काँग्रेस कार्यसमिति में राहुल गाँधी ने आगामी लोकसभा चुनाव में 30 फीसदी टिकट युवाओं को देने की जोरदार वकालत की है। इंका के बड़े नेताओं ने भी इसका समर्थन किया। देश की आबादी में युवा मतदाताओं की बहुतायत होने के बावजूद संसद में उन्हें पूरा प्रतिनिधित्व नहीं है। मुम्बई पर हुये आतंकी हमले के बाद जिस तरह मुम्बई की जनता ने राजनेताओं पर टिप्पणियाँ कीं, उससे यह साफ जाहिर हो गया कि देश की जनता में पुराने और थके हुए नेताओं को ले कर काफी निराशा है। इसलिए भी हर दल नये और साफ चेहरे लाने की सम्भावनाओं को टटोल रहा है।
हर चुनाव में एक नया शगूफा छोड़ना होता है। जनता को सपने दिखाने होते हैं। सपनों के जाल में मतदाताओं को फंसाना होता है। तभी तो होती है चुनाव की वैतरिणी पार। इंका में यह प्रथा काफी पुरानी रही है। पं0 मोतीलाल नेहरू के समय में पं0 जवाहरलाल नेहरू को युवा हृदय सम्राट बनाकर पेश किया गया। नेहरू के बाद इंदिरा गाँधी को भी युवा नेता बनाकर काँग्रेस ने चुनाव में उतारा। ये बात दूसरी है कि पुराने काँगे्रसी तब अलग हो गये। आपातकाल से पहले संजय गाँधी को युवा हृदय सम्राट बनाया गया। उनकी वायु दुर्घटना में अकाल मृत्यु के बाद राजीव गाँधी युवा भारत की उम्मीद बनाकर प्रस्तुत किये गये और अब यही तैयारी राहुल गाँधी के लिए है। लगता है अब राहुल गाँधी की ताजपोशी का समय आ रहा है। राहुल की शख्सियत और हाल के महीनों में दलितों और गरीबों के बीच उनकी बहुप्रचारित यात्राएँ उन्हें नयी जिम्मेदारी के लिए प्रस्तुत कर रही हैं। यदि उनकी चलती है और इंका युवाओं को बड़े पैमाने पर चुनावी मैदान पर उतारती है तो जाहिरन अन्य दलों में भी खलबली मचेगी। फिर हर दल नये चेहरे ढूँढेगा। तो क्या ये माना जाये कि देश योग्य युवा हाथों में चला जायेगा? यह इतना आसान नहीं।
केवल युवा होना अपने आप में कोई गुण नहीं। ज्ञानहीन, संस्कारहीन, देश की जमीन से जुड़े होने का अनुभवहीन या फिर अनैतिक आचरण का आदी अगर कोई युवा अपने धनबल और बाहुबल से चुनाव में टिकट हासिल भी कर लेता है तो उससे देश की जनता को कुछ नहीं मिलने वाला। संसद में आपराधिक पृष्ठभूमि के जितने लोग बैठे हैं, उनमें से अनेक युवा ही तो हैं। इसलि एक दूसरा महत्वपूर्ण प्रश्न यह भी है कि क्या युवाओं के नाम पर पार्टी के समर्पित, योग्य व विचारवान युवाओं को दल अपना उम्मीदवार बनायेंगे या युवाओं के नाम पर केवल बड़े पैसे वाले और ताकत वाले नेताओं के साहबजादों को ही टिकट बटेंगे? अब तक तो यही देखने में आ रहा है कि युवाओं के नाम पर खानदानी विरासत ही आगे बढ़ायी जाती है। चाहे उससे दल की छवि खराब ही क्यों न हो जाये। पर यदि व्यक्ति योग्य हो तो खानदानी विरासत आगे बढ़ाने में किसी को क्या गुरेज होगा? अक्सर ऐसा होता नहीं है। राजतंत्र की तरह ही लोकतंत्र में भी गद्दी का हकदार नेताओं के पुत्र ही बनते हैं। जब ओमप्रकाश चैटाला और रणजीत सिंह जैसे या राज ठाकरे और उद्धव ठाकरे जैसे दो भाई महत्वाकांक्षी हो जाये तो गद्दी के लिए तलवारें म्यान से बाहर खींच ली जाती हैं। जैसा मध्ययुगीन शासकों के परिवारों में हुआ करता था। फिर ये कैसा लोकतंत्र हुआ? मशहूर फ्रांसीसी समाजशास्त्री पैरेटो का ‘‘सर्कुलेशन आॅफ इलीट’’ का सि़द्धांत विश्वप्रसिद्ध है। वे कहते हैं कि चाहे कोई भी तंत्र हो, सत्ता हमेशा कुलीनों के हाथ में रहती है। एक समूह के कुलीन जब सत्ता में काबिज होते हैं तो वे वहाँ टिके रहना चाहते हैं। पर कुलीनों का दूसरा समूह जो सत्ता से बाहर रह जाता है वह सत्ता हासिल करने की जुगाड़ में लगा रहता है। मौका मिलते ही दूसरा समूह सत्तानशीं हो जाता है और पहला समूह दूसरे की भूिमका में आ जाता है। इस तरह सत्ता का हस्तांतरण कुलीनों के बीच होता रहता है। आम जनता केवल दर्शक की भूमिका में रहती है। जब कभी किन्हीं खास हालातों में जगजीवन राम, लालू यादव या मायावती जैसे दलितों के नेता सत्ता पर काबिज भी होते हैं तो वे भी उसी कुलीन क्लब के सदस्य बना लिये जाते हैं। फिर उनका अपनी बिरादरी के आम आदमी से कोई संवाद नहीं रहता। यह क्रम इसी तरह चलता रहता है। इसलिए बुनियादी रूप से कुछ नहीं बदलता।
जब राजीव गाँधी को 1984 में देश के प्रधानमंत्री पद की शपथ दिलायी गयी तो उन्हें राजनीति का अ, ब, स नहीं पता था। उनकी राजनीति में रूचि भी नहीं थी। ‘‘पर उस नाजुक दौर में देश को बचाने के लिए वे आगे आये’’ ऐसा इंका वालों का दावा था। राजनैतिक समझ न होने के कारण राजीव गाँधी ने शुरू के वर्ष में ऐसी दूरगामी प्रभाव वाली योजनाएँ घोषित कर दीं जिनसे देश में क्रांति आ सकती थी। पर इससे पहले कि वे कुछ कर पाते, निहित स्वार्थ उन पर हावी हो गये और उन्हें बोफोर्स घोटाले में इस तरह उलझा दिया गया कि वे बहुत कुछ नहीं कर पाये और अंततः अपनी जान गंवा बैठे।
क्षेत्रवाद, जातिवाद, सम्प्रदायवाद, आतंकवाद व भ्रष्टाचार में आकंठ डूबी देश की राजनीति के इस माहौल में राहुल गाँधी क्या कर पाते हैं, ये जाँचने का समय तो उनके चुनाव जीतने और गद्दीनशीं होने के बाद ही आयेगा? पर देशवासी खासकर मतदाता यह जरूर जानना चाहेंगे कि देश की बुनियादी समस्याओं के हल का क्या माॅडल उनके पास है? अगर राहुल गाँधी अपने पिता की गलतियों से सबक लेकर नपा-तुला और ठोस कार्यक्रम देश के आगे रखते हैं तो मतदाता उनकी तरफ आकर्षित होगा। वर्ना चुनावी विजय तो उन्हें शाहरूख खान और गोविन्दा जैसे लटकों-झटकों से भी मिल सकती है। ये फिल्मी कलाकार जब चुनाव में उतरते हैं तो युवा मतदाता आगा-पीछा देखे बिना इन पर लट्टू हो जाते हैं और इन्हें आसानी से जिता देते हैं। ये बात दीगर है कि जीतने के बाद फिल्मी सितारे मतदाताओं को भारी निराश करते हैं। राहुल गाँधी को भी फिल्मी सितारे की तरह ग्लैमराइज करके एक चुनाव तो जीता जा सकता है पर राजनीति की लम्बी पारी नहीं खेली जा सकती। जबकि राहुल गाँधी जाहिरन राजनीति में लम्बी पारी खेलने के मकसद से ही उतरना चाहेंगे।
देश की हर समस्या की जड़ में है भारी भ्रष्टाचार। जब राजनेताओं के नौनिहाल राजनीति में आते हैं तो उम्मीद की जानी चाहिए कि वे भ्रष्टाचार के मामले में अपने से पहली पीढ़ी के मुकाबले कम भ्रष्ट होंगे। क्यांेकि उनकी पहली पीढ़ी ने राजनीति में जमने के लिए जमीन से संघर्ष शुरू किया होता है। अनेक उतार-चढ़ाव और खट्टे-मीठे अनुभव बटोरे होते हैं। इसलिए वे कई बार मजबूरन भ्रष्ट हो जाते हैं। पर यह पीढ़ी धन-सम्पदा , चमचे-चाटुकार और राजनैतिक विरासत के साथ चुनाव में उतरेगी। इसलिए इनके मन में असुरक्षा की भावना नहीं होनी चाहिए। इन्हें सोचना चाहिए कि जो कुछ कोई युवा संघर्ष करके जीवन में हासिल करता है, वह इन्हें घर बैठे जन्म घुट्टी में मिल चुका है। जिसका स्रोत कोई पारदर्शी नहीं रहा है। यह इनके पूर्वजों की गाढ़े खून-पसीने की कमाई भी नहीं है। यह तो इस देश की आम जनता का हक छीनकर इकट्ठी की गई दौलत है। पर बाप के अपराध के लिए बेटे को गुनहगार नहीं ठहराया जा सकता। फिर भी यह तो तय है कि इस दौलत पर इस देश की जनता का नैतिक हक है। इसलिए अगर राजनेताओं के सपूत युवा पीढ़ी के नाम पर राजनीति में उतरते हैं तो उन्हें कम से कम जनता का इतना कर्ज तो अदा करना ही चाहिए कि अब और भ्रष्टाचार न करें और इस देश की बदहाल जनता के आँसु पोंछने के लिए ईमानदाराना कोशिश करें। इससे उनकी जनता के बीच बढि़या छवि तो बनेगी ही, उनके पाँव भी राजनीति में मजबूत होंगे।