Friday, December 11, 1998

फायर: नारी मुक्ति का यह कैसा रूप है ?


देश के अभिजात्य वर्ग में दीपा मेहता की नई फिल्म फायर की बडी चर्चा है। अपने पतियों की उपेक्षा से परेशान दो देवरानी और जेठानी कैसे पारस्परिक संबंध विकसित करती हैं यह है इस फिल्म की कथा। ये महिलाएं एक दूसरे को भावनात्मक सुरक्षा और नैतिक बल देने की सीमाओं से आगे जाकर समलैंगिक शारीरिक संबंधों तक की स्थापना की वकालत करती है। इस सशक्त फिल्म को देखने के बाद हर वह पति स्वयं को अपराधी महसूस करता है जो अपनी पत्नी को पूरा समय नहीं दे पाता। इस मायने में इसे सफल फिल्म कहा जा सकता है क्योंकि इससे घर की चारदीवारी में कैद रहने वाली महिलाओं की घुटन का पता चलता हैं वह घुटन जो अक्सर दिखाई नहीं देती या नजरंदाज कर दी जाती है लेकिन जो समाधान प्रस्तुत किया गया है वह भयानक ही नहीं वीभत्स भी है।
बात अगर फिल्मी कहानी तक होती तो शायद अपने सरोकार का विषय न होता। दुर्भाग्य से यह बात आज महानगरों के अभिजात्य वर्ग के बीच काफी दिखने लगी है। अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान की महिला रोग विशेषज्ञ डा. दीपा डेका कुछ चैंकने वाले तथ्य प्रस्तुत करती हैं। देश भर से इलाज के लिये उनके पास आने वाली अभिजात्य वर्ग की या बुद्धिजीवी वर्ग की अनेक ऐसी महिलायें हैं जो नारी मुक्ति के आधुनिक दर्श का शिकार बन चुकी हैं। स्वतंत्रता, स्वच्छंदता व आर्थिक आत्मनिर्भरता की धुन में ये महिलायें ऐसे कदम उठा रही हैं जो न सिफ्र उनके लिये घातक हैं बल्कि उनके परिवार को भी उनका खामियाजा भुगतना पड़ रहा है। इस तरह पूरे समाज के लिये खतरा पैदा हो रहा है जिसकी परिणति तनाव, डिप्रैशन और कभी कभी आत्महत्या के रूप में सामने आ रही है। डा. डेका बताती हैं। कि आजकल उनके पास आने वाले मरीजों में अनेक ऐसी महिलाएं हें जिन्होंने बिना विवाह किये ही संतान उत्पत्ति की है। आज उन्हें दोहरे संकट से जूझना पड़ रहा है। एक तो अपने अनाम पिता की पहचान को लेकर बालक की जिज्ञासाओं से और दूसरा अकेले जीवन ढोने के संत्रासों से। ये संकट उनके जीवन में तनाव पैदा कर रहा है जिससे अनेक दूसरी बीमारियां भी उत्पन्न हो रही हैं।
नारी मुक्ति की पश्चिमी मानसिकता वाली बहनें तुनक कर कहेंगी कि क्या पारंपरिक समाज की स्त्रियों की दुर्दशा नारी मुक्ति की समर्थ इन महिलाओं से कहीं कम थी ? शायद नहीं। संयुक्त परिवार और नाकारा पति की परमेश्वर रूप में सेवा की त्रासदियों को जिन बहनों ने झेला है वही इसका सही जवाब दे सकती हैं। इसमें भी कोई शक नहीं कि नारी मुक्ति की हामी ज्यादातर महिलाओं के मन में वह प्रसन्नता व संतोष नहीं है जिसके लिये उन्होंने ऐसे कठोर कदम उठाये थे। अगर होता तो डा. डेका को कुछऔर ही अनुभव होते।
दरअसल देश के अभिजात्य वर्ग को पश्चिमीकरण के कीड़े ने काट खाया है नतीजतन वह पश्चिम के हर किस्म के कूड़े करकट को बिना बिचारे बटोरने में जुट जाता है चाहे वह प्लास्टिक के लिफाफे हों या व्यक्तिगत स्वतंत्रता के नाम पर समलैंगिकता, परन्तु हर बार मुंह की खाता है। फिर नये मायाजाल में फंस जाता है। यह बात दूसरी है कि पश्चिमी समाज अपने कटु अनुभवों से अब पुनः पारंपरिक मूल्यां की तरफ लौट रहा है। सिगरेट पीना या मुक्त सैक्स संबंध रखना पश्चिमी समाज में अब हिकारत की नजर से देखा जाने लगा है। एक जमाना था जब पश्चिमी देशों में सैक्स की भावना भड़काने वाले सामान खुलेआम बड़ी दुकानों और हवाई अड्डों पर बिकते थे। आज ऐसा नहीं है। पहले यूनिवर्सिटी के पुस्तकालयों तक में वैंडर-मशीनमें सिक्कर डालकर गर्भ निरोधक हर क्षण हर स्थान पर प्राप्त किये जा सकते थे। गोया कि गर्भनिरोधक न होकर मिनरल वाटरकी बोतल हो जिसके बिना जिंदा रहना भी मुश्किल होता हो। एड्स जैसी जानलेवा बीमारी के भय ने आज सैक्स से जुड़े हर कारोबार को उन देशों में लगभग समाप्त कर दिया है।यही वजह है कि एक साथ पनपी दो विख्यात बड़ी कंपनियों में से स्वस्थ मनोरंजन पर आधारित कंपनी मैक-डोनाल्डतो दिन दूनी रात चैगुनी प्रगति कर रही है जबकि सैक्स पर आधारित प्ले ब्वा¡कंपनी का बिस्तर गोल हो गया।
लीक से हटकर काम करने वाले भारत के टेलीविजन व फिल्म मीडिया में दुर्भाग्ये से आज उसी वर्ग का बोलबाला है जो अस्वाभाविक किस्त के मानवीय संबंधों की वकालत करता है जबकि ही कीमत यह है कि पूरे समाज का वह एक नगण्य प्रतिशत है जबकि अधिकांश समुदाय इस प्रकार की वार्ता को हिकारत की निगाह से देखता है। उसकी चर्चा तक करने से बचता है। चूंकि अप्राकष्तिक संबंधों का हिमायती वर्ग बुद्धिजीवियों, कलाकारों, राजनीतिज्ञों जेसे लोगों से भरा है इसलिये यह समूह ज्यादा मुखर है, अपनी बात जोरदार तरीके से कहने में कुशल है, इसलिये यह समूह कभी कभी अपने बारे में ताकतवर व विशाल होने का भ्रम पैदा कर देता है। संचार माध्यमों पर अपनी पकड़ के कारण अपने विचारों को बड़े जोर शोर से प्रचारित करता है। चूंकि फिल्म संप्रेषण का सबसे सशक्त माध्यम है इसलिये इस पर कही बात गहरी चोट करती है।
चिंता की बात यह हे कि फायर फिल्म में जिस तरह भारतीय दर्शन का उपहास किया गया है, वह अशोभनीय व असंतुलित ही नहीं, सतही भी है। समलैंगिकता में रत दो महिलायें भारतीय दर्शनके इस मूल सिद्धांत का उपहास करती हैं कि इच्छाओं के दमन से चिंताओं का दमन होता है। भगवद गीता से लेकर बौद्ध, जैन, सिख व सूफी संतों ने हजारों वर्षों से भारतीय दर्शन के इस मूल मंत्र का प्रचार किया है। समाज ने इसे अनुभवभी किया है। यही वजह है कि भौतिक प्रगति की बुलंदियों को छूने के बावजूद अमरीका से लेकर जापान तक का जिज्ञासु मन इसी दर्शन की खोज में भटकता हुआ भारत आता है, परन्तु यह दुर्भाग्य है अपने समाज का कि स्वयं को बुद्धिजीवी मानने वाले तथाकथित आधुनिक लोग पश्चिमी समाज के भौंडेपन को मानव स्वतंत्रता के नाम पर महिमामंडित करने में जुटे हैं।इसका अर्थ यह नहीं कि भारतीय समाज में कोई दोष ही नहीं। लिंग, जाति व वर्ग के आधार पर समाज में शोषण का एक लम्बा इतिहास है। पर यह सिर्फ भारत में हुआ हो ऐसा नहीं। नारी मुक्ति की समर्थक न्यूयार्क टाइम्स की एक महिला पत्रकार ने एशिया, अफ्रीका व पश्चिमी देशों की महिलाओं के सर्वेक्षण के बाद कुछ चैंकाने वाले तथ्य प्रस्तुत किये थे, जिनके अनुसार उन देशों की महिलाओं की सामाजिक और मानसिक स्थिति में भारतीय महिलाओं से कोई विशेष बुनियादी अंतर नहीं था। काम से लौटे दम्पत्ति घर में घुस कर वहां भी वही करते हैं जो भारत में। मसलन पति आराम कुर्सी पर बैठकर टीवी देखता है या अखबार पढ़ता है और पत्नी रसोई घर में घुसकर खाना पकाती है। इस सर्वेक्षण में चैंकने वाली बात यह थी कि भारत की कामगार देहाती महिलायें शहरों की तथाकथति आधुनिक महिलाओं के मुकाबले ज्यादा आत्मनिर्भर हैं, इसलिये ज्यादा स्वतंत्र भी हैं। यदि भारत की महिलाओं से फायर जैसी फिल्म पर प्रतिक्रिया मांगी जाएतो सिवाय हिकारत के और कुछ नहीं मिलेगा।
दूसरी तरफ ये तथाकथित आधुनिक महिलायें उनका उपहास करेंगी। यह कहकर कि बेचारी अंधकार में हैं, अज्ञानी हैं, बचपन से मिले संस्कारों के जाल में जकड़ी हैं, विकल्प के अभाव में हालात से समझौता करने पर मजबूर हैं। आजादी की कोई परिकल्पना उनके दिमाग में नहीं है, इसलिये रात दिन चक्की में पिस रही हैं। किन्तु आंकड़े सिद्ध करदेंगे कि ये वाहियात तर्क हैं। पारंपरिक मूल्यों से जुड़ी ज्यादातर महिलाओं के परिवारों में जो सुख व शांति है वह इन तथाकथित आधुनिक महिलाओं के परिवारों की तुलना में कई गुना ज्यादा है। इतना ही नहीं आधुनिक शिक्षाा से लैस किन्तु पारंपरिक मूल्यों में आस्था रखने वाली भारतीय महिलाओं की संख्या भी इन तथाकथित आधुनिक महिलाओं से कई गुना ज्यादा है। ये महिलायें करोड़ों की तादाद में भारत के नगरों में रहती हैं तो लाखों की तादाद में अनिवासी भारतीयों के परिवारों की शोभा पश्चिमी देशों में बढ़ा रही हैं। जितने संतुलित व्यक्त्वि वाले बच्चे इन परिवारों में बड़े हो रहे हैं जितना प्रेम और सोहार्द इन परिवारों में है उसका शतांश भी तथाकथित आधुनिक महिलाओं के घरों में दिखाई नहीं देता। महिलाओं की समस्याओं पर लेख लिखे जायें, सेमिनार किये जायें, टीवी टा¡क शो किये जायें या भाषण आयोजित किये जायें तो विशेषज्ञ के तौर पर प्रायः ये तथाकथित आधुनिक महिलायें ही आमंत्रित की जाती है। प्रांतों के नगरों में एक आम परिवार की महिला जब इन आत्मघोषित क्रांतिकारी महिलाओं के विचार सुनती है तो हैरान रह जाती है। वह स्वयं को ऐसे हवाई विचारों से कोसों दूर पाती है यही वजह है कि नारी मुक्ति की आधुनिक अवधारणा प्रस्तुत करने वाली ये बुद्धिजीवी महिलाये आज तक अपना जनाधार नहीं बना सकी हैं। इसलिये सरकारी प्रतिनिधिमंडलों की सदस्य बन कर हवा में उड़ा करती हैं आवश्यकता तो नारी मुक्ति के उस प्रारूप की है जिसे भारत के समाज में पनपे मनीषियों, समाज सुधारकों, संतों व युग पु3षों और महिलाओं ने अपने लेख, व्याख्यानों और आचरण से प्रस्तुत किया है। ईश्वर चन्द्र विद्यासागर, स्वामी विवेकानदं, ज्योति बाफुले, गांधी जैसे कुछ नाम हैं जो शायद इन आधुनिक महिलाओं के शब्दकोष में नहीं हैं वर्ना ऐसी कुत्सित मानसिकता को नारी मुक्ति के नाम पर न परोसा जाता। जाहिर है कि फायर जैसी फिल्मों में सुझाये गये समलैंगिकता के समाधान का भारतीय समाज की बहुसंख्यक महिलाओं की स्वतंत्रता से कोई लेना देना नहीं है। उनके लिये यह एक विकृति से अधिक कुछ भी नहीं है।

Friday, May 22, 1998

परमाणु विस्फोट से स्वदेशी आंदोलन को बल मिला

परमाणु विस्फोट से स्वदेषी आंदोलन को बहुत फायदा हुआ है। उदारीकण के नाम पर जोदबाव इस आंदोलन पर बनाया गया था,

उसमें अब कमी आएगी। बड़े देषों को धमकियों पर देष के उद्योगपतियों व आप्रवासी भारतीयों की प्रतिक्रियाएं इसके प्रमाण हैं। दरअसल उदारीकण का जो कांग्रेसी संस्करण देश को परोसा गया था, वह देशभक्तों के गले कभी नहीं उतरा। पहले तो पचास वर्षों तक समाजवादी के नाम पर देश के स्वाभाविक औद्योगिक विकास पर शिकंजा कसा गयचा। कोटा लाइसेंस राज चलाकर भ्रष्टाचार कोपूरे देश में पनपने का मौका दिया गया। सरकारी क्षेत्र में उद्योगों के नाम पर भ्रष्टाचार के बड़े बड़ेसफेद हाथी पाले गये। लेकिन जब पानी सिर से गुजर गया, इन क्षेत्रों से और पेसा खींचने का जरिया न बचा, तो उदारीकण केनाम पर धड़ाधड़ पेप्सी कोला व डोमिनो पिज्जा जैसी तमाम वाहियात चीजों को भारत में घ्ज्ञुसने दिया गया। जो आलू दे?श में दो रुपये किलो के भाव बिक रहा था, उसके अंकल चिप्स ढाई सौ रुपये किलो बेचे जाने लगे।
 
इसी तरह आज सेपचास वर्श पहले दुनिया भर में पश्चिमी देशोंने प्रचार किया कि डिब्बे का दूध मां के दूध से बेहतर होता है, उससे बच्चे तंदरुस्त होते हैं फिर जब डिब्बे के दूध के दुष्परिणाम सामने आये तो पूरी दुनिया में प्रचार किया गया कि ठहरो! ठहरो! गलती हो गयी। मां का दूध डिब्बे के दूध से बेहतर होता है। इसमें कौन सी नई बात बता दी ? लेकिन उन्हें तो अपना दूध बेचना था उन्होंने वहीं किया। पचास वर्षों तक अरबों रुपये को डिब्बे का दूध भारत जैसे पारंपरिक देश में भी बेचकर मोटा पैसा कमा लिया। इन्हीं देशों ने पहले आर्थिक मदद के नाम पर रासायनिक उर्वरक व कीटनाशक दवाइयों से भारतीय जमीन को प्रदूषित कर दिया और अब वे कह रहे हैं कि गलती हो गयी, गोबर की खाद रासायनिक खादों से कहीं बेहतर होती है। हम इतने मूर्ख हैं कि दुनिया की सबसे बड़ी पशु आबादी देश में होने के बावजूद इनके छलावे में आ गये, वरना गोबर की खाद का विकास करते, जिसे ये देश आज आ¡र्गेनिक फार्मिंग कहकर बेच रहे हैं इनकी बेशर्मी की हद यहां तक हो गयी कि आयुर्वेद की पुस्तकों में से ज्ञान चुराकर ये अरदक,नीम, बासमती चावल और हल्दी जैसी आम इस्तेमाल की भारतीय वस्तुओं को अपने देश में पेटेंट करा रहे हैं ताकि इन्हें बेचने में भी केवल इनकी दादागिरी चले। हजारों उदाहरणहैं जिनसे सिद्ध होता है कि देश के राजनेताओं और अफसरों ने चांदी के टुकड़ों के लालच में देश की धरोहर और आत्मनिर्भरता को किसी बेदर्दी से गिरवी रख दिया। जहां तक विदेशी आर्थिक मदद की बात है, यह तथ्य किसी से छिपानहीं है कि एक सौ दस से लेकर तीन सौ अरब डालर तक की अनुमानित रकम अवैध रूप से भारत से ले जाकर बाहरी बैंकों में जमा करा दी गयी है।जबकि भारत पर विदेशी ऋण मात्र bक्यानबे अरब डा¡लर है। यानि जितना कर्ज हम पर है उससे ज्यादा पैसा विदेशी बैंकों में अवैध रूप से पड़ा है।

पिछले दिनों सुप्रसिद्ध पत्रिका फा¡र ईस्टर्न इका¡नोमिक रिव्यू के एक वरिष्ठ पत्रकार हांगकांग से भारत आये हुए थे। हाल ही में उन्होंने उन तमाम देशों का अध्ययन किया है जहां पिछले दस वर्षों में तथाकथित उदारीकरण ने अपने झंडे गाड़े हैं। उनके अध्ययन को निचोड़ यह था कि जिन देशों में भी ऐसा हुआ है, उन्हीं देशों में सैकड़ों हजारों करोड़ रुपये के घोटाले भी बहुत तेजी से हो रहे हैं। पिछले दिनों भारत में जो करार बहुराष्ट्रीय कंपनियों से किये गये, उनमें से कई तो इतने आत्मघाती हैं कि उन्होंने अगले तीस वर्षों तक Hkkरत को लूटने को पक्का इंतजाम कर लिया है। दरअसल विदेशी मदद के नाम पर जो पैसा आता हैउससे देश का स्थायी विकास नहीं हो रहा है। दुनिया के जिन देशों में भी उदारीकरण ने पांव पसारे, उन्हे ही कंगाल करके छोड़ दिया। मलेशिया, इंडोनेशिया और थाईलैंड इसके सुबूत हैं। जहां पहले तो पश्चिमी उदारीकरण की चमक दमक ने लोगों को आश्चर्यचकित कर दिया। मगर फिर अचानक इनकें पैरों के नीचे से जमीन खींच ली। ये देश इतनी जोर से गिर कि आज वहां आर्थिक दुर्दषा के कारण चीत्कार मचा है। साधारण लोग ही नहीं, संपन्न घरों के लोग भी त्राहिमाम कर रहे हैं। दुकानें लुट रही हैं। लोग देश छोड़कर भाग रहे हैं। सड़कों पर हिंसा और आगजनी खुलेआम हो रही है। करोड़ों नौजवानों में भारी आक्रोष और हताषा है। दक्षिणी अमेरिका और अफ्रीका से लेकर कोरिया तक यही कहानी है। फिर भी अगर हम कोई सावधानी न बरतें, तो कौन गारंटी दे सकता है कि यही दुर्दषा भारत के भी नहीं होगी ? ऊर्जा मंत्री कुमारमंगलम को बहुराष्ट्रीय कंपनियों के साथ करार करके बिजली प्लांट लगवाने की बहुत जल्दी है। वैसे जहां तक बिजली की कमी की बात है, हकीकत यह है fक भारत को ऐसे सहयोग की कोई जरूरत नहीं है। भारत की मौजूदा विद्युत उत्पादन क्षमता छियासी हजार मेगावाट है जबकि उत्पादन मात्र इकतालीस हजार मेगावाट ही हो रहा है। क्षमता से आधा उत्पादन होने पर भी यह हमारी राष्ट्रीय आवष्यकता से मात्र सोलह प्रतिशत कम है। वह भी तब जब भ्रष्टाचार के कारण इक्कीस प्रतिशत उत्पादित बिजली चोरी करवा दी जाती है।यानी आज भी हमारी बिजली आवश्यकता से ज्यादा हे। पर सबसे ज्यादा भ्रष्टाचार देष के विद्युत बोर्डों में ही व्याप्त है। इसीलिये बिजली की आपूर्ति में व्यवधान आता रहता है या बिजली की दर बिना वजह बढ़ाईजाती हैं। अगर बिजली विभाग से भ्रष्टाचार दूर करने के लिये जनता व सरकार कमर कस ले तो न तो विदेशी पावर प्लांटों की जरूरत है और न विदेशी पूंजी की। फिर हम प्रतिबंधों या धमकियों से क्यों डरें? वैसे ध्यान देने योग्य बात है कि प्रतिबंधों की घोषणा के बावजूद यूरोप की तीन बड़ी कंपनियों ने भारत में अपने प्लांट लगाने की पेशकश की है। जारि है, इसमें उन्हें भारी मुनाफा है जो हम बेअक्ली के कारण उन्हें देने को तैयार हैं। उल्लेखनीय है कि जब से तेरह दिनों की भाजपा सरकार ने एनरा¡न से समझौते पर दस्तखत किये थे तभी से स्वदेश्ज्ञी ला¡बी काफी विचलित रही है। उसकी शिकायत है कि भाजपा के नेता नारा तो स्वदेशी का देते हैं पर नीतियां वही कांग्रेस की चला रहे हैं।

इस बात के तमाम प्रमाण व आंकड़े उपलब्ध हैं, जिनसे यह सिद्ध होता है कि देश में विदेशी पंजी निवेश के नाम पर कैसीतबाही मचाईगयी है। ऐसी स्थिति में यदि आणविक परीक्षण से नाराज होकर अमेरिका, जापन, आस्ट्रेलिया, जर्मनी या कोईभी देश भारत को धमकाता है तो हमें डरने की कोईजरूरत नहीं है। देश के शहरों और कस्बोंमें मध्यम श्रेणी के कारखानेदारों व दुकानदारों को इतना बड़ा जाल है कि देश की ज्यादातर जरूरतों को बड़ी आसानी से पूरा किया जा सकता है। बशर्ते इन लोगों को इज्जत के साथ काम करने की छूट दी जाए। इसलिये भारत के रक्षा मंत्री जार्ज फर्नांडीज व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेई बधाई के पात्र हैं कि उन्होंने ये हिम्मत दिखाई जिससे आज आत्मनिर्भरता का माहौल अपने आप बनने लगा हे।

हालांकि दिल्ली के राजनीतिक गलियारों में चर्चा है कि चुनाव के लिये माहौल तैयार करने को यह कदम उठाया गया है। भाजपा सरकार ने अपने अंतर्विरोधों और जनता से जुड़े मुद्दों पर अपनी असफलताओं से ध्यान बंटाने के लिये यह किया हे। यह अगर सच हो तो भीकिसी को यह नहीं भूलना चाहिये कि 1974 में श्रीमती इंदिरा गांधी ने पोकरण में जो विस्फोट किया था उसके बाद उन्हें तात्कालिक प्रसिद्धि भले ही मिली हो, किन्तु राजनीतिक लाभ नहीं मिला। 1975 में जेपी आंदोलन षुरू हुआ। 1977 में श्रीमती गांधी का सफाया हो गया। वह खुद तकचुनाव हार गईं। परमाणु विस्फोट एक राष्ट्रीय उपलब्धि है। इसमें वैज्ञानिकों की पांच दशकों की मेहनत छिपी है किसी एक व्यक्ति या दल का कोईयोगदान नहीं।पर इस समय यह निर्णय लेकरअटल् बिहारी वाजपेई ने एक अच्छी षुरूआत की है। देश को इसका पूरा फायदा तभी मिलेगा जब इस मौके का लाभउठाकर स्वदेशी आंदोलन जोर पकड़े। बाहरी मदद या सहयोग वहीं लिया जाए जहां जरूरी हो।देश की आधी से अधिक भूखी प्यासी आबादी को पानी और रोटी चाहिये, पेप्सी कोला औ केंटकी फ्राइड चिकन नहीं।देश के किसानों को उनकी मेहनत और उपज का वाजिब दाम चाहिये। देश के करोड़ों बेरोजगार युवाओं को रोजगार के अवसर चाहिये जो आज के मा¡डल का उदारीकरण नहीं दे सकता। भाजपा सरकार के इसमजबूत कदम का औचित्य तभी सिद्ध होगा जब देश कोतेजी से आत्मनिर्भरता की ओर ले जाया जाए। देश्रूा के संसाधनों व क्षमता का पूरा उपयोग करके देश की हर जरूरत देश में पूरी करने अभियान और कार्यक्रम तेजी से चलाया जाए। यह संभव है और अपरिहार्य भी।

Monday, March 23, 1998

मदर टेरेसा के सेवा केन्द्रों में प्रार्थना ज्यादा-सेवा से लेकर कम


मदर टेरेसा के काम की आलोचना अग्रेजीदां हिन्दुस्तानियों के गले नहीं उतरेगी। पर अगर ये आलोचना इंग्लैंड के प्रतिष्ठित और विश्वविख्यात अखबार दी गार्डियन में छपी हो तब वे क्या कहेंगे? आलोचना करने वाला कोई ईसाई मिशनरियों का विरोधी या हिन्ंदू कट्टरपंथी नहीं है, बल्कि खुद एक अंग्रेज है। पीटर टेलर नाम के इस व्यक्ति का तक मदर टेरेसा के मिशनरीज आफ चैरिटीज से संबंध रहा था। पीटर स्वयं कैथलिक ईसाई हैं। मदर टेरेसा के सेवा केन्द्र से वे दसवर्षों में बतौर स्वयंसेवी जुड़े रहे हैं। इन वर्षों में उन्होंने हफ्तों मिशनरीज आफ चैरीटीज के केन्द्र आशादान में गुजारे। जहां बीमार और लावारिस गरीब बच्चों की देखभाल’’ की जाती है। लेकिन आशादान नाम के केन्द्रों से श्री टेलर के अनुभव अच्छे नहीं हैं। उन्हें इस बात का भारी दुख है कि मदर टेरेसा केन्द्रों में कुछ बच्चों को यातनापूर्ण जीवन जीना पढ़ता है। मिशनरीज आफ चैरिटीज से जड़े अपने कड़वे अनुभवों और प्रमाणों को लेकर श्री पीटर टेलर अभी हाल ही में मुझसे मिले। मानवीय संवेदनाओं की उपेक्षा से जुड़ी इस जानकारी को पाठकों तक पहंqचाने के लिये मैंने श्री टेलर से एक लंबी बात की और उनसे इस दर्दनाक दास्तान को सुना।
ब्रिटिश एअरवेज में वर्षों नौकरी कर चुके पीटर टेलर बताते हैं कि 1984 में उन्होंने आशादान में जाना शुरू किया था।शुरूआत के दिनों से ही श्री टेलर आशादान के बच्चों व सेविकाओं के बीच काफी लोकप्रिय थे। देखभाल के अलावा वे बच्चों को घुमाने फिराने के लिये बाहर भी ले जाते थे। आशादान के कर्मचारी भी श्री टेलर को अच्छी तरह जान और समझ चुके थे। लेकिन 1994 में अपने साथ हुए बर्ताव की श्री टेलर को उम्मीद तक नहीं थी। अचानक एक दिन आशादान में उनका प्रवेश निषेध कर दिया गया। खुद पर इस पाबंदी की वजह श्री टेलर यह बताते हैं कि गंभीर रूप से बीमार कुछ बच्चों की उपेक्षा जब उनसे नहीं देखी गयी तो उन्होंने इसकी शिकायत वहां काम कर रही वरिष्ठ सेविकाओं से की। शुरूआत में तो श्री टेलर की शिकायतों पर ध्यान दिया गया, पर थोड़ा बहुत ही। इसके बावजूद जब कुछ बच्चों की हालत में सुधार नहीं हुआ तो श्री टेलर ने इस बारे में सेविकाओं से बतौर स्वयंसेवी सवाल जवाब किया। पर इसका नतीजा उन्हें प्रतिबंध के रूप में झेलना पड़ा। आशादान के दरवाजे उनके लिये हमेशा के लिये बंद कर दिये गये।
वे आगे बताते हैं कि आशादान में कुछ बच्चों के रखरखाव का सतर उपेक्षा की हद तक गिरा हुआ है। वहां उनकी हालात सुधारने के लिये कोई विशेष कदम नहीं उठाये जाते। भोजन पानी के नाम पर उनको जैसे तैसे जिंदा रखा जाता है। इसके अतिरिक्त उनका कोई विशेष ध्यान नहीं रखा जाता। भारी मात्रा में विदेशी अनुदान के बावजूद यहां कुछ बच्चों को ऐसा यातनापूर्ण जीवन क्यों जीना पड़ता है यह बात श्री टेलर की समझ से परे है।
श्री टेलर के अनुसार आशादान में उपलब्ध स्वास्थ्य सेवायें भी बड़ी अव्यवस्थित हैं। स्वयंसेवी चिकित्सक हफ्ते में मात्र दो एक बार ही आते हैं और वो भी केवल खानापूरी के लिये। आशादान में दिखावे के लिये तो देख रेख और सेवा का अच्छा प्रबंध है लेकिन कई बार यहां की सेविकायें दर्द से कराहते बच्चों को अनदेखा कर देती हैं। अनेक मौकों पर जब खुद श्री टेलर ने सेविकाओं का ध्यान इस तरफ दिलाया तब जो जवाब इन समर्पितसेविकाओं ने श्री टेलर को दिया वो चैंकाने वाला था- ‘‘ये तो भगवान की मर्जी है।’’
कहने को तो इन सेविकाओं ने नर्सिंग की ट्रेनिंग ली है पर वे मरीजों की रख रखव के बुनियादी पहलू तक का पालन नहीं करतीं। बैड सोरसे पीडि़त मरीजों के जख्मों पर सिर्फ मलहम पट्टी करके ही वह अपने कर्तव्यों की इतिश्री समझ लेती हें। जकि उन्हें इससे कहीं ज्यादा देखभाल और स्नेह की जरूरत होती है।
इन सेविकाओं के समर्पणके जिस पहलू ने श्री टेलर को सबसे ज्यादा परेशान किया वो ये कि इन सेविकाओं का ध्यान सेवा में कम और प्रार्थनाओं मs अधिक था। और तो और स्वयं मदर टेरेसा इस सोच की प्रबल रहनुमा थी। श्री टेलर के अनुसार वे खुदकाम से ज्यादा प्रार्थना को तरजीह देती थी। प्रार्थना के समय इन बच्चों की इस हद तक उपेक्षा की जाती कि ये सेविकाएं इन बच्चों को अप्रशिक्षित अम्माओंकी देखरेख में छोड़कर प्रार्थना के लिये चली जाती। जिस समय बच्चे दर्द व उपेक्षा से कलप रहे होते थे, ये सेविकायें प्रार्थना में मग्न होती। इससे जुड़ी एक घटना का जिक्र करते हुए श्री टेलर बताते हैं कि उन्होंने जब उच्च प्रशिक्षण के लिये जाती एक सेविका से उसकी ट्रेनिंग के बारे में कुछ जानना चाहा तो उसका यह जवाब मिला, ‘‘ट्रेनिंग तीन हिस्सों में होगी। पहले, प्रार्थना सिखाई जाएगी फिर सघन प्रार्थना और उसके बाद और सघन प्रार्थना।’’
आशादान में डाक्टरों और सेविकाओं के इस रवैये से क्षुब्ध श्री टेलर काफी दिनों तक इस बात पर मंथन करते रहे कि उन्हें आशादान में कुछ बच्चों पर की जा रही यातनापूर्ण उपेक्षा पर खुल कर आलोचना करनी चाहिये या नहीं। उन्हें डर था कि लोग मदर की संस्था पर लगे आरोपों को गंभीरता से नहीं लेंगे और आशादान की सेविकाओं के समर्पण पर कोई उंगली नहीं उठने देंगे। अंततः उन्हें हार ही माननी पड़ेगी। लेकिन कुछ ऐसी घटनाएं हुई कि श्री टेलर का मिशनरीज आफ चैरिटीज की अनियमितताओं के खिलाफ अपना मुंह खोलना ही पड़ा।
घटना आशादान में दो मासूम बच्चों की दुर्दशा से जुड़ी है। मीनू नाम की इस बच्ची से टेलर की मुलाकात 1984 में आशादान में ही पहली बार हुई थी। तब श्री टेलर को बताया गया था कि मीनू की आंखों की नस क्षतिग्रस्त है और वो कभी देख नहीं पाएगी। पर यह सच नहीं था।जब श्री टेलर ने मीनw को अपने प्रयासों से नेत्र विशेषज्ञों को दिखाया तो उन्हें हैरानी हुई। डाक्टरों ने बताया कि आपरेशन से मीनू की आंखें ठीक हो सकती हैं। लेकिन इस इलाज के लिये मीनू को इंग्लैंड ले जाना होगा।डाक्टरों की परामर्श से श्री टेलर ने मीनू के जाने का बंदोबस्त लगभग कर ही दिया था जब उन्हें यह पता चला कि इसके लिये मदर टेरेसा की इजाजत जरूरी है। श्री टेलर को उम्मीद थी कि मदर इस मामले में हां कर देंगी लेकिन उन्हें बारह वर्ष तक इंतजार करना पड़ा। उन्होंने जब भी मदर से मीनू के बारे में बात छेड़ी तो मदर का रूखा सा जवाब होता कि वे मीनू के लिये यीशू से प्रार्थना करेंगी। श्री टेलर को आश्चर्य है कि मदर को यह जानने के लिये कि अंधेपन और रोशनी में कौन बेहतर है यीशू की आज्ञा का बारह वर्षों तक इंतजार करना पड़ा। लेकिन श्री टेलर लगातार मदर से इस बारे में मिलते रहे। काफी ऊहापोह के बाद अंततः जब मदर ने अनुमति दी तो श्री टेलर को यह बताया गया कि अब मीनू ने खुद अपना निर्णय बदल दिया है। टेलर को संदेह है कि मदर के इशारे पर ऐसा किया गया। शायद वे नहीं चाहती थीं कि मीनू देख सके। क्योंकि आशादान का आर्थिक स्वास्थ्य कुछ हद तक मीनू की वहां मौजूदगी से बेहतर होता था। नेत्रहीन मीनू के नाम पर शायद काफी अनुदान इकट्ठा किया जाता था इसीलिये मीनू को दुनिया देखने की इजाजत नहीं दी गयी।
दूसरी घटना विनसेंट नाम के एक और भारतीय लड़के की है। विन्सेंट नौ वर्ष का था जब टेलर की उससे मुलाकात आशादान में हुई। दौड़ना तो दूर विनसेंट चल और बैठ भी नहीं पाता था। इसका कारण था उसकी पीठ में एक बहुत बड़ा फोड़ा। जिसकी वजह से वह बिस्तर पर लेटे लेटे अपनी गर्दन ही केवल इधर से उधर घुा सकता थौ। फोड़े केदर्द से विन्सेंट हमेशा कराहता रहता था। अपनी आंखों के सामने उसकी बिगड़ती हालत श्री टेलर से नहीं देखी गई तो इसकी शिकायत उन्होंने मदर सुपीरियर से की। श्री टेलर ने उन्हें सचेत किया कि यदि ऐसी जघन्य उपेक्षा उन्होंने पश्चिम के किसी देश में दिखाई तो उन्हें सजा तक हो सकती थी। इससे डर कर विन्सेंट की ठीक से देखभाल शुरू की गई। लेकिन कुछ समय के लिये ही। श्री टेलर के वहां से जाते ही विन्सेंट की फिर से उपेक्षा शुरू हो गयी। कुछ समय बाद लौटने पर श्री टेलर को विन्सेंट का घाव जैसे का तैसा मिला। उन्होंने जब संस्था का ध्यान इस ओर आकृष्ट किया तो उन्हें उपेक्षित करने वाला और निराशाजनक जवाब मिला,‘‘न जाने ये दोबारा कैसे हो गया’’। जबकि संस्था के डाक्टर हफ्ते में कम से कम दो बार विन्सेंट के बिस्तर के पास से जरूर गुजरते थे।
विन्सेंट के मामले में श्री टेलर की बढ़ती रुचि को देखते हुए उन्हें मिशनरीज आफ चैरिटीज में कदम कदम पर हतोत्साहित किया गया। विन्सेंट को पीटर टेलर की पहंqच से बाहर रखने की कोशिश शुरू हो गयीं। आशादानके सक्रिय स्वयंसेवी श्री टेलर को क्या इतना अधिकार भी नहीं था कि वे बीमार और अपाहिज विन्सेंट की स्वास्थ्य के बारे में कुछ जान सकते। विन्सेंट की देखभाल करने वाली सेविकाओं ने श्री टेलर को कई बार तो यह कहकर मना कर दिया कि ‘‘विन्सेंट के पास बाहर वालों का जाना मना है।’’ पर श्री टेलर ने हार नहीं मानी अपने कुछ भारतीय दोस्तांे के जरिये जब उन्होंने विन्सेंट के बारे में जानना चाहा तो बताया गया कि, ‘उसे दूसरे सेवा केन्द्र पर भेज दिया गया है।पर किस सेवा केन्द्र पर, ये जानकारी नहीं दी गयी। श्री टेलर के अनुसार उन्होंने इसकी बाबत भरपूर कोशिशें की। उन्हें डर हैकि विन्सेंट उपेक्षा का शिकार होकर अपने दुखों से हमेशा के लिये मुक्त हो गया होगा। ये कहते हुए श्री टेलर की आंख से आंसू लुढ़क आते हैं। पर उनका जी चाहता है कि विन्सेंट जिंदा हो और स्वस्थ भी।
केवल मीनू या विन्सेंट ही नहीं श्री टेलर के अनुसार आशादान में उन्होंने ऐसे कई मामले देखे जिनसे मदर टेरेसा के सेवा केन्द्रांे से उनका भरोसा उठ गया। सेवा केबहाने यहां धार्मिक कर्मकांडों और ईसाई धर्म केप्रचारको प्राथमिकता दी जाती है। इसी वजह से कईमरीजों की ठीक सेदेखभाल नहीं हो पाती औरउनकी हालत बिगढ़ने दी जाती है। ‘‘क्या गा¡ड की यही इच्छा है कि प्रार्थना के आगे दर्द से कराहते बच्चों की आवाज अनसुनी कर दी जाए और उन्हें देखकर भी अनदेखा छोढ़ दिया जाए?’’ श्री टेलर पूछते हैं। उनके विचार से ऐसे सेवा केन्द्रों को अपनी प्राथमिकतायें मानवाधिकार के मौजूदा कानूनों की रोशनी में बदल देनी चाहिये। ‘‘ सेवा जरूरी हैन कि प्रार्थना।’’
श्री टेलर को उन सेविकाओं से भी नाराजगी हैजो समर्पण भाव से काम करने के बजाय सेवा केन्द्र केप्रांगण मेंदोपहरके भोजन के बाद हाथमें हाथ डाले मटरमश्ती करती रहती हैं। उनके ऐसे रूखे ओर गैर जिम्मेदाराना बर्ताव से ही विन्सेंट जैसे बच्चे, जिन्हें थोड़े से स्नेह ओर देखभाल से बचाया जा सकता था असमयकाल के शिकार हो जाते हैं। अब यह सवाल उतना महत्वपूर्ण नहीं है कि विन्सेंट कहां है, कैसा है और वो जिंदाहै भी या नहीं? मीनू अब कभी  ns  भी पाएगी यानहीं? चिंता केवल इसबात की है कि कितने ही विन्सेंट और मीनू आज इन सेवा केन्द्रों में अमानवीय उपेक्षा के शिकार हो रहे ? जबकि दूसरी तरफ बाहर की दुनिया को ये तसल्ली है कि मानवीय संवेदनाएं इन केन्द्रों में अभी भी जीवित हैं। केवल एक पीटर टेलर के अनुभवों को काफीन माना जाए तब भी जो साक्ष्य उन्होंने मेरे सामने रखे उनसे आंखें मूंदी नहीं जा सकतीं।
वर्षों तक मिशनरीज आफ चैरिटीज को काफी करीब से देख चुके श्री टेलर बताते हैं कि मदर टेरेसा केपास जब तककलकत्ता के सीमित क्षेत्रमें काम था तब तक उनके काम का स्तर काफी ऊंचा था। मदर सेवा कार्य में गहरी रूचि लेती थीं और वहां कार्य करने वाले स्वयंसेविओं पर पूरानियंत्रणरखती थीं हैल्स एंजल्स (नर्क की फरिश्ता) नाम से मटर टेरेसा के कामों पर बनी  fQल्म ने उन्हें जरूरतमंद लोगों की मसीहा के रूप में सारी दुनिया में स्थापित करदिया था। दुनिया भर से उन पर आर्थिक अनुदान और पुरस्कारों की वर्षा होने लगी थी। मीडिया की इसचमक दमक और उत्साहके अतिरेक में मदर टेरेसा ने वायुदूतके हवाई अड्डों की तरह निरंतर नये सेंटर खोलना शुरू करदिये। काम इतना फैला लिया कि ना तो स्वयंसेवियों के समर्पण को और ना ही मिशनरियों की योग्यता कोपरखने कासमयरहा और ना ही उन्हेंप्रशिक्षित करने का। श्री टेलरके षब्दों में, ‘‘नतीता यह हुआ कि काम का दिखावा तो खूबरहुआपर ठोस काम नदारदरहा।’’ गंभीर व्यक्तित्व वाले श्री टेलर गहरी सांस छोढड़ते हुए केन्द्रों में ‘‘टू मच प्रेयर,लैसकेयर’’की बात कहते हैं और यह भी कहते हैं। कि, ‘‘करुणावतार ईसा मसीह केचित्र के आगे घंटों मोमबत्ती जलाने वाले प्रार्थना तोबहुत करते हैं पर दर्दसे कराहते बच्चों के लिये करुणा नहीं दिखा पाते। काश! इनकी कथनी और करनी में ऐसा भेद न होता।

Saturday, December 20, 1997

सत्ता के लिए कोई भी वादा कर सकती है भाजपा मुखौटे से मोहरा बने बाजपेयी

मध्यावधि चुनाव में भाजपा अटल बिहारी बाजपेयी जी को बतौर भावी प्रधानमंत्रh पेश कर रही है। भाजपा का दावा है कि उसे बहुमत मिलेगा और अगली सरकार भाजपा ही बनाएगी। बाजपेयी उसे सक्षम नेतृत्व प्रदान करेंगे। भाजपा इन चुनावी नारों को लेकर बड़े उत्साह में है। वह जानती है कि इन चुनावों में कांग्रेस की कोई विशेष उपस्थिति नहीं है। संयुक्त मोर्चा ही भाजपा का एक मात्रा प्रबल प्रतिद्वंदी है।

भाजपा दरअसल बाजपेयी जी की गैर विवादास्पद छवि को भुना कर सत्ता तक पहुंचना चाहती है। हाल ही में भाजपा की प्रतिष्ठा को एक गहरा धक्का लगा था। जब उसने उत्तर प्रदेश में अपनी सरकार बचाने के लिए आपराधिकरण तक का सहारा लिया। उत्तर प्रदेश के अलावा गुजरात, राजस्थान और दिल्ली में भी भाजपा सरकारों की नाकामियों और भ्रष्टाचार के कारण भाजपा की राजनैतिक प्रतिष्ठा आज चुल्लू भर ही रह गई है। इन सब कारणों से अब केंद्र में सरकार बनाने के लिए बाजपेयी जी की छवि का इस्तेमाल करना भाजपा की राजनैतिक मजबूरी बन गई है। ऐसे में भाजपा ने बाजपेयी जी का नाम प्रधानमंत्रh पद के लिए पेश कर उन्हें भाजपा के मोहरे के रूप में इस्तेमाल किया है। पर बाजपेयी जी को इस पर अब कोई आपत्ति नहीं है। आज जब प्रधानमंत्रh पद के लिए सभी छोटे-बड़े नेताओं में आपा-धापी मची है तो बाजपेयी जी को इसके लिए मुखौटा या मोहरा बनने में क्यों एतराज होगा ?

वैसे भाजपा आलाकमान में वर्चस्व के लिए बाजपेयी और आडवाणी खेमे में जैसी खींच-तान चल रही है उसे देखते हुए बाजपेयी जी ने मोहरा बनने की मौन स्वीकृति देकर आडवाणी खेमे को पहली शिकस्त दी है।

भाजपा के दावे और उनकी असलियत आइए भाजपा के चुनावी दावों और उनकी नैतिकता का बेबाक मूल्यांकन करें जिसकी कसमें खाते भाजपा कल तक थकती नहीं थी। भाजपा को आखिर आज ऐसा कौन सा रास्ता मिल गया कि वह इतने आत्मविश्वास के साथ यह दावा कर पा रही है कि केंद्र में अगली सरकार भाजपा की ही होगी। और वह पिछली सभी सरकारों से ज्यादा मजबूत और स्थिर होगी। सच्चाई के लिए एक नजर अगर मध्यावधि चुनावों की घोषणा के बाद पैदा हुए राजनैतिक घटनाक्रम पर डाले तो यह पता चलता है कि कोई भी दल अकेले चुनावों में जाने की हिम्मत नहीं जुटा पा रहा है। जनादेश का अकेले सामना करने का साहस आज किसी भी दल में नहीं है। सभी दल चाहे वो भाजपा ही क्यों न हो चुनाव में बहुमत पाने के लिए एक दूसरे से नैतिक या अनैतिक गठजोड़ करने में जुटे हुए हैं। सभी की मंशा केंद्र में अपने गठबंधन की सरकार बनाने की है। इसमें भाजपा का मामला विशेष रूप से हास्यादपद लगता है। क्योंकि इसी भाजपा ने 18 महीने पहले अपनी अल्पमत सरकार बचाने के लिए किसी भी ऐसे दल से गठजोड़ करने से या समर्थन लेने से इंकार कर दिया था जिससे उसका वैचारिक समभाव न हो। इस श्रृखला में उस समय कितने ही ऐसे दल आते थे जिनका भाजपा से कोई वैचारिक तालमेल नहीं था और जो भाजपा को साम्प्रदायिक कह कर राजनैतिक अछूत मानते थे। भाजपा ने उस समय इन दलों से ना तो समर्थन की गुहार की और ना ही अपनी सरकार बचाने के लिए किसी गठजोड़ की प्रत्यक्ष कोशिश की। लेकिन आज भाजपा लगभगग सभी दलों से अपने प्रभाव रहित और कम प्रभाव वाले राज्यों में गठजोड़ कर रही है और चुनावी तालमेल बैठा रही है। भाजपा कल तक भ्रष्टाचार के सख्त खिलाफ थी लेकिन हाल ही में तमिलनाडू में जयललिता के साथ उसने चुनावी गठजोड़ किया। क्या यह भाजपा का अपनी भ्रष्टाचार विरोधी छवि के साथ समझौता नहीं है? उड़ीसा में भाजपा ने जनता दल में विघटन को उकसाया। नवीन पटनायक के साथ समझौता किया। क्या इससे भाजपा की डेढ साल पुरानी जोड़-तोड़ विरोधी नीति का हनन नहीं होता ? भाजपा आज अगर भ्रष्टाचार के मामलों में लिप्त लालू यादव से कोई समझौता नहीं कर रही तो ऐसा इसलिए है कि लालू यादव स्वयं भाजपा के ही विरूद्ध धर्मनिरपेक्ष मोर्चा बनाए हुए हैं। कल यदि भाजपा को अपनी सरकार बनाने के लिए लालू यादव की शरण में भी जाना पड़ जाए तो वह हिचकिचाएगी नहीं। बल्कि किसी नई मजबूरी की आड़ में गठजोड़ कर लेगी। जैसा कि कल्याण सिंह ने उत्तर प्रदेश में किया। वहां अपनी सरकार बचाने के लिए भाजपा ने कांग्रेस में टूट तो उकसाई ही साथ ही अपराधिक छवि वाले विधायकों का भी समर्थन लिया। कल्याण सिंह इसे लोकतांत्रिक प्रक्रिया बहाल करने की भाजपा की मजबूरी मानते हैं। सत्ता लोलुप्ता और अवसरवादिता के ऐसे नमूने पेश करके भाजपा आखिर क्या सिद्ध कर रही है ? अगर ऐसे ही रास्ते अपनाए गए तो भाजपा बेशक अपना बहुमत सिद्ध कर देगी। भले ही जनादेश स्पष्टतः उसके हक में हो या न हो।

सक्षम प्रधानमंत्रh का दावा भाजपा का दूसरा दावा है कि बाजपेयी जी के रूप में वह देश को एक सक्षम प्रधानमंत्रh देगी। इसमें कोई दो राय नहीं कि बाजपेयी जी एक सुलझी हुई राजनैतिक शख्सियत हैं। पर वह कितने सक्षम प्रधानमंत्रh साबित होंगे, इस बात का अंदाजा लगाने के के लिए थोड़े चिंतन और बतौर प्रधानमंत्रh उनके कार्यकाल की उपलब्धियों का अवलोकन करना जरूरी है। बाजपेयी जी के नेतृत्व में बनी भाजपा की 13 दिन की अल्पमत सरकार ने अपने कार्यकाल में कुछ अजीब निर्णय लिए। ऐसे फैसले की उम्मीद बाजपेयी सरिखे नेता से नहीं की जा सकती थी। बहुत कम लोग जानते हैं कि बतौर प्रधानमंत्रh बाजपेयी जी की एक मात्रा उपलब्धि यही थी कि जाते-जाते उन्होंने एनरा¡न जैसे राष्ट्रीयहित विरोधी समझौते पर हस्ताक्षर किए। जबकि एनरा¡न जैसी बहुराष्ट्रीय कंपनियों और परियोजनाओं की गैर जरूरतमंदी पर उन दिनों अच्छी-खासी चर्चा थी। खासकर राष्ट्रीय सेवक संघ ही स्वदेशी आंदोलन के तहत एनराॅन के विरूद्ध मोर्चा जमाए हुए था। पर तमाम विरोधों के बावजूद बाजपेयी सरकार ने एनरा¡न परियोजना को स्वीकृति दे दी।

राजनीति में बाजपेयी जी का सत्ता और विपक्ष का अच्छा अनुभव है। बाजपेयी जी जैसे बड़े नेताओं से यह उम्मीद की जाती है कि तमाम राजनैतिक विरोधों के बावजूद वह अपनी सही बात को मनवा सकेंगे। पर ऐसे अनेक मौके आए जब बाजपेयी जी के निर्णय में साहस की कमी साफ झलकती थी। इसी कारण से राष्ट्रीय हित के मुद्दों की राजनीति में बाजपेयी जी की अपने राजनैतिक अनुभव और कद के अनुसार कोई विशेष उपलब्धि नहीं हS। जबकि उनसे कहीं कम अनुभव वाले नेताओं ने राजनैतिक जोर पर अपने मुद्दांे पर समझौता करवा लिया। मंडल के मुद्दें पर अगर रामविलास पासवान अपनी शर्तें बदस्तूर मनवा ले गए तो दूसरी तरफ बाजपेयी जी मंदिर-मस्जिद मुद्दे पर आरंभ में उग्र रवैया अपनाने के बाद धीरे-धीरे नर्म पड़ने लगे। अगर बाजपेयी जी मंदिर-मस्जिद मुद्दे पर अपनी पार्टी की नीतियों से सहमत नहीं थे तो उन्हें शुरू से ही असहमति जतानी चाहिए थी। उन्हें यह भी देखना चाहिए था कि भाजपा जैसा राष्ट्रीय दल किसी ऐसे संवेदनशील मुद्दें पर वोटों की राजनीति ना करे जिस पर उसको बाद में पीछे हटना या नरम रूख अपनाना पड़े। पर बाजपेयी चुप रहे। जब मंदिर-मस्जिद मुद्दें पर स्थिति बेकाबू हो गई तो भाजपा ने बाजपेयी जी की विनीत छवि को भुनाया। बाजपेयी जी को ही भाजपा की ओर से इस दुर्घटना की निंदा करने की लिए चुना गया था।

हाल ही में पेट्रोल कीमतों में हुई तेज वृद्धि को लेकर बतौर विपक्षी नेता बाजपेयी जी ने आपत्ति जताई थी। उनका आश्वासन था कि वह इस मुद्दें को सदन में उठाएंगे। पर वक्त आने पर बाजपेयी जी अन्य मुद्दों की आड़ में इससे किनारा कर गए। विपक्ष के नेता के रूप में बाजपेयी के तेवर आक्रामक नहीं रहे। उनसे ज्यादा आक्रामक छवि तो उनसे कम कद वाले भाजपा नेताओं की रही है। बाजपेयी जी ने राजनीति के केंद्र में रहते हुए भी विवादों से दूर रहने की कोशिश की है। भले ही इसके लिए उन्हें अपने मुद्दों और शर्तों से समझौता करना पड़ा हो। आज राजनीति का जैसा माहौल है उसके लिए गुजराल या बाजपेयी जी जैसे प्रधानमंत्रh शायद उचित न बैठें। अपनी सौम्य और मैत्रिपूर्ण छवि को बनाए रखने के लिए गुजराल ने प्रधानमंत्रh पद पर रहते हुए भी जिस तरह एक के बाद एक समझौते किए उससे यह सीख लेना काफी है कि प्रधानमंत्रh पद किसी ऐसे व्यक्ति को सौंपना जिसे मुद्दों से ज्यादा अपनी छवि की चिंता हो, गंभीर चिंतन का विषय है। प्रधानमंत्रh को तो हर हाल में राष्ट्रीय हित को सर्वोपरि रखना चाहिए ना की पार्टी के हितो को या निजी स्वार्थों को। उसमें सच को सच कहने का साहस हो चाहे उसका राजनैतिक अंजाम कुछ भी क्यों न हो।

स्थायित्व के खोखले दावे भाजपा स्थायित्व की बात करती है। उसका दावा है कि मध्यावधी चुनाव में भाजपा बहुमत पाएगी। केंद्र में स्थिर सरकार देगी। क्या बहुमत से स्थायित्व का कोई रिश्ता है ? भाजपा शासित राज्यों की स्थिति का जायजा लें तो भाजपा का यह दावा गलत सिद्ध होता है। अगर बहुमत ही स्थिरता की गारंटी है तो गुजरात में भाजपा क्यों स्थायित्व नहीं दे सकी ? वहां तो भाजपा के पास दो-तिहाई बहुमत था। जाहिर है कि आलाकमान की कमजोर पकड़ थी। नैतिकता व मूल्यों का आवरण आपसी मतभेद व अंतर्कलह को ज्यादा देर तक नहीं ढक सका। गुजरात में भाजपा के स्थिरता के दावे का सच सामने आ गया। दिल्ली में भी तो भाजपा बहुमत में है। ‘दिल्ली के हालात’ आज किस से छुपे हैं ? यहां भी भाजपा का बहुमत निजी महत्वाकांक्षाओं और अंतर्कलह का शिकार हो रहा है। राज्य में कानून व्यवस्था दिनो-दिन गिरती जा रही है। भाजपा सरकार का कहना है कि कानून व्यवस्था राज्य सरकार का विषय नहीं है बल्कि केंद्रीय सरकार का है। तो क्या इन पांच वर्षों में एक जिम्मेदार सरकार का यह कर्तव्य नहीं था कि वह कि वह केंद्र से पुलिस व्यवस्था के हस्तांतरण की सार्थक कोशिश करती? राजस्थान में भ्रष्टाचार और असंतोष भाजपा के शासन का ही सूचक है। उत्तर प्रदेश में भाजपा के नेतृत्व में अपराधिकरण और भ्रष्टाचारिकरण के बारे में पहले ही बहुत कुछ कहा और लिखा जा चुका है। उस पर ज्यादा शोध की जरूरत नहीं है।

दरअसल सत्ता में काबिज होने की भाजपा की ब्याकुलता सहानुभूति का भी विषय है। भारत जैसे विशाल लोकतंत्रा का आज सबसे बड़ा राजनैतिक दल कब तक अपनी नीतियों, सिद्धांतों और मूल्यों से समझौता न करने का झूठा दिखावा करके खुद को सत्ता सुख से वंचित रख सकता है ? जबकि उससे कहीं छोटे और राज्य स्तर के दल अवसरवादी गठजोड़ करके सत्ता का सुख भोग रहे हैं। भाजपा कब तक अपने सिपाहियों को सत्ता के दरवाजे तक ला कर उनसे कदम ताल करवाती रहेगी ? भाजपा को भी यह डर है कि जिस तरह उत्तर प्रदेश में सत्ता का लालच देकर उसने दूसरे दलों में सेंध लगाई है वैसे ही केंद्र में भी दूसरे दल भाजपा के सांसदों को सत्ता प्रलोभन में फंसा कर भाजपा में जोड़-तोड़ करा सकते हैं। इसलिए भाजपा साम, दाम, दंड, भेद से केंद्र तक पहुंचने की कोशिश कर रही है। सत्ता के केंद्र तक पहुंचने के लिए वो आज कैसा भी वादा कर सकती है। बहुमत का। स्थायी सरकार का। सक्षम प्रधानमंत्रh का। पर यह देखना मतदाता का फर्ज है कि भाजपा के इन दावों में कितना दम है और कितनी अवसरवादिता।

Friday, November 14, 1997

जैन आयोग रिपोर्ट विवाद सबसे गंभीर मुद्दे से सब बेखबर


 जैन आयोग की रिपोर्ट पर लिखने, बोलने और भविष्यवाणियां करने वाले तमाम लोग एक गंभीर तथ्य को पूरी तरह अनदेखा कर रहे हैं। वह यह की इतना महत्वपूर्ण दस्तावेज गृह मंत्रालय से लीककैसे हो गया ? अगर यह सूचना लीक हो सकती है, तो देश का कोई भी रहस्य गोपनीय नहीं है। यानी सरकार ऐसी निकम्मे लोगों के हाथ में है, जो पद और गोपनीयता की शपथपालन करने में अक्षम हैं। यह बेहद खतरनाक स्थिति है। इससे जुड़े कई महत्वपूर्ण सवाल और भी हैं।
उधर दिल्ली के आधा दर्जन वरिष्ठ पत्राकारों में इस रिपोर्ट को लीक करने का श्रेय लेने की होड़ मची है। इनमें से हरेक का दावा है कि उसके पास इस रिपोर्ट की जानकारी पहले से ही थी और उसने इस जानकारी के अंश प्रकाशित भी किए थे। अगर यह सच है तो आश्चर्य जनक है कि एक गोपनीयकहा जाने वाला दस्तावेज गोपनीयकैसे रहा ?
जैन आयोग ने यह रपट 28 अगस्त 1997 को गृह मंत्रालय को साSपी थी। सरकार को इस पर निर्णय लेना था कि इसे सदन में पेश करे या न करे ? करे तो कब करे, इसका कितना अंश करे ? क्योंकि इस रपट में मात्रा एक पूर्व प्रधानमंत्रh की हत्या से जुड़े तथ्य ही नहीं हैं बल्कि देश की विदेश नीति और पड़ौसी देशों से उसके संबंधों के बारे में भी काफी गोपनीय जानकारी है। इस जानकारी को जगजाहिर करने के कई दूरगामी परिणाम हो सकते हैं। इसके कारण भारत की अंतर्राष्ट्रीय साख पर और पड़ौसी देशों की जनता के मन पर विपरीत प्रभाव भी पड़ सकता है। इसका अर्थ यह नहीं कि दोषियों को सजा ही न दी जाए। इसका अर्थ ये भी कतई नहीं कि लोकतंत्रा में जनता से सच्चाई छिपाई जाए। सूचना का अधिकार मांगने वाले भी यह जानते हैं कि अkतरिक और बाहृय सुरक्षा से जुड़े तमाम मसले अत्यंत गोपनीय किस्म के होते हैं। उनका इस तरह बिना किसी पूर्व तैयारी के अचानक खुलकर सामने आ जाना, देश की स्थिरता को डांवाडोल कर सकता है।
जिस तरह से गृह मंत्रालय से यह रिपोर्ट लीक हुई है वह बहुत ही खतरनाक बात है। पूरे देश की जनता का ध्यान इस ओर आकृष्ट किया जाना चाहिए कि गृह मंत्रालय के अधिकारी इतने निकम्मे या लापरवाह हैं कि इतने महत्वपूर्ण दस्तावेज को भी सुरक्षित नहीं रख सके। यह तो एक मामला है जो देश के सामने आ गया। इस तरह तो न जाने कितनी गोपनीय जानकारियां गृह मंत्रालय, रक्षा मंत्रालय और भारत सरकार के अन्य मंत्रालय चुपचाप देशद्रोहियों तक सरका रहे होंगे। जिसकी देश को जानकारी नहीं है। प्रायः यह लीकेजया तो मोटी रकम पाने की एवज में किए जाते हैं या विदेशी ताकतों की जासूसी करने के लिए या फिर भारत के ही अपने आका-राजनीतिज्ञों की चाटुकारिता करने के लिए ? तीनों में ही लीकेज करने वाला, निजी लाभ को राष्ट्र के हित से ऊपर रख कर देखता है। तभी इतना गंभीर अपराध करने का दुस्साहस करता है।
गृह मंत्रालय के पास देश की साम्प्रदायिक स्थिति, अपने अद्धसैनिक बलों की स्थिति और आतंकवादियों व विदेशी खुफिया संगठनों की गतिविधियों से जुड़ी तमाम जानकारी नियमित रूप से आती है। यह जानकारी फिर गोपनीयया अत्यंत गोपनीयदस्तावेजों की श्रेणी में, फाइलों में कैद हो जाती है। जिसका उपयोग सरकार प्रशासन चलाने में करती है। सामरिक व नीतिगत निर्णय लेने में इस जानकारी की महत्वपूर्ण भूमिका होती है। अगर यह जानकारी जैन आयोग की रिपोर्ट की तरह लीक करा दी जाती है तो देश का कितना बड़ा अहित हो रहा है ?
गृह मंत्रालय का जब यह हाल है तो रक्षा मंत्रालय, विज्ञान व तकनीकि मंत्रालय, वित्त मंत्रालय और दूसरे मंत्रालयों की गोपनीयता के बारे में क्या आश्वस्त रहा जा सकता है ? नहीं। यानी पूरी की पूरी सरकार ऐसी लापरवाही  से  चलाई जा रही है कि देश के हितों का कोई ध्यान नहीं रखा जा रहा। इतना बड़ा और संगीन अपराध करके भी प्रधानमंत्रh और संयुक्त मोर्चे के घटक दलों के नेता केवल अपनी कुर्सी बचाने में जुटे हैं।
गृहमंत्रh ने इस मामले में जांच कराने का आश्वासन दिया है। पर जांच का क्या मायना है ? आज तक जो जांचे पहले कराई गई, उनका क्या हुआ ? उनकी रिपोर्ट कहां गई ? क्या उनमें कुछ लोगों को सजा मिली ? नहीं। तो यह जांच क्या कर देगी ? इससे क्या यह सुनिश्चित हो जाएगा कि भविष्य में देश के हितो के विरूद्ध गोपनीय जानकारी किसी तरह लीक नहीं होगी ?
एक प्रमुख दल के वरिष्ठ नेता ने बहुत दबी जुबान में बात उठाई है और यह भी कहा है कि उनका दल इस मुद्दे पर संसद में शोर मचाएगा। हकीकत यह है इसी दल के नेता पिछले दिनों ऐसे कई मुद्दों पर शोर मचाने और सरकार को कटघरे में खड़ा करने की घोषणा कर चुके हैं और बाद में अनजान कारणों से अपनी घोषणा से ही मुकर जाते हैं। वैसे भी मात्रा कह भर देने से कोई देश का ध्यान इस ओर आकर्षित नहीं हो जाएगा। इसके लिए तो विशेष प्रयास करना होगा जिसके लिए शायद यह दल तैयार नहीं। क्योंकि उसके लिए भी आज कुर्सी हथियाने की लालसा राष्ट्रहित से ऊपर हो गई है।
बार-बार सरकार से समर्थन वापिस लेने की धमकी ब्लैक मेलिंगसे ज्यादा कुछ नहीं है। इससे यही लगता है कि धमकी देने वाले अपने और अपने समर्थक औद्योगिक घरानों के अटके अवैध काम करवाने के लिए यह धमकी देते हैं। जब काम हो जाता है तो अपना तेवर बदल लेते हैं। जबकि हालात वहीं के वहीं रहते हैं। अखबार में जो बयान छपते हैं, उनमें जो मुद्दे उछाले जाते हैं वो सिर्फ जनता को भ्रमित करने के लिए होते हैं। अंदर ही अंदर दूसरी खिचड़ी पकती रहती है।
दरअसल इन राजनेताओं और विभिन्न दलों को अपने मतदाताओं और देश की चिंता होती तो यह लोग इस अस्थिरता का फायदा उठाकर और सरकार पर दबाव डालकर ऐसे तमाम कानून पास करवाते जो देश के लोगों को राहत देने वाले हों। यह राजनेता ऐसी नीतियां बनवा सकते हैं जो लोगों के फायदे की हों। जिन मुद्दों को विपक्षी दल आज तक उठाते आए और उन पर शोर मचाते आए, उन सबको भी वे आज भूल गए हैं। अब तक उनका तर्क होता था कि नेहरू खानदान का वंशवाद या कांग्रेस का सत्ता पर एकाधिकार, ऐसा नहीं होने दे रहा है। अब तो दोनों समाप्त है फिर यह ढीलापन क्यों ?
एक बार को मान भी लें कि इनका विरोध मुद्दों पर होता है। तो यह बार-बार की धमकी का नाटक क्यों? अभी केसरी कुछ कहते हैं और 24 घंटे बाद कुछ और। इंका अध्यक्ष सीताराम केसरी के सामने तो बहुत बड़ी दुविधा है। अगर समर्थन वापिस लेते हैं तो सरकार गिरेगी और चुनाव होंगे। जिसमें कांग्रेस को उल्लेखनीय सफलता मिलने की संभावना बहुत कम है। अगर समर्थन वापिस नहीं लेते हैं और द्रमुक समर्थित सरकार चलने देते हैं तो सोनिया खेमा चैन से नहीं बैठने देगा। बाकी बची तीसरी स्थिति वह यह कि उत्तर प्रदेश की तरह कांग्रेस का विघटन हो जाने दें और भाजपा को सरकार बनाने दे। इस डर से कुछ तय नहीं हो पा रहा। यही हाल दूसरे नेताओं का भी है। अगर वाकई मुद्दों पर विरोध है और सरकार निकम्मी है तो उसे एक झटके में गिरा क्यों नहीं देते ? पर गिराना भी नहीं चाहते क्योंकि रूह कांपती है कि मतदाताओं के पास क्या मुंह लेकर जाएंगे ? फिर गिराएं तो तब जब नेता के पीछे उसके दल के सारे सांसद चट्टान की तरह खड़े हों। हकीकत यह है कि ज्यादातर सांसदों की आस्था अब न तो दल में है और न किसी विचारधारा में। उन्हें पता है कि चुनाव की स्थिति में उनका अपना काम और व्यक्तिगत लोकप्रियता का ही फायदा उन्हें मिलेगा। नेता या दल का उतना नहीं जितना पहले मिलता था। ऐसे में वे अपना स्वार्थ पहले देखते हैं। इसलिए पार्टी नेताओं के मन में यह डर बैठा हुआ है कि अगर कोई कड़ा कदम उठा लें तो कहीं उत्तर प्रदेश के विधायकों की तरह सभी दल टूट कर नई सरकार में शामिल न हो जाए।
इस तरह की बार-बार की धमकियों से देश में अस्थिरता का माहौल लगातार बना हुआ है। जिसका विपरीत प्रभाव देश की अर्थव्यवस्था पर पड़ रहा है। आज बाजार में भारी चिंता व अनिश्चितता है। व्यापारी, कारखानेदार, भवन निर्माण वाले, शेयर मार्केट सभी बेचैन हैं। हाल में हुए एक अंतर्राष्ट्रीय सर्वेक्षण के अनुसार अगर बीस वर्ष तक भारत अपने विकास की दर 7 फीसदी पर स्थिर रख पाता है तो देश की गरीबी मात्रा 6 फीसदी रह जाएगी। इसमें शर्त यह है कि विकास के लाभ का वितरण ठीक तरह से हो। पर आज तो उलटा हो रहा है। खुद सरकार ने ही, विकास की दर का अपना लक्ष्य 7 फीसदी से घटाकर 6 फीसदी कर दिया है। कुल जमा बात यह है कि धमकियां देकर राजनैतिक अस्थिरता पैदा करने वाले अर्थव्यवस्था और जन-जीवन से खिलवाड़ कर रहे हैं।
इन हालातों में देश की जनता को तो राम भरोसे छोड़ दिया गया है। गोपनीयता, स्थायित्व, विकास दर, आंतरिक व बाहृय सुरक्षा सभी को तिलांजली देकर एक-दूसरे की टांग खींचने और कुर्सी हथियाने का सर्कस चालू है। जैन आयोग की रिपोर्ट के लीक होने से उठे व जन-हित से जुड़े इन गंभीर मुद्दों पर किसी का ध्यान नहीं है।

Friday, October 10, 1997

घोटालेबाज नेताओं की रिहाई से जनता हैरान

1996 की शुरूआत देश की भ्रष्ट राजनीति को बुरी तरह झकझोरने वाले एक धमाके के साथ हुई थी। जब पहली बार राजनेताओं, मंत्रियों, राज्यपालों और मुख्यमंत्रियों को ‘हवाला कांड’ में चार्जशीट किया गया। इसके बाद सेंटकिट्स, झामुमो रिश्वत कांड, लखुभाई पाठक रिश्वत कांड, संचार घोटाला, यूरिया घोटाला, जयललिता कांड, चैरासी के दंगों की सुनवाई, मकानों और पेट्रोंल पंपों के अवैध आवंटन का घोटाला और चारा घोटाला जैसे दर्जनों घोटाले एक के बाद एक सामने आने लगे। पहली बार देश की जनता को लगा कि कानून की निगाह से कोई बच नहीं सकता। चाहे वो किसी भी पद पर क्यों न हो।

किंतु 1997 की शुरूआत लोकतंत्रा के इतिहास में अपशकुनी रही। जब एक-एक करके सभी नेता अदालतों से छूटने लगे। देश की जनता हतप्रभ है कि ऐसा क्यों हो रहा है ? उसे यह सवाल भी खाए जा रहा है कि पिछले 50 वर्ष में कभी भी कोई बड़ा नेता, मंत्रh या अफसर भ्रष्टाचार के मामले में पकड़ा क्यों नहीं गया ? जबकि एक अंतर्राष्ट्रीय सर्वेक्षण के अनुसार भारत दुनियां के दस भ्रष्टतम राष्ट्रों में से ण्क है। एक कहावत है कि, ‘शासक को ईमानदार होना ही नहीं चाहिए बल्कि दीखना भी चाहिए’। पूरा देश बिहार बन जाएगा

इस सबका नतीजा यह हुआ कि लालू यादव चार्जशीट होने के बाद भी कुर्सी छोड़ने को तैयार नहीं थे। यह तो आगाज है आगे-आगे देखिए होता है क्या ? एक बार पकड़े जाने के बाद जब यह नेता छूटते जाएंगे तो ये डंके की चोट पर ऐलान करेंगे कि, ‘देखा हमारा कोई कुछ नहीं बिगाड़ सका?’ फिर बिहार और उत्तर प्रदेश की तरह आए दिन अपहरण, अवैध कब्जें, लूटपाट पूरे देश में होंगे और कोई सुनने वाला नहीं होगा।

षड़यंत्रा किसके खिलाफ: नेताआs के या देश के ?

हवाला कांड को ही लीजिए बजाए शमिंदा होने के ये नेता आज देश को गुमराह करने में जुटे हैं। ये कहते हैं कि इन्हें षड़यंत्रा करके हवाला कांड में फंसाया गया। आप जानते हैं कि मार्च 1991 में दिल्ली पुलिस ने शाहबुद्दीन गौरी और अशफाक हुसैन लोन को लाखों रूपए के बैंक ड्राफ्टों और नकद के साथ गिरफ्तार किया था। ये पैसा कश्मीर के आतंकवादी संगठनों को भेजा जा रहा था। इनकी सूचना पर पुलिस और सीबीआई ने देश के कई हवाला कारोबारियों और जैन बंधुओं के यहां छापा डाला। जिसमें करोड़ों रूपए का हिसाब-किताब, लाखों रूपए की नकदी, सोने की छड़े, पचास देशों की मुद्राएं व संवेदनशील दस्तावेज मिले थे। यह धन दुबई और लंदन से अवैध रूप से आ रहा था और जैन बंधुओं के मार्फत देश की राजनीति में ताकतवर लोगों में बंट रहा था। इतनी बड़ी जब्ती और इतनी सारी जानकारी सीबीआई के इतिहास में शायद ही कभी मिली हो। इसके फौरन बाद जैन बंधु से जुड़े आला अफसरों, मंत्रियों और दूसरे अधिकारियों के घर छापे डालकर कड़ी पूछताछ व धर-पकड़ करनी चाहिए थी। पर बड़े राजनेताओं के दबाव के कारण सीबीआई ने देशद्रोह के हवाला कांड को बड़ी बेशर्मी और बेईमानी से दबा दिया। इसे अपने विरूद्ध षड़यंत्रा बताने वाले इन नेताओं से कोई पूछे कि
क्या आतंकवादियों को धन पहुंचाने वालों को पकड़ना इनके विरूद्ध षड़यंत्रा था ?
क्या इनको लगता है कि इन युवको के विरूद्ध टाडा के तहत कार्रवाई नही करनी चाहिए थी?

साफ है कि जैन बंधुओं को सिर्फ इसलिए बचाया गया ताकि उनके चक्कर में हवाला आरोपी नेता न पकड़े जाए ? सीबीआई में तब सुगबुगाहट हुई जब जुलाई 1993 में कालचक्र वीडियो के कैमरों ने इस मामले की खोजबीन शुरू की। पर असली हरकत में वो तब आई जब हमारी जनहित याचिका पर सुप्रीम कोर्ट के माननीय न्यायधीशों ने सीबीआई को उसके निकम्मेपन के लिए फटकारा। ये इसे षड़यंत्रा कहते हैं। तो यह षड़यंत्रा किसने किया ? जनहित याचिका दायर करके हमने या सर्वोच्च न्यायालय के न्यायधीशों ने ?

1991 में सीबीआई को जैसे ही पता चला कि बड़े-बड़े नेता जैन बंधुओं से अवैध रकम पाते रहे हैं। तो उसने जांच को वहीं रोक दिया। फिर ये षड़यंत्रा किसके खिलाफ था, इनके या देश के ?

अगस्त 1993 में कालचक्र वीडियो मैगजीन ने जब बार-बार इनका इंटरव्यू लेने का प्रयास किया तो ये सब नेता इतने घबरा क्यों गए थे ? मैं इनसे सिर्फ दो सवाल पूछना चाहता था। क्या ये जैन बंधुओं को जानते हैं ? और क्या इन्होंने जैन से इतने पैसे लिए ? अगर इनके पास छुपाने को कुछ नहीं था? तो सच बोलने में इतनी घबराहट क्यों थी ?

संसदीय चुप्पी ?

इनके खिलाफ आरोप पत्रा जनवरी-फरवरी 1996 में दाखिल हुए। जबकि इनका नाम हवाला कांड में अगस्त 1993 से समाचारों में था। यदि यह इनके विरूद्ध षड़यंत्रा था तो इसके खिलाफ इन वर्षों में इन्होंने आवाज क्यो नहीं उठाई? क्या ये मान कर चुप बैठे रहे कि किसी नेता का कुछ नहीं बिगड़ेगा। इसलिए क्यों बर्र के छत्ते में हाथ डाला जाए? वैसे 11 नेताओं ने माना है कि जैन डायरी में दर्ज धन उन्होंने लिया था, इस बारे में इनका क्या ख्याल है?

ये नेता अच्छी तरह जानते हैं कि हवाला कांड मात्रा भ्रष्टाचार का नहीं बल्कि देशद्रोह का भी कांड है। क्योंकि यह कश्मीर के आतंकवाद और देश की सुरक्षा से जुड़ा मामला है। फिर इन्होंने संसद में शोर मचा कर हवाला कांड में ईमानदारी से जांच की मांग क्यों नहीं की? जैसे आज तक हर कांड पर करते आए हैं। यह अनैतिक चुप्पी क्यों? इस तरह चुप रह कर इन नेताओं और इनके साथियों ने देश के साथ जो गद्दारी की है उसका क्या ख़ामियाजा ये देश को देने को तैयार हैं ? ऐसे अनैतिक आचरण के बाद इनकी ये ‘नैतिक’ जीत कैसे है?

सीबीआई के आपराधिक कारनामे पाठक जानते हैं कि सीबीआई हवाला कांड के मामले में सुप्रीम कोर्ट तक में झूठ बोलती आई है। ताकि इनके जैसे बड़े राजनेताओं को बचा सके। मसलन सीबीआई ने जनवरी 1994 में दावा किया कि वह मुस्तैदी से जांच कर रही है। जबकि 4 वर्ष बाद मार्च’95 तक आकर भी उसने प्राथमिक कार्रवाई भी नहीं शुरू की थी। सीबीआई ने लिखकर कोर्ट में कहा कि जैन बंधुओं के यहां से छापे में बरामद 50 देशों की विदेशी मुद्राओं को वो पहचान नहीं पाई है। क्या ये देश सौर्यमंडल से बाहर के नक्षत्रों पर हैं ? सीबीआई ने दावा किया कि वह ‘तमाम कोशिशों के बावजूद जैन बंधुओं को नहीं ढूंढ पाई। मजबूरन उसे जैन बंधुओं को ढंwढ़ने वाले इश्तहार लगवाने पड़े, तब भी बात नहीं बनी तो उसे आव्रजन अधिकारियों की मदद लेनी पड़ी।’ जबकि जैन बंधु खुलेआम दिल्ली में घूम रहे थे, आलीशान दावतें दे रहे थे और इसकी खबरें अखबारों में छप रही थी। दिल्ली उच्च न्यायालय के सामने भी सीबीआई ने अधूरे तथ्य रखे ताकि हवाला कांड के आरोपी नेताओं को निकल भागने का रास्ता मिल सके । ऐसे तमाम झूठ पर खड़ी यह ‘असत्य पर सत्य की विजय’ कैसे है ?
अब जबकि इनके ‘सर पर से बोझ उतर गया है’ तब क्या इनमें यह नैतिक बल है कि हवाला कांड में सीबीआई की बेईमानियों के खिलाफ निष्पक्ष जांच की मांग करें ? ये नेता और इनसे हमदर्दी दिखाने वाले बुद्धिजीवी क्या देश की जनता को यह बताने को तैयार है कि यह मांग क्यों नहीं कर रहे ?

सर्वोच्च न्यायलय पर दबाव डालने वाला आज़ाद क्यों ?

14 जुलाई 1997 को सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायधीश माननीय श्री जेएस वर्मा जी ने यह बता कर कि हवाला मामले को दबाने के लिए उन पर दबाव डालने की कोशिश की जा रही है, सारे देश में सनसनी फैला दी। किंतु माननीय मुख्य न्यायधीश श्री जेएस वर्मा उस अपराधी का नाम बताने तक से बच रहे हैं जिसने उन पर व उनके सहयोगी जजों पर ‘दबाव’ डालने की कोशिश की। हवाला आरोपियों के हितैषी इस व्यक्ति ने ‘न्यायालय की अवमानना कानून’ को तोड़ने का गंभीर अपराध किया है। जिसकी सजा उसे मिलनी ही चाहिए। किंतु संसद, सुप्रीम कोर्ट बार काउंसिल और अखबारों के संपादकीयों में जोरदार मांग उठने के बावजूद माननीय न्यायधीशगणों की चुप्पी, इस अपराधी को संरक्षण दे रही है। इन हालातों में जनता क्या उम्मीद करे ? इससे यह तो जाहिर हो ही गया कि हवाला केस इतना दमदार है कि इसमें फंसे सभी प्रमुख दलों के नेता हर कीमत पर इसे दबा देना चाहते हैं। कोई भी दल हवाला कांड में ईमानदारी से जांच की मांग नहीं कर रहा। स्वर्ण जयंती यात्रा के बहाने पूरे देश में भ्रष्टाचार के विरूद्ध बिगुल बजा कर लौटे भाजपा के नेता श्री लालकृष्ण आडवाणी व उनके अन्य साथी नेता तक यह हिम्मत नहीं जुटा पा रहे हैं, आखिर क्यों ?

विचित्रा विरोधाभास दरअसल हवाला कांड पूरी दुनियां में पहला ऐसा बड़ा कांड है कि जिसमें सत्तापक्ष व विपक्ष दोनों लिप्त हS। इसलिए इसलिए इस कांड की जांच की मांग कोई नहीं कर रहा। इस कांड ने भ्रष्ट राजनीति को बुरी तरह झकझोर कर रख दिया है। भारत के इतिहास में पहली बार दर्जनो मंत्रियों, राज्यपालों और मुख्यमंत्रियों के विरूद्ध भ्रष्टाचार के मामले में आरोप पत्रा इसी कांड में दाखिल हुए। एक साल में तीन प्रधान मंत्रh बदल गए और एक के बजाए 15 दल मिलकर सरकार चलाने पर मजबूर हैं। फिर भी इतने बड़े कांड में निष्पक्ष जांच की मांग को लेकर कोई जन प्रदर्शन नहीं हो रहे, कोई सेमिनार, कोई धरने नहीं हो रहे, कोई हस्ताक्षर अभियान नहीं चलाए जा रहे, संसद का कोई बर्हिगमन नहीं कर रहा, कोई इस्तीफे नहीं मांगे जा रहे।

सावधान आपका ध्यान हटाया जा रहा है

ऐसे में देश की जनता को अच्छी तरह समझ लेना चाहिए कि अखबार और टेलीविजन के माध्यम से हर घोटाले पर शोर मचाने वाले लोग कितनी होशियारी से हवाला कांड से आपकी निगाह हटा देना चाहते हैं। इसीलिए दिल्ली हाई कोर्ट के निर्णय की खामियों को उजागर करते हुए हमने एक पर्चा छापा था। इसमें उन तमाम कानूनी मुद्दों का ब्यौरा था जिनसे यह सिद्ध होता है कि हवाला आरोपी नेताओं व दूसरे लोगों के खिलाफ कोई जांच ही नहीं की गई है। इस पर्चे में दिल्ली हाई कोर्ट के निर्णय में ‘एविडेंस एक्ट’ के अनेक प्रावधानों की उपेक्षा का भी विवरण था। इस पर्चे में दी गई जानकारी को आधार बनाकर ही सीबीआई ने सर्वोच्च न्यायलय में अपील दायर की है। तो बिना जांच हुए ही इस तरह घोटालेबाज नेताओं का छूट जाना इस देश की करोड़ों जनता के साथ विश्वासघात है। कानून में आस्था रखने वाले लोग काफी चिंतित हैं। किंतु पिछले कुछ हफ्तों से जो बहस सर्वोच्च न्यायलय में चल रही है उसमें हवाला केस की जांच की खामियों का जवाब ढूंढने की बजाय भविष्य की सावधानियों पर समय लगाया जा रहा है। यह तो ऐसा हुआ कि चोर निकल कर भागा जा रहा हो और हम शोर मचाए कि अगली बार मजबूत ताला लगाना।

जनता क्या करे ?

उधर आजादी के पचासवें वर्ष में देश के कुछ गिने-चुने समाजसेवी, बुजुर्ग पत्राकार और बुद्धिजीवी देश में जगह-जगह गोष्ठियां करके बिगड़ी हालत पर चिंता जता रहे हैं। भ्रष्टाचार से लड़ने के लिए लोगों का आव्हान कर रहे हैं। पर इनकी अपीलों का कोई असर नहीं पड़ रहा। क्योंकि ये बैठकें बयान जारी करने तक सीमित रहती हैं। मजे की बात यह है कि जिनके विरूद्ध ये लड़ाई लड़ी जानी है, उनसे ही सुधार की अपील की जाती है। आज जबकि हवाला घोटाले से लेकर दूसरे घोटालों में अनेक दलों के बड़े नेता रंगे हाथ पकड़े जा चुके हैं उस वक्त बैठकें करने से क्या होगा? जरूरत सब लोगों को एकजुट होकर आम जनता को जागृत करने की है। ताकि हर कस्बे और शहर में लोग सड़कों पर उतर आएं और सफेदपोश अपराधियों के खिलाफ निष्पक्ष व तीव्रता से जांच की मांग करें और इन्हें सजा देने की मांग करें। अब तो भारत के वर्तमान राष्ट्रपति जी तक ने जनता से सत्याग्रह करने की अपील की है। फिर संकोच कैसा ? भारत से ज्यादा जागरूक तो बांग्लादेश के आम नागरिक हS। जिन्होंने सड़कों पर उतर कर, चुनाव जीत कर आए राष्ट्रपति को जेल पहुंचवा दिया। कुछ बड़े नेताओं के सजा मिलने से भ्रष्टाचार जड़ से समाप्त नहीं होगा। परंतु उसके समाप्त होने की प्रक्रिया शुरू हो जाएगी। कानून का डर मन में बैठने लगेगा।

Thursday, December 19, 1996

नैतिकता से भरपूर शिक्षा की जरूरत


पिछले महीने दिल्ली में शिक्षा पर दक्षिण एशियाई देशों का एक सेमिनार हुआ। इस तीन दिवसीय सेमिनार में विशेषकर लड़के और लड़कियों के शिक्षा अनुपात में अंतर पर जोर दिया गया। सात देशों से आए बुद्धिजीवियों ने लड़कियों की कम साक्षरता पर चिंता जताई। इसी सम्मेलन में दिल्ली की मुख्यमंत्री श्रीमती शीला दीक्षित ने एक महत्वपूर्ण सवाल की ओर लोगों का ध्यान आकृष्ट कराया। उनका सवाल था कि क्या कारण है कि शिक्षित होने के बावजूद भी लोग जघन्य अपराध  करते हैं। क्या वजह है कि उच्च शिक्षा हासिल करने के बावजूद भी लोगों में नैतिकता नहीं आ पाती? देखा जाए तो सवाल बड़े गंभीर हैं। साथ ही सरकार तथा दर्जनों स्वयंसेवी और समाजसेवी संस्थाओं द्वारा साक्षरता के लिए चलाए जा रहे कार्यक्रमों पर भी सवालिया निशान लगा देते हैं। साल भर में हजारों करोड़ रुपये खर्च करके सरकारी और गैर सरकारी संस्थाएं सैकड़ों-हजारों बच्चों को पढ़ना-लिखना सिखाती हैं और उनमें समाज में स्वाभिमान के साथ जीने का माद्दा पैदा करती हैं। इनकी कोषिषों के बलबूते ही ऐसे अनेक लड़के और लड़कियाँ क.ख.ग.घ. सीख चुके हैं, जिन्हें, और जिनके माँ-बाप को कभी उम्मीद नहीं थी कि उनके लाड़ले कभी पेन्सिल भी पकड़ पाएंगे। भारत में साक्षरता की दर बढ़ी है, इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता, लेकिन हमें यह भी देखना होगा कि देश में अपराध भी उसी रफ्तार से बढ़ रहे हैं।
आँकड़ांs के मुताबिक वर्ष 2001 में भारत की साक्षरता दर 65 प्रतिशत थी। इस मामले में भारत कई पड़ोसी देशों से बहुत आगे है। यूनेस्को की सांख्यकीय इयरबुक 1999 के मुताबिक, भारत में जहां 44.2 फीसदी लोग ही निरक्षर हैं, वहीं पाकिस्तान में यह संख्या 56.7 प्रतिशत, नेपाल में 58.6 प्रतिशत, बांग्लादेश में 59.2 प्रतिशत तथा अफगानिस्तान में निरक्षरता का प्रतिशत 63.7 है। इस लिहाज से देखा जाए तो भारत में अनपढ़ों की संख्या हमारे पड़ोसी मुल्कों से काफी कम है। उधर, भारत की सरकार भी सबको शिक्षा देने के लिए कोई कसर बाकी नहीं छोड़ रही है। नई-नई योजनाएं और कानून बनाकर हरेक के लिए शिक्षा को जरूरी बनाया जा रहा हैं। सरकार का प्रयास है कि बच्चे तो बच्चे, बडे-बूढे़ भी पढ़ना-लिखना सीखें। इसके लिए प्रौढ़ शिक्षा कार्यक्रम भी चलाया जा रहा है। जहाँ बिना किसी भेदभाव के किसी भी आयु वर्ग के लोग आकर साक्षर लोगों की जमात में शामिल हो सकते हैं। वैसे सरकार इस बात से चिंतित भी है कि अनेक तरह से प्रोत्साहित करने के बावजूद भी लोग लड़कियों को शिक्षा दिलाने में अभी भी संकोच करते हैं। यूनेस्को के आंकड़ों के अनुसार, वर्ष 2001 में भारत में जहाँ 76 फीसदी पुरुष शिक्षित थे, वहीं महिलाओं का प्रतिशत मात्र 54 ही था। वैसे देखा जाए तो पिछले वर्षों में इसमें इजाफा ही हुआ है।
शिक्षा पर पैसा खर्च करने में भी सरकार पीछे नहीं है। भारत ने शिक्षा पर वर्ष 2001-02 के दौरान सकल घरेलु उत्पाद का 4.02 फीसदी धन खर्च किया। यह बहुत बड़ी राशि है, परंतु इसके बावजूद करीब 44 फीसदी लोग अभी भी पढ़ना-लिखना नहीं जानते। इसके लिए बहुत से कारण जिम्मेवार हैं। साक्षरता के मामले में सबसे आगे केरल है। वहाँ के करीब 91 प्रतिशत लोग पढ़ना-लिखना जानते हैं जबकि सबसे कम बिहार में 48 फीसदी लोग ही साक्षर हैं। इसके अलावा झारखण्ड, जम्मू-कश्मीर, अरुणाचल प्रदेश तथा उत्तर प्रदेश में भी साक्षर लोगों की संख्या देश के कुल साक्षरता प्रतिशत से काफी नीचे है। पिछले कुछ सालों में देश में स्कूलों की संख्या में भी भारी बढ़ोत्तरी हुई है। वर्ष 2001-02 में जहां 6,64,041 प्राइमरी स्कूल थे, वहीं उच्च प्राथमिक स्कूलों की संख्या 2,19,626  थी। हाईस्कूल-इंटर कालेज 1,33,492 थे जबकि स्नातक और परास्नातक स्तर के का¡लेज की संख्या 8,737 पार कर गई। इंजीनियरिंग, तकनीकी, चिकित्सा आदि व्यावसायिक शिक्षा देने वाले का¡लेजों की संख्या भी 2,,409 थी। इसके अलावा देश में 272 यूनीवर्सिटी तथा राष्ट्रीय महत्व के संस्थान थे। स्कूल-का¡लेजों की इतनी बड़ी फौज और सरकार द्वारा हजारों-करोड़ रुपये खर्च करने के बाद भी सवाल आखिर वही है। इन स्कूल-का¡लेजों में दी जाने वाली शिक्षा को हासिल करके भी लोगों में नैतिकता क्यों नहीं आ पाती? क्यों वह अच्छे-बुरे में भेद नहीं कर पाते? क्यों देश में अपराधों की संख्या लगातार बढ़ती जा रही है। इसका मतलब है कि हमारी शिक्षा प्रणाली में कहीं न कहीं कमी है। हमें जो करना चाहिए, वह हम नहीं कर पा रहे हैं। नैतिकता और मानवता कोई घुट्टी तो है नहीं, जो लोगों को पिला दी जाए।
व्यक्ति के आंतरिक मूल्यों को दो श्रेणियों में बांटा जा सकता है। पहला सांसारिक और दूसरा मानवीय। सांसारिक मूल्यों के अंतर्गत सांस्कृतिक, राजनीतिक, आर्थिक, व्यवसायिक और सामाजिक मूल्य आते हैं। इनमें सांस्कृतिक मूल्य सामान्यता अनुभव, स्वभाव और प्रथाओं से संबंधित होते हैं। राजनीतिक मूल्य इंसान को संकीर्ण मानसिकता से उबरकर उदार बनाते हैं। आर्थिक मूल्य इस बात की प्रेरणा देते हैं ‘‘हमेशा अच्छा खरीदो-हमेशा सस्ता खरीदो।’’ व्यापारिक मूल्य व्यक्ति के व्यापारिक संबंधों को परिभाषित करते हैं। सामाजिक मूल्यों के जरिए व्यक्ति समाज से जुड़ाव महसूस करता है। इसी तरह स्वतंत्रता, जिम्मेदारी, समानता, आत्मनियंत्रण और सहयोग की भावना मानवीय मूल्यों के तहत आती हैं। ईमानदारी, एकता, अहिंसा, सच्चाई तथा न्याय नैतिक मूल्यों में शुमार होते हैं। प्यार, शांति, शुद्धता, मानवता, सच्चाई, करुणा, आदर,, क्षमाशीलता, मैत्री, एकजुटता तथा खुशी के भाव आध्यात्मिक मूल्यों की शाखाएं हैं। यदि इन सभी मूल्यों को व्यक्ति आत्मसात कर ले, तो वह कोई गलत काम नहीं कर सकता। अब जरूरत है ऐसी शिक्षा तथा ऐसी प्रणाली को विकसित करने की, जो व्यक्तियों में इन गुणों का विकास कर सके।
आजकल की शिक्षा केवल प्रतियोगितात्मक वातावरण को बढ़ावा दे रही है। जैसा कि आम तौर पर माना जाता है कि उच्च शिक्षा पाने से व्यक्ति भला-बुरा सोचने में सक्षम हो जाता है। साथ ही उसमें सहृदयता का  प्रादुर्भाव हो जाता है। पर, यह पूरी तरह सच नहीं है। यदि ऐसा होता तो एक पढ़ा-लिखा व्यक्ति अपराध नहीं करता। पर यह कटु सत्य है कि देश ही नहीं दुनिया भर में होने वाले अपराधों को अंजाम देने वाले अनपढ़ नहीं, बल्कि पढ़े-लिखे व्यक्ति होते हैं। इनमें से बहुत से तो ऐसे होते हैं जिनके हाथों में देश और देशवासियों की बागडोर होती है, जैसे कि राजनेता। कुछ नेता राजनीति रूपी तालाब को गंदा कर रहे हैं, और इसका खामियाजा भुगतना पड़ रहा है शरीफ प्रतिनिधियों को। हालत यहां तक बदतर हो गई है कि नेताओं को भ्रष्टाचार और घोटालों का पर्याय माना जाने लगा है। देश में आज तक सैकड़ों घोटाले हुए हैं। अगर देखा जाए तो उनमें से अधिकांश में किसी न किसी नेता का हाथ होता है। बहुत से डा¡क्टर, इंजीनियर भी ऐसे हैं जो थोड़े से दहेज के लिए अपनी पत्नी को सूली पर चढ़ाने से नहीं चूकते। यहाँ तक कि अपराधों को रोकने की जिम्मेदारी जिनके ऊपर होती है, वह भी कानून के ढीले पेंचों को अपनी स्वार्थपूर्ति का साधन बना लेते हैं। विज्ञान में मनुष्य के बढ़ते कदमों का भी नैतिकता का कोई सरोकार नहीं है। यदि ऐसा होता तो जिस गति से मानव विज्ञान में तरक्की कर रहा है, उसी गति से उसमें नैतिकता भी बढ़ती। संचार और सूचनाओं के वैश्विक फैलाव का भी असर उलटा ही पड़ा है। कोई व्यक्ति गलत काम तभी करता है, जब उसके अंदर नैतिकता खत्म हो जाती है। मानवीय मूल्यों का पतन हो जाता है। उसकी आत्मा मर जाती है। आजकल लोगों में जिस तेजी से नैतिकला का लोप होता जा रहा है, वह बहुत ही चिंता की बात है।
इसलिए सिर्फ शिक्षित करना ही पर्याप्त नहीं है। जरूरत इस बात की है कि लोगों को ऐसी शिक्षा दी जाए, जो उनकी तरक्की में तो सहायक हो ही, साथ ही उन्हें नैतिकता का पाठ भी पढ़ाए। उन्हें समाज में शांति से रहना सिखाए।