1995 में भारत सरकार ने विकलांगों को शिक्षा में समान अवसर देने के मकसद से एक कानून बनाया। जिसके तहत हर विकलांग के लिए शिक्षा प्राप्त करना उसका मूलभूत अधिकार बन गया। सर्व शिक्षा अभियान के तहत स्कूलों को निर्देश जारी किये गये कि वे ऐसे सभी बच्चों के पंजीकरण कर लें। दिल्ली में जनवरी 2010 में एक अभियान चलाकर स्कूलों में विकलांगों के पंजीकरण कराये गये। सरकार की इस पहल का बहुत स्वागत हुआ। पंजीकरण के लिए विद्यालयों में काफी बच्चे आये। स्वयंसेवी संस्थाओं ने भी इस अभियान में बढ़-चढ़ कर भाग लिया और उनकी जानकारी में जितने भी विकलांग बच्चे थे उन सबका पंजीकरण करवा दिया।
अब पहली अप्रैल से इन बच्चों के बकायदा दाखिले किये जायेंगे। पर इस नई उत्पन्न स्थिति के लिए यह स्कूल तैयार नहीं है। इसलिए हर ओर अफरा तफरी का माहौल है। विकलांगों के लिए हर स्कूल में जगह-जगह लोहे की रेलिंग, रैम्प व विशेष टा¡यलेट होना जरूरी है। काफी स्कूलों ने दावा किया है कि उनके यहां यह व्यवस्था की जा चुकी है। जबकि हकीकत यह है कि इन स्कूलों के इन विशेष टा¡यलटों में टूटा फर्नीचर या फाइलें भरी हुई हैं। इन्हें गोदाम बना दिया है। रेलिंग या तो है ही नहीं या टूटी पड़ी हैं। रैम्प बनाने वालों ने यह नहीं सोचा कि इन रैम्पों पर विकलांग बच्चे चलेंगे। इतनी बेहूदा रैम्प हैं कि उन पर चलने से दुर्घटना होने की संभावना ज्यादा है। वैसे भी इन रैम्पों पर स्कूल के कर्मचारी और छात्र दिनभर स्कूटर या साइकिल उतारते रहते हैं।
विकलांग छात्रों को शिक्षा देने के लिए शिक्षकों को जिस विशेष प्रशिक्षण की आवश्यकता होती है उसकी कोई व्यवस्था आज तक नहीं की गयी है। बिना इस प्रशिक्षण के यह पारंपरिक शिक्षक इन बच्चों से कैसा व्यवहार करेंगे? उनकी समस्याओं को कैसे समझेंगे? उनकी सीमाओं में रहते हुए उनके सीखने की क्षमता को कैसे बढ़ायेंगे? यह कुछ ऐसे सवाल हैं जिनकी चिंता मानव संसाधन विकास मंत्रालय ने नहीं की है। जाहिर है कि जहां इन शिक्षकों में इस नई स्थिति को लेकर असमंजस और तनाव है वहीं विकलांग बच्चों के माता-पिता भी कम चिंतित नहीं। उन्हें डर है कि संवेदनशीलता के अभाव में उनके बच्चों के साथ शिक्षक और सहपाठी ऐसा आक्रामक या व्यंगात्मक व्यवहार कर सकते है जिससे बच्चों के मनोविज्ञान पर विपरीत प्रभाव पड़ जाए। शिक्षा पाने की बजाय उसका मन टूट जाए और उसका जीवन और भी जटिल हो जाए।
इन्दिरा गांधी राष्ट्रीय मुक्त विद्यालय को निर्देश दिये गये हैं कि वह 90-90 दिन के विशेष पाठ्यक्रम चलाकर सभी शिक्षकों को विकलांग बच्चों के साथ उचित व्यवहार करने का प्रशिक्षण दें। यह प्रशिक्षण महज खानापूर्ति से ज्यादा कुछ नहीं है। इसके अलावा इस नीति में यह भी प्रावधान है कि ‘होम ऐजुकेशन’ दी जाए। यानी शिक्षक विकलांग छात्रों के घर जाकर भी उन्हें शिक्षा दें। आज की भाग दौड़ की जिंदगी में ऐसे कितने शिक्षक हैं जो सहानुभूतिपूर्वक विकलांग बच्चों की समस्याओं को समझे और उनके घर जाकर भी शिक्षा देने को तैयार हों?
वैसे भी सरकारी स्कूलों में हर कक्षा में 80-80 बच्चे हैं। कहीं-कहीं तो सवा सौ बच्चे भी एक कक्षा में भर्ती किये गये हैं। सर्व शिक्षा अभियान में 14 वर्ष तक के हर बच्चे को शिक्षा दिये जाने की नीति बनायी गयी है। नतीजतन गांव, गली, मौहोल्ले के हर बच्चे को ढूंढ-ढूंढ कर दाखिल किया जा रहा है। भेड़-बकरी की तरह बच्चे भर दिये गये हैं। न तो जगह है और न ही फर्नीचर। ऐसे में एक शिक्षक जो ऐसी कक्षा में जायेगा वह कितनी देर में तो हाजिरी लेगा? क्या पढ़ायेगा? कैसे जानेगा कि बच्चे समझे या नहीं? कैसे बच्चे परीक्षा में अच्छा कर पायेंगे? नहीं कर पायेंगे तो शिक्षक की खिंचायी नहीं की जायेगी क्या? फिर इस बेचारे शिक्षक से कैसे उम्मीद की जाए की वह विकलांगों की ओर विशेष ध्यान देगा?
इतना ही नहीं स्कूलों में शिक्षकों का भारी आभाव है। भर्तियां हुई ही नहीं हेैं। अनेक स्कूल तो बिना प्राचार्यों के ही चल रहे हैं। जिस स्कूल में प्राचार्य ही नहीं उसके प्रशासन की क्या दशा होगी? इसकी चिंता शायद सर्व शिक्षा अभियान चलाने वालों को नहीं है।
आजादी के बाद से आज तक प्राथमिक शिक्षा को लेकर नीतियां तो बहुत बनीं। बजट भी बहुत आवंटित किये गये। घोषणाएं भी बहुत हुईं। पर धरातल पर कुछ भी नहीं बदला है। हर नया शिक्षा मंत्री नई नीतियां और नये दावों का ढिंढोरा पीटता है। पर बदलता कुछ नहीं। साधन सम्पन्न लोग ही अपने बच्चों को ठीक शिक्षा दिलवा पाते हैं। बाकी के करोड़ों बच्चे तो भगवान भरोसे जीवन काट देते हैं। फिर वे नक्सलवादी, आतंकवादी या अपराधी बनें तो दोष किसका है। विकलांग बच्चे तो यह भी नहीं कर सकते। आवश्यकता है ईमानदार सोच और व्यवहारिक नीतियों की। नारों से समस्याओं के हल नहीं निकला करते।