कश्मीर में बड़ी तादाद गूजरों की है। ये गूजर श्रीनगर के आसपास के इलाकों से लेकर दूर तक पहाड़ों में रहते हैं और भेड़-बकरी चराते हैं। ऊन और दूध का कारोबार इनसे ही चलता है। कश्मीर में रहने वाले कश्मीरी गूजर और जम्मू के क्षेत्र में रहने वाले डोगरे गूजर कहलाते हैं। इनकी तादाद काफी ज्यादा है, लगभग 30 लाख। दोनों ही इलाकों के गूजर इस्लाम को मानने वाले हैं। पर रोचक बात यह है कि घाटी के अलगाववादी नेता हों या अन्य मुसलमान नेता, गूजरों को मुसलमान नहीं मानते। पिछले दिनों सैयद अली शाह गिलानी ने एक बयान भी इनके खिलाफ दिया था जिससे गूजर भड़क गये। बाद में गिलानी को यह कहकर सफाई देनी पड़ी कि मीडिया ने उनके बयान को गलत पेश किया। हकीकत यही है कि घाटी के मुसलमान गूजरों को हमनिवाला नहीं मानते। 1990 से आज तक आतंकवादियों द्वारा कश्मीर में जितने भी मुसलमानों की हत्या हुईं हैं, उनमें से अधिकतर गूजर रहे हैं। जम्मू और कश्मीर क्षेत्र के गूजर न तो आज़ादी के पक्ष में हैं और न ही पाकिस्तान जिन्दाबाद के नारे लगाते हैं। वे भारत के साथ अमन और चैन के साथ रहने के हामी हैं। कड़क जाड़े में जब बर्फ की मोटी तह कश्मीर के पहाड़ों को ढक लेती है, तब ये गूजर नीचे मैदानों में चले आते हैं ताकि मवेशियों को चारा खिला सकें। इनका मैदान से छः महीने साल का नाता है। अलगाववादियों के जितने संगठन आज जम्मू कश्मीर में सक्रिय हैं और जिनके बयान आये दिन मीडिया में छाये रहते हैं, उन संगठनों में एक भी गूजर नेता नहीं है। इसी तरह कण्डी बैल्ट के जो लोग हैं, वो पहाड़ी बोलते हैं, कश्मीरी नहीं। उनका भी घाटी के अलगाववादियों से कोई नाता नहीं है। उरी, तंगधार और गुरेज़ जैसे इलाकों के रहने वाले मुसलमान घाटी के मुसलमानों से इफाक नहीं रखते। इन्हें भी भारत के साथ रहना ठीक लगता है।
यह तो जगजाहिर है कि उत्तरी कश्मीर का लेह लद्दाख का इलाका बुद्ध धर्मावलंबियों से भरा हुआ है और जम्मू का इलाका डोगरे ठाकुरों, ब्राह्मणों व अन्य जाति के हिन्दुओं से। ज़ाहिरन यह सब भी कश्मीर को भारत का अंग मानते हैं और भारत के साथ ही मिलकर रहना चाहते हैं। इन लोगों का कहना है कि अगर ईमानदारी से और पूरी मेहनत से सर्वेक्षण किया जाए तो यह साफ हो जायेगा कि अलगाववादी मानसिकता के लोग केवल श्रीनगर घाटी में हैं और मुट्ठीभर हैं। इनका दावा है कि आतंकवाद के नाम पर गुण्डे और मवालियों के सहारे जनता के मन में डर पैदा करके यह लोग पूरी दुनिया के मीडिया पर छाये हुए हैं। सब जगह इनके ही बयान छापे और दिखाये जाते हैं। इसलिए एक ऐसी तस्वीर सामने आती है मानो पूरा जम्मू-कश्मीर भारत के खिलाफ बगावत करने को तैयार है। जबकि असलियत बिल्कुल उल्टी है। ये सब लोग प्रशासनिक भ्रष्टाचार से नाराज हैं। कश्मीर की राजनीति में लगातार हावी रहे अब्दुल्ला परिवार और मुफ्ती परिवार को भी पसन्द नहीं करते और स्थानीय राजनीति को बढ़ावा देने के पक्षधर हैं। पर ये अलगाववादियों और आतंकवादियों के साथ कतई नहीं हैं।
कश्मीर के राजौरी क्षेत्र से राजस्थान आकर वहाँ के दौसा संसदीय क्षेत्र में स्वतंत्र उम्मीदवार के रूप में चुनाव लड़ने वाले गूजर नेता कमर रब्बानी को इस चुनाव में तीन लाख वोट मिले। श्री रब्बानी का कहना है कि, ‘‘दौसा के गूजर, चाहे हिन्दु हों या मुसलमान, हमें अपना मानते हैं। इसीलिए मुझ जैसे कश्मीरी को उन्होंने तीन लाख वोट दिए। हम बाकी हिन्दुस्तान के गूजरों के साथ हैं, घाटी के अलगाववादियों के साथ नहीं।’’
कश्मीर के विभिन्न क्षेत्रों के लोगों से बात करने पर एक सुझाव यह भी सामने आया कि अगर केन्द्र सरकार कश्मीर में राष्ट्रपति शासन लागू कर दे और छः महीने बढि़या शासन करने के बाद फिर चुनाव करवाए तब उसे ज़मीनी हकीकत का पता चलेगा। हाँ उसे इस लोभ से बचना होगा कि वो अपना हाथ नेशनल कांफ्रेस या पी.डी.पी. जैसे किसी भी दल की पीठ पर न रखे। घाटी के हर इलाके के लोगों को अपनी मर्जी का और अपने इलाके का नेता चुनने की खुली आज़ादी हो। वोट बेखौफ डालने का इंतजाम हो। तो कश्मीर में एक अलग ही निज़ाम कायम होगा।