Rajasthan Patrika 15-06-2008 |
चिदांबरम जी की पहल का कमाल है या देशवासियों में बढ़ता जिम्मेदारी का भाव कि इस वर्ष आयकर संग्रह सरकार की उम्मीदों से भी काफी ज्यादा है। पिछले वर्ष 2007-08 के दौरान कुल आयकर संग्रह 3 लाख 14 हजार 416 करोड़ रुपये रहा है, जो सरकार के बजटीय अनुमानों से 117.56 फीसदी ज्यादा है। वर्ष 2006-07 के आयकर संग्रह के मुकाबले यह 36.62 फीसदी ज्यादा है। दूसरी तरफ देश का 40 लाख. करोड़ रुपया विदेशी बैंकों में अवैध रूप से जमा है। स्विटजरलैंड के अलावा भी दुनिया के कई देश ऐसे हैं जो भारत के भ्रष्ट राजनैताओं, उद्योगपतियों, फिल्म और क्रिकेट कलाकारों, भ्रष्ट अधिकारियों और तस्करों की अकूत दौलत अपने बैंकों में खुफिया रूप से जमा किए हुए हंै। यह रकम चोरी से देश के बाहर ले जायी गई है। यह धन हमारे कुल विदेशी कर्ज का तेरह गुना है। अगर यह काला धन विदेशों से देश में वापिस आ जाए तो न सिर्फ भारत विदेशी कर्ज से मुक्त हो जाएगा बल्कि देश के 45 करोड़ गरीब लोगों को एक एक लाख रूपया प्रति व्यक्ति बांटा जा सकता है। यानी देश से गरीबी एक झटके में भगाई जा सकती है।
क्या भारत के वित्तमंत्री में इतनी ताकत और हिम्मत है कि वे विदेशों में जमा भारत का 40 लाख करोड़ रुपया निकलवा सकें ? अगर हैं तो उन्हें संसद में विधेयक लाना चाहिए। जिससे भारत सरकार ऐसे लोगों के खिलाफ कड़े कदम उठाकर यह पैसा निकलवा सके। क्योंकि यह इस देश के आम आदमी की दौलत है और इसका प्रयोग देश की आर्थिक तरक्की के लिए होना चाहिए। पर यह विधेयक पास तो सांसद ही करेंगे। क्या हमारे सांसद यह चाहते हैं कि काला धन बाहर आये ? अगर चाहते तो चुनाव आयोग को चुनावों में काले धन के इस्तेमाल के खिलाफ इतने कदम क्यों उठाने पड़ते ? फिर भी क्या चुनावों में काले धन का प्रयोग रूक पाया है ? तो फिर चिदांबरम जी इतने तेवर क्यों दिखाते हैं ?
लगभग 25 वर्ष पहले की बात है मैं एक दैनिक अखबार का संवाददाता था। तब मैंने अनौपचारिक बातचीत में एक तत्कालीन ताकतवर केंद्रीय मंत्री से पूछा कि आप लोग ऐसे कानून क्यों नही बनाते कि काला धन पैदा ही न हों ? उनका जवाब था, ’अगर हम ऐसे कानून बना देंगे तो हमें कौन पूछेगा’। मशहूर फ्रांसीसी लेखक ज्यां पाॅल सात्र की ये बात मैं अक्सर याद करता हूं। उन्होंने अपनी पुस्तक ’द फ्लाईज’ (मक्खियां) में लिखा है कि शासक वर्ग जानबूझ कर ऐसे कानून बनाता है कि जनता उन्हें तोड़ने पर मजबूर हो और फिर लगातार अपराध बोध के साथ जीती रहे। यही हालत हमारे देश की भी है। इतने सारे कानून है कि आप बिना कानून तोड़े जी ही नहीं सकते। बार-बार इन कानूनों को सुधारने और सुविधाजनक बनाने की बात उठती है। पर गंभीरता से कुछ भी किया नहीं जाता।
कर सुधार के भी तमाम सुझाव गत 40 वर्षों में अनेक अर्थशास्त्री व कर विशेषज्ञ देते रहे हैं। सरकार भी कर सुधार के सुझाव आमंत्रित करने के लिए अनेक आयोग बना चुकी है। इन आयोगों की रिपोर्टें वित्तमंत्रालय के रिकाॅर्ड रूम में धूल खा रही हैं। अगर इन्हें लागू किया जाता तो देश में काले धन की समस्या इतना विकराल रूप धारण न करती। अब तो यूपीए सरकार का अंतिम वर्ष है। अगले वर्ष किसकी सरकार बनें कौन जाने ? इसलिए अब तो कोई क्रांतिकारी सुधार लागू भी नहीं किए जा सकते। जो चल रहा है वही चलेगा। यह साफ है कि वित्तमंत्री चाहें जितना बिगुल बजा लें विदेशों में जमा भारत का काला धन देश में लाने की क्षमता तो उनमें नहीं है और बिना इस धन के लाए देश में काले धन की समस्या हल होने वाली नहीं है। जो भी कानून है, चेतावनी हैं, सजाएं है और घोषणाएं है वे सब केवल इस देश के आम आदमी के लिए हैं। वो डरा रहे। कर जमा कराता रहे। उसके कर के पैसे पर हुक्मरान पांच सितारा जिंदगी की ऐश लेते रहे। जबकि वो मकान, सड़क, बिजली, पानी, सुरक्षा, स्वास्थ्य और खाद्यान्न के लिए जूझता रहे। चिदांबरम जी ये याद रखिए कि कर दिया जाता है सरकार चलाने के लिए। सरकार का काम होता है जनता की जिंदगी खुशहाल बनाना। एक सर्वेक्षण करवा लीजिए और आम आदमी से पूछिए कि क्या केंद्र और प्रान्त की सरकारों में बैठे नेता और अफसर जनता का दुख दर्द दूर कर रहे हैं या उसके कर के पैसे पर मौज उड़ा रहे हैं। जवाब आप जानते हैं। फिर भी आप धमकाकर कर वसूलना चाहते हैं तो जरूर वसूलिए। क्योकि हमारे देश के आम लोग मार खाकर भी चू नहीं करते। दुश्यन्त कुमार की कविता की ये पंक्तियां इसे बखूबी बयान करती है- ’न हो कमीज तो घुटनों से पेट ढक लेंगे, ये लोग कितने मुनासिब हैं इस सफर के लिए’।