Sunday, March 16, 2008

कैसी हो पत्रकारिता

Rajasthan Patrika 16-3-2008
जिस अखबार में अपने लेख छपते हों उसकी अगर तारीफ की जाए तो यह चाटुकारिता लगेगा। इसलिए गत बुद्धवार को दिल्ली में जब राजस्थान पत्रिका के के.सी कुलिश पुरस्कार समारोह के बाद पत्रकरिता की दशा और दिशा पर कुछ लिखने कामन हुआ तो संकोच लगा। फिर भी लिख रहा हूं क्योंकि इस समारोह में भारत के पूर्व राष्ट्रपति डा¡. ए.पी.जे. अब्दुल कलाम, लोक सभा के स्पीकर श्री सोमनाथ चटर्जी व राजस्थान की मुख्यमंत्री श्रीमती वसुंधरा राजे ने पत्रकारों को बहुत सी नसीहतें दीं। राजस्थान पत्रिका ने जो पहल की वह अनूठी है। देश भर के अखबारों में बढि़या काम करने वाले पत्रकारों को सम्मानित करने की जो उदारता इस समारोह में दिखाई दी वह प्रशंसनीय है। गोवहाटी के दैनिक जन्मभूमि का युवा पत्रकार हो या गुजरात के सौराष्ट्र आस-पास का, पाकिस्तान के डा¡न के संवाददाता हों या केरल के राष्ट्र दीपिका डेली के सभी इस समारोह में सम्मानित हुए। इस समारोह का स्वरूप कुछ ऐसा था मानों पत्रकारिता के फिल्मफेयर  एवा¡र्ड की शुरूआत हुई हो। आने वाले वर्षों में कुछ और नवीन प्रयोग करने के बाद यह एवा¡र्ड वास्तव में दक्षिण एशिया के देशों में अपनी पहचान बना सकता है।

आज पत्रकारिता के स्तर को देखकर हर समझदार व्यक्ति को कोफ्त होने लगी है। अखबारों में अब खबर और विचार कम और विज्ञापन और विज्ञप्ति की मात्रा अधिक होने से अखबार अरुचिकर लगने लगे है। चंडीगढ़ के विश्वविद्यालय ने एक शोध के बाद बताया कि एक दैनिक अखबार में औसतन चालीस हजार शब्द रोज छपते हैं। जबकि एक औसत पाठक मात्र 115 शब्द ही रोज पढ़ता है। अखबार चलाना है तो विज्ञापन भी देने होगेa और विज्ञप्ति भी। पर यह भी ध्यान रखना होता है कि अखबार सही सूचना और अच्छे विचार भी अपने पाठकों को दें। ऐसा न हो कि विज्ञापन, विज्ञप्ति के साथ सूचना और विचार भी बाजारू किस्म के ही परोसे जांए। जैसा आज प्रायः हो रहा है। ऐसे अखबारों में साफ दिखता है कि पत्रकारिता नहीं दुकानदारी की जा रही है। इसीलिए अब इन अखबारों को खबरों के सहारे नहीं बल्कि आकर्षक इनामी योजनाएं चलाकर बेचा जा रहा है। गला काट प्रतियोगिता चल रही है। एक दूसरे से बढ़ चढ़ कर झूठे दावे किए जा रहे हैं। एक दूसरे के इलाके में सेंध लगाई जा रही है। लोग तोड़े जा रहे हैं। पत्रकारिता के मूल्यों के निर्वाहन के अलावा वह सब कुछ हो रहा है जो नहीं होना चाहिए। इसलिए ऐसे माहौल में राजस्थान पत्रिका की यह पहल वास्तव में काफी सुखद और प्रभावी है।

रही बात पत्रकारों के लिए राजनेताओं की सलाह को गंभीरता से लेने की तो इस समारोह में काफी सलाह दी गई। पूर्व राष्ट्रपति ने तो पत्रकारों को शपथ भी दिलवाई कि वे नैतिकता का आचरण करें। जो ऐसा नहीं कर रहे उन्हें संभलना चाहिए। पर जो कर रहे हैं उनके सवालों का जवाब नसीहत देने वालों को देना चाहिए। अपना ही एक अनुभव बताता हूं । श्रीमती सोनिया गांधी ने राजनीति में कदम रखा तो उन पर भाजपा ने करारा हमला कर दिया। उनके मुकाबले श्री अटल बिहारी वाजपेयी को कहीं ज्यादा काबिल नेता बताया गया। अपने एक साप्ताहिक लेख में मैंने दोनों के गुण दोषों का विवेचन किया। उस दिन मुझे नागपुर विश्वविद्यालय के मीडिया सेंटर का उद्घाटन करने नागपुर जाना था। वहां के दो अखबारों में मेरे लेख छपते थे। एक का झुकाव इंका की तरफ था तो दूसरे का भाजपा की तरफ। मजा देखिए कि पहले वाले ने लेख का केवल वही अंश छापा जिसमें मैने वाजपेयी जी का बेबाक मूल्यांकन किया था और दूसरे ने इसी लेख का केवल उतना भाग छापा जिसमें मैंने श्रीमती गांधी का मूल्यांकन किया था। इंत्तफाकन उस समारोह में सभी स्थानीय अखबारों के संपादक मौजूद थे। मैने नाम लिए बिना छात्रों से इसका उल्लेख किया और कहा कि इसका परिणाम यह होगा कि कुछ पाठक मुझे कांग्रेसी समझेंगे और कुछ भाजपाई। जबकि मैंने अपनी निष्पक्षता को कायम रखा है। पर नुकसान तो हो ही गया। बाद में उन दोनों संपादकों ने क्षमा मांगते हुए अपनी मजबूरी बताई। यह तो एक उदाहरण है। ऐसी घटनाएं हर पत्रकार के जीवन में अनेक बार घटती हैं। इनसे हम बहुत कुछ सीखते हैं। कितना अड़ना है? कितना लड़ना है और कितना झुकना है? अगर हम लड़ें भी नहीं और झुके भी नहीं तो एक बीच का रास्ता भी निकल सकता है। सांप भी मर जाए और लाठी भी न टूटे। बशर्तें हम अपने आचरण में खरे और पारदर्शी हों। तब कोई हम पर उंगली नहीं उठा सकेगा। अगर हमारा आचरण तो ठीक हो नहीं और पत्रकारिता के दंभ पर हम बड़े लोगों पर तोपें दागे तो हमारी साख को बट्टा लगेगा ही। यदि लंबे समय तक सार्थक, चर्चित और सम्मानपूर्ण जीवन जीना चाहते हैं तो हमें इन बातों पर ध्यान देना ही होगा।

अखबार मालिक की भी बड़ी भारी समस्या है। जुनूनी पत्रकारों को अगर खुली छूट दे दे तो वे उनका अखबार ही बंद करवा देंगे। वे बिचारे आज के राजनैतिक और व्यवसायिक यर्थाथ के बीच में झूलते रहते हैं। उनकी भी बहुत सी मजबूरियां हैं। पर वैसी नहीं जैसे आजादी के पहले आज, लीडर, हरिजन जैसे देशभक्त अखबारों की थीं। उन पर तो अंग्रेज सरकार का डंडा चलता था। आज यदि एक अखबार पर डंडा चले तो पत्रकारों के संगठन और जागरूक लोग उसके समर्थन में उठ खड़े होते हैं। अंतर्राष्ट्रीय संगठन भी बावेला मचा देते हैं। इसलिए मालिकों को भी उतना ही झुकना चाहिए जिससे कमर टूटे भी नहीं और अखबार की अस्मिता भी बची रहे। पर जब अखबार मालिक अखबार के हित से इतर अपने अन्य व्यवसायिक हित अखबार के माध्यम से साधना चाहते हैं तो वे सत्ताधीशks के आगे साष्टांग दण्डवत कर देते हैं। सफाई ये देते हैं कि ऐसा किए बिना अखबार चलाना असंभव था। दक्षिण भारत का द हिन्दू अंगेजी का एक ऐसा अखबार है जो किसी के आगे नहीं झुका। उसके संपादक एन.राम को राजस्थान पत्रिका ने अपनी जूरी का सदस्य बनाकर यह संदेश देने की कोशिश की कि के. सी. कुलिश एवा¡र्ड के चयन में सही पत्रकारिता को ही तरजीह दी जाएगी। जिस समय नंदीग्राम में सी.पी.एम. की fहaसा पर रिर्पोटिंग के लिए द स्टेसमैन के संवाददाता सुकुमार मित्र को पुरूस्कार दिया जा रहा था उस समय वहां मौजूद सभी दलों के नेताओं की निगाह लोक सभा अध्यक्ष श्री सोमनाथ चटर्जी पर टिकी थीं। सबके चेहरों पर एक शरारती मुस्कान थी। पर श्री चटर्जी ने बुरा न मानकर उसी मंच से पत्रकारों को निडर और निष्पक्ष होने की सलाह दी। यही लोकतंत्र की स्वस्थ पंरपरा है। दुर्भाग्य से आज ज्यादातर बडे़ नेता ऐसे हैं जो अपनी आलोचना सुनना पसंद नहीं करते। चाटुकारिता करने वालों को पद्मभूषण और राज्य सभा की सदस्यता तो रोज मिलती है। क्या किसी राजनैतिक दल ने सत्ता में आने के बाद अपने आलोचक पत्रकार को पद्मभूषण देने की पेशकश की है। नहीं की। इसीलिए उनके उपदेशों असर नहीं होता।

पत्रकार हों या अखबार मालिक, राजनेता हों या पाठक सबको लगातार मूल्यांकन करते रहना चाहिए कि आखिर हम लोकतंत्र के चैथे खंबे से चाहते क्या हैं। एक सजग प्रहरी की भूमिका या एक जन संपर्क अधिकारी की भूमिका। कहावत है कि लोगों को वैसी ही सरकार मिलती है जिसके वे योग्य होते हैं। पाठकों को भी वैसा ही अखबार मिलता है जैसा वे चाहते हैं।

Sunday, March 9, 2008

जंक फूड को कहो अलविदा

Rajasthan Patrika 9-03-2008
दक्षिणी आस्ट्रेलिया की सरकार ने बर्गर व पिजा जैसे आधुनिक खान-पान के विज्ञापनों के टेलीविजन पर प्रसारण पर रोक लगा दी है। वहां के स्वास्थ्य मंत्री जान हिल ने कहा है कि पहले सरकार इस प्रतिबंध को विज्ञापनदाताओं की स्वेच्छा पर छोड़ेगी। अगर उन्होंने इस रोक को नहीं माना तो कानून लाकर इसे रोका जाएगा। श्री हिल का कहना है कि शीतल पेय और वो सारे आधुनिक व्यंजन जिनमें वसा, चीनी और नमक की मात्रा ज्यादा होती है बच्चों के लिए हानिकारक है। उनकी सरकार यह सुनिश्चित कर रही है कि वहां के स्कूलों की कैंटीनों में बच्चों को केवल स्वास्थ्यवर्धक खाद्य पदार्थ ही मिलें। इधर भारत के स्वास्थ्य मंत्री डा¡. ए. रामादौस भी आधुनिक खाद्य पदार्थों के देश में बढ़ते दुष्प्रभाव से काफी चिंतित है और इसके खिलाफ अनेक कदम उठा रहे है। बर्गर हो या पिजा का बेस, सैंडविच हो या पावभाजी सबमें मैदा की डबल रोटी के ही विभिन्न रूपों का इस्तेमाल होता है। सारे फसाद की जड़ यह डबल रोटी ही है।

हिंदुस्तान का शायद ही कोई शहर होगा जहां आम आदमी का सबेरा डबलरोटी के साथ शुरू न होता हो। भारत में जैसे चाय की लत डालकर करोड़ों रूपए के मुनाफे कमाए जा रहे हैं लोगों की सेहत से खिलवाड़ किया जा रहा है वैसे ही डबलरोटी को सुविधाजनक बता कर आज हर घर में जबरन घुसा दिया गया है। जाने-अनजाने सब उसकी आदत के गुलाम बन गए हैं। खासकर शहरवासियों को बनी बनई रोटी यानी डबलरोटी से काफी लगाव है। डबलरोटी बनाने के लिए बारीक आटा या मैदे का इस्तेमाल किया जाता है। इसे बनाने की प्रक्रिया के दौरान आटे अथवा मैदे में उपस्थित सभी विटामिन और खनिज पदार्थ नष्ट हो जाते है। डबलरोटी स्वाद में तो अच्छी लगती है लेकिन रेशे रहित होने के कारण दांतों के लिए अत्यंत नुकसान देह है। यही नहीं यह हमारी पाचन प्रणाली के लिए भी हानिकारक है।

गेहूं के साबुत दाने में कार्बोहाईड्रेट्स के अलावा विटामिन और खनिज पदार्थ भी होते हैं। गेहूं विटामिन मध्यभाग के बाहरी हिस्से में पाया जाता है। मैदा बनाने की प्रक्रिया में कुछ कार्बोहाईड्रेट्स तो बच जाते हैं लेकिन विटामिन पूर्ण रूप से खत्म हो जाते है। इसी प्रकार गेहूं के दाने के बाहरी हिस्से में जिंक और अंदरूनी हिस्से में कौडमियम नामक तत्व पाए जाते हैं। मैदा बनाने के कारण जिंक नष्ट हो जाता है और कौडियम रह जाता है। इस तरह जितने भी जरूरी और लाभदायक तत्व हैं वह नष्ट हो जाते है और दूषित तत्व रह जाते हैं आपकी चहेती ब्रेड के लिए।

क्या कभी सोचा कि डबलरोटी ज्यादा समय तक क्यों रह पाती है? क्योंकि इसमें लगे आटे में पौष्टिक तेल तक नष्ट हो जाता है। यही नहीं इसमें किसी प्रकार के रेशे भी नहीं बचते। जिसका शरीर को नुकसान उठाना पड़ता है। बिना रेशे के खाद्य पदार्थ दांतों में चिपक जाते है। जिससे दांत सड़ सकते हैं। रेशे रहित भोजन कब्ज का भी कारण बनता है। आप अपने इलाके में एक सर्वेक्षण कर लें, तो पाएंगे कि ज्यादातर उन लोगों को ही कब्ज होता है, जो डबलरोटी खाते हैं। उन्हें नहीं जो ताजी रोटी खाते हैं। लेकिन चीनी, टेलीविजन और केबिल टीवी की तरह डबलरोटी भी आधुनिक सभ्यता की पहचान बन गई है। मार्डन मम्मियां समझती हैं कि बच्चों को ब्रेकफास्ट में टोस्ट, लंच में सैंडविच और डिनर में बर्गर देकर उन्होंने बच्चों का दिल जीत लिया है। वह नहीं जानतीं कि यह डबलरोटी उनके बच्चों की सेहत की कितनी बड़ी दुश्मन है?

कभी गेहूं का आटा गूंथिए और उसमें से अपनी उंगलियों को निकाल कर साफ कीजिए। देखिए मैदा आपकी उंगलियों पर किस बुरी तरह चिपक जाती है। पानी से भी रगड़ने पर ही छूटती है। इसी तरह डबलरोटी की मैदा आपके और आपके बच्चों की आतों की अंदरूनी कोमल झिल्ली पर चिपक जाती है। उसकी स्वाभाविक क्रियाओं को रोक देती है। आसानी से बाहर नहीं निकलती। नया भोजन खा लेने से आतों में पहले से पड़ी मैदा और चिपक जाती है। आगे चलकर बड़ी-बड़ी बीमारियों का कारण बनती है।

जिस तकनीक से डबलरोटी का निर्माण किया जाता है वह उसकी पौष्टिकता को पूर्ण रूप से नष्ट कर देती है। जबसे यह तथ्य साबित हुआ तभी से ही पश्चिमी देशों ने डबलरोटी बनाने के आटे में कृत्रिम विटामिन तथा खनिज पदार्थ मिलाने शुरू कर दिए है। उन देशों में जो डबलरोटी मिलती है उसमें काफी विटामिन ऊपर से मिलाए गए होते हैं। आज के पढ़े-लिखे लोगों की मूर्खता का इससे बड़ा उदाहरण क्या होगा कि पहले तो गेहूं के आटे में से सभी महत्वपूर्ण पोष्टिक तत्व नष्ट कर देते है। फिर बाद मे उसी आटे में कृत्रिम विटामिन तथा खनिज पदार्थ मिला कर उसे डबलरोटी की सूरत में इस्तेमान करते हैं। वह भी ताजी नहीं बासी।

हिन्दुस्तानिययों को इस बात से सबक सीखना चाहिए। अकलमंदी गलती करते जाने में नहीं, समय रहते उसे सुधारने में है। युनाइटेड नेशन्स विश्वविद्यालय ने अपनी एक खोज से यह नतीजा निकाला है कि यदि सही मायनों में गेहूं व आटे का फायदा उठाना है तो पूरी दुनियां को हिन्दुस्तानियों से रोटी बनाने का तरीका सीखना होगा। हम भारतीय है जो अपनी ताकतवर रोटी भूलकर सुबह, दोपहर व शाम डबलरोटी के पीछे दीवाने है। योगासन सदियों भारत में धक्के खाता रहा और जब अमरीका और दूसरे विकसित देशों ने योग सीखकर अपनी सेहत और पैसे बनाना शुरू किया तो भारत में भी योग सीखने व सिखाने वालों की लाइन लग गई। क्या रोटी के मामले में भी हम यही करने वाले हैं?

पश्चिम के एक वैज्ञानिक रूडोल्फबैलन टाइम लिखते हैंः गेहूं के आटे में उपस्थित तरल तत्व के कारण आटा ज्यादा समय तक टिक नहीं पाता। इसलिए रोटी खाने वालों को बार-बार आटे की चक्की की तरफ जाना पड़ता है। क्योंकि गेहूं को तो सालों तक रखा जा सकता है। इसलिए चक्की वाले भी एक समय में ज्यादा गेहूं न पीस कर थेड़े-थोड़े करके पीसते हैं। इससे आटे की ताजगी और पौष्टिकता दोनों बनी रहती है। मामला बिल्कुल साफ है। गेहूं रखना, आटा पिसवाना और ताजा रोटी बनाकर खाना, इससे ज्यादा फायदे की बात कोई हो नहीं सकती। पर हम सीधे और सरल रास्तों को न अपना कर आधुनिकता के पीछे भागते हैं और आधुनिकता को ही अपनाना चाहते हैं। फिर चाहे यह हमारे लिए नुकसानदायक ही क्यों न हो। यदि हम ऐसा नहीं करेंगे तो पिछड़े हुए माने जाएंगे। बात केवल आधुनिक बनने की नहीं है, बात उन बेरोजगार दंत चिकित्सकों को रोजगार दिलवाने की भी है जो हजारों की तादाद में हर साल दंत चिकित्सा में डाक्टरी पास करके आते हैं। अगर हम डबलरोटी नहीं खाएंगे तो दांत सडेंगे ही नहीं और अगर दांत नहीं सडे़गे तो भला दंत चिकित्सक भूखे नहीं मर जाएंगे? इस तरह अपनी आंतों और अपने दांतों का नुकसान करके हम बनाने वालों को, डाक्टरों को, अस्पतालों को और दवा कंपनियों को अपनी मेहनत का पैसा बांटना चाहते हैं तो हमें कौन रोक सकता है?

आधुनिक विज्ञान की अनेक विनाशलीलाओं में से एक है गेहूं को आटे में बदलने की लीला। घरों में चक्की पर समय-समय पर गेहूं को पीसना भारतीय सभ्यता का एक प्राचीन नमूना है। जिसे आधुनिक विज्ञान द्वारा बदला या सुधारा नहीं जा सकता। यह गेहूं को आटे में बदलने का एक प्रकार का स्थायी जरिया है। आधुनिक विज्ञान अपने द्वारा किए जा रहे बदलावों से बहुत ज्यादा खुश नहीं है। क्योंकि वह आदतन अपनी हर खोज में बदलाव और सुधार करता रहता है। जब तक कि वह बदलाव या सुधार अंतिम रूप न ग्रहण कर लें। एक बार जब यह बदलाव मुनाफा देने लगता है तो उनका मकसद पूरा हो जाता है। हम और आप जाएं भाड़ में। उन्हें परवाह नहीं।

Sunday, March 2, 2008

कितने बदल गये लालू

Rajasthan Patrika 2-3-2008
एक लालू वो थे जिनका नाम लेकर विपक्ष के बड़े-बड़े नेता जन सभाओं में उन पर कसीदे कसा करते थे। यहा तक कि लाल कृष्ण आड़वाणी भी जनता को चुटकला सुनाते थे कि जापान के प्रधानमंत्री ने बिहार की दुर्दशा देखकर लालू से कहा कि आप बिहार हमें सौंप दीजिये हम इसे 6 साल मे जापान बना देगें। तो लालू प्रसाद ने उत्तर दिया कि आप हमें जापान सौंप दीजिये तो मै उसे 6 महीने में बिहार बना दूगां। लालू के साले साधू यादव के नाम का बिहार में आंतक था। चारा धोटाले के हल्ले में लालू की चमक फीकी पड़ गई थी। राबड़ी देवी को मुख्यमंत्री बना कर लालू ने एक रोचक इतिहास रचा था। कुल मिलाकर लालू की छवि एक खलनायक या विदूषक की बनाई गई। उन दिनों दिल्ली के प्रतिष्ठित इंण्डिया इंण्टरनेशनल सेंटर के एक सेमिनार में एक नामी बुद्धिजीवी ने कहा कि देश का दुर्भाग्य देखिये एक अपराधी बिहार की हुकूमत चला रहा है। तभी किसी ने जबाव दिया कि दरअसल अब तक हमें दिल्ली में रहने वाले सफेदपोश हुक्मरान अपराधियों की आदत थी इसलिये एक देहाती अपराधी की हुकूमत हमारे गले नहीं उतर रही। बिहार की पिछड़ी जातियों के लोग भी इसी सुर में बोलते थे कि जब तक हमने अगड़ी जातियों की लूट और हुकूमत झेली तब तो कोई कुछ नहीं बोला अब हमारी जाति का मुख्यमंत्री बना है तो अगड़ी जाति वाले इतने परेशान क्यों है ?

आज मेनेजमेंट गुरू लालू प्रसाद यादव को मेनेजमंेट के गुर सिखानें देश विदेश के प्रतिष्ठित मेनेजमेंट संस्थानों में बुलाया जाता है। घाटे के रेल मंत्रालय को भारी मुनाफे का बना कर लालू ने अपनी कार्यकुशलता के झण्ड़े गाढ़ दिये है। लगातार चार बरस तक रेल भाड़े में वृद्धि न करके उन्होने रिकाडऱ् कायम किया है। रेल बजट के विश्लेषण पर तो इस हफते दर्जनो लेख छप रहे है। पर लालू की शख्सियत में आये बदलाव का कारण कम ही लोग जानते है। बिहार के चुनाव में नितीश कुमार की सरकार बनने के बाद लालू प्रसाद को बहुत धक्का लगा। पहली बार उन्हें एहसास हुआ कि जनता उनसे नाराज क्यों हुयी। एक जुझारू और आत्मविश्वासी लालू प्रसाद ने कमर कस ली। सबसे पहले तो उन रिश्तेदारों और चाटुकारों से पिण्ड़ छुडाया जो वर्षा से उनका नाम बदनाम कर रहे थे। दूसरी तरफ रेल मंत्रालय में सुधीर कुमार को ओ एस डी बनाकर बडे़ निर्णय लेने की छूट दे दी। आर के महाजन, विनोद श्रीवास्तव व के पी यादव जैसे विश्वास पात्रो को जनता की मदद करने के लिये छोड़ दिया। इस समर्पित टीम ने रेल मंत्रालाय मे अनेक प्रभावी कदम उठाकर लालू के पक्ष मे माहौल बनाया ।

लालू और उनके परिवार में आये भारी बदलाव की वजह राबड़ी देवी के साथ सभी परिवार जनो का अचानक भजन भक्ति की ओर झुकाव भी है। लालू काफी भक्ति करने लगे है। तीर्थाटन भी खूब कर रहे हैं। संत सेवा भी उदारता व श्रद्धा से कर रहे है। इस सब से लालू के व्यक्तित्व मे संजीदगी आई है। अब वे विभिन्न क्षेत्रो के प्रतिष्ठित और योग्य लोगों के बीच बैठना पसंद करते है, चमचे चाटुकारों के नहीं। उनमें अच्छे लोगो के प्रति सम्मान की भावना आई है। वे अपनी स्वस्थ आलोचना सुनने को तत्पर रहते है और फायदे के सुझाव बटोरने में कंजूसी नहीं करते।

दरअसल लालू किसी भी तरह बिहार के अगले विधानसभा चुनाव मे अपनी सत्ता फिर कायम करना चाहते हे। इसलिये उनका इस बार का रेल बजट भी पूरी तरह चुनावी बैनरो से भरा था। उनके निन्दक मानते है कि लालू का बजट सच्चाई का नहीं आंकड़ो का मायाजाल है। कुछ हद तक ऐसा हो भी सकता है पर हकीकत ये है की लालू प्रसाद ने रेल मंत्रालय को एक नई पहचान दी है। इससे यह सिद्ध होता है कि अगर कोई राजनेता ठान ले कि उसे ईमानदारी से अपनी सरकार चलानी है तो वह देश का भला कर सकता है। देश में संसाधनो की कमी नहीं है। जरूरत है उनके सही इस्तेमाल की।

वैसे भी व्यक्ति कोई गलत या सही नहीं होता। उसकी सोच उसे सही या गलत बनाती हैं। जब देश के हजारों कुलीन नेता कई दशको से देश लूट रहे है और कानून उनका कुछ नहीं बिगाड़ पाता तो नई पीढी के नेताओं को भी गलत करने की प्रेरणा मिलती हैं। पर अब हालात तेजी से बदल रहे है। जनता जागरूक हो रही है। बिना जनता का भला किये न तो लालू चुनाव जीत सकते है और नाही दूसरे दलों के नेता। इसलिये हर नेता अब जनता को लुभाने में जुटा है। अगर जनता लोकतन्त्र पर अपनी पकड़ बढ़ायेगी तो नेताओ में कुछ करने की भावना जगेगी। फिर एक लालू ही क्यों हर वो नेता ठोस नतीजे लायेगा जिसे अगली बार फिर चुनाव में कूदना है। लालू में आये बदलाव ने देश के अनेक नेताओं को प्रभावित किया है। अच्छा हो कि वे अपनी इस सोच को अन्य लोगो मे भी विकसित करे। फिर हर मंत्रालाय मुनाफे का बजट बनायेगा।

Sunday, February 24, 2008

संत करेंगे प्राकृतिक धरोहरों की रक्षा

Rajasthan Patrika 24-02-2008
6 फरवरी 2008 को राजस्थान सरकार ने डीग व कामां के कृष्ण कालीन पर्वतों के खनन पर रोक लगाकर यह स्वीकार कर लिया कि सांस्कृतिक धरोहर केवल पुराने भवन, कलाकृतियां, पांडुलिपियां, या अन्य भौतिक वस्तुएं ही नहीं होती बल्कि पर्वत, वन, वन्य जीवन, नदी व सरोवर भी देश की संस्कृति के प्रतीक होते हैं। खासकर भारत जैसे देश में जहां नदियों को देवी मां और पर्वतों को देवता माना जाता है। अभी राजस्थान सरकार ने ब्रज के इन पर्वतों को वन विभाग को सौंपा है। पर इतना ही काफी नहीं है। राजस्थान सरकार को चाहिए कि वह विधान सभा में विधेयक लाकर ब्रज के पर्वतों के स्थाई संरक्षण का कानून बनाऐ। वरना भविष्य में कोई भी सरकार इस निर्णय को पलट सकती है।

देश में ऐसा अनेक बार हुआ है। इसलिए यह आशंका निर्मूल नहीं है। स्वस्थ रहने के लिए देश में हरियाली का प्रतिशत कुल धरती का 33 फीसदी होना चाहिए। पर चिंता की बात है कि यह प्रतिशत घटकर 20.6 रह गया है। वन्य अभ्यारण्यों को समेटे भरतपुर जिले में तो हरियाली का प्रतिशत 7 से भी कम है। इसलिए भरतपुर में मौजूद ब्रज के पर्वत बचेगें तो हरियाली भी बढ़ेगी।

अगर वसुंधरा राजे ने हृदय से यह निर्णय किया है तो उनकी सरकार को चाहिए कि सर्वोच्च न्यायालय में दायर ’नीलाम्बर बाबा व अन्य बनाम भारत सरकार व अन्य‘ मुकदमें में राज्य सरकार की ओर से एक नया शपथ पत्र दाखिल करे। जिसमें सर्वोच्च अदालत को अपने ताजा निर्णय की प्रति देकर यह आग्रह करे कि अब उसका याचिकाकर्ताओं से कोई मतभेद नहीं है और वह भी यही चाहती है कि ब्रज में सभी तरह के प्रदूषणकारी उद्योग जिनमें खनन व पत्थर तोड़ना भी शामिल है पर स्थायी रूप से प्रतिबंध लगाया जाय।

चिंता और दुख की बात यह है कि पिछले पांच वर्षों से बरसाना के साधु और ब्रज रक्षक दल के कार्यकर्ता अनेक स्तरों पर ब्रज के पर्वतों की रक्षा का जुझारू आन्दोलन चला रहे थे। पर तब वसुंधरा राजे नहीं मानी। अगर संतो के दबाव में अब खनन रोका है तो अगस्त 2006 में तो देश के सभी सुविख्यात संतों ने यह अपील की थी तब उनकी क्यों नहीं सुनी गई? जहां तक ब्रजवासियों के धरने व प्रदर्शन से डरने की बात है तो यह सही नहीं लगता। क्योंकि जो सरकार गुर्जर आन्दोलन के आगे नहीं झुकी उसे ऐसी धमकियों से फर्क नहीं पड़ता। दरअसल भाजपा ने अगले लोकसभा चुनाव में रामसेतु का मुद्दा प्रमुखता से उठाने का निर्णय किया है। ब्रज में पर्वत तोड़कर रामसेतु की रक्षा की दुहाई नहीं दी जा सकती थी। विधान सभा का चुनाव सिर पर है इसलिए जनता की भावनाएं और संतों का रूख अपने पक्ष में करने के लिए ही यह कदम उठाया गया है।

राजस्थान सरकार का यह तर्क ठीक नहीं कि डीग व कामां में खनन के ज्यादातर पट्टे इंका के शासन काल में दिये गये। धर्मनिर्पेक्षता का बैनर लेकर चलने वाली इंका ने अगर ब्रज के पर्वतों के आध्यात्मिक महत्व को नहीं समझा तो हिन्दू धर्म की रक्षा की दुहाई देने वाली भाजपा ने इस सच को स्वीकारने में पांच वर्ष क्यों लगा दिये? ब्रज रक्षक दल ने उपग्रह चित्रों के माध्यम से यह सिद्ध कर दिया था कि पिछले वर्षों में डीग व कामां में खनन की मात्रा 28 गुना बढ़ गई है। संघ, विहिप व भाजपा के वरिष्ठ नेताओं की जानकारी में यह सब कई वर्षों से था। फिर क्यों कुछ नहीं किया गया? अब चुनाव के डर से ही सही जो कुछ किया गया है वह सराहनीय है। पर वन विभाग के ही वरिष्ठ अधिकारियों का कहना है कि बिना वाहनों, सुरक्षा कर्मियों व प्रशासनिक साधनों के उनके लिए अवैध खनन रोक पाना असंभव होगा। उनका यह भी कहना है कि जब पुलिस व प्रशासन मिलकर कुछ नहीं कर सके तो छोटा सा वन विभाग अवैध खनन को कैसे रोकेगा ? सही भी है कि इस इलाके में वैध से सौ गुना ज्यादा अवैध खनन हो रहा था। भाजपा के जिले से लेकर जयपुर तक हर स्तर के नेताओं का इसको पूरा समर्थन था। ऐसा खुद भाजपा के पूर्व सांसद व विहिप अध्यक्ष के अनुज Mk¡. बी.पी. सिंघल का कहना है। जिन पर 7 दिसंबर 2006 को कामां में भरतपुर के भाजपा अध्यक्ष ने खड़े होकर कातिलाना हमला करवाया था। वे ब्रज रक्षक दल के अध्यक्ष के साथ उनकी गाड़ी में बोलखेड़ा में चल रहे संतों के अनशन और खनन के विनाश को देखने गये थे। इतने संगीन हादसे के बाद भी राजस्थान सरकार ने कोई कारवाई नहीं की। दो दिन बाद भाजपा अध्यक्ष राजनाथ सिंह के घर बैठक में श्रीमती राजे ने ब्रज के पर्वतों के मामले में तुरंत एक समिति बनाने का आश्वासन दिया, पर ऐसा किया नहीं। साफ जाहिर है कि राजस्थान सरकार ने पांच वर्षों तक जानबूझ कर तथ्यों को अनदेखा किया।

वरना मौजूदा कानून में ही इतनी ताकत है कि अवैध खनन को ही नही बल्कि इंका शासनकाल में दिये गये पट्टों के वैध खनन को भी आसानी से रोका जा सकता था। बशर्तें कि राजनैतिक इच्छा शक्ति होती। यह तो पांच वर्ष से कहा ही जा रहा था कि कितने भी आन्दोलन करलो, मीडिया में शोर मचा लो, धरने दे लो या प्रदर्शन कर लो वसुंधरा सरकार विधान सभा चुनाव के 6 महीने पहले डीग व कामां में खनन पर रोक लगा देगी। खैर जो भी हो अंत भला तो सब भला। पर अंत भला तभी होगा जब इस निर्णय पर कानून बने और सर्वोच्च न्यायालय में राजस्थान सरकार अपने इस नए निर्णय पर अदालत की स्वीकृति की मुहर लगवा ले।

ब्रज ही क्यों सारे भारत में नदियों और नहरों में बेदर्दी से जहरीला और रासायनिक कचड़ा फेंका जा रहा है। बड़ी तेजी से वन काटे जा रहे है। पर्वतों को डायनामाइट से तोड़ा जा रहा है। इस सब विनाश के चलते देश के पर्यावरण व धरोहरों का तेजी से विनाश हो रहा है। जो हर कीमत पर रूकना चाहिए। वरना हालात जीने लायक नहीं बचेंगे। तीस वर्ष पहले किसने सोचा था कि यमुना सड़ा नाला बन जाएगी और विशाल गंगा की हरिद्वार में पतली सी धारा बहेगी। दुर्भाग्य से आज यही हो रहा है। हमारे देश के ऋषियों ने प्रकृति को धर्म से जोड़ कर उसके संरक्षण की बहुत lqaUnj व्यवस्था विकसित की थी। पर विकास की आंधी, योजनाकारों का असंवेदनशील रवैया और सरकारी लोगों व ठेकेदारों की लूट ने देश के पर्यावरण को बहुत तेजी से बर्बाद कर दिया है। जिस पर रोक भी अब ऋषि ही लगाऐंगे। आशा की जानी चाहिए कि ब्रज की प्राकृतिक धरोहरों की रक्षा के पुरोधा विरक्त संत रमेश बाबा के सिंहनाद का स्वर आने वाले वर्षों में भारत के कोने कोने में जाकर प्रकृति की रक्षा का शंखनाद करेगा।

Sunday, February 17, 2008

नए रिश्तों की तलाश

Rajasthan Patrika 17-02-2008
दशकों तक भारत और सोवियत यूनियन एक दसरे से रक्षा व्यापर बौर विज्ञान के क्षेत्र में गहराई तक गंथे हुए थे। फिर अचानक इतनी बड़ी खाई पैदा हो गई कि पिछले दिनों दिल्ली में रूसी प्रधानमंत्री विक्टर ए जुबकोच को कहना पड़ा कि भारत ओर रूस के निवासी एक दूसरे को अच्छभ् तरह नहीं जानते। दोनों के बीच समाचारों का आदान प्रदान भी संतोषजनक स्तर तक नहीं है। उन्होंने कहा कि हमें अस बात को भी ध्यान में रखना चाहिए कि दोनों देश के लोगों में एक दूसरे के प्रति काफी रूचि है। दोनों ओर की जनता में एक दूसरे को समझने की जबरदस्त ख्वाहिश है। दोनों के बीच व्यापार, संस्कृति औ विज्ञान के क्षेत्र में आदान प्रदान की व्यापक संभावनाएं है।

जिस सोवियत यूनियन में सब्जी, अनाज, प्रसाधन सामिग्री, खनिज, दवाऐं, इलैक्ट्रोनिक उपकारण औ कपड़ा सब भरत से जाता था। भारत के रक्षा बलों को ज्यादातर आपूर्ति सोवियत यूनियन से होती थी। उसी सोवियत यूनियन का 1991 में 15 देशों में रूस समाजवादी से पूंजीवादी हो गया। पहले वहां सारे व्यपार पर सरकार का निंयत्रण होता था और सरकार सामरिक व आर्थिक दृष्टि से भरत को अपना साथी मानकर भरत से ही ज्यादातर आयात करती थी। पूंजीवाद में बाजार खुल गया। भारत के कई शहरों में इसका बुरा असर पड़ा। जैसे लुधियाना का हौज़री उत्पादन काफी हद तक बंद हो गया।

जहां पहले सोवियत यूनियन में कोई लखपति नहीं होता था वहीं रातें रात अरबपति और खबपति पैदा हो गये। माफया ने रूस की अर्थव्यवस्था को अपने शिकंजे में ले लिया। पहले डेढ़ सौ रूबल रोजाना एक पर्यटक मास्के में मजे से दिन बिता लेता था। पूंजीवाद के दौर में डेढ़ सौ रूबल में चाय का प्यला Hkh नहीं मिलतk Fkk । जहां पहले बढि़या कार किसीके पास नहीं होती थी। वहां आज यूरोप और अमरीका की सबसे महंगी कारें पेरिस से पहले मास्को की सड़कों पर दौड़ती है। रूस के नवधनाड्य अब फ्रांस, साइप्रस, स्विटजरलैंड और यहां तक कि अमरीका में आलीशान फार्म हाऊस बनवा रहे हैं।

इधर भारत में सोवियत यूनियन से व्यापार का नियंत्रण पहले सरकारी संस्था स्टेट ट्रेडिंग कारपोरेशन के हाथ में था। किसी को स्वतंत्र व्यापार करने की छूट नहीं थी । पर 1992 के बाद डा. मनमोहन सिंह की पहल पर भारत में उदारीकरण का दौर शुरू हुआ। हमें वैश्विक बाजार से मुकाबला करना था। इसलिए स्टेट ट्रेडिंग काफरपोरेशन की पकड़ ढीली कर दी गई और भरत के कारोबारयिों को दुनिया की दौड़ में मुक्त छोड़ दिया गया। इन हालातों में रूस हमारे हाथ से छूट गया ।उसे पश्चिमी देशों ने अनेक आर्थिक संधियों में फंसा कर उस पर पूरा नियंत्रण कर लिया। अब वो भारत का माल खरीदने को स्वतंत्र नहीं था। लेकिन अब रूस सभंल गया है। विघटन के बाद के दौर में जिन संधियों में फंस गया था उनसे निकल रहा है। उसकी आर्थिक रीढ़ इसलिए मजबूत है क्योंकि उसके पस बिजली, तेल और वन की विशाल संपदा है। उसकी सैन्य व्यवस्था पहले से ही मजबूत है।

इधर विश्व बाजार की दृष्टि से भारत की स्थिति भी मजबूत हुई है। भारत के लिए यह संतोष की बात है कि अब दुनिया में उसकी हैसियत बहुत बढ़ गई है। पश्चिमी देशों की नजर में भारत अब सपेरों और बजीगरों का देष नहीं बल्कि मजबूत और जेती से बढ़ती हुई अर्थव्यवस्था वाला देश है।

इसी परिस्थिति को समझते हुए दोनों देशों के प्रधान मंत्रियों ने एक दूसरे के देशों की यात्राऐं की। जवाहरलाल नेहरू विरूवविद्यालय के रूसी भाषा के विद्वान प्रो. वरियाम सिंह का मानना है कि अब दानों देशों के के बीच रिश्तों का नया दोर फिर से शुरू होगा। इसका संकेत इसीबात से मिल रहा है कि भारत में अब फिर से रूसी भाषा पढ़ने वाले छात्रों की भीड़ बढ़ने लगी है। वैसे भी भरत में दर्जनों विश्व विद्यालययों में रूसी भाषा वर्षों से पढ़ाई जा रही है। किंतु विछले 15 वर्षों से इन केंन्द्रो में छात्रों की संख्या में काफी गिरावट इा गई थी। भरत रूस व्यापार काफी गिर जाने के कारण रूसी जानने वालों के लिए रोजगार के अवसर भी काफी कम हो गये थे। पर अब रूस से व्यापार भी बढ़ने के हालात पैदा हो गए हैं। रूसी धनाड्य भारत में निवेश करने के लिए घूम रहे हैं। गोवा में तो काफी संपत्तियां रूसियों ने खीद ली है।

यही मौका है जब हस्त कला उद्योग, पर्यटन, स्वास्थ्य सेवाओं, औद्योगिक उत्पादनों, कला? संस्कृति व शिक्षा के क्षेत्र में भरत के डद्यमी रूस में नया बाजार तलाश सकते हैं। दोनों देशों के बीच भौगोलिक दूरी भी इतनी कम है कि ऐसा करना दोनों के लिए फायदे का सौदा रहेगा। यही वजह कि रूसी प्रधानमंत्री विक्टर ए. जबकोव ने दोनों देशों के नागरिकों को एक दूसरे को समझने की जरूरत पर जोर दिया। यह हम पर हे कि हम इस बदली परिस्थति में अपनी संस्कृति इसक मूल्यों से कटे बिना ही दुनिया के आर्थिक रूप से सक्षम देशों से कारोबार करके अपनी आर्थिक दशा को और कितना बेहतर बना सकें।

Sunday, February 10, 2008

राज ठाकरे की राजनीति पहचान का संकट


Rajasthan Patrika 10-02-2008
बैठे ठाले राज ठाकरे ने एक विवाद खड़ा कर दिया। मुम्बई अशांत है। गैर मराठी असुरक्षित महसूस कर रहे है। आम तौर पर चुपचाप धन्धे में जुटा रहने वाला मुम्बई कर सड़कों पर हो रही हिंसा से परेशान है। राजनैतिक दल और उनके नेताहमेशा की तरह बयान बाजी करके घडि़याली आंसू बहारहे है। यह हिंसा और अराजकता का यह दोर ज्यादा दिन नहीं चलेगा। पुलिस का डंडा जनता का दबाब, मीडिया का शोर औरराज ठाकरे के साथियों की हताशा के चलते इसे रूकनाहोगा। तब तक जान माल का काफी नुकसान हो लेगा।

पर यह पहली बार नहीं हुआ कि किसी नेता ने अपनी नेतागिरी चमकाने के लिए निरीह जनता को हिंसा की बलि चढाया हो। साम्प्रदायिकता, जातिवाद और क्षेत्रवाद के नाम पर देश के अलग अलग हिस्सों में ऐसे फायदा होते ही रहे हैं। जब कभी किसी राजनैतिक दल को मीडिया की सुर्खियों रहना होता है। तो वो ऐसी हरकत करने से बाज नहीं आता। उसकी बला से लोग मरे तो मरे लुटे तो लुट, और बर्बाद हो तो हो जायें। उसका स्वार्थ द्धि होना चाहिए। राम जन्म भूमि आन्दोलन में जो मरे उनकी भावनाओं की और उनके बलिदान की भाजपा ने क्या कद्र की ? मुलायम सिंह के समर्थन में लखनऊ में पिछले दिनों शहीद हुए नौजवान को क्या मिला? घडि़याली आंसू? उसकी श्हादत किसी राष्ट्रीय हित या सामाजिक हित के लिए बल्कि एक राजनेता का हित साधने के लिए हुई। गुर्जर आन्दोलन में यही हुआ। जयललिता के लिए अक्सर आत्मदाह करने वालों को क्या मिलता है?

जनता भावुक है। जल्दी बहक जातीहै। नेता ये बखूबी जानते है। इसलिए जनता को बार-बार बहकाकर अपना उल्लू सीधा करते है। धर्म? जाति क्षेत्र ऐसे सम्वेदन “khy मुद्दे है जिन पर जनता को भड़कना आसान होता है। जब कोई दल या नेता जनता को कुछ ठोस दे पता तो ऐसे फालतू के मुद्दों पर आन्दोलन खड़ा कर देता है। राज ठाकरे अभ राजनी में पैर जमाने कि जुगत में लगे है। खुद की कोई राजनैतिक पहचान है नहीं। विरासत में बाल ठाकरे से कुछ मिला नहीं। इसलिए ये बखेड़ा कर दिया ताकि लोग उनके वजूद को पहचाने।
 
पर अब समय बदल गया है। आज जब शीला दीक्षित, नरेन्द्र मोदी, नितीश कुमार जैसे मुख्यमंत्री विकास की सकारात्मक राजनीति करके सफल हो रहे है तो राजनीति में पहली बार कदम रखने वाले राज ठाकरे को Hkh हवा का रूख पहचानना चाहिए। वो दिन लद गए जब उनके काका ने ऐसीवैमनस्यपूर्ण हिंसा भड़काकर शिव सेना को खड़ा किया था। अब जनता नेता से परिणाम चाहतीहै। कोरे वायदे और भड़काउ नारे नहीं। जनता जानती हे कि राजनीति में कोई तप या त्याग करने नहीं बल्कि अपना ?kj भरने सत्ता का मजा लूटने आत है। इसलिए अब कुछ कर दिखाने वाले नेताओं की पूंछ बड़ने लगी है। 

राज ठाकरे के पास अकूत दौलत है। इसका प्रमाण यही है कि उन्होंने शिवसेना मुख्यालय के ठीक सामने अरबों रूपये कीसम्पत्ति अपना मुख्यालय बनाने के लिए खरीदी है। उनकी संगठन क्षमता उद्धव ठाकरे से बेहतर मानी जातीहै। वे युवा है और उनमें आगे बढ़ने की ललक है। अभी राजनीति में उन्हें लम्बी पारी खेलनी है। ऐसली अधीरता गैर जिम्मेदाराना व्यवहार से कोई अच्छ संदेश नहीं जाता। राज ठाकरे मगर दिमाग से काम लेते तो राहाराष्ट्र की राजनीति में ऐसा शगूफा ठोड़ते कि उनकी छवि एक ऐसे नेता बन जायेंगे तो यह उनकी भूल है। क्योंकि उनके काका अब क्षेत्रवाद के इस फार्मूले का घटता प्रभाव देखकर अपनी भाषा सोच बदल चुके है।

उम्मीद की जानी चाहिए कि राज ठाकरे अपनी भूल lq/kkjsaxs s और लोगों के घावों पर मरहम लगाकर उन्हें अपने योग्य नेता होने का विश्वास दिलायेगें। अगर वे ऐसा नही करते तो उनके नये बने दल की छवि एक गुण्डे और मवालियों के दल के रूप में होगी। जो उकने राजनैतिक शेविशवकाल में ही उनके पतन का कारण बनेगी। राज ठकरे कीह नहीं देष के अन्य प्रान्तों में राजनीति करने वाले को  समझ लेना चाहिए कि आत के हालात में वही आग लगाकर रोटी सेकने वालों के दिन अब लद रहें है।


Sunday, February 3, 2008

नर्म में घोटाला ही घोटाला शहरी विकास पर अरबों की बर्बादी

 Rajasthan Patrika 03-02-2008
पिछले दिनों युवराज राहुल गांधी बुंदेलखण्ड की यात्रा पर ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना की विफलता देखकर काफी आग बबूला हुए। ये जगजाहिर है कि गरीबों को रोजगार देने की ये सरकारी योजना केवल कागजों पर चल रही है। चिंता की बात यह है कि पिछले 50 वर्षों से ज्यादातर योजनाओं का यही हाल रहा है। फिर भी सरकार कोई सबक नहीं सीखती या सीखना नहीं चाहती। आज कल देश में जवाहर लाल नेहरू अर्बन रिन्यूएबल मिशन (नर्म) का बहुत शोर मचाया जा रहा है। एक लाख करोड रूपया देश के 63 शहरों के विकास के लिए केन्द्र सरकार देने जा रही है। इन 63 शहरों में से 8 शहर ‘धरोहर शहर’ भी हैं जैसे मथुरा, जयपुर, मैसूर, मदुरै, गया, पुरी, श्रीनगर (कश्मीर) व नैनीताल। अकेले आगरा के लिए ही 7 हजार करोड रूपए दिए गए हैं। 2005 में यह योजना शुरू की गई। पहले 60 शहर के लिए थी फिर तीन और शहर जोड़ दिए गए।

योजना का मकसद इन महत्वपूर्ण शहरों की नागरिक सुविधाओं का अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर सुधार करना है ताकि यहां आने और रहने वाले बेहतर जिंदगी जी सकें। इस योजना में सबसे ज्यादा जोर जल की आपूर्ति, सीवर व्यवस्था, सड़कों की दशा का सुधार, धरोहरों का संरक्षण व शहरी गंदी बस्तियों का सुधार आदि पर है। इसी सूची में लिए गए शहरांे में से 35 तो महानगर हैं और 18 प्रांतों की राजधानियां। सब जानते हैं कि हमारे शहरों की हालत नारकीय होती जा रही हैं। पुरानी सीवर लाइनें मौजूदा दबाव के आगे नाकाफी सिद्ध हो रही हैं। उपभोक्तावाद के चलते पैकेजिंग मैटेरियल की खपत बढ़ी है। जिसने शहरों में ठोस कूड़े का रूप ले लिया है। जिसका निस्तारण एक चुनौती बन गया है। सबमर्सिबिल पम्पों के कारण शहरों में घटती हरी पट्टी के कारण और पहाडो़ के उत्खनन के कारण भू जल स्तर तेजी से नीचे जा रहा हैं । औद्योगिक ईकाईयों ने धरती के ऊपर और धरती के नीचे सारा जल प्रदूषित कर दिया है। धूएं से शहरों का प्रदूषण बर्दाश्त सीमा से कहीं आगे पहुंच गया है। ऐसे में अगर कुछ शहरों की हालत सुधारने के लिए सरकार एक लाख करोड रूपया खर्च करने जा रही है तो इससे खुश ही होना चाहिए। खासकर उन लोगों को जो उन शहरों में रहते हैं, जो नर्म की सूची में gS ।

पर वास्तव में यह खुशी की नहीं चिंता की बात है कि इतनी महत्वाकांक्षी योजना को केन्द्र सरकार बिना सोचे समझे लागू करने जा रही है। योजना के प्रारूप में ही इतनी सारी कमियां हैं कि अगर इसे लागू कर दिया गया तो इसकी भी वहीं दुर्गति होगी जो ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना की हो रही है। इसका कारण है कि नर्म के लिए योजना बनाने वाले सलाहकारों ने अपना मेहनताना तो करोडों रूपया वसूल लिया पर उन्होंने कभी मौके पर जाकर जमीनी हकीकत जानने की कोशिश तक नहीं की। इनमें से ज्यादातर योजनाओं को अधकचरे तरीके से, अपने कार्यालयों में बैठकर और फर्जी आंकडे डालकर तैयार किया गया है। जब योजना बनाने वाले को ही असली समस्याएं नहीं पता तो वह उनका निदान कैसे करेगा ?

पिछले दिनो उ.प्र. सरकार के अनेक ks विभागों के प्रमुख सचिवों की एक बैठक लखनऊ की नर्म योजना पर चिंतन करने के लिए हुई। जिसमें योजना बनाने वाले दिल्ली के विशेषज्ञ अपनी प्रस्तुति करने आए थे। मुझे भी अपनी राय देने के लिए इस बैठक में बुलाया गया। वहां विशेषज्ञों की प्रस्तुति देखकर हमने माथा पकड़ लिया। इस प्रस्तुति में लखनऊ के 45 कुंडों के जीर्णोद्धार के लिए 45 करोड़ रूपए का प्रावधान रखा गया था। हमने विशेषज्ञ महोदय से पूछा कि क्या आपने इन कुंडों का आकार नापा है ? क्या उनके अंदर जमा गाद की मोटाई नापी है ? क्या इन कुंडों के नीचे भू जल स्तर का कोई आकलन किया है ? क्या आपने इन कुंडों के जलस्रोतों का अध्ययन किया है ? क्या आपने इन कुंडों के घाटो की दुर्दशा का कोई मूल्यांकन किया है ? मेरे सवालों पर इन विशेषज्ञों का चेहरा उतर गया। उनका उत्तर था ‘नहीं’। फिर कैसे उन्होंने तय कर लिया कि 45 कुंडों के जीर्णोंद्धार पर 45 करोड रूपया खर्च होगा? इसका जवाब वो नहीं दे सके। साफ जाहिर था कि पूरी योजना फर्जी आंकडों और हवाई ख्यालों से बनाई गई थी।

जब योजना की नींव ही खोखली है तो योजना सफल कैसे होगी ? इसी चिंता में हमने अन्य शहरों की योजनाओं का भी अध्ययन दिल्ली आकर किया और देखकर घोर निराशा हुई कि यहां भी यही हाल था। यह जानते हुए भी कि हर शहर पीने के पानी के संकट से जूझ रहा है, इन विशेषज्ञ योजनाकारों ने इतना भी नहीं सोचा की अरबों रूपया खर्च करके पानी की व्यवस्था को सुधारा नहीं जा सकता। जब तक कुछ बुनियादी बातों पर ध्यान न दिया जाए। जैसे पीने के पानी और बाकी उपयोग के पानी की अलग-अलग व्यवस्था होनी चाहिए। शौचालयks में फ्लश सिस्टम से बहुत सा कीमती जल बर्बाद हो जाता है। उसकी जगह आधुनिक तकनीकी में वैक्यूम क्लिनर लगने लगे हैं जिनमें पानी की जरूरत ही नहीं होती। शहरी पानी के सीवर जाल को विवेकपूर्ण और इस तरह बनाने की जरूरत हैं कि इस पानी का एक बहुत बड़ा हिस्सा थोड़े से प्रयास से शहर को हरा-भरा बनाने में फिर से प्रयोग में आ जाए। इससे भूजल स्तर भी बढ़ेगा और पानी की बर्बादी भी घटेगी। पर ऐसी कोई समझदारी इन योजनाओं में नहीं है। वही पुराने ढर्रे पर और फर्जी आंकडों से पानी और सीवर की व्यवस्था सुधारने के लिए हजारों करोड रूपयों का प्रावधान कर दिया गया है। जिससे वही हाल होगा जो गंगा एक्शन प्लान और यमुना एक्शन प्लान का हुआ कि अरबों रूपया खर्च करके भी गंगा और यमुना का प्रदूषण नहीं हट सका।

सबसे ज्यादा चिंता का विषय यह है कि जिन शहरों में यह योजना लागू की जा रही है उन शहरों में शहरी विकास को लेकर जो योजनाएं और कार्यक्रम पहले से इन शहरों में चल रहे हैं उनका कोई उल्लेख इन योजनाओं में नहीं है। उनके साथ कोई सामंजस्य भी नहीं है। साफ जाहिर है कि इससे बहुत बड़े घोटाले होने का रास्ता साफ हो गया है। एक ही काम को दो विभाग वाले दिखा कर दो अलग-अलग योजनाओं के तहत पैसा वसूलेंगे और डकार जाएंगे। होना यह चाहिए था कि जिन शहरों में नर्म की योजना लागू होने जा रही है वहां शहरी विकास की मौजूदा सभी योजनाओं को या तो खत्म कर दिया जाए या इसके साथ जोड़ा जाएं। इसी तरह हैरिटेज यानी धरोहर का भी सवाल है। एक तरफ केंद्रिय सरकार हैरिटेज शहरों को बढ़ावा देकर पर्यटन बढ़ाना चाहती हैं दूसरी ओर इन योजनाओं में घरोहरों की रक्षा या उनके सुधार के लिए कोई समझदारी नहीं दिखाई गई है। पैसों का तो आवंटन कर दिया गया है पर योजनाओं में वहीं पुराना ढर्रा अपनाया गया है जो धरोहरों के लिए काफी खतरनाक है। हमने इस पूरी योजना के खोखलेपन पर 20 पन्नों की एक रिपोर्ट तैयार की है जिसे हम प्रधानमंत्री को इस चेतावनी के साथ सौप रहे हैं कि इन तथ्यों को जानने के बाद भी अगर आप या आपकी सरकार जनता के एक लाख करोड रूपए को बर्बाद ही करना तय करते हैं तो यह साफ हो जाएगा कि यह योजना शहरी विकास के लिए नहीं बल्कि अफसरशाही, नेताओं व ठेकेदारों की जेब भरने के लिए है और इसका नाम जवाहर लाल नेहरू शहरी भ्रष्टाचार वृद्धि योजना होनी चाहिए। फैसला सरकार को करना है।