होलैंड में, योरोप में सबसे ज्यादा साइकिल है. वहां के मंत्री, अफसर और पैसेवाले भी साइकिल को कार या स्कूटर मोटरसाइकिल से ज्यादा पसंद करते हैं. देश में हर सड़क पर साइकिल चलाने की पट्टी अलग बनी हुई है. साइकिल को ट्रेनों में रख कर ले जाने के लिए हर कोच में एक एक दरवाजा अलग होता है जिस पर साइकिल बनी होती है. मतलब यह की आप अपने घर से साइकिल पर निकलें, स्टेशन जाएं, टिकट खरीदें और साइकिल लेकर ट्रेन पर चढ़ जाएं. जब अपने गंतव्य पर उतरें तो स्टेशन से बाहर आते ही साइकिल पर चल दें. हैं न किफ़ायत और फायदे की बात. वहां की सरकार ने कारों पर ऐसे टैक्स लगा रखे हैं की ज्यादातर लोग कार खरीदने से बचें. पर हमारी सरकारों ने आज तक इस बढ़िया उदाहरण को अपनाने की कोई चेष्टा नहीं की है. नतीजतन आज देश की हर सड़क पर ट्रेफिक जाम होना आम बात है. पेट्रोल के धुएँ से बढता प्रदूषण हमारी सबसे बड़ी समस्या बन गया है. पेट्रोल के बड़ते दामों से हमारी अर्थव्यवस्था पर विपरीत प्रभाव पड़ रहा है. हम निकम्मे और आलसी होते जा रहे हैं. मैं देखता हूँ की गांव के हट्टे कट्टे नौ जवान जो पहले कई किलोमीटर पैदल चलना शान समझते थे, वो आज गांव की गलियों में मोटरसाइकिल दौड़ाना शान समझते हैं. यह आत्मघाती प्रवृत्ति हैं.
होलैंड तो योरोप का वह देश है जिसने अपने औपनिवेशिक साम्राज्य स्थापित किये. खूब धन कमाया. वहां थोड़े लोग हैं. काफी सम्पन्नता है. पर भारत की गरीब जनता और भारत के सीमित संसाधनों पर बढता दबाव हमें इस बात की आजादी नहीं देता की हम पेट्रोलियम आधारित वाहनों को बढने की इस कदर छूट दे दें की सारा देश ही बावला हो जाये. मैं पिछले तीन हफ़्तों से योरोप का भ्रमण कर रहा हूँ. हर शहर में खूब पैदल चलता हूँ. हर शहर में किराय पर साइकिल लेता हूँ और खूब घूमता हूँ. इतना मज़ा आ रहा है साइकिल चलाने में की मुझे लगा की आप सभी सुधि पाठकों का ध्यान इस खास उपलब्धि ओर आकर्षित करूँ. ऐसा नहीं है की यह मेरे लिए नई जानकारी है, गत तीस वर्षों में कई बार विदेश यात्रा पर यह दृश्य देखा. पर होलैंड पहली बार गया तो वहाँ के साइकिल प्रेम ने बहुत प्रभावित किया. पुरानी पीढ़ी के लोगों को याद होगा की ब्रिटिश साम्राज्य के ताकतवर प्रधानमंत्री चर्चिल भी साइकिल चला कर बाजार जाया करते थे.
हमारे देश में जब साइकिल आयी थी तो एकदम बहुत लोकप्रिय हो गई. यहाँ तक की शादी में दुल्हिन विदा करने की शर्त दहेज में साइकिल की मांग के साथ जुड़ गई. बहुत कम लोगों को पता होगा की देश के अति महत्वपूर्ण पद पर बैठ चुके एक व्यक्ति ने भी भोपाल में अपनी शादी के दौरान बिना साइकिल दहेज में लिए, विदाई न करने की जिद पकड़ ली थी. रात में ही साइकिल कसवाई गई और तब बारात विदा हुई. कुल मिलकर बात इतनी सी है की हमारे देश की आर्थिक – सामाजिक स्तिथि को देखते हुए साइकिल हर दृष्टि से वरदान है. पर आज हम इसे गरीबों और मजदूरों का वाहन मान कर इसकी उपेक्षा कर रहे हैं. यह हमारे हित में नहीं. योरोप और अमरीका के छात्रों में साइकिल बहुत लोकप्रिय है. हर कैम्पस पर विद्यार्थी व शिक्षक साइकिल ही चलाते नज़र आते हैं. जबकि भारतीय शिक्षा संस्थानों में अपने परिसर के भीतर पेट्रोलियम आधारित निजी वाहनों के चलाने पर तो शिक्षा मंत्री कपिल सिबल रोक लगा ही सकते हैं. इससे कुछ उदाहरण सामने आएगा.
हमारे देश के पर्यावरण प्रेमीयों ने भी साइकिल के प्रति अपनी समझ विकसित नहीं की है. वे सब पश्चिम की इस नियामत को अनदेखा कर बैठे हैं. क्यूंकि उनके जीवन में साइकिल कहीं दिखाई नहीं देती. मुझे लगता है की समय आ गया है की जब देश में ‘साइकिल चलाओ’ अभियान की शुरुआत होनी चाहिए. सांसदों, विधायकों की दर्जनों प्रशंसकों से भरी गाड़ियों की जगह साइकिल की टोली जब संसद और विधान सभा पहुंचेगी तो नजारा कुछ और ही होगा. सुरक्षा के कारणों को अनदेखा किये बिना राहुल गाँधी को इस दिशा में पहल करनी चाहिए. उन्हें चाहिए की राजनीति में अश्लीलता की हद तक बड गयी पेट्रोल व् डीजल आधारित वाहनों की भीड़ की जगह उनके कार्यकर्ता साइकिल का प्रयोग गर्व से हर दिन करें. दिखावे और फोटो खिचवाने के ढोंग के लिए नहीं. फिर वे दूसरे दलों को भे मजबूर कर सकते हैं. क्यूंकि यह साफ़ होगा की जिस दल के कार्यकर्ताओं पर जितने ज्यादा पेट्रोलियम आधारित वाहन है वह उतना ही ज्यादा काला धन खर्च कर रहा है. मतलब यह की वह दल ज्यादा भ्रष्ट है.
पर्यावरण की चेतना टीवी पर रोजाना देने वाले टीवी चैनलों को भी आत्मविश्लेषण करना चाहिए की वे खुद अपने दैनिक जीवन में पर्यावरण पर कितना बोझ दाल रहे हैं. जब तक हमारी कथनी और करनी एक नहीं होगी तो हम किसी को भी प्रभावित नहीं कर पाएंगे. अपने पर्यावरण को भी नहीं बचा पाएंगे. इसलिए समय की मांग है की हमारे देश के साधन संपन्न लोग साइकिल की ओर चलें.