Sunday, August 21, 2011

अन्ना की क्रांति

Rajasthan Patrika 21 Aug 2011
अन्ना हजारे आज भ्रष्टाचार के विरूद्ध जन आक्रोश के प्रतीक बन गए हैं। उनका और उनके साथियों का कहना है कि वे ‘जन लोकपाल बिल’ पास करवाकर ही मानेंगे। साथ ही वे यह भी कहते हैं कि संसद जो तय करेगी, उन्हें मान्य होगा। इसमें विरोधाभास साफ है। असल में क्या होता है, यह तो आने वाले दिनों में पता चलेगा। पर देश में आज भी यह मानने वालों की कमी नहीं है कि जनलोकपाल बिल अपने मौजूदा स्वरूप में अपेक्षा पर खरा नहीं उतरेगा। इसमें शक नहीं कि भ्रष्टाचार से त्रस्त जनता को लग रहा है कि अन्ना हजारे देश को भ्रष्टाचार से मुक्त कराने की दिशा में सफलतापूर्वक आगे बढ़ेंगे। अगर ऐसा होता है तो राष्ट्र के और समाज के हित में होगा। अगर ऐसा नहीं होता, तो लोगों में भारी निराशा फैलेगी। इसके साथ ही पिछले दिनों के घटनाक्रम को लेकर राजनीति के गलियारों में अनेक तरह की रोचक चर्चाऐं चल रही हैं।

Punjab Kesari 22 Aug 2011
अन्ना हजारे को मयूर विहार के घर से गिरफ्तार करना एक अजीब घटना थी। आन्दोलन से पहले ही, बिना किसी कानून को तोड़े, केवल उनके इरादे को भांपकर पुलिस की यह कार्यवाही ऐसी सामान्य घटना नहीं है जैसा प्रधानमंत्री ने संसद में अपने बयान में बताने की कोशिश की। विपक्ष के नेता ने प्रधानमंत्री को आड़े हाथों लेते हुए हमला किया कि क्या प्रधानमंत्री पुलिस कमिश्नर की शख्सियत के पीछे छिपकर काम कर रहे हैं? वहीं यह कहने वालों की भी कमी नहीं है कि गत् आधी सदी से भारत की सत्ता पर काबिज कांग्रेस पार्टी का नेतृत्व इतना मूर्ख नहीं हो सकता कि वह अन्ना हजारे को इस तरह गिरफ्तार करके हीरो बना दे। इन लोगों का मानना है कि दाल में कुछ काला है। अपने समर्थन में इनके कई और तर्क हैं। मसलन ये पूछते हैं कि देश की बड़ी नेता सोनिया गाँधी भारत से कब, कहाँ और क्यों गईं, इसकी मीडिया को भनक तक नहीं लगी। अटल बिहारी वाजपेयी जब अपने घुटने का इलाज करवाने मुम्बई गए थे, तो पल-पल की खबर लेने के लिए मीडिया अस्पताल के बाहर खड़ा था।

पूर्व प्रधानमंत्री व अन्य बड़े नेता भी अगर बाहर इलाज के लिए जाते हैं तो वह खबर बनती है। इनका सवाल है कि सोनिया गाँधी के इस तरह चले जाने के बावजूद, क्या वजह है कि सारा मीडिया इस मामले में पूरी तरह खामोश है? लगता है कि मीडिया को इंका ने पूरी तरह मैनेज कर रखा है। अगर यह बात है तो फिर क्या वजह है कि कुछ टी.वी. चैनल रात-दिन अन्ना के आन्दोलन में पत्रकारिता से हटकर सामाजिक कार्यकर्ता की तरह काम कर रहे हैं? लोगों को सड़कों पर उतरने के लिए आव्हान कर रहे हैं। मानो सारा मीडिया इस ‘क्रांति’ में कूद पड़ा हो। अगर सोनिया गाँधी के मामले में मीडिया मैनेज हो सकता है तो क्या अन्ना के आन्दोलन के मामले में मीडिया को मैनेज नहीं किया जा सकता? इन लोगों को लगता है कि सरकार पर टी.वी. चैनल जो हमला रात-दिन बोल रहे हैं, उन्हें इंका की शह है। इनका तीसरा तर्क यह है कि तिहाड़ जेल में रिहाई के आदेश मिल जाने के बावजूद अन्ना हजारे जेल के अन्दर कैसे बैठे रह गए? जबकि जेल के इतिहास में शायद ही कोई ऐसी घटना हुई हो जब रिहाई के आदेश के बावजूद कोई कैदी बाहर न निकाला गया हो। चाहें वो गाँधी, पटेल, नेहरू हों या क्रांतिकारी, सबको बाहर जाना पड़ा। जेल में बैठे रहकर अन्ना ने जो अनशन किया, उससे उन्हें तो नैतिक बल मिला ही होगा, पर आगे के लिए एक गलत परम्परा बन गई। अब कोई भी आरोपित व्यक्ति अन्ना की तरह रिहाई के बाद जेल से बाहर जाने को मना कर सकता है। अन्ना हजारे को जेल के नियमों के विरूद्ध यह विशेषाधिकार क्या सरकार की इच्छा के बगैर सम्भव था? उन्हें रिहाई के बाद एक राष्ट्रीय विजय जुलूस के रूप में व ढेरों पुलिस गाड़ियों, कर्मचारियों व पुलिस कर्मियों के संरक्षण में पूर्व घोषित रूट से ले जाया गया। सारा मंजर ऐसा था मानो सरकार और आन्दोलनकारी किसी साझी समझ के साथ काम कर रहे हैं। जेल की नियमावली में यह साफ लिखा है कि जेल के भीतर कैद लोग अनुमति के बिना अपनी फोटो नहीं खींच सकते। जिस तरह अन्ना के वीडियो सन्देश बाहर लाकर प्रसारित किए गए, उससे जेल मेन्यूअल के नियमों का साफ उल्लंघन हुआ है। इससे लोगों के मन में भी शंका है कि यह क्या हो रहा है? इसी तरह रामलीला मैदान पहुँचते ही टीम अन्ना का विरोधाभासी वक्तव्य देना, ऐसे संकेत कर रहा है मानो अन्दर ही अन्दर कोई समझौता हो गया है, जिसकी घोषणा करने से पहले कुछ माहौल गरमाया जा रहा है।

टीम अन्ना ने यह दावा किया है कि उनका आन्दोलन पूरी तरह शांतिप्रिय है और अरब देशों की तरह बिना जान-माल की हानि किए हो रहा है। जबकि खुद अन्ना के तेवर गाँधी के कम और शिवाजी के ज्यादा नजर आते हैं। ऐसे में बिना जान-माल की हानि किए, पूरी जनता को कैसे नियन्त्रित किया जा रहा है या इस आन्दोलन का प्रारूप ही यह रखा गया है, इस पर लोगों के अलग-अलग विचार हैं। दूसरी तरफ सामान्यजन मानते हैं कि जो कुछ हो रहा है, वह स्वस्फूर्त है। कहीं कोई गड़बड़ नहीं है। लोग परेशान थे। भ्रष्टाचार के विरूद्ध सख्त कार्यवाही चाहते थे, जो हो नहीं रही थी। इसलिए अन्ना में उन्हें आशा की किरण दिखाई दी। इन लोगों का यह दावा है कि यह परिवर्तन की लड़ाई है और देश में हर स्तर पर परिवर्तन लाकर रहेगी। इसीलिए इसे ये अन्ना की क्रांति या अगस्त क्रांति कह रहे हैं। 

उधर विपक्ष भी इस स्थिति का पूरा लाभ उठा रहा है। पर रोचक बात यह है कि अन्ना के समर्थन में खड़ा विपक्ष, अन्ना के लोकतांत्रिक अधिकारों के हनन पर तो उत्तेजित है, लेकिन अन्ना को यह आश्वासन नहीं दे रहा कि वे उनके जनलोकपाल बिल का समर्थन करेगा। ऐसे में जब यह बिल संसद के सामने मतदान के लिए आयेगा, तब विपक्षी दलों की या सभी सांसदों की क्या मानसिकता होगी, आज नहीं कहा जा सकता। इसलिए अन्ना की इस मुहिम को अभी क्रांति कहना जल्दबाजी होगा। अभी तो समय इस बात का है कि अन्ना की मुहिम, जिसे मीडिया और साधन सम्पन्न लोगों का खुला समर्थन प्राप्त है, के तेवर और दिशा पर निगाह रखी जाए और यह भी सुनिश्चित किया जाए कि भ्रष्टाचार के विरूद्ध यह आग अब बुझे नहीं। जब तक कि समाज में कुछ ठोस परिवर्तन दिखाई नहीं देते।

Sunday, August 14, 2011

गोपनीयता के पक्ष में तर्क क्या सही है?

Rajasthan Patrika 14 Aug
श्रीमती सोनिया गाँधी की बीमारी को लेकर देशभर में उत्सुकता बनी हुई है। आधिकारिक सूचना न होने के कारण तमाम तरह की अटकलों का बाजार गर्म है। गम्भीर किस्म की असाध्य माने जानी वाली बीमारी तक का कयास लगाया जा रहा है। राष्ट्रीय नेताओं के जीवन के कुछ पक्षों की क्या इस तरह की गोपनीयता लोकतंत्र में सही ठहरायी जा सकती है? इस पर कई सवाल खड़े होते हैं। गोपनीयता के पक्ष में जो सबसे बड़ा तर्क मैंने अपने पत्रकारिता के जीवन में सुना वह सी.एन.एन. के उस अमरीकी संवाददाता का था, जो 9/11 के आतंकी हमले के दौरान अमरीका के राष्ट्रपति के आधिकारिक निवास व्हाईट हाउस को कवर कर रहा था। सी.एन.एन. के एंकर पर्सन ने उससे बार-बार पूछा कि व्हाईट हाउस में क्या हो रहा है? पर वह बताने से कतराता रहा। यह वो वक्त था जब वल्र्ड ट्रेड सेंटर की इमारतें ध्वस्त हो चुकी थीं। पेंटागाॅन पर हमला हो चुका था। यात्रियों का एक हवाई जहाज आतंकियों ने ध्वस्त कर दिया था। पूरे अमरीका में अफरा-तफरी मची थी। इस आपातकालीन दौर में सुपरपावर अमरीका के राष्ट्रपति जॉर्ज बुश कहीं टी.वी. पर नजर नहीं आ रहे थे। टी.वी. चैनल अटकलें लगा रहे थे कि वे जान बचाने के लिए या तो बंकर में घुस गये हैं या अपने अत्यंत सुरक्षित विमान में अमरीका के आसमान में चक्कर लगा रहे हैं या हमले में मारे जा चुके हैं। ऐसी अनिश्चितता के समय में जाहिर है कि व्हाईट हाउस को देखने वाले संवाददाता से कुछ आधिकारिक और असली खबर की अपेक्षा होती। पर जब उससे एंकर पर्सन ने झुंझलाकर पूछा कि तुम गत् 18 वर्षों से व्हाईट हाउस के भीतर की खबरें देते रहे हो तो अब क्यों कुछ नहीं बताते? संवाददाता का उत्तर था कि, ‘‘क्योंकि मैं 18 वर्षों से व्हाईट हाउस कवर करता रहा हूँ, इसीलिए मैं वह सबकुछ लोगों को नहीं बता सकता, जो मैं जानता हूँ। यह देशहित में नहीं होगा।’’ इस घटना के बाद मैंने बहुत चिंतन किया। मेरी वृत्ति एक ऐसे बेखौफ खोजी पत्रकार की रही, जिसने तथ्य हाथ में आने के बाद बड़े से बड़े ताकतवर लोगों को बेनकाब करने में एक मिनट की देरी नहीं की। मुझे लगा कि सब जानने का मतलब, सब बताना नहीं है। कई बार राष्ट्रहित में चुप भी रह जाना होता है।

आज के दौर में जब टी.वी. चैनलों और एस.एम.एस. के माध्यम से झूठ को सच बताने का सिलसिला आम हो चला है, बे्रकिंग न्यूज के नाम पर अफवाहों का बाजार गर्म कर दिया जाता है, तिल का ताड़ बना दिया जाता है, तब तो यह और भी जरूरी है कि जिनके पास महत्वपूर्ण सूचनाऐं हैं, वे सोच-समझकर उन्हें लीक करें। ऐसा नहीं है कि राजनेताओं के विषय में ही गोपनीयता बरती जाती हो, औद्योगिक जगत के मामलों में तो यह अभ्यास पूरी दुनिया में आम है। भारत में ही जब धीरूभाई अंबानी सघन चिकित्सा कक्ष में थे, तो कहते हैं कि उनकी मृत्यु की घोषणा, अंबानी समूह ने और अंबानी बंधुओं ने अनेक महत्वपूर्ण व्यापारिक फैसले लेने के बाद की। अमरीका के मशहूर पॉप गायक माइकल जैक्सन की मौत आज भी रहस्य बनी हुई है। इंग्लैंड की राजकुमारी डायना स्पैंसर्स की पैरिस की सुरंग में कार दुर्घटना में हुई मौत पर आज भी कयास लगाये जाते हैं। जॉन एफ.कैनेडी की हत्या की गुत्थी अमरीका की सरकार आज तक सुलक्षा नहीं पायी या सुलझाना नहीं चाहा।

इसलिए इस तर्क में भी वजन कम नहीं कि लोकतंत्र में अपने राजनेताओं के जीवन से जुड़े महत्वपूर्ण प्रसंगों और घटनाओं को जानने की जिज्ञासा ही नहीं, जनता का हक भी होता है। पर लोकशाही में भी जो सत्ताधीश हैं, उनकी वृत्ति राजशाही जैसी हो जाती है। वे सामान्य घटना को भी रहस्यमय बनाकर रखते हैं।

हमारे देश में ऐसी अनेक दुर्घटनाऐं हो चुकी हैं, जिन्हें रहस्य के परदे के पीछे छिपा दिया गया है।  जनता इन घटनाओं की असलियत आज तक नहीं जान पायी। सरकार ने भी जानने की कोशिश के नाटक तो बहुत किए, पर हकीकत कभी सामने नहीं आयी। शुरूआत हुई नेताजी सुभाषचन्द बोस के गायब होने से। वे विमान दुर्घटना में मरे या अंग्रेजी हुकूमत ने उन्हें किसी संधि के तहत भारत से बाहर किसी देश में निर्वासित जीवन जीने पर मजबूर कर दिया, इसका खुलासा आज तक नहीं हो पाया। प्रधानमंत्री लालबहादुर शास्त्री की ‘ताशकंद’ (रूस) में किन परिस्थितियों में असामायिक मौत हुई, इसे देश नहीं जान पाया। मुगल सराय रेलवे स्टेशन पर जनसंघ के वरिष्ठ नेता पंडित दीनदयाल उपाध्याय का शव रेल में सफर करते समय मिला, उनकी हत्या कैसे हुई, इस रहस्य पर आज तक परदा पड़ा है। बिहार में एक जनसभा में तत्कालीन रेलमंत्री ललित नारायण मिश्र की विस्फोट में हत्या, नागरवाला कांड के अभियुक्त की मौत, देश की प्रधानमंत्री इन्दिरा गाँधी व राजीव गाँधी की हत्या के कारणों पर आज तक प्रकाश नहीं पड़ा। उधर पड़ोसी देश पाकिस्तान में बेनजीर भुट्टो की हत्या, नेपाल के राजवंश की हत्या, बंग बंधु मुजिबुर्रहमान की बांग्लादेश में हत्या, दक्षिण एशिया के इतिहास के कुछ ऐसे काले पन्ने हैं, जिनकी इबारत आज तक पढ़ी नहीं गई।

क्या ये माना जाए कि इन देशों की जाँच ऐजेंसियां इतनी नाकारा हैं कि वे अपने राष्ट्राध्यक्षों, प्रधानमंत्रियों और राजाओं की हत्याओं की गुत्थियां तक नहीं सुलझा सकतीं? या यह माना जाए कि इन महत्वपूर्ण राजनैतिक हत्याओं के पीछे जो दिमाग लगे होते हैं, वे इतने शातिर होते हैं कि हत्या करवाने से पहले ही, हत्या के बाद की स्थिति का भी पूरा नियन्त्रण अपने हाथ में रखते हैं। नतीजतन आवाम में असमंजस की स्थिति बनी रहती है। कहावत है, ‘‘हर घटना विस्मृत हो जाती है’। इसी तरह शुरू में उत्सुकता, बयानबाजी व उत्तेजना के प्रदर्शन के बाद आम जनता धीरे-धीरे इन दुर्घटनाओं को भूल जाती है और अपने रोजमर्रा के जीवन में लिप्त हो जाती है। लगता है कि सत्ता और विपक्ष, दोनों की रजामंदी सच पर राख डालने में होती है। इसलिए विपक्ष भी एक सीमा तक शोर मचाता है और फिर खामोश हो जाता है। शायद वह जानता है कि अगर सत्तापक्ष की गठरी खुलेगी तो उसकी भी खुलने में देर नहीं लगेगी। इन हालातों में यही कहा जा सकता है कि जो दिखता है, वह सच नहीं होता और जो सच होता है, वह दिखाया नही जाता। फिर भी हम मानते हैं कि लोकतांत्रिक व्यवस्था में जनता सर्वोपरि है। यह लोकतंत्र की विडम्बना है।

Sunday, August 7, 2011

खाद्यान्न की बढ़ती कीमतों की असलियत

Rajasthan Patrika 7 Aug
बढ़ती मंहगाई को लेकर विपक्ष का उत्तेजित होना स्वाभाविक है। क्योंकि यह मुद्दा आम जन-जीवन से जुड़ा है। ऐसे मुद्दों पर शोर मचाने से जनता और मीडिया का ध्यान आकर्षित होता है और उसका राजनैतिक लाभ मिलता है। इसलिए भ्रष्टाचार की ही तरह महंगाई एक ऐसा मुद्दा है, जिस पर जो भी दल केन्द्र सरकार में हो, उसे हमेशा विपक्षी दलों की मार सहनी पड़ती है। ज्यों-ज्यों चुनाव निकट आते जायेंगे, इस मुद्दे का राजनैतिक लाभ लेने की तीव्रता बढ़ती जाएगी। पर इसका मतलब यह नहीं कि महंगाई कोई मुद्दा नहीं है। लोकसभा में बहस करते हुए भाजपा कार्यकाल में वित्तमंत्री रहे यशवंत सिन्हा ने सरकार को चेताया कि सरकार के तमाम दावों के बावजूद महंगाई के चलते पिछले 20 महीनों में  देश में गरीबी और तेजी से बढ़ी है। उनकी तीखी चेतावनी इस बात का संकेत था कि भाजपा इस मुद्दे को बार-बार उछालने में परहेज नहीं करेगी।

उधर वित्तमंत्री प्रणव मुखर्जी यह सफाई दे रहे हैं कि अन्र्तराष्ट्रीय बाजार में पैट्रोलियम पदार्थों के बढ़ते दामों ने मुद्रास्फीति को बढ़ाने में मदद की है। उन्होंने आश्वासन दिया कि जल्द ही महंगाई पर काबू पा लिया जाएगा। हालांकि महंगाई को उन्होंने अन्र्राष्ट्रीय समस्या बताया, पर क्या ऐसे बयान देने से गरीब के आँसू पौंछे जा सकते हैं? प्रश्न उठता है कि क्या हमारी सरकार महंगाई पर काबू पाने के लिए दृढ़ संकल्प ले चुकी है? क्या महंगाई का कारण पैट्रोलियम पदार्थों के दामों में वृद्धि ही है या इसके पीछे कोई माफिया काम कर रहा है? जब पैट्रोलियम के दाम बढ़े नहीं होते, तब भी बाजार से अचानक चीनी का गायब हो जाना, प्याज का अदृश्य हो जाना यह बताता है कि इसके पीछे खाद्यान्न के व्यापार करने वालों की एक सशक्त लाॅबी है जो अपने राजनैतिक आकाओं के अभयदान से देश में ऐसी स्थिति अक्सर पैदा करती रहती है। यह लॉबी इतनी सशक्त है कि केंद्र सरकार सबकुछ जानकर भी इनका बाल-बांका नहीं कर पाती। अन्ततः खामियाजा आम जनता को ही भुगतना पड़ता है।

विपक्ष का यह कहना है कि देश में खाद्यान्न के भण्डार क्षमता के अनुसार भरे पड़े हैं। उधर सरकार का भी यह दावा कि कृषि उत्पादकता बढ़ी है, सरकार के बयानों में विरोधाभासों को प्रकट करता है। अगर खाद्यान्न की उत्पादकता बढ़ी है और सरकार के गोदामों में 65.5 मिलियन टन अनाज भरा पड़ा है, तो महंगाई बढ़ने की कोई वजह नहीं होनी चाहिए। फिर भी सरकार नहीं बता पा रही कि इस महंगाई की वजह क्या है? यह बात दूसरी है कि सरकार के विरूद्ध मत विभाजन में सरकार बच गई क्योंकि उसे 51 के मुकाबले 320 मत प्राप्त हुए। पर इससे जनता की तकलीफ कम नहीं होती। महंगाई के मामले पर अब राजनेता ही नहीं, स्वंयसेवी संस्थाओं के कार्यकर्ता भी सक्रिय होने लगे हैं। इस तरह लोगों की दुखती रग से जुड़े महंगाई के सवाल पर विपक्ष का हमला अगले चुनाव तक जारी रहेगा। उधर सरकार को गहरा मंथन करके इस समस्या का हल खोजना चाहिए। उसे समझना चाहिए कि भूखे को भोजन की तस्वीर दिखाकर सन्तुष्ट नहीं किया जा सकता। हालांकि सरकार सस्ती दर पर अनाज उपलब्ध करा रही है और फूड सेफ्टी बिल लाने की तैयारी भी कर रही है, पर महंगाई की मार ऐसी है कि वो केवल उन्हीं लोगों पर नहीं पड़ती जो समाज में सबसे पिछड़े तबके हैं, बल्कि मध्यमवर्गीय शहरी भी इसका दर्द महसूस करता है।

Punjab Kesari 8 Aug 2011
आजाद भारत के इतिहास में ऐसे कई दौर आए हैं जब महंगाई को काबू में लाने के लिए सरकार ने जमाखोरों के विरूद्ध कड़ी कार्यवाही की है। आज भी अगर केन्द्रीय और प्रांत सरकारें सतर्क और आक्रामक हो जाऐं तो खाद्यान्न की महंगाई को काबू में लाया जा सकता है। क्योंकि यह बात सही है कि देश में आज खाद्यान्न का कोई संकट नहीं है। सारी समस्या वितरण और भण्डारों से जुड़े भ्रष्टाचार से है।

उधर वामपंथी दलों के तेवर तो महंगाई के मामले पर हमेशा ही कड़े रहते हैं। वे सदन का इस मुद्दे पर बहिष्कार भी कर चुके हैं और जब जरूरत समझेंगे, लाखों मजदूरों की भीड़ जुटाकर सरकार को आईना दिखा देंगे। इसलिए महंगाई के मुद्दे पर प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह, वित्तमंत्री प्रणव मुखर्जी ही नहीं बल्कि पूरी केबिनेट को कड़े निर्णय लेने चाहिऐं।

उधर महंगाई का एक दूसरा पक्ष भी है, जो उन लोगों का है जो इस महंगाई को गलत नहीं समझते। इनका कहना है कि क्या आप मोटर कार निर्माता से यह पूछते हैं कि 2 रूपये का पेंच 80 रूपये में क्यों बेच रहे हैं? या डबल रोटी में आलू की टिकिया रखकर बर्गर के नाम से बहुराष्ट्रीय कम्पनी 60 रूपये का क्यों बेच रही हैं? इनका कहना है कि इससे साफ जाहिर है कि जब बड़ी कम्पनियां बड़े मुनाफे कमाने के लिए साधारण सी वस्तुओं को भी कई गुने दाम पर बेचती हैं, तब महंगाई को लेकर कोई शोर नहीं मचता। उपभोक्ता चाहें निम्न वर्ग का हो, मध्यम का हो या उच्चवर्ग का हो, परिस्थिति को हंसते-हंसते सह लेते हैं। पर जब खाद्यान्न के दाम बढ़ते हैं तो ऐसे शोर मचाया जाता है मानो आसमान सिर पर टूट पड़ा हो। जबकि खाद्यान्न का उत्पादन करने वाले देश के बहुसंख्यक किसान इस महंगाई से प्रभावित नहीं होते। क्योंकि उन्हें ये चीजें अपने स्थानीय बाजार में सरलता से सही दाम पर उपलब्ध हो जाती हैं। बिचैलियों के कारण शहरों में जब कई गुना महंगी होकर बिकती हैं तो भी उन किसानों को लाभ ही होता है। मार पड़ती है तो शहरी मध्यम वर्ग और निम्न वर्ग पर। क्योंकि उसकी आवाज मीडिया में सुनी जाती है, इसलिए खाद्यान्न का दाम बढ़ने पर शोर ज्यादा मचता है। वास्तविकता इन दोनों परिस्थितियों के बीच की है। कुल मिलाकर खाद्यान्न के उत्पादन, संग्रहण, वितरण और मूल्य पर सरकार की जैसी पकड़ होनी चाहिए, वैसी नहीं है। इसलिए आम जनता को खामियाजा भुगतना पड़ रहा है। 

Sunday, July 31, 2011

हंगामेदार होगा संसद का यह सत्र

Rajasthan Patrika 31 July
पहली अगस्त से शुरू होने वाला संसद सत्र भारी हंगामे का होगा। वामपंथी दलों सहित सारा विपक्ष सरकार के खिलाफ लामबंद है। इतने सारे मुद्दे हैं कि सरकार के लिए गाड़ी खींचना आसान न होगा। मंहगाई की मार यानि आवश्यक वस्तुओं की मूल्यवृद्धि, पैट्रोलियम पदार्थों के दामों में बार-बार वृद्धि, डीजल के दामों में वृद्धि आदि किसानों की दिक्कतें बढ़ी हैं और आम मतदाता परेशान है। विपक्ष इसका पूरा फायदा उठायेगा। पाकिस्तान को सोंपी गई मोस्ट वान्टेड लिस्ट के मामले में सरकार ने कोई तत्परता नहीं दिखाई। इस लापरवाही को अनदेखा नहीं किया जाएगा। बाबा रामदेव के धरने में, रामलीला मैदान में, शांतिपूर्वक बैठे लोगों पर केन्द्र सरकार की बर्बर कार्यवाही को लेकर जनता में नाराजगी है। उधर नई भूमि अधिग्रहण नीति-विधेयक मसौदा भी काफी विवादास्पद है। 

ममता बनर्जी का बंगाल के चुनाव में लगे रहना और रेल मंत्रालय का अनाथ होकर चलना व बढ़ती रेल दुर्घटनाओं का होना रेलवे की लापरवाही का ठोस नमूना है। आतंकवाद, नक्सलवाद व आंतरिक सुरक्षा के मोर्चे पर नीति पर पुनर्विचार किया जाएगा। हांलाकि इस मामले में सरकार का रिपोर्ट कार्ड एन.डी.ए. की सरकार से बेहतर रहा है। इसलिए विपक्ष के हमले में कोई नैतिक आधार नहीं होगा। अलबत्ता 2जी स्पैक्ट्रम में तत्कालीन वित्तमंत्री पी. चिदंबरम की भूमिका व कपिल सिब्बल द्वारा रिलायंस कंपनी को नाजायज तरीके से फायदा पहुँचाने से उत्पन्न स्थिति को विपक्ष यूं ही नहीं छोड़ देगा। विपक्षी खेमों में चर्चा है कि यूपीए 1 के दौरान कपिल सिब्बल द्वारा भारतवंशी कामगारों का डाटाबेस बनाने के काम को मैसर्स फीनिक्स रोज एलएलसी मैरीलैंड को ठेका देने में जो कथित धांधली और उक्त फर्म को अधिक धनराशि देने एवं फर्म द्वारा काम में लापरवाही से देश की संपदा को नुकसान हुआ है उसे लेकर सरकार को कठघरे में खड़ा करना चाहिए।

काले धन का मामला पूरी तरह राजनैतिक है। राम जेठमलानी से लेकर संघ और भाजपा काले धन को देश में वापस लाने के मामले में सरकारी उदासीनता को जिम्मेदार ठहरा रहे हैं। जबकि हकीकत यह है कि कोई भी राजनैतिक दल इस मामले में साफ नीयत नहीं रखता। हाथी के दाँत खाने के और, दिखाने के और। देश की लड़खड़ाती अर्थव्यवस्था व मल्टी ब्रांड रिटेल में एफ.डी.आई यानि खुदरा व्यापार में विदेशी कंपनियों को इजाजत देने सम्बन्धी सरकार के प्रस्ताव का विरोध भी विपक्ष करने को तैयार है। यह दूसरी बात है कि वामपंथी व समाजवादी दलों को छोड़कर आर्थिक नीति के मामले में पक्ष और विपक्ष की सोच में कोई बुनियादी अन्तर नहीं है।

इसके अलावा देश के विभिन्न भागों में बाढ़ और फेल होती सरकारी मशीनरी, ऑनर किलिंग व दिल्ली में लगातार बढ़ती आपराधिक घटनाऐं और कानून व्यवस्था के मोर्चे पर सरकार की असफलता जैसे मुद्दे भी विपक्ष उठाएगा। पर इन सब मामलों में कोई एक सरकार या दल जिम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता। क्योंकि सबका हाल लगभग एक सा रहा है। मौके-मौके की बात है। वही अपराध जब अपनी सरकार के दौरान होते हैं तो राजनैतिक दल सारी आलोचनाओं को दरकिनार कर अपनी चमड़ी मोटी कर लेते हैं। वही घटनाऐं जब उनके विपक्षी दल के सत्ता में रहने के दौरान होती हैं, तो उसका पूरा राजनैतिक लाभ लिया जाता है।
 
सबसे रोचक विषय तो लोकपाल बिल रहेगा। जहाँ टीम अन्ना ने सरकारी बिल को मनलोकपाल (मनमोहन सिंह) कहकर इसका मजाक उड़ाया है और सरकार पर धोखाधड़ी का आरोप लगाया है, वहीं यह बात भी सही है कि सरकारी लोकपाल बिल काफी लचर है और जनता की अपेक्षाओं खरा नहीं उतरता। इसलिए टीम अन्ना इस मामले को लेकर जनता को उत्तेजित करने का प्रयास करेगी। अगर उसे पहले की तरह टी.वी. चैनलों का असामान्य समर्थन मिला तो वह सरकार के लिए असहज स्थिति पैदा कर सकती है। विपक्षी दल इस मामले में लामबंद हो चुके हैं। वे सरकारी लोकपाल बिल के मसौदे से संतुष्ट नहीं हैं। इसलिए संसद में इस मामले पर भी सरकार को घेरेंगे। यह बात दूसरी है कि जब टीम अन्ना विभिन्न राजनैतिक दलों के नेताओं से मिली तो उसे किसी दल ने भी उसके जन लोकपाल बिल के समर्थन में कोई आश्वासन नहीं दिया। निजी बातचीत में तो हर दल का नेता पत्रकारों से यही कहता रहा कि टीम अन्ना की मांग और तरीका दोनों ही नाजायज हैं। वे कहते हैं, ‘यह सत्याग्रह नहीं, दुराग्रह है।’ पर संसद में राजनैतिक लाभ लेने की दृष्टि से विपक्षी दल इस मुद्दे पर टीम अन्ना के साथ खड़े होने का नाटक जरूर करेंगे।

जहाँ तक भ्रष्टाचार का सवाल है, एक के बाद एक घोटालों में केन्द्र सरकार के मंत्रियों की जो भूमिका रही है, उससे सरकार की छवि गिरी है। इसमें इलैक्ट्रोनिक मीडिया की काफी सक्रिय भूमिका रही है। जिसने भ्रष्टाचार के मुद्दे पर ‘एक्टिविस्ट’ की तरह सरकार पर हमला बोल रखा है। ऐसे माहौल में भाजपा के लिए येदुरप्पा को कर्नाटक का मुख्यमंत्री बनाये रखना घाटे का सौदा होता। इसलिए कर्नाटक के लोकायुक्त जस्टिस संतोष हेगड़े की दूसरी रिपोर्ट आते ही आनन-फानन में अपने सिपहसलार से इस्तीफा मांग लिया गया और संसद में सत्तापक्ष को हावी न होने देने की जमीन तैयार कर ली गयी। हांलाकि यह सवाल फिर भी उठेगा कि इन्हीं लोकायुक्त की पहली रिपोर्ट के बाद डेढ़ बरस पहले भाजपा का राष्ट्रीय नेतृत्व क्यों कान में उंगली दिए बैठा रहा?

उधर सत्तापक्ष कर्नाटक के बाद अब गुजरात की ओर रूख करेगा और नरेन्द्र मोदी को घेरने की कोशिश की जाएगी। उधर अगले वर्ष राष्ट्रपति और उपराष्ट्रपति के चुनाव होने हैं, इसलिए सत्तापक्ष को भाजपा का समर्थन भी चाहिए। यह रस्साकशी उन्हीं समीकरणों को बिठाने के लिए की जाएगी। जिसमें दो ही विकल्प बनते हैं, या तो दोनों दल आपस में भिड़कर मध्यावधि चुनाव की स्थितियाँ पैदा कर दें और या गुपचुप समझौता कर जनता के सामने नूरा-कुश्ती लड़ते रहें। इन हालातों में चुनाव यदि होता है तो जाहिर है इंका को घाटा होगा। पर यह भी स्पष्ट है कि कोई भी दल, यहाँ तक कि एन.डी.ए. एकजुट हो जाता है, तो भी शायद बहुमत लाने की स्थिति में नहीं होगा। इसलिए चुनाव से किसी का लाभ नहीं होने जा रहा। कुल मिलाकर संसद के आगामी सत्र में शोर तो खूब मचेगा पर आम जनता के हाथ कुछ नहीं लगेगा।

Sunday, July 24, 2011

यूरोप का गहराता आर्थिक संकट

Panjab Kesari 25/7/2011
पिछले दिनों ग्रीस की राजधानी एथेंस में हिंसक जनता सड़कों पर उतर आई। विदेशी पर्यटक होटलों में बन्द बैठे रहे। अन्तर्राष्ट्रीय उड़ानें कई घंटों के लिए स्थगित कर दी गईं। इस सबके पीछे ग्रीस का प्रतिदिन गहराता आर्थिक संकट है। उसके वित्तमंत्री उस दिन संसद में जो बजट प्रस्तुत करने जा रहे थे, वह सादगी भरा था। जिसमें कई ऐसे कड़े कदम लिए गये थे,जिनसे ग्रीस की आम जनता का जीवन यापन करना और भी दुश्कर होता। सरकार अनेक तरह की सामाजिक सेवाओं को समाप्त करने जा रही थी। पहले से आर्थिक बन्दी की मार झेल रहे लाखों बेरोजगार ग्रीसवासी इस बजट को स्वीकार करने को तैयार न थे। इसलिए वे सड़कों पर उतर आए। पर सरकार भी मजबूर थी। उसके पास कोई विकल्प नहीं है। यूरोप में सबसे पहले ग्रीस का गुब्बारा फूटने जा रहा है। उस पर अपने सकल राष्ट्रीय उत्पाद से भी अधिक कर्ज है। मजबूरन सरकार को बजट प्रस्ताव पारित करने पड़े। बाहर पुलिस जनता पर लाठी बरसाती रही।

इधर पिछले दिनों इटली की हालत भी बद से बदतर होती जा रही है। आज इटली पर 2.6 ट्रिलियन डाॅलर का कर्ज है। जो कि इसके सकल घरेलू उत्पादन का 120 फीसदी है। यह ग्रीस, आयरलैंड और पुर्तगाल तीनों के कुल घाटे से तिगुनी राशि है। ऐसे में इटली के प्रधानमंत्री के हाथ-पाँव फूलना स्वाभाविक है। एक के बाद एक यूरोपीय देश मंदी के दुष्चक्र में फंसते जा रहे हैं। उनकी सरकारें कर्जे लेकर चल रही हैं। औद्योगिक उत्पादन में वृद्धि नगण्य है। बेरोजगारी और युवाओं में हताशा तेजी से फैल रही है। बैंकिंग सैक्टर खुद घबराया हुआ है। नीचे ढरकते हुए इस माहौल में कोई बड़ा निवेशक पैसे लगाकर जोखिम मोल नहीं लेना चाहता। अमरीका कर सकता था पर वह खुद इतने बड़े कर्जे में डूब चुका है कि अमरीकी राष्ट्रपति बराक ओबामा अपने देश के ऋण की उच्चतम सीमा को सीनेट से बढ़वाना चाहते हैं ताकि कुछ और कर्ज लेकर कुछ समय खींचा जा सके।

ऐसा नहीं है कि यूरोप के और अमरीका के धनाढ्यों के पास पैसा नहीं है। बहुत पैसा है। इतना कि वे अपने देशों की अर्थव्यवस्था को ढर्रे पर ला सकते हैं। पर कोई पैसा इसलिए नहीं कमाता कि उसे धर्मार्थ खाते में डाल दे। ये धनाढ्य लोग जानते हैं कि मौजूदा हालात में यूरोप या अमरीका में पैसा लगाना मतलब भारी जोखिम लेना होगा। मुनाफा तो दूर की बात, मूल तक डूबने की नौबत है। ऐसे में ये अपना पैसा चीन और भारत जैसे देशों में लगाने के लिए जमीन तलाश रहे हैं। इस सारे माहौल से यूरोप का नागरिक बहुत बैचेन है। लगभग दो सदी तक दुनियाभर में उपनिवेश स्थापित कर यूरोप वासियों ने दुनिया के देशों का खूब देाहन किया। अपने पक्ष में व्यापार किया। अपनी धन संपदा को बढ़ाया और ऐशो-आराम की जिन्दगी सुनिश्चित की। यह क्रम चलता रहता तो यूरोप वासियों को इतने बुरे दिन न देखने पड़ते। वैसे तो इन औपनिवेशिक मुल्कों की आजादी के बाद ही झटका लग जाना चाहिए था। पर ऐसा इसलिए नहीं हुआ क्योंकि नये आजाद हुए ये देश तकनीकि के मामले में आत्मनिर्भर नहीं थे। इसलिए ये अपने औपनिवेशिक शासकों के चंगुल में फंसे रहे। जो इन्हें आजादी देने के बाद भी इनका व्यापारिक शोषण करते रहे। पर पिछले दशक में हालात तेजी से बदले हैं। एशियाई देशों में आयी तकनीकि क्रांति, उद्यमशीलता और दुनिया को मुठ्ठी में बन्द करने की ललक ने समीकरण बदल दिए। अब ये एशियाई देश यूरोपीय देशों पर न तो तकनीकि के लिए निर्भर हैं और न ही उनके खरीदारों पर। इन एशियाई देशों में मध्यम वर्गीय ग्राहक की क्रय क्षमता तेजी से बढ़ी है। नतीजतन अब घरेलू बाजार का ही इतना विस्तार होता जा रहा है कि कल तक जो निर्यात का मुख देखते थे, वे देश में ही अपने बाजार का विस्तार कर रहे हैं। इस तरह यूरोप के कारखानों में बनने वाली वस्तुओं की मांग तेजी से गिरी है। इससे वहाँ आर्थिक मंदी, बेरोजगारी और हताशा तेजी से फैलती जा रही है। यूरोप के राजनेता भी इस पतन के लिए कम जिम्मेदार नहीं हैं। फिजूलखर्ची और शानो-शौकत के जीवन ने इन देशों की सरकारों के खर्चे बहुत बढ़ा रखे थे। आज उन्हें खर्चे घटाने में तकलीफ हो रही है।

भारत के लिए यह परिस्थिति सबक होनी चाहिए। आज भारत में मध्यवर्ग और उच्चवर्ग की सम्पन्नता इतनी नहीं कि अस्सी फीसदी आम आदमी की बेजारी कम कर सके। पर उसका खर्चा और रहन-सहन इतनी तेजी से ऊपर उठ गया है कि दुनिया के धनी देशों के धनी लोग भी देखकर हैरान हैं। यही हाल हमारे सरकारी खर्च का भी है। फिजूलखर्ची की इंतहा है। एक-एक मद को गिनाने बैठें तो पता चलेगा कि केन्द्र और राज्य सरकारें किस बेशर्मी से इस देश की गरीब जनता के खून-पसीने की कमाई को बर्बाद करने पर तुली है। आर्थिक प्रगति का जो दावा किया जा रहा है, उसके मूल में है अचानक बढ़ा खनिज निर्यात। कर्नाटक के लोकायुक्त की रिपोर्ट इस बात को प्रमाणित करती है कि कर्नाटक के मुख्यमंत्री की मिलीभगत से रेड्डी बंधु खनिज पदार्थों की लूट का साम्राज्य कब्जा किये बैठे हैं। यही हालत उड़ीसा और देश के दूसरे राज्यों की भी है। इतनी बड़ी तादाद में खनिज का निर्यात करना कोई विकास का प्रमाण नहीं है। इस तरह तो हम चीन जैसे देश के औद्योगिक विकास की वृद्धि में मदद कर रहे हैं। बेहतर होता कि हम अपने खनिज से अपना औद्योगिक उत्पादन करते और उस उत्पादन को दुनिया के बाजार में बेचते। इससे हमारी लागत कम और मुनाफा ज्यादा होता। इस तरह की कमाई थोड़े ही दिन में हमारी सरकार को खतरनाक स्थिति में लाकर खड़ा कर देगी। तब हमारे लिए खर्चे घटाना और जन आकांक्षाओं को पूरा करना इतना ही कठिन होगा जितना आज यूरोप की सरकारों को हो रहा है। अगर हम मजबूती के साथ आगे बढ़ना चाहते हैं तो हमें सचेत रहने की और मितव्ययी होने की जरूरत है।

Monday, July 18, 2011

आतंकवाद ने फिर उगला जहर

Punjab Kesari 18 July

मुम्बई में हुए धमाकों ने फिर याद दिला दिया कि आतंकवादी कुछ दिन चुप भले ही बैठ जाएं, पर अपनी नापाक करतूतों से बाज आने वाले नहीं हैं। ऐसे धमाकों के बाद हमेशा ही आरोप की अंगुलियाँ स्थानीय पुलिस और आई.बी. की तरफ उठायी जाती है। बेशक इन दो विभागों पर ही ज्यादा जिम्मेदारी होती है आम आदमी की सुरक्षा को सुनिश्चित करने की। इसलिए धमाके होते ही टी.वी. के ऐंकर पर्सन इन दोनों एजेंसियों की तरफ अंगुलियाँ उठाने लगते हैं। बेशक अगर ये एजेंसियाँ मुस्तैद रहें तो ऐसी वारदातों को काफी हद तक रोका जा सकता है। पर क्या केवल यही दो एजेंसियाँ 121 करोड़ लोगों के मुल्क में हर कस्बे, हर नगर, हर स्टेशन, हर बाजार पर इतनी कड़ी नजर रख सकती है? सम्भव ही नहीं है। 

दरअसल हर बार जब आतंकवादी घटना घटित होती है और मृतकों और घायलों के दिल दहला देने वाले दृश्य दिखाए जाते हैं, तो सभी बैचेन हो जाते हैं। राजनेता बयानबाजी में जुट जाते हैं और पत्रकार घटना का विश्लेषण करने में। पर आतंकवाद की जड़ पर कोई प्रहार नहीं करता। इस काॅलम में हमने बार-बार उन बुनियादी समस्याओं का जिक्र किया है, जिनका हल ढंूढे बिना आतंकवाद पर काबू नहीं पाया जा सकता। जरूरत है इन समस्याओं का हल ढूंढने की। पहली समस्या है आतंकवादियों को मिल रहा स्थानीय संरक्षण। दूसरी उन्हंे मिल रहा अवैध धन, जो हवाला कारोबारियों की मार्फत मुहैया कराया जाता है। तीसरा कारण है, आतंकवाद में पकड़े गए अपराधियों के खिलाफ लम्बी कानूनी प्रक्रिया। जिससे सजा का असर नहीं पड़ता। चैथी समस्या है, आतंकवाद से निपटने के लिए स्थानीय पुलिस को खुली छूट न देना, बल्कि आतंकवादियों को राजनैतिक संरक्षण देना।  

आतंकवादियों को मिल रहे स्थानीय प्राश्रय पर आज तक चोट नहीं की गई है। भारत के कई सौ छोट-बड़े शहरों में धर्म स्थलों और तंग गलियों में रहने वाले लोगों के पास अवैध जखीरा भरा पड़ा है। भारत की खुफिया ऐजेंसियाँ सरकार को बार-बार चेतावनी देती रहीं है। इस जखीरे को बाहर निकालने के लिए राजनैतिक इच्छा शक्ति चाहिए। जो किसी भी राजनैतिक दल के नेताओं में दिखाई नहीं देती। देश के कस्बों और धर्म स्थलों से अवैध जखीरा निकालने का जिम्मा यदि भारत की सशस्त्र सेनाओं को सौंप दिया जाए तो काफी बड़ी सफलता हाथ लग सकती है। यह एक कारगर पहल होगी। पर राजनैतिक दखलअंदाजी ऐसा होने नहीं देगी। अगर ऐसा हो तो साथ ही यह भी सुनिश्चित करना होगा कि आतंकवाद से निपटने वाले सैन्य बलों और पुलिस बलों को मानवाधिकार आयोग के दायरे से मुक्त रखा जाए। वरना होगा यह कि जान पर खेल कर आतंकवादियों से लड़ने वाले जांबाज बाद में अदालतों में धक्के खाते नजर आएंगे। 

इसके साथ ही यह बात भी बहुत महत्वपूर्ण है कि आतंकवादियों को वित्तीय मदद पहुँचाने का काम हवाला कारोबारियों द्वारा किया जाता है। देश में हवाला कारोबार से जुड़े कई खतरनाक कांड सी.बी.आई. की निगाह में आए हैं। पर शर्म की बात है कि इन कांडों की पूरी तहकीकात करने के बजाय सी.बी.आई. लगातार इन्हें दबाने का काम करती आई है। ऐसा क्यों होता है? लोकतंत्र में जनता को यह हक है कि वह जाने कि जिन खुफिया या जाँच एजेंसियों को आतंकवाद की जड़ें खोजने का काम करना चाहिए, वे आतंकवादियों को गैर कानूनी संरक्षण देने का काम क्यों करती आईं हैं? उन्हें सजा क्यों नहीं दिलवा पाती? क्या इसके लिए राजनेता जिम्मेदार हैं? जो खुद भी हवाला कारोबारियों से जुडें हैं और डरते हैं कि अगर हवाला काण्डों की जाँच हुई तो उनका राजनैतिक भविष्य दांव पर लग जाएगा। 

देश की संसद पर आतंकवादी हमले के लिए जिम्मेदार ठहराये गए अफजल गुरू का मामला हो या मुम्बई हमलों के एकमात्र जिंदा बचे आतंकी हमलावर अजमल कसाब का मामला। हमारी अदालतों में कानून की इतनी धीमी और लम्बी प्रक्रिया चलती है कि अपराधिकयों को या तो सजा ही नहीं मिलती और अगर मिलती भी है तो इतनी देर के बाद कि उस सजा का कोई असर समाज पर नहीं पड़ता। जरूरत इस बात की है कि आतंकवाद से जुड़े हर मामले को निपटाने के लिए अलग से तेज अदालतों का गठन हो और हर आतंकवादी के मुकदमें की सुनवाई 6 महीने की समयसीमा के भीतर समाप्त कर दी जाए। जिसके बाद उसे सजा सुना दी जाए।  

इसके साथ ही जरूरत इस बात की भी है कि स्थानीय पुलिस अधिकारियों को आतंकवाद से निपटने की पूरी छूट दी जाए। उनके निर्णयों को रोका न जाए। अगर हर जिले का पुलिस अधीक्षक यह ठान ले कि मुझे अपने जिले से आतंकवाद का सफाया करना है तो वह ऐसे अभियान चलाएगा जिनमें उसे जनता का भारी सहयोग मिलेगा। आतंकवादियों को संरक्षण देने वाले बेनकाब होगें। जिले में जमा अवैध जखीरे के भंडार पकड़े जाएंगे। पर कोई भी प्रांतीय सरकार अपने पुलिस अधिकारियों को ऐसी छूट नहीं देती। पंजाब में आतंकवाद से निपटने के लिए जब के. पी.एस. गिल को पंजाब के मुख्य मंत्री बेअंत सिंह ने तलब किया तो गिल की शर्त थी कि वे अपने काम में सीएम और पीएम दोनों का दखल बर्दाश्त नहीं करेंगे। उन्हें छूट मिली और दुनिया ने देखा कि पंजाब से आतंकवाद कैसे गायब हो गया। मानव अधिकार की बात करने वाले ये भूल जाते हैं कि हजारों लोगों की जिंदगी नाहक तबाह करने वाले के भीतर मानवीयता है ही नहीं। घोर पाश्विकता है। ऐसे अपराधी के संग क्या सहानुभूति की जाए? 

अगर इन चारों समस्याओं का हल ईमानदारी से लागू किया जाए, तो काफी हद तक आतंकवाद पर काबू पाया जा सकता है। जरूरत इस बात की है कि देश के जागरूक नागरिक, मीडिया और वकील मिलकर सरकार पर दबाव डालें कि वे इन कदमों को उठाने में हिचक महसूस न करें। अगर हम ऐसा नहीं कर पाते हैं तो हमें कभी भी, कहीं भी आतंकी हमले के शिकार बनने के लिए मानसिक रूप से तैयार रहना होगा।

Monday, July 11, 2011

भ्रष्टाचार की जड़ पे हमला

Amar Ujala 11 July
शुरू-शुरू में लोगों को लगा था कि लोकपाल कोई रामबाण है या जादुई छड़ी है, जिसे फिराते ही देश से भ्रष्टाचार खत्म हो जाएगा। इसलिए जब टीवी चैनल वालों ने लोगों को उकसाया तो उनमें से कुछ लोग घरों से निकलकर लोकपाल के समर्थन में टी.वी. कैमरों के आगे नारे लगाने लगे। लेकिन इन चार महीनों में जब अखबारों व टी.वी. के जरिए ‘जन लोकपाल विधेयक’ के प्रारूप की जानकारी लोगों तक पहुंची, तब उन्हें असलियत पता चली। फिर चाहे टी.वी. पर होने वाली बहसों में न्यायविदों, राजनीतिज्ञों या पत्रकारों की टिप्पणियाँ हों या इस विधेयक को बनाने वाली समिति के सदस्य पाँच केन्द्रीय मंत्रियों की मीडिया पर की गयीं प्रस्तुतियाँ हों, इनसे यह साफ होने लगा कि ‘जन लोकपाल विधेयक’ भी आज तक बनते आये काूननों की तरह ही एक और कानून होगा और उससे देश में हर स्तर पर व्याप्त भ्रष्टाचार से निपटने में कोई खास कामयाबी नहीं मिलेगी। लोगों के दिल में इस अहसास के घर करते ही उनमें निराशा बढ़ चली है।

चार महीने पहले, जन्तर-मन्तर पर भ्रष्टाचार के खिलाफ हुए धरने से देश के शहरों में बड़े कुतूहल का माहौल बना था। रोज-रोज की बहसों और खबरों के बाद आज आलम यह है कि लोग इस दुविधा में पड़ गये हैं कि हजारे और उनके लोग आखिर चाहते क्या हैं? यह भी लोगों को हैरान करने वाली बात है कि राजनेताओं की देशभर में भत्र्सना करने के बाद, लोकपाल विधेयक को लेकर सक्रिय अन्ना हजारे की टीम अब एक-एक कर उनके ही दरवाजे पर क्यों जा रही है? अब वे राजनेताओं को यह बताने में लगे हैं कि उनका प्रस्तावित विधेयक सरकारी विधेयक से ज्यादा कारगर कैसे है।

इन चार महीनों में अन्ना हजारे की टीम जनता के बीच यह सन्देश फैला पायी है कि सरकार प्रधानमंत्री और मुख्य न्यायाधीश को लोकपाल के दायरे में नहीं लाना चाहती। पर बुधवार को संपादकों से वार्ता में प्रधानमंत्री ने स्पष्ट किया कि उन्हें इससे कोई गुरेज नहीं है। वैसे भी यदि एकबार को यह मान लें कि ‘जन लोकपाल विधेयक’ के सभी प्रस्ताव सही हैं और इसको यथावत स्वीकार कर लिया जाए तो क्या अन्ना की समिति देश को गारण्टी दे सकती है कि कितने दिनों में भ्रष्टाचार समाप्त हो जाएगा? कहीं ऐसा तो नहीं होगा कि जो भी प्रधानमंत्री की गद्दी पर बैठता जाएगा, उसे चोर बताकर हटाया जाता रहेगा? और इस तरह दर्जनों प्रधानमंत्री बदलने के बाद कहीं स्थिति यह तो नहीं आ जाएगी कि लोकपाल यह तय करने लगे कि प्रधानमंत्री की कुर्सी पर अब कौन बैठेगा?

पिछले दिनों एक अंगे्रजी चैनल के टी.वी. टाॅक शो में इस मुद्दे पर मेरी टीम अन्ना से तीखी बहस हुई। दोनों भूषण पिता-पुत्र, अरविंद केजरीवाल और अन्ना हजारे इस बहस में मेरे साथ थे। जब उनसे पूछा गया कि आप यह कैसे सुनिश्चित करेंगे कि लोकपाल बेदाग हो? तो प्रशांत भूषण इसका जबाव देने की बजाए बोले कि प्रधानमंत्री, विपक्ष का नेता, भारत का मुख्य न्यायाधीश व अन्य सदस्य ईमानदार लोकपाल का चयन करेंगे। अब सवाल यह उठा कि इनके द्वारा चुना गया लोकपाल ईमानदार ही होगा, यह कैसे सुनिश्चित होगा? मैंने उन्हें याद दिलाया कि भारत के मुख्य न्यायाधीश डॉ. एएस आनंद के पद पर रहते हुए मैंने उनके छह घोटाले प्रकाशित किए थे। जिसके बाद न तो उनके खिलाफ महाभियोग चला और न ही कोई आपराधिक मामला दर्ज हुआ। हालांकि इस मुद्दे पर देश-विदेश के मीडिया में भारी बवाल मचा और केन्द्रीय कानून मंत्री को भी जाना पड़ा। लेकिन तत्कालीन प्रधानमंत्री व विपक्ष के नेता ने मिलकर ऐसे अनैतिक आचरण वाले डॉ. आनन्द को राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग का अध्यक्ष नियुक्त कर दिया और तत्कालीन राष्ट्रपति ने इस नियुक्ति पर स्वीकृति की मुहर भी लगा दी। तो फिर क्या गारण्टी है कि लोकपाल के चयन में भी ऐसा नहीं होगा? इस सवाल का टीम अन्ना के पास कोई जबाव नहीं था। अंग्रेजी में हुई यह बहस दिल्ली के कमानी ऑडिटोरियम में एक हजार लोगों की मौजूदगी में रिकॉर्ड की जा रही थी और ये वैसे लोग थे जिन्हें टीम अन्ना ही अपने समर्थन के लिए वहाँ लाई थी। पर ऐसे तर्कों को सुनकर इन दर्शकों ने बार-बार सहमति में करतल ध्वनि की। चैनल के अनुसार यह डिबेट इतनी लोकप्रिय हुई कि इसे दो हफ्ते में कई बार प्रसारित किया गया। साफ जाहिर है कि लोगों तक सही बात पहुंची नहीं है। लेकिन जब उनके सामने पूरी बात ईमानदारी से रखी जाती है, तब उन्हें समझ में आता है कि भावनाऐं भड़काने से और एक और कानून बनाने से भ्रष्टाचार नहीं रोका जा सकता।

ये तो एक चैनल था, जिसने एक घण्टा ऐसी खुली बहस करवायी। पर ज्यादातर टी.वी. चैनलों के पास पूरी बात कहने देने का समय ही नहीं होता। आधी-अधूरी बात में वक्ता चैंचैं लड़ाते ज्यादा दिखते हैं और मुद्दे की बात खुलकर सामने नहीं आ पाती। इसे टी.वी. की मजबूरी माना जा सकता है। पर यहां सवाल उठता है कि भ्रष्टाचार के कारण और निवारण की बात फिर कौन करे? यूं तो हर व्यक्ति अपनी राय देने के लिए स्वतंत्र है, पर अगर आपको दिल के रोग का इलाज करवाना हो तो क्या आप अस्थिरोग विशेषज्ञ के पास जाएंगे? जाहिर है कि भ्रष्टाचार, जिसे अपराध शास्त्र में ‘व्हाईट कॉलर क्राइम’ कहा जाता है, एक पेचीदगी भरे अध्ययन का विषय रहा है। पुलिस विभागों के अलावा अकादमिक रूप से इसका अध्ययन और अध्यापन मध्य प्रदेश के सागर विश्वविद्यालय के अपराध शास्त्र एवं न्यायायिक विज्ञान विभाग में पिछले चार दशकों से किया जा रहा है। आश्चर्य की बात है कि इतने महीनों से भ्रष्टाचार पर शोर मचाने वालों ने या भ्रष्टाचार के समाधान बताने वालों ने कभी इसके विशेषज्ञों की राय जानने की कोशिश नहीं की।

सामाजिक स्तर पर ही इस कमी को पूरा करने का प्रयास अब किया जा रहा है। राजधानी दिल्ली के कुछ वरिष्ठ पत्रकार, विभिन्न विश्वविद्यालयों के प्रोफेसर, गहरी समझ रखने वाले सामाजिक कार्यकर्ता और भ्रष्टाचार से जूझने वाले कुछ योद्धा मिलकर आगामी 16-17 जुलाई को देशभर से उन विशेषज्ञों को दिल्ली बुला रहे हैं, जो इस विषय पर गम्भीर चर्चा करेंगे और अपने अध्ययन और अनुभव से भ्रष्टाचार के कारण और निवारण बताने का प्रयास करेंगे। अब देखना यह है कि यह गम्भीर प्रयास इस समस्या का क्या हल सुझा पाता है?