Sunday, October 4, 2009

हिन्दी चीनी भाई-भाई!

Rajasthan Patrika 4 Oct 2009
47 साल बाद एक बार फिर हिन्दी चीनी भाई-भाईका नारा लगने लगा है। लेकिन राजनैतिक हलकों में नहीं, व्यापारिक हलकों में। ये नारा पं0 नेहरू के पंचशील सिद्धांतके दौर में लगा था। पर 1962 के चीनी हमले ने भारत और पं0 नेहरू दोनों को हिला दिया था। पारस्परिक विश्वास का रिश्ता टूट गया था। एक बार फिर राजीव गाँधी ने चीन से सेतु बंधन का प्रयास किया। ये सारे प्रयास राजनैतिक स्तर पर थे। उदारीकरण के दौर में जब सभी देशों ने अपने दरवाजे खोले तो दुनियाभर में व्यापारिक गतिविधियों में उछाल आया। भारत का बाजार चीनी माल से पट गया। दीवाली के पटाखे और होली के रंग ही नहीं कम्यूनिस्ट चाइना ने हिंदू देवी देवताओं की मूर्तियाँ तक बनाकर भारत भेजनी शुरू कर दीं।

उधर पश्चिमी देश डब्ल्यू.टी.ओ. (विश्व व्यापार संगठन) के मंच पर विकासशील अर्थव्यवस्थाओं पर दबाब बनाने लगे जिससे कि अन्र्तराष्ट्रीय व्यापार को उनके हक में मोड़ा जा सके। उनकी नाजायज शर्तों से सभी विकासशील देश यहाँ तक कि चीन, कोरिया, ताईवान तक बैचेन थे। पर किसी की दाल नहीं गल रही थी। तब इन सब देशों का नेतृत्व संभाला भारत के तत्कालीन वाणिज्य मंत्री कमलनाथ ने। दोहा के सम्मेलन में कमलनाथ ने जमकर विकासशील देशों की पैरवी की और डब्ल्यू.टी.ओ. अपने मकसद में कामयाब नहीं हो सका। जहाँ देश में कमलनाथ की पीठ ठोकी गयी, वहीं वे पश्चिमी देशों की आँख में किरकिरी बन गये। जानकारों का तो यह तक कहना है कि दोबारा सत्ता में आयी यू.पी.ए. सरकार में कमलनाथ से वाणिज्य मंत्रालय इन्हीं अन्र्तराष्ट्रीय दबाबों के तहत छीना गया। एक बार फिर नये वाणिज्य मंत्री आनंद शर्मा की पहल पर डब्ल्यू.टी.ओ. की वार्ता के दौर शुरू हो चुके हैं। 2010 तक गुत्थी सुलझाने का लक्ष्य रखा गया है।

इस बीच एक रोचक प्रवृत्ति विकसित हुयी है। ऐशियाई देशों में पारस्परिक समझोतों की होड़ लग गयी है। इस वक्त भी लगभग 62 समझौतों के लिए वार्ताऐं अन्तिम चरण में पहुँच रही हैं। जहाँ 1991 में ऐसे कुल 6 समझौते हुए थे, वहीं 1999 में 42 समझौते हुए और इस वर्ष जून तक ही इनकी संख्या 166 पहुँच चुकी है। चाहे वो दो चीन के बीच के समझोते हों या भारत और चीन के बीच या आसियान के देशों के बीच या फिर दक्षिण ऐशियाई देशों के बीच। इन देशों को यह समझ में आ रहा है कि जब कच्चा माल, तकनीकि, कुशल श्रमिक व प्रबन्धकीय योग्यता इन्हीं देशों में मौजूद है तो ये सम्पन्न माने जाने वाले पश्चिमी देशों के जाल में क्यों फंसे? क्यों न आपसी समझौते करके अपने माल को यहीं तैयार करें और जितना बिक सके यहीं बेचें और शेष को बाकी दुनिया के लिए निर्यात करें। वैसे भी अब यह स्पष्ट हो चुका है कि पश्चिमी देशों की आर्थिक वृद्धि की दर बढ़ने वाली नहीं बल्कि घटने की तरफ है। दूसरी तरफ ऐशियाई अर्थव्यवस्थायें अब उठान पर हैं और अर्थशास्त्रियों का अनुमान है कि अगले दशक में ऐशियाई अर्थव्यवस्थायें विशेषकर भारत और चीन बहुत तेजी से आगे बढ़ेगें। ऐसे में यदि ये दोनों देश पारस्परिक आर्थिक सम्बन्धों को सुदृढ़ बनाते हैं तो उससे दोनों को ही भारी लाभ होगा। पश्चिमी देश इसी बात से चितिंत हैं। वे नहीं चाहते कि हिन्दी चीनी भाई-भाईका नारा एशिया में फिर से गूंजे। इसलिए उनकी भरसक कोशिश है कि वे इन दोनों देशों के बीच किसी न किसी तरह खाई पैदा करते रहें। हो सके तो दोनों को भिड़ाते रहें। यह भी न हो तो कम से कम चीन को इस तरह अकेला छोड़ दें जिससे उसकी पश्चिमी बाजार पर पकड़ समाप्त हो जाये। जिससे उसकी अर्थव्यवस्था लड़खड़ा जाये। चीन इस बात को समझ रहा है। इसीलिए खुले हृदय से एशियाई देशों के साथ लगातार व्यापारिक संधियाँ करता जा रहा है।

इन सन्धियों की कुछ सीमाऐं भी हैं। अन्र्तराष्ट्रीय व्यापार के विशेषज्ञों का मानना है कि इन समझौतों के कारण नियमों और शर्तों का इतना सघन ताना-बाना बुन जाता है कि अन्र्तराष्ट्रीय व्यापार का मार्ग सुगम होने की बजाए और भी जटिल हो जाता है। इसलिए वे एशियाई देशों को ऐसे क्षेत्रीय समझौतों के खतरों के बारे में आगाह करते हैं। पर वे जानते हैं कि इन एशियाई देशों में आर्थिक विशेषज्ञों का स्तर किसी से कम नहीं। बल्कि कई मामलों में तो पश्चिमी देशों के विशेषज्ञों से बेहतर ही है। क्योंकि इनके पास सैद्धान्तिक ज्ञान के अलावा जमीनी अनुभव भी काफी है। जो इन्हें आर्थिक घटनाक्रम का ज्यादा सटीक और सार्थक विश्लेषण करने में मदद करता है। जबकि दूसरी ओर पश्चिम के अर्थशास्त्री पिछले वर्ष आयी भारी मंदी का कोई पूर्वानुमान नहीं लगा सके।

कुल मिलाकर यह स्पष्ट है कि डब्ल्यू.टी.ओ. अपने मकसद में कामयाब नहीं हो पायेगा। भारत के मौजूद वाणिज्य मंत्री को उपरोक्त तथ्यों को ध्यान में रखना होगा। अगर वे पश्चिम की वाहवाही लूटने के लिए डब्ल्यू.टी.ओ. में पूर्व वाणिज्य मंत्री से पलट व्यवहार करते हैं तो न सिर्फ राष्ट्र का अहित होगा बल्कि वे स्वंय भी देश में भारी आलोचना के शिकार बनेंगे। अब देखना यह है कि भारत किस ओर करवट लेता है।

Sunday, September 27, 2009

दून स्कूल से नक्सलवाद तक


दिल्ली पुलिस की सतर्कता से पकड़े गये कोबाद घाँदी पर घोर माओवादी हिंसक गतिविधियों को संचालित करने के आरोप हैं। कोबाद घाँदी मुम्बई के धनी परिवार में जन्मे, देहरादून के धनाढ्यों के दून स्कूल, मुम्बई के प्रतिष्ठित जेवियर्स का¡लेज और विदेशों में शिक्षा पायी। पर चमक-दमक की जिंदगी से दूर नागपुर में मजदूरों के साथ उनका जैसा जीवन बिताया और आरोप है कि माओवादी विचारधारा को बढ़ाते हुए कई खतरनाक कारनामों को अंजाम दिया। आज से 15 वर्ष  पहले इसी तरह का एक जोड़ा अनूप और सुधा अक्सर मेरे पास आते थे और मैं भी उनके निमन्त्रण पर कई बार उनके कार्यक्षेत्र छत्तीसगढ़ में जनसभायें सम्बोधित करने गया। अनूप वरिष्ठ पुलिस अधिकारी के बेटे और दिल्ली के प्रतिष्ठित सेंट स्टीफन्स का¡लेज के छात्र रहे थे। जबकि सुधा मशहूर अर्थशास्त्री कृष्णा भरद्वाज की बेटी हैं। सुधा ने पढ़ाई आई़़ आई़ टी और लंदन स्कूल आ¡फ इका¡नोमिक्स से की। जब मैं भिलई में उनकी झौंपड़ी में गया तो देखकर दंग रह गया कि खान मजदूरों की बस्ती में रहने वाले इस युवा युगल की झौंपड़ी में दो-चार जोड़ी कपड़े, एल्यूमिनियम के बर्तन, एक चारपाई और मिट्टी के तेल का स्टोव कुल जमा इतने ही साधन थे जिसमें वे जीवन यापन कर रहे थे। घोर वामपंथी विचारधारा का यह युवा अनेक बार पुलिस की दबिश का शिकार भी होता था। उनका अपराध था मजदूरों को हक दिलाने की लड़ाई में सक्रिय भूमिका निभाना।

गृहमंत्री पी.चिदम्बरम कोबाद घाँदी की गिरफ्तारी पर बहुत प्रसन्न हुए और उन्होंने पुलिस को इसके लिए बधाई दी। उन्होंने नक्सलवाद से निपटने के लिए हवाई हमलों की मदद और पूरी फौजी मदद देने का आश्वासन पुलिसकर्मियों को दिया। नक्सलवादियों की विचारधारा वाकई इतनी खतरनाक है कि धनी लोगों और सत्ताधीशों को ही नहीं, आम शांतिप्रिय लोगों को भी डरा देती है। पर सोचने वाली बात ये है कि कोबाद घाँदी व अनूप और सुधा जैसे हजारों सम्पन्न और ऊँची पढ़ाई पढ़े हुये युवा इस ओर क्यों झुक जाते हैं? उत्तर सरल है। देश के करोड़ों लोग जिस बदहाली का जीवन जीते हैं। जिन अमानवीय दशाओं में काम करते हैं। जिस तरह ठेकेदार इनका शोषण करते हैं। जिस तरह पुलिस और कानून इनकी घोर उपेक्षा करता है। उसे ये संवेदनशील युवा बर्दाश्त नहीं कर पाते। इनके मन में सवाल उठते हैं कि हमें अच्छी जिंदगी जीने का क्या हक है जब हमारे देश के करोड़ों लोग भुखमरी में मर मर कर जी रहे हैं। जिस तरह भगवान बुद्ध राजपाट छोड़कर फकीर बन गए, जिस तरह साठ के दशक में अमरीका के अरबपतियों के बेटे-बेटियाँ हिप्पीबन गए, उसी तरह सम्पन्नता से अरूचि हो जाना और फिर जीवन के नये अर्थ तलाशना कोई अटपटी बात नहीं है। हजारों साल से ऐसा होता आया है। फर्क इतना है कि नक्सलवाद व्यवस्था के विरूद्ध खूनी क्रांति की वकालत करता है। जाहिर है कि ऐसी क्रांति केवल मजदूरों के कंधे पर बन्दूक रखकर नहीं की जा सकती। क्रांति के सूत्रधारों को खुद भी बलिदान देना होता है। कोबाद घाँदी व अनूप और सुधा जैसे हजारों नौजवान ऐसी ही क्रांति का सपना देखते हैं। उसके लिए अपना जीवन होम कर देते हैं। सफल हों या न हों, यह अनेक दूसरे कारकों पर निर्भर करता है।

जहाँ तक इन नौजवानों के समर्पण, त्याग, निष्ठा और शहादत की भावना का सवाल है, उस पर कोई सन्देह नहीं कर सकता। जो सवाल इन्होंने उठाये हैं वे भी बहुत महत्वपूर्ण हैं। दरअसल ये नौजवान उन्हीं सवालों को उठा रहे हैं, जिन्हें हमारे संविधान के नीति-निर्देशक तत्वों ने इस लोकतंत्र का लक्ष्य माना है। यह विडम्बना है कि आज आजादी के 62 वर्ष बाद भी हम इन लक्ष्यों को प्राप्त नहीं कर पाये हैं। देश के करोड़ों बदहाल लोगों की जिंदगी सुधारने के लिए सरकारें दर्जनों महत्वाकांक्षी योजनाऐं बनाती आयी है। इन पर अरबों रूपये के आवण्टन किये गये हैं। पर जमीनी हकीकत कुछ और ही कहानी कहती है। कार्यपालिका के अलावा भी लोकतंत्र के बाकी तीन खम्बे अपनी अहमियत और स्वतंत्रता का ढिंढोरा पीटने के बावजूद इस देश के करोड़ों बदहाल लोगों को न तो न्याय दिला पाये हैं और न ही उनका हक। इसलिए नक्सलवाद जन्म लेता है।

गृहमंत्री का सोचना उचित है। अगर कुछ लोग कानून और व्यवस्था को गिरवी बना दें तो उनके साथ कड़े से कड़ा कदम उठाना ही होता है। माओवादी हिंसा जिस तेजी से देश में फैल रही है, वह स्वाभाविक रूप से सरकार की चिंता का विषय होना चाहिए। पर यहाँ एक महत्वपूर्ण प्रश्न खड़ा होता है, क्या माओवाद का यह विस्तार आत्मस्फूर्त है या इसे चीन के शासनतंत्र की परोक्ष मदद मिल रही है? खुफिया एजेंसियों का दावा है कि भारत में बढ़ता माओवाद चीन की विस्तावादी रणनीति का हिस्सा है। जो देश की आंतरिक सुरक्षा के लिए गम्भीर खतरा बन गया है। ऐसे में इन युवाओं को यह सोचना चाहिए कि वे किसके हाथों में खेल रहे हैं। अगर दावा यह किया जाये कि चीन सही मामलों में घोर साम्यवादी देश है तो यह ठीक नहीं होगा। जबसे चीन ने आर्थिक आदान-प्रदान के लिए अपने द्वार खोले हैं तबसे भारत से अनेक बड़े व्यापारी और उद्योग जगत के बड़े अफसर नियमित रूप से चीन जाने लगे हैं। बाहर की चमक-दमक को छोड़कर जब वे चीन के औद्योगिक नगरों में पहुँचते हैं तो वहाँ चीन के निवासियों की आर्थिक दुर्दशा देखकर दंग रह जाते हैं। बेचारों से बन्धुआ मजदूर की तरह रात-दिन कार्य कराया जाता है। लंच टाइम में उनके चावल का कटोरा और पानी सी दाल देखकर हलक सूख जाता है। हर जो चीज चमकती है उसको सोना नहीं कहते।रूस की क्रांति के बाद भी क्या रूस में सच्चा साम्यवाद आ सका? आ ही नहीं सकता, क्योंकि यह एक काल्पनिक आदर्श स्थिति है। धरातल की सच्चाई नहीं।

जरूरत इस बात की है कि चिदम्बरम जी के संवदेनशील अधिकारी इन माओवादी समूहों के नेताओं का बातचीत के रास्ते इनका दिमाग पलटने का प्रयास करें। इन्हें जो भी आश्वासन दिया जाये वह समय से पूरा किया जाये। व्यवस्था को लेकर इनकी शिकायतों पर गम्भीरता से ध्यान दिया जाये। ताकि इनके आक्रोश का ज्वालामुखी फटने न पाये। अगर हमारे देश के कर्णधार ईमानदारी से गरीब के मुद्दों पर ठोस कदम उठाना शुरू कर दें तो नक्सलवाद खुद ही निरर्थक बन जायेगा। पर फिलहाल तो यह बड़ी चुनौती है। जिससे जल्दी निपटना होगा वरना हालात बेकाबू होते जायेंगे। भारत आतंकवाद, पाकिस्तान, चीन से तो सीमाओं पर उलझा ही रहता है, अगर घरेलू स्थिति को माओवादी अशांत कर देंगे तो सरकार के लिए भारी मुश्किल पैदा हो जायेगी। माओवाद या नक्सलवाद से जुड़े लोग अपराधी नहीं हैं। वे व्यवस्था के द्वारा किये गये अपराध का प्रतिरोध कर रहे हैं। इसलिए उनसे निपटने के तरीके भी अलग होने चाहिए। मेरे जैसे अध्यात्म में रूचि रखने वाले लोग नक्सलवाद का कभी समर्थन नहीं कर सकते पर हम उनसे सिर्फ इसलिए घृणा नहीं करेंगे क्योंकि वे भी अपने जीवन में परमार्थ के लिए काफी बलिदान कर रहे हैं।

Sunday, September 13, 2009

राजस्थान कैसे बने हरित प्रदेश?


राजस्थान के मुख्यमंत्री राजस्थान को हरा-भरा बनाना चाहते हैं। रेगिस्तान और सूखे से घिरे राजस्थान के लिए यह अभियान संजीवनी बूटी की तरह सिद्ध हो सकता है बशर्ते इसकी योजना संजीदगी से बनाई जाए और इस अभियान के रास्ते में आने वाली रूकावटों को दूर किया जाए। यह निर्विवाद है कि पेड़ों से हमारे जीवन की रक्षा होती है। भू-जल स्तर ऊंचा होता है। वर्षा की मात्रा और निरंतरता बढ़ती है। वन्य उपज से रोजगार बढ़ता है। वन्य जीवन बढ़ता है। कुल मिलाकर खुशहाली आती है। अगर अशोक गहलोत अपने इस अभियान में सफल हो जाते हैं तो वे एक नया इतिहास रचेंगे। पर इसके लिए उन्हें कुछ क्रांतिकारी कदम उठाने पड़ेगें।

राजस्थान के भरतपुर जिले की डीग व कामा तहसील में भगवान श्रीकृष्ण की लीलाओं से जुड़े पर्वतों की श्रृखलायें हैं जिन पर गत कुछ वर्षां से भारी मात्रा में अवैध खनन चल रहा था। बरसाना के विरक्त संत रमेश बाबा की प्रेरणा से मानगढ़ के साधुओं, ब्रज रक्षक दल के स्वयं सेवकों, मीडिया, विधायकों व सांसदों के साझे प्रयास से एक लंबा संघर्ष चला। आखिर इस पूरे क्षेत्र को वन विभाग को सौंप दिया गया। पर चिंता की बात यह है कि इसके बावजूद यहां आज भी क्रेशर मशीनें हटी नहीं है। अवैध खनन कम हुआ है पर खत्म नहीं। साधू व स्थानीय जनता आज भी संघर्षरत है। पिछले दिनों ब्रज रक्षक दल के उपाध्यक्ष राधाकांत शास्त्री वनमंत्री रामलाल जाट से मिले थे। जिन्होंने इस दिशा में ठोस कार्यवाही करने का अश्वासन दिया है। उन्हें जानकर आश्चर्य हुआ कि ब्रज क्षेत्र से थोड़ा हटकर राजस्थान में ही पहाड़ी नामक गांव में ऐसे पहाड़ हैं जहां वैध खनन की अनुमति दी जा सकती है।

आवश्यकता है कि इन पर्वतों पर ही नहीं बल्कि पूरे राजस्थान में वृक्षारोपण के कार्य के लिए प्रतिष्ठित स्वयं सेवी संस्थाओं की मदद ली जाए। आज राजस्थान का हरित क्षेत्र मात्र 7 फीसदी है। जिसे श्री गहलोत 23 फीसदी तक ले जाना चाहते हैं। जबकि सरकारी आंकड़ों के अनुसार देश का औसत हरित क्षेत्र 21 फीसदी है। देश को स्वस्थ रहने के लिए उसके 33 फीसदी भू-भाग पर हरित पट्टी होनी चाहिए। चूंकि मैदानों में ज्यादा जगह बची नहीं। कब्जे हो गये या पट्टे काट दिये गये या फिर बढ़ती आबादी जंगल की जमीन लील गई। पहाड़ एक ऐसी जगह है जहां पेड़ यदि लगाये जाए और कुछ समय तक जल खाद और सुरक्षा मुहैया कराई जाए तो मात्र 4 वर्ष में एक पहाड़ हरा-भरा जंगल बन जाता है। गुजरात की स्वयं सेवी संस्था समस्त महाजन ने अपने जैन गुरू की प्रेरणा से पालिताना जिले में अपने ही साधनों से 84 हजार हेक्टेयर सूखे पर्वतों को हरा-भरा जंगल बना दिया है। यह संस्था पश्चिमी राजस्थान में भी कार्य कर रही है। इसी तरह अनेक अन्य प्रतिष्ठित स्वयं सेवी संथाएं हैं जो इस काम में अनुभव प्राप्त हैं और राजस्थान सरकार के साथ सहयोग कर सकती है।

इस क्रम में देहरादून का उदाहरण काफी प्रेरणास्पद है। दो दशक पहले तक यहां के पहाड़ों पर चूना पत्थर का इतना बड़ा खनन हो रहा था कि सारी हरियाली नष्ट हो गई। देहरादून शहर के ऊपर सफेद प्रदूषक धूल की पर्त हमेशा जमी रहती थी। आम जनता में टीबी फैल रही थी। एक जनहित याचिका के जवाब में सर्वोच्च न्यायालय ने यहां खनन पर पाबंदी लगाई। फिर फौज से निकले अधिकारियों और जवानों की संस्था ईको टा¡स्क फोर्स को इन पहाड़ांे को हरा-भरा बनाने का जिम्मा दिया गया। इस फोर्स ने रात-दिन मेहनत से काम किया और कुछ ही समय में इस वीरान खनन क्षेत्र को सघन वन बना दिया। आज यहां फिर से हाथी जैसे बड़े-बड़े जंगली जानवर मस्ती में विचरण करते हैं। सैलानी पूरे वर्ष इन वनों का आनंद लेने आते हैं। जब यह देहरादून में हो सकता है तो राजस्थान में क्यों नहीं?

जमीन को हरा-भरा बनाने के लिए मिट्टी की जांच और उपयुक्त पौधों का चयन करना होगा। साथ ही ऐसे पौधे लगाने होंगे जिन्हें कम पानी की आवश्यकता हो और जिनके फलों, पत्तियों व छाल से औषधियां बन सके। मुश्किल यह आती है कि मुख्यमंत्री की चाहे कितनी भी सद्इच्छा क्यों न हों यदि वन विभाग के अधिकारी नकारात्मक, भ्रष्ठ या आलसी रवैया लेकर बैठे रहेंगे तो उत्साही संस्थाएं हताश होकर लौट जायेंगी। मुख्यमंत्री को यह सुनिश्चित करना होगा कि जो भी सामाजिक संस्था, स्वयं सेवी संस्था, औद्यौगिक घराना, शिक्षा संस्थान या जागरूक नागरिक अपने इलाके को अगर हरा-भरा करने के लिए आगे आते हैं तो उन्हें धक्के न खाने पड़े। उनके काम में रोड़े न अटकाये जाएं। उनकी समस्याएं प्राथमिकता से हल की जाए। इससे एक फिजा़ बनेगी। हरित प्रदेश का अभियान एक आन्दोलन का रूप ले लेगा। पिछले दो दशकों में बढ़ते पानी के संकट, घटते हरित क्षेत्र और बढ़ते प्रदूषण से त्रस्त होकर अब आम लोग भी पर्यावरण की रक्षा के महत्व को समझने लगे हैं।

अपने भाषणों व संदेशों के माध्यम से मुख्यमंत्री को प्रदेश की जनता को इस काम के लिए सक्रिय करना होगा। दिल्ली, आन्ध्र प्रदेश, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्रियों ने लगातार जनता से सीधा संवाद कायम कर ऐसी हवा बनाई कि प्रशासन भी जिम्मेदारी से व्यवहार करने लगा। स्वयं सेवी संस्थाओं की भूमिका को इन मुख्यमंत्रियों ने काफी महत्व दिया। इससे सत्ता निरंकुश होने से बच गई और इन संगठनों व संस्थाओं ने निगेबान का काम किया। जिसका लाभ इन नेताओं को मिला जो दुबारा शानदार तरीके से जीतकर आए। सूखे इलाके को हरा बनाना सबाब का ही नहीं फायदे का भी काम है। इसलिए कोई किसी मज़हब या जात का हो इस काम में पीछे नहीं हटेगा। बशर्तें कि राज्य सरकार उसको प्रेरित कर सके।

Sunday, September 6, 2009

‘पावर’ के मामले में नितीश कुमार पिछड़े


बिहार के मुख्यमंत्री नितीश कुमार पिछले हफ्ते जब दिल्ली में रेल मंत्री से मिलने आये तो ममता बनर्जी ने चार मंजिल नीचे आकर हा¡ल में उनकी आगवानी की। किसी केन्द्रीय मंत्री का राज्य के मुख्यमंत्री का इस तरह स्वागत करना सामान्य बात नहीं है। चुनाव के दौरान भी इंका के युवा नेता राहुल गाँधी ने नितीश कुमार के कामों की तारीफ करके राजनैतिक परिपक्वता का परिचय दिया। विरोधी दल के नेता का अच्छा काम सराहे जाने की परम्परा अभी भारतीय लोकतंत्र में स्थापित नहीं हो पायी है। अन्तर्राष्ट्रीय जगत में अपनी सूझबूझ से माइक्रोसाफ्ट को दुनिया की सबसे बड़ी कम्पनी बनाने वाले बिल गेट्स भी नितीश कुमार के मुरीद हैं और उनसे कई बार मुलाकात कर चुके हैं। यह सम्मान है नितीश के काम करने के तरीके का। सादगी, सच्चाई, ईमानदारी, भलमनसाहत और आम आदमी के दर्द को समझते हुए सरकार चलाना, नितीश के कुछ ऐसे गुण हैं जिन्होंने उन्हें बहुत जल्दी बिहार का नक्शा बदलने में सफल कर दिया है। पर पा¡वरके मामले में नितीश पिछड़ गये हैं। इस बिन्दु पर बाद में आगे आयेंगे, पहले कुछ और बिन्दुओं पर नजर डाल लें।

विपक्षियों का आरोप था कि बिहार की सत्ता जंगलराज से चल रही है। व्यापारी और उद्योगपति बड़ी तादाद में बिहार से पलायन कर रहे थे। लोगों का कहना था कि उनका जीवन वहाँ सुरक्षित नहीं था। अपहरण की घटनाऐं आम थीं। विकास के नाम पर बिहार में औद्योगिकरण तो दूर, बुनियादी ढांचे तक का अभाव था। परन्तु पिछले साढ़े तीन साल में नितीश कुमार ने बिहार को अभय प्रदान की है। कानून का राज कायम किया है। सड़कों का जाल बिछा दिया है। कृषि के क्षेत्र में अनूठे प्रयोग करके किसानों की हालत सुधारने का प्रयास किया है। प्रशासन को जिम्मेदार बनाने की कोशिश की है। अपने उदाहरण से उच्चस्तरीय भ्रष्टाचार पर लगाम कसी है। ग्रामीण रोजगार की दिशा में भी अच्छा काम किया है। पर पावरके मामले में नितीश कुमार बहुत पिछड़ गये हैं।

पावरयानि बिजली। पटना को छोड़ दे तो बिहार के शहरों, कस्बों और गाँवों में बिजली की भारी समस्या है। कभी-कभी तो तीन-तीन दिन तक बिजली नहीं आती। बिजली औद्योगिक विकास की रीढ़ होती है। जब बिजली ही नहीं होगी तो औद्योगिक उत्पादन कैसे होगा? रोजगार कैसे बढ़ेगा? खुशहाली कैसे आयेगी? किसान की जरूरतें कैसे पूरी होंगी? ऐसे सवाल बिहार के लोग आज नितीश कुमार के शासन से पूछते हैं।

दरअसल बिहार की दशा इतनी खराब थी कि नितीश कुमार को उसे ढर्रे पर लाने में ही काफी वक्त लग गया। अब उनके पास अगले चुनाव से पहले काफी कम समय बचा है। ऐसा नहीं है कि उन्हें चुनौती देने वाला कोई मजबूत दल सामने खड़ा हो। पर यह भी सही है कि इस सवाल पर नितीश को मुश्किल का सामना करना पड़ सकता है। वे चाहते तो छोटे-छोटे शहरों में गैस पा¡वर प्लांट लगाकर बिजली की आपूर्ति सुनिश्चित कर सकते थे। बड़े पाॅवर प्लांट्स के लिए रेल मंत्रालय से बात करके कोयला खानों और पा¡वर प्लांटों के बीच रेल कोल लिंकेज  करवा सकते थे। जिससे इन प्लांटों को नियमित कोयले की आपूर्ति होती और बिहार की बिजली उत्पादन क्षमता बढ़ पाती। हो सकता है कि विरोधी दल का मुख्यमंत्री होने के नाते केन्द्र सरकार उनके साथ सहयोग न करती। पर चूंकि कोयले से लदी सभी मालगाड़ी बिहार से होकर जाती हैं, अगर अपने दल के कार्यकर्ताओं को छिपा इशारा करके नितीश इन गाडि़यों को रूकवा लेते तो देशभर में हल्ला मच जाता और सरकार को उनकी मांग माननी पड़ती। पर लगता ये है कि इस ओर उनका ध्यान ही नहीं गया। ऐसे बयान या प्रयास नहीं देखे गये जब नितीश कुमार ने बिहार की बिजली समस्या को दूर करने के कोई ठोस कदम उठाये हों।

अभी भी कोई बहुत समय नहीं निकला है। देश-विदेश में ऐसी तमाम कम्पनियाँ हैं जो छोटे, मझले और बड़े पाॅवर प्लांट भारत में लगाने को अधीर हैं। यहाँ तक कि क्लीन एनर्जीवाले प्लांट लगाने वाली कम्पनियाँ भी हैं जो पर्यावरण के सवाल को ध्यान में रखकर बिजली का उत्पादन करती हैं। ऐसी कम्पनियों को बुलाकर बिहार के कस्बों और शहरों में छोटे-छोटे से पाॅवर प्लांट लगाये जा सकते हैं। आज जब बिजली जाती है तो एक शहर में सैंकड़ांे जेनरेटर चल पड़ते हैं। उससे कितना प्रदूषण होता है? कितना शोर मचता है और पैसे की कितनी बर्बादी होती है? इससे कहीं कम लागत में ये लोग बिजली प्राप्त कर सकते हैं।

छोटे पा¡वर प्लांट लगाने में छह से आठ महीने का समय लगता है। लागत भी ज्यादा नहीं आती और तुरन्त उत्पादन शुरू हो जाता है। इससे एक लाभ और होगा कि बिहार के बड़े उद्योगों की मांग के अनुसार बिजली उपलब्ध हो पायेगी क्योंकि छोटे और मझले उद्योगो के लिए बड़े पा¡वर प्लांटों की बिजली को खींचना नहीं पड़ेगा। इससे औद्योगिक और आर्थिक प्रगति में गति आयेगी। आज बिजली की कमी के कारण भागलपुर के जुलाहे परेशान हैं। उनके कुटीर उद्योग बन्द होने की कगार पर हैं। ऐसे ही प्रदेश के अन्य हिस्सों में भी बिजली का संकट बेरोजगारी का कारण बन रहा है। जिसपर नितीश कुमार को प्राथमिकता से ध्यान देना चाहिए।

पानी और बिजली दो ऐसी जरूरतs हैं जो जनता को बहुत जल्दी परेशान कर देती हैं। जिनकी कमी पर जन आक्रोश भड़क उठता है। आज नितीश कुमार अपने अच्छे कामों से यश कमा रहे हैं। पर पा¡वरमें बने रहने के लिए जो पा¡वरउन्हें चाहिए उसका उत्पादन वे नहीं कर पा रहे हैं। इसलिए सत्ता में होते हुए भी कहा जा सकता है कि नितीश कुमार पा¡वरके मामले में पिछड़ रहे हैं।

Sunday, August 30, 2009

प्रधानमंत्री जी भ्रष्टाचार की बात मत करो!

सी.बी.आई. और राज्यों के भ्रष्टाचार निरोधक ब्यूरो के सम्मेलन का उद्घाटन करते हुए प्रधानमंत्री डाॅ.मनमोहन सिंह ने बड़ी मछलियों को पकड़ने की जरूरत पर जोर दिया और सी.बी.आई. से आत्मविश्लेषण करने को कहा। ये कोई नई बात नहीं। ऐसे हर सम्मेलन में हर प्रधानमंत्री यही कहता है और फिर ऐसा कुछ भी नहीं कर पाता जिससे देश भ्रष्टाचार से मुक्त हो सके। 1997 में भारत के प्रधानमंत्री ने लालकिले की प्राचीर से देश को सम्बोधित करते हुए कहा था कि, ‘‘मैं भ्रष्टाचार के सामने असहाय हू¡’’ गनीमत है कि इन्द्र कुमार गुजराल ने इस असलियत को खुलेआम स्वीकार लिया। डा¡. सिंह को भी स्वीकार लेना चाहिए। क्योंकि वे खुद चाहें जितने ईमानदार हों, भ्रष्टाचार से लड़ नहीं सकते। कारण स्पष्ट है। इस व्यवस्था में जो भी सफल है और सम्पन्न है, उसकी सफलता के पीछे सौ फीसदी नैतिक आचरण नहीं हो सकता। इसके अपवाद सम्भव हैं। पर अमूमन यही देखने में आता है।

आश्चर्य की बात तो ये है कि भ्रष्टाचार के विरूद्ध सबसे ज्यादा आवाज उठाने वाले लोग ही अगर अपने गिरेबान में झा¡के तो पायेंगे कि खुद उनका ही आचरण अनुकरणीय नहीं रहा। आज की तारीख में मैं ऐसे कितने ही नामी-गिरामी लोगों की सूची यहा¡ दे सकता हू¡ जो भ्रष्टाचार के विरूद्ध बढ़चढ़कर लिखते और बोलते हैं। जबकि उनकी भौतिक सफलता का ग्राफ उनके ज्ञात आय स्रोतों से सैंकड़ों गुना ज्यादा है। किसी का नाम लेने की बात नहीं है, एक सच्चाई है जिसे जानना जरूरी है।

राजनेता के लिए तो भ्रष्टाचार से लड़ना असम्भव ही है। क्योंकि जो राजनैतिक व्यवस्था आज बन चुकी है, उसमें ईमानदार व्यक्ति राजनीति में सफल हो ही नहीं सकता। यही कारण है कि भ्रष्टाचार से लड़ने के लिए जितने भी कानून बने हैं, वे सब लचर हैं और उनमें सुधार की काफी गुंजाइश है। परन्तु न तो कोई राजनैतिक दल और न ही कोई राजनेता इन कानूनों को सुधारने की बात करता है। जबकि एक बार तो संसद का विशेष अधिवेशन तक इस मुद्दे पर हो चुका है। पर बात भाषण से आगे नहीं बढ़ती।

जब भी देश में कोई संकट आता है, जैसे मुम्बई पर आतंकी हमला या देश में राजनैतिक उथल-पुथल या चुनावों में किसी को स्पष्ट बहुमत न मिलना, तो औद्योगिक जगत के सिरमौर लोग देश के हालात पर चिंता जताने के लिए बैठकें शुरू कर देते हैं। कुछ दमदार उद्योगपति तो अपनी भड़ास अखबारों में बयान देकर निकाल देते हैं। पर इन्हीं के समूह में जब भ्रष्टाचार से निपटने के कानूनों में मूलभूत परिवर्तन करके इनको प्रभावी बनाने की बात आती है तो ये लोग विषय बदल देते हैं या अगली बैठक में इस चर्चा को उठाने की बात करके बैठक समाप्त कर देते हैं। कारण साफ है, बड़े-बड़े औद्योगिक साम्राज्य बिना नेता और अफसरशाही को मोटे-मोटे कमीशन दिये खडे़ नहीं होते। उत्पादन कर, आयकर, आयात शुल्क आदि ऐसे कर हैं जिन्हें बचाने का काम लगभग हर उद्योगपति करता है। इसी तरह विदेशी खातों में पैसा जमा करना पैसे वालों के लिए आम बात है। यह पैसा हवाला के जरिये देश के बाहर ले जाया जाता है, इसलिए गैरकानूनी है। इसलिए कोई नहीं चाहता कि स्विट्जरलैंड के बैंकों से भारत का धन वापिस लाया जाये। इसे चुनाव में भाजपा ने मुद्दा भले ही बनाया हो, पर अगर सत्ता में आ जाती तो लागू करने की हिम्मत भाजपा की भी नहीं थी।

अप्रवासी भारतीय फिलहाल तो आर्थिक मंदी की मार झेल रहे हैं। पर साल दो साल पहले तक जब उनके जेब में पैसा खनकता था तो वे भारत को सुधारने की बात करते थे। सबसे ज्यादा आलोचना भारत में व्याप्त भ्रष्टाचार की करते थे। कई बार इन देशों में भाषण देने गया हू¡। हर बार मेरे मेजबान रात्रि भोज के बाद भ्रष्टाचार का मुद्दा उठा देते थे और मुझसे कहते थे कि आप देश में आन्दोलन खड़ा कीजिए, हम मदद करेंगे। चूंकि कानूनन यह मदद नहीं ली जा सकती थी, इसलिए मैंने प्रस्ताव को कभी गम्भीरता से नहीं लिया। पर यही अप्रवासी भारतीय जब भारत आते हैं तो ढूंढते हैं उन सम्पर्कों या दलालों को जिनकी मार्फत रिश्वत देकर इस देश में लटके हुए अपने कामों को ये सुलटा सकें। कुल मिलाकर मामला ये है कि अप्रवासी भारतीय भी घडि़याली आ¡सू बहाते हैं और व्यवस्था का अनुचित लाभ लेने में हिचकते नहीं हैं।

देश में अनेक ऐसे समाजसेवी हैं जिन्हें देश उनके काम के कारण जानता है। ये वो लोग हैं जिनके विचार अक्सर पत्र-पत्रिकाओं में छपते रहते हैं। भ्रष्टाचार के मुद्दे पर ये लोग खूब बोलते हैं और कानून में क्रांतिकारी परिवर्तन की वकालत करते हैं। पर जब कोई ठोस मुद्दा देश के सामने आता है और उसमें इनके समर्थक फंसे होते हैं तो उनकी क्रांतिकारिता ठण्डी पड़ जाती है।

कुल मिलाकर बात इतनी सी है कि जिन्हें भ्रष्ट व्यवस्था से लाभ है, वे क्रांतिकारी कदम उठाते नहीं हैं। पर देश की बहुसंख्यक आबादी साधारण जीवन स्तर जीती है और भ्रष्टाचार की सबसे ज्यादा मार इन पर ही पड़ती है। पर न तो ये संगठित हैं और न ही लम्बी लड़ाई लड़ सकते हैं। ऐसे में भ्रष्टाचार से निपटने के लिए कोई भी ताकतवर समूह या नेता नहीं है। सब जबानी जमा खर्च करते हैं। इसलिए भ्रष्टाचार को काबू नहीं किया जा सकता। इसलिए प्रधानमंत्री को उतना ही बोलना चाहिए जितना वो करके दिखा सकें।

Sunday, August 23, 2009

भाजपा को भी सोनिया गांधी की जरूरत

सुनने में यह अटपटा लगेगा पर हकीकत यही है कि सोनिया गांधी को विदेशी मूल का बताकर भारतीय राजनीति के परिदृश्य से 10 बरस पहले हटाने की मुहीम चलाने वाली भाजपा को ही आज “kk;n सोनिया गांधी के नेतृत्व की जरूरत है। जो पार्टी को एक जुट रख सके। वरना पार्टी लगातार बिखरती जा रही है। जसवंत सिंह को इस तरह बे-आबरू करके कूचे से निकाला जाना यह सिद्ध करता है कि भाजपा में आज नेतृत्व नाम की कोई चीज बची नहीं है। दिशाहीनता और भारी हताशा के बीच बिना सोचे समझे एक के बाद एक अटपटे फैसले लिये जा रहे हैं। अचानक संघ एक बार फिर मंच पर सामने आ गया है और खुलकर भाजपा के अंदुरूनी मामलों में दखल दे रहा है। राजस्थान में वसुंधरा राजे के नेतृत्व पर उठा विवाद हो या आडवाणी का वारिस चुनने का सवाल दूसरी लाईन के नेताओं में काफी तू-तू मै-मै हो रही है। आडवानी की कुर्सी पर निगाह रखने वालों की लंबी कतार है। सब दूसरे को नीचा दिखाकर अपने नंबर बढ़ाने चाहते हैं। कहीं मौका न छूट जाए। भाजपा के शिखर नेतृत्व में बैठने के लिए जो अनुभव और संस्कार चाहिए वो इनमें दिखाई नहीं दे रहा है।

सबसे प्रबल दावेदार माने जाने वाले नरेन्द्र मोदी का ग्राफ गिरना “kqरू हो गया है।  पहले तो वे संघ और विहिप की आंखों में खटकते थे पर अब भाजपा नेतृत्व का एक बड़ा वर्ग मोदी को राष्ट्रीय परिदृश्य में आने नहीं देना चाहता। इसलिए भाजपा में उनकी खिलाफत करने वाले काफी लोग है। खुद मोदी भी अभी गुजरात छोड़ना नहीं चाहते। सुषमा स्वराज और अरूण जेटली दोनों ही भाजपा के नेतृत्व के लिए स्वयं को सबसे बड़े दावेदार मानते हैं। समस्या यह है कि इन दोनों ही नेताओं का कोई प्रभावशाली जनाधार नहीं है। पर एक बात स्पष्ट है कि अगर भाजपा हालात से मजबूर होकर और संध के दबाव फिर से हिंदुत्व को अपनाना चाहती है तो सुषमा स्वराज का नेतृत्व हिंदुत्व के ज्यादा निकट है जबकि दूसरी तरफ से अरूण जेटली के आध्यात्मिक रूझान के कोई प्रमाण अभी तक नहीं मिले है। जेटली की छवि रणनीतिकार व चुनाव व्यवस्था करने की ज्यादा है हिंदुत्व के मुद्दे पर लड़ने की नहीं। ऐसे में कैसे उम्मीद की जाए कि जेटली हिंदुत्व की लहर पैदा कर देंगे।

उधर राजनाथ सिंह कब से आस लगाए बैठे हैं कि उन्हें दल में नंबर एक पोजिशन मिले। वे तो चुनाव के पहले यह भी कहते थे कि कि इंग्लैंड में लोकतंत्र की परंपराओं की तरह भारत में भी विपक्ष के नेता को ही प्रधानमंत्री बनना चाहिए। पर आडवाणी जी ने उन्हें उसी वक्त चुप करवा दिया था। चुनावी परिणाम ने तो आडवाणी जी की भी यह हसरत पूरी नहीं की। इसलिए आडवाणी जी ने विपक्ष के नेता का पद छोड़ने का अपना निर्णय लटका दिया। “kk;n वे चाहते हैं कि उत्तराधिकार का मामला उनके सामने ही निपट जाए। पर यह टेढ़ी खीर साबित हो रहा है। आज पूरी भाजपा दिशाहीन है। उसके प्रमुख विचारक, लेखक, सांसद, पत्रकार व मंत्री रहे अरुण ही भाजपा के नेतृत्व पर तोपें दाग रहें हैं। आज भाजपा में अगर सोनिया गांधी जैसा नेतृत्व होता तो उसकी ऐसी दुर्गति नहीं होती। भाजपा के समर्थक कहेंगे कि वे वंशवाद में नहीं लोकतंत्र में विश्वास करते हैं। इसलिए यह परिस्थिति अपरिहार्य है। पर सवाल है कि जसवंत सिहं को हटाया जाना या राजनेताओं के पुत्र-पुत्र वधुओं को चुनाव में लड़ाना या कार्यकर्ताओं के मतों की उपेक्षा कर दिल्ली से निर्णय थोपना क्या लोकतांत्रिक परंपराओं का प्रमाण है?

पिछले दो दशक में हिंदुत्व से जुड़े मुद्दों पर भाजपा नेतृत्व ने जिस तरह बार-बार अपनी नीति और बयान बदले हैं उससे उसकी विश्वसनीयता उसके ही वोट बैंक के बीच खतरे में पड़ गयी है। इस चुनाव में भाजपा के खराब प्रदर्शन का कारण उसकी गिरी हुई साख ही है। ऐसे में उसे अपनी विचारधारा के विषय में गंभीर चिंतन करना चाहिए। जब तक दृष्टि साफ न हो जाए तब तक कोई नीति घोषित नहीं करनी चाहिए। शिमला की चिंतन बैठक में ऐसे सवालों पर चर्चा होनी चाहिए थी फिर वो चाहे जसवंत सिहं की किताब का सवाल ही क्यों न हो। पर ऐसा कुछ भी नहीं हुआ। चैबे जी चले थे छब्बे बनने, दुबे बनकर लौटे।

आश्चर्य की बात यह है कि भाजपा के रणनीतिकार केन्द्र में अपनी सरकार न बनने से इतने हताश हैं कि उन्हें कुछ सूझ नहीं रहा। यह दुखद स्थिति है। पांच बरस अपनी खोई प्रतिष्ठा को लौटाने का अच्छा अवसर है। चिंतन, मंथन, क्रियानवन सब कुछ इस तरह किया जा सकता है कि भाजपा राष्ट्र और व्यापक हिंदू हितों की पैरोकार बनकर पुनः स्थापित हो सकती है। पर उसके लिए जिस तरह की मेधा, ऊर्जा, ताज़गी और समर्पण चाहिए वैसा एक भी नेता भाजपा में आज दिखाई नहीं दे रहा है। यदि कोई हो और उसे मौका मिले तो वह इस हताशा को आशा और नये उत्साह में बदल सकता है। सत्ता की नहीं जनता की बात करनी होगी। मजबूती से अपनी बात रखनी होगी। राहुल गांधी को हल्की तरह से लेने वाले आज धीरे-धीरे राहुल के व्यक्तित्व और प्रयासों के मुरीद होते जा रहे हैं। सारा समाज कभी किसी एक नेता या दल के पीछे नहीं चलता। हर विचारधारा के समर्थक समाज में होते हैं। जिसका पलड़ा भारी दिखता है बाकी लोग उसके पीछे खड़े होने लगते हैं। भाजपा को २ाायद यही डर सता रहा है कि राहुल गांधी की कार्यशैली और रफ्तार अब भाजपा को जल्दी पैर जमाने नहीं देगी। इसलिए संघ और उसके नेतृत्व ने हिंदुत्व की बात करना “kqरू कर दिया है। पर यह मानना कि लोग भाजपा को इस मामले में गंभीरता से लेंगे बचपना होगा। लोग इतने मूर्ख नहीं है कि हिंदुत्व के मामले पर भाजपा नेतृत्व के लचर और अवसरवादी इतिहास को भूल जाए। इसलिए बयानों और नारों से आगे बढ़ना होगा। वरना भाजपा अपनी सार्थकता खो देगी।

Sunday, August 16, 2009

रियल्टी शो की रियल्टी

दुनिया भर के संसाधनों का दोहन कर पिछले चार दशकों में सम्पन्नता के शिखर पर पहुचा पूरा अमरीकी समाज सुख सुविधाओं के सागर में डूब गया था। मेहनत कम और आमदनी ज्यादा। सामाजिक सुरक्षा की गारण्टी। कल्याणकारी राज्य के फायदे। नतीजा ये कि बिना कुछ करे भी मौज-मस्ती की गारण्टी। जैसे रोज रसगुल्ला  खाया जाये तो आकर्षण समाप्त हो जाता है। ऐसे ही मौज-मस्ती के सभी पारंपरिक तरीके अमरीकी समाज में जब पिट गये तो नये तरीके खोजे जाने लगे। समलैंगिकता को महिमामंडित करना, बिना विवाह के साथ रहना और संतान उत्पन्न करना, कामोत्तेजक साहित्य, फिल्म, संगीत, उपकरण व सजीव शो इसी दिशा में किये गये कुछ बेहद सफल प्रयोग थे। पिछले दशक के प्रारम्भ तक इनका कारोबार खूब पनपा। फिर लोग उबने लगे। ऐसे में उपभोक्तावाद को बढ़ाने की दृष्टि से बाजार की शक्तियों ने टी.वी. जैसे सशक्त माध्यम को लोगों की मानसिकता बदलने का औजार बनाया। रियल्टी शो इसी प्रक्रिया का हिस्सा हैं।

जंगल में लोगों को खुला छोड़ देना और उनके जीवट का फिल्मांकन कर दिखाना वास्तव में एक रोमांचक रियल्टी शो है। आजकल भारत में दिखाये जा रहे मुझे इस जंगल से बचाओशो इसी भावना पर आधारित हैे। इसमें कथानक स्वंय विकसित होता है। पात्र नाटक न कर वास्तविक अभिव्यक्ति करते हैं। रोमांच, अवसाद और हर्ष के क्षण स्वभााविक रूप से आते-जाते रहते हैं। यह सब कुछ इतना सहज होता है कि दर्शक टी.वी. के पर्दे से चिपका रहता है। दावा किया जाता है कि ऐसे रियल्टी शो बच्चों और बढ़ों को मानसिक रूप से विषम परिस्थितियों का सामना करने के लिए तैयार करते हैं। पर हकीकत ये है कि आज के आधुनिक युग में जब संचार और यातायात के साधनों का जाल बिछ चुका है, ऐसी विषम परिस्थिति का सामना करने के हालात करोड़ों लोगों में से शायद ही किसी एक-दो के सामने आते हों। कुल मिलाकर पूरा खेल लोगों की तकलीफ को दिखाकर सनसनी पैदा करना, अपना शो लोकप्रिय बनाना और विज्ञापनों को बढ़ावा देना है। इन्हें देखकर जो दिल और दिमाग पर असर पड़ता है, उसके नुकसान का आंकलन अभी भारत में शुरू नहीं हुआ। पर पश्चिमी देशों में इस पर खूब अध्ययन हुये हैं। यही कारण है कि वहाॅ पढ़े-लिखे समझदार लोग टी.वी. को बुद्धू बक्साकहते हैं।

सच का सामनाभी इसी क्रम में एक रियल्टी शो है, जिसकी मूल भावना बहुत घातक है। यह शो लोगों के निजी जीवन में इतनी कड़वाहट पैदा कर देता है कि भागीदार आत्महत्या तक करने को मजबूर हो जाता है। शो के प्रस्तुतकर्ता अपने समर्थन में कुछ भी तर्क क्यों न दें, सच्चाई तो यह है कि लोगों को पैसे का लालच देकर उनके निजी प्रसंगों का प्रसारण करना उस व्यक्ति ही नहीं उसके पूरे परिवार और परिवेश पर घात्क प्रभाव डालता है। पैसे की चाहत में भागीदार नुकसान का अनुमान नहीं लगा पाते और निर्माता रूपी बाजारू शक्तियों के शिकंजे में फंस जाते हैं। जैसे भोले-भाले किशोर नशीले दवाओं के सौदागरों के कब्जे में फंसकर यह भूल जाते हैं कि क्षणिक सुख उनका पूरा जीवन तबाह करने वाला है।

सच ही दिखाना है या सच का सामना ही करना है तो इस देश में ऐसा बहुत कुछ है जिसे दिखाकर देश के हालात सुधारे जा सकते हैं। आज देशी घी के नाम पर चर्बी बेची जा रही है। खाद्यानों और फल-सब्जियों में जहरीले रसायन मिलाये जा रहे हैं। विकास के कार्यक्रमों को लेकर जो लूट मची है, उससे आम जनता कितनी तबाह है। हमारा जीवन प्र्रक्रति के प्रति कितना असंवेदनशील हो गया है कि हम खुद ही अपने लिए और अपने बच्चों के लिए खाई खोद रहे हैं। बाजार की शक्तिया¡ किस तरह बाजार पर नियन्त्रण कर हमारे जीवन को स्थायी रूप से असुरक्षित और तनावग्रस्त बना रही हैं? ऐसा बहुत कुछ घट रहा है जिसे दिखाकर लोगों की भावनाओं को सद्मार्ग की ओर प्रेरित किया जा सकता है। उन्हें विकल्प बताये जा सकते हैं। जिससे समाज और राष्टृ को वास्तविक रूप में सुखी और सम्पन्न बनाया जा सकता है। पर ऐसे कार्यक्रम पहले ही कम थे, अब बिल्कुल गायब होते जा रहे हैं। खैनी का विज्ञापन देने वाले क्यों चाहेंगे कि लोग खैनी खाने के खतरों से आगाह किये जायें? वे ऐसे किसी कार्यक्रम को विज्ञापन नहीं देंगे। यही हाल दूसरे उत्पादनों का भी है। विज्ञापन मिलेगा उससे जिसका मुनाफा तगड़ा है। मुनाफा तगड़ा उसका होगा जो समाज का ज्यादा से ज्यादा अहित करेगा। ऐसा विज्ञापन देने वाला क्यों चाहेगा कि लोगों को जगाने वाले कार्यक्रम बनें? इसलिए लोगों को भयाक्रांत, विचलित, तनावग्रस्त व अनावश्यक रूप से चिन्तित करने वाले कार्यक्रम बनाये जा रहे हैं। लोगों की फीयर साइका¡सिसयानि भय की मानसिकताको भुनाने का जघन्य कार्य किया जा रहा है। डरा दिमाग जल्दी आत्मसमर्पण कर देगा। समर्पित दिमाग को काबू करना आसान होगा। फिर चाहे रासायनिक फ्रूटी बेचनी हो या आत्मघाती अन्य साजो सामान। जितने ये शो लोकप्रिय होते जायेंगे, उतना ही बाजारू शक्तियाॅं हमारे दिलो-दिमाग पर काबिज होती जायेंगी। फिर हम गुलाम की जिंदगी जीयेंगे और तब ये निहित स्वार्थ हमें अपना हर कचरा माल बेचने में सफल हो जायेंगे।

भारत का समाज नकारात्मक वस्तुओं से नहीं, सकारात्मक प्रतीकों से आनन्द लेता आया है। जितने त्यौहार, उत्सव व मेले भारत में होते हैं, इतने अन्यत्र नहीं। इनके माध्यम से गरीब और अमीर सब आनन्द लेते हैं और यह आनन्द नित्य बढ़ता ही है, घटता नहीं। जबकि बाजारू शक्तियों द्वारा दिये जा रहे मनोरंजन के पैकेज से अन्ततः जीवन में निराशा, घुटन, अकेलापन, व्याधि व दुःख आता है। इंसान जीवनी शक्ति खो देता है। अमरीकी समाज में पिछले दशकों में यही हुआ। फिर यह आक्रोश हिप्पी संस्कृति’, अनैतिक यौनाचार, हिंसा और अपराध और अन्ततः आत्महत्याओं में परिणीत होता चला गया। इसलिए अब वहा के लोग तेजी से जाग रहे हैं और दुनियाभर में अपनी समस्याओं के समाधान के लिए आध्यात्मिक, सांस्कृतिक और पारंपरिक समाधान खोज रहे हैं। पर्यटन और अध्ययन के माध्यम से पूर्वी संस्कृति को जानने की कोशिश कर रहे हैं और हम सबकुछ होते हुये उनके कूड़े के ढेरों को अपने घर में सजाकर खुश होने का भ्रम पाल रहे हैं।