भारत की सनातन संस्कृति का उत्कृष्ट उदाहरण प्रस्तुत करते हुए सबसे बड़े लोकतंत्र के सर्वोच्च पद को ठुकरा दिया, तो भाजपाइयों को तमाचा तो पड़ा ही, पर यह पचाना भी भारी पड़ गया। फौरन दिल्ली में सुगबुगाहट शुरू कर दी गई कि राष्ट्रपति ने श्रीमती गांधी से चुनाव में विजय के बाद हुई पहली मुलाकात में ही यह कह दिया था कि वे उनकी नागरिकता के सवाल को सर्वोच्च न्यायालय की संवैधानिक बेंच को भेजेंगे और उसका निर्णय आने तक उन्हें शपथ नहीं दिलाएंगे। यह भी अफवाह फैलाई गई कि श्रीमती गांधी को संविधान के अनुसार प्रधानमंत्री बनने का अधिकार नहीं है। मैंने तुरंत श्री कपिल सिब्बल से मोबाइल फोन पर स्पष्टीकरण मांगा तो उन्होंने इसे कोरी बकवास बताया। यह बात आगे न बढ़े इसलिए इसका स्पष्टीकरण जरूरी था। अतः मैंने उन्हें सलाह दी कि वे स्वयं या राष्ट्रपति भवन से इस अफवाह का खंडन जारी करवा दें। सौभाग्य से चार घंटे के भीतर ही राष्ट्रपति भवन से इसका खंडन जारी हो गया। पर भाजपा अभी भी संभली नहीं है। वो श्रीमती सोनिया गांधी के विदेशी मूल के सवाल को लेकर देश में अभियान चलाना चाहती है। यह जानते हुए भी कि श्रीमती गांधी के एक कड़े कदम ने उन्हें वास्तव में देश का सबसे लोकप्रिय नेता बना दिया है। ऐसे माहौल में इंका को चाहिए कि वह भाजपा के ऊपर सांप्रदायिक होने का आरोप न लगाए। इससे उसका वोट बैंक मजबूत होता है। जरूरत इस बात की है कि भाजपा हिंदूवाद को लेकर दोहरी नैतिकता का त्याग करे और अपनी प्राथमिकताएं स्पष्ट करे। जिससे कि भविष्य में लोगों की धार्मिक भावनाओं से इस तरह का खिलवाड़ न हो। दूसरी तरफ इंका को देश के सभी धर्मस्थलों के विकास के लिए कुछ ठोस करना चाहिए। इससे उसकी लोकप्रियता भी बढ़ेगी और मतदाता के सामने यह तस्वीर साफ हो जाएगी कि भाजपा तो राम जन्मभूमि के नाम पर फील गुड करवाती रही और करा कुछ नहीं। जबकि इंका ने बिना भावनाएं भड़काए ही धर्म की ठोस सेवा की। इंका के इस कदम से हो सकता है कि भाजपा को नया चुनावी मुद्दा ढूंढना पड़े। उधर इंका विकास भी करे, गरीब की भी सुने और इस धर्म प्रधान देश की जनता की भावनाओं की कद्र भी करे, तो उसकी स्वीकार्यता बढ़ती जाएगी। जबकि भाजपा को बिना संकोच किए अपने हिंदूवादी एजेंडा पर ही डटना होगा। वर्ना वो अपनी पहचान खो देगी। हां यह हिंदूवाद आज परोसे जा रहे प्रदूषित हिंदूवाद जैसा न होकर वैदिक धर्म की सनातन मान्यताओं पर आधारित होना चाहिए।