Sunday, January 20, 2008

कथनी और करनी में भेद क्यों ?

Rajasthan Patrika 20-01-2008
आतंकवाद, भ्रष्टाचार, लोकतंत्र, बेरोजगारी, गरीबी, अशिक्षा और आर्थिक विषमता ये कुछ ऐसे विषय है जिन पर सभी बड़े नेता और कुछ नामी विचारक रात दिन बोलते रहते हैं। चाहें टैलीविजन के कार्यक्रम हों या जनसभाऐं या सम्मेलन या फिर संसद। प्रश्न उठता है कि जब इतने बड़े नेता और इतने मशहूर विचारक इन सभी मुदों को लेकर इतने चिंतित हैं और चाहते हैं कि इनका हल निकल जाए तो फिर क्यों ये समस्याएं हल नहीं होती ?

पिछले दिनों एक लोकप्रिय दैनिक अखबार ने दिल्ली में अन्तर्राष्टीय समस्याओं पर एक अन्तर्राष्टीय सम्मेलन का आयोजन किया जिसमें देश और दुनिया के तमाम बड़े नेताओं और मशहूर विचारकों ने भाग लिया। देश की राजधानी में ऐसे सम्मेलन करना अब काफी आम बात होती जा रही है। अनेक नामी प्रकाशन समूह बड़े स्तर पर ऐसे सम्मेलनों का आयोजन करने लगे है। इन सम्मेलनों में ऐसी सभी समस्याओं पर काफी आंसू बहाऐ जाते हैै और ऐसी भाव भंगिमा से बात रखी जाती है कि सुनने वाले यही समझे कि अगर इस वक्ता को देश चलाने का मौका मिले तो इन समस्याओं का हल जरूर निकल जाएगा। जबकि हकीकत यह है कि इन वक्ताओं में से अनेकों को अनेक बार सत्ता में रहने का मौका मिला और ये समस्यायें इनके सामने तब भी वेसे ही खड़ी थी जैसे आज खड़ी हैं। इन नेताओं ने अपने शासन काल में ऐसे कोई क्रान्तिकारी कदम नहीं उठाये जिनसे देशवासियों को लगता कि वो ईमानदारी से इन समस्याओं का हल चाहते है। अगर उनके कार्यकाल के निर्णयों कोे और बिना राग-द्वेष के मूल्यांकन किया जाए तो यह स्पष्ट हो जाएगा कि जिन समस्यो पर ये नेता गण आज घडि़याली आंसू बहा रहे है उन समस्याओं की जड़ में इन नेताओं की भी अहम भूमिका रही है। पर इस सच्चाई को बेबाकी से उजागर करने वाले लोग उंगलियों पर गिने जा सकते हैं। मजे कि बात यह कि इन गिने चुने लोगेां की बात को भी जनता के सामने रखने वाले दिलदार मीडिया समूह उंगलियों पर गिने जा सकते हैं। विरोधाभास ये कि प्रकाशन समूह जिन समस्याओं पर अंतर राष्ट्रीय सम्मेलन आयोजित करते हैं और दावा करते है कि इन सम्मेलनों में इन समस्याओं के हल खोजे जा रहे है वे प्रकाशन समूह भी इन सम्मेलनों में सच्चाई को ज्यों का त्यों रखने वालों को नहीं बुलाते। इसलिए सरकारी सम्मेलनों की तरह ये अंतर्राष्ट्रीय सम्मेलन भी एक हाई प्रोफाइल जन सम्पर्क महोत्सव से ज्यादा कुछ नहीं होते।

यह बड़ी चिंता की बात है कि ज्यादातर राष्ट्रीय माने जाने वाले मीडिया समूह अब जिम्मेदार पत्रिकारिता से हटकर जन सम्पर्क की पत्रिकारिता करने लगे हैं। इसलिए पत्रिकारिता भी अपनी धार खोती जा रही है और समस्याएं घटने के बजाय बढ़ती जा रही है। इसलिए क्षेत्रीय मीडिया समूह का प्रभाव और समाज पर पकड़ बढ़ती जा रही है। ऐसे में देश के सामने जो बड़ी-बड़ी समस्यायें है उनके हल के लिए क्षेत्रीय मीडिया समूहों को एक ठोस पहल करनी चाहिए। अपने संवाददाताओं को एक व्यापक दृष्टि देकर उनसे ऐसी रिपोर्टों की मांग करनी चाहिए जो न सिर्फ समस्याओं का स्वरूप बताती हों बल्कि उनका समाधान भी। चिंता की बात यह कि आज कुछ क्षेत्रीय समाचार पत्र भी बयानों की पत्रकारिता पर ज्यादा जोर दे रहे है। ऐसे अखबारों में विकास और समाधान पर खबरें कम या आधी अधूरी होती है और छुटभैये नेताओं के बयान ज्यादा होते हैं। इससे उन नेताओं का तो सीना फूल जाता है पर समाज को कुछ नहीं मिलता, न तो मौलिक विचार और न हीं उनकी समस्याओं का हल। लोकतंत्र तभी मजबूत होता है जब आम आदमी तक हर सूचना पहुचंे और समस्याओं के समाधान तय करने में आम आदमी की भी भावना को तरजीह दी जाए। जो मीडिया समूह इस परिपेक्ष में पत्रकारिता कर रहे हैं उनके प्रकाशनों में गहरायी भी है और वजन भी। पर चिंता की बात यह कि देश के अनेक क्षेत्रों में ऐसे लेाग मीडिया के कारोबार में आ गए है जो आज तक तमाम अवैध धंधे और अनैतिक कृत्य करते आये है। उनका उद्देश्य मीडिया को ब्लैकमेंलिंग का हथियार बनाने से ज्यादा कुछ भी नहीं है। जिनसे समाज के हम में किसी सार्थक पहल की उम्मीद नहीं की जा सकती।


दरअसल देश की समस्याओं के हल के लिए विदेशी विचारको की नहीं बल्कि स्वयं सिद्ध व मौलिक विचारों के धनी ऐसे देशी लोगों की है जो वास्तव में इन समस्याओं के हल प्रस्तुत कर सकें। चिंता की बात यह कि ऐसे ठोस लोगों की बात सुनने के लिए बहुत कम लोग अपना मंच उपलब्ध कराते है। इससे साफ जाहिए है कि देश की समस्याओं पर अंतर्राष्ट्रीय समेलन कराना उस समूह के लिए महज जन संपर्क का माध्यम है। इन सम्मेलनों से ठोस कुछ भी नहीं निकलता क्योंकि इनमें बोलने वालों की कथनी और करनी एक नहीं होती।

Sunday, January 13, 2008

हम तो हैं परदेस देस में निकला होगा चांद

Rajasthan Patrika 13-01-2008
ढाई करोड़ भारतीय मूल के लोग दुनिया के 130 देशों में रहते हैं। इन सबको भारत से प्यार है। ठीक वैसे ही जैसे गांव से एक बेटा शहर पढ़ने और नौकरी करने चला जाता हैं। सफल हो जाता है। वहीं बस जाता है। पर अपनी माटी की सुगंध कभी भूल नहीं पाता। प्रवासी भारतीयों की कुछ अपेक्षाएं हैं। कुछ शिकायतें हैं। कुछ पर सरकार ने ध्यान दिया है और बाकी पर अभी ध्यान देने की जरूरत है। हर वर्ष 8 जनवरी को प्रवासी भारतीय दिवस मनाया जाता है। दुनिया भर से लगभग डेढ़ हजार प्रवासी भारतीय इसमें शिरकत करने आते हैं। इस वर्ष प्रधान मंत्री Mk¡ मनमोहन सिंह ने प्रवासी भारतियों को कुछ नई सुविधाएं देकर प्रसन्न किया पर ये नाकाफी है।

सबसे ज्यादा प्रवासी भारतीय मयनमार में रहते हैं। इसके बाद पचास लाख प्रवासी भारतीय खाड़ी के देशों में व बीस लाख अमरीका में रहते है। मलेशिया में रहने वाले प्रवासी भारतीयों में 80 फीसदी तमिल मूल के हैं। कैरेबियन देशों, केन्या, सूरीनाम और इंग्लैड में भी काफी प्रवासी भारतीय रहते हैं। मारीशस की तो आधी आबादी ही प्रवासी भारतीयों की है। कुल तीन तरह के लोग भारत से विदेश गए। एक तो वे जो सौ-डेढ़ सौ साल पहले मजदूर बनकर गए। दूसरे वे जो पढ़ने व नौकरी करने गए और तीसरे वे जो धनी थे और व्यापार करने गए। इनमें भी दो तरह के प्रवासी भारतीय हैं। एक वे जिन्होंने उन देशों की नागरिकता ले ली और दूसरे वे जो रहते तो विदेश में है पर हैं आज भी भारतीय नागरिक ही। जो धनी थे जैसे गुजराती और जिन्होंने विदेशों में जाकर और ज्यादा धन कमा लिया उन्हें ज्यादा दिक्कत का सामना नहीं करना पड़ता। पर जिन्होंने वहीं रहकर पिछले दो दशकों में काफी धन कमाया है उनसे स्थानीय लोगों को खतरा महसूस होने लगा है। क्याकि इन प्रवासी भारतीयों ने सफलता के झंडे गाढ़ दिए है। इससे पश्चिमी जगत का यह भ्रम टूटा है कि भारतीय अनपढ़, आलसी और कम अक्ल होते हैं। प्रवासी भारतीयों की सफलता से स्थानीय लोगों को काफी ईष्या है। अमरीका के न्यूजर्सी इलाके में दो दशक पहले पनपे उद्दंड युवा समूह Mk¡ट बस्टर ने बिन्दी लगाने वाली भारतीय महिलाओं पर हमले किए। बिन्दी को उन्होंने Mk¡ट का नाम दिया। इसी तरह अंग्रेज आज तक औपनिवेशिक मानसिकता से भारत पकिस्तान और बांग्ला देश मूल के लोगों को पाकी कहकर उनपर फब्तियां कसते हैं। मलेशिया में तमिल मूल के पुराने वाशिन्दे तो हिल मिल कर रहते हैं पर मजदूरी करने पिछले वर्षों में वहां गए प्रवासी भारतीयों से स्थानीय लोग बुरा व्यवहार करते हैं।

फिर भी प्रवासी भारतीय अपने दम खम और कड़ी मेहनत के सहारे लगातार आगे बढ़ रहे हैं। वे भारत के विकास में अपनी योग्यता और क्षमता के अनुसार सहयोग करना चाहते है। जो इस्पात जगत के बादशाह लक्ष्मी मितल की तरह अरबों रूपए का विनियोग भारत में करना चाहते हैं वे केन्द्र सरकार स्तर पर तो अपने प्रगाढ़ सबंधों से लालफीताशाही से निपट लेते हैं। पर उनके मैनेजरों को वैसे ही दिक्कतें आती हैं जैसी दूसरे उद्यमियों को। अब हर वक्त तो वे लक्ष्मी मितल को खबर देंगे नहीं। पर इससे प्रवासी भारतीयों का मन खट्टा होता है और वे भारत की बजाय दूसरे देशों में विनियोग करने चले जाते हैं। जबकि दूसरी ओर चीन में कुल विदशी विनियोग का 70 फीसदी चीनी मूल के लोग ही कर रहे हैं। प्रवासी भारतीयों की इसी समस्या का हल निकालकर मौजूदा सरकार ने प्रवासी भारतीयों की समस्याओं से निपटने के लिए एक अलग मंत्रालय ही बना दिया है। छः महीने पहले ही भारत सरकार ने प्रवासी भारतीयों की समस्याओं का एक ही जगह निपटारा करने के लिए सिंगिलविंडो फैसिलिटेशन सेंटर की स्थापना की है। साथ ही प्रधान मंत्री ने इस वर्ष मशहूर व योग्य प्रवासी भारतीयों की सलाह लेने के लिए एक समिति भी बनाने की घोषणा की है। इसके पीछे भाव यह है कि हर प्रवासी भारतीय पैसे का ही निवेश नहीं करना चाहते बल्कि बहुत से प्रवासी भारतीय अपने ज्ञान ओर अनुभव को भारत से बांट कर भारत के विकास में सहयोग देना चाहते है। पर यहां की नौकरशाही और लालफीताशाही उन्हें थका देती हैं। आशा की जानी चाहिए कि आने वाले वर्षों में सभी ढ़ाई करोड़ प्रवासी भारतीय भारत के विकास में अपनी यथाशक्ति भूमिका निभाने के लिए प्रेरित होंगे क्योंकि तब तक सरकार का रवैया और भी उदार हो चुका होगा।

सबसे बड़ी कमी प्रवासी भारतीयों में यह है कि वो भारत की लगभग हर व्यवस्था की पश्चिमी देशों से तुलना करते हैं और बिना कारण जाने अपनी सलाह देने लगते हैं। जबकि असलियत यह है कि प्रवासी भारतीय वे लोग हैं जिन्होंने इस देश को समझा नहीं और यहां की दिक्कतों से घबरा कर विदेश भाग गए। जबकि जिन मेधावी और योग्य लोगों ने यहीं रहकर परिस्थति का सामना किया वे इस देश के मिजाज को बेहतर जानते हैं और इसलिए छोटी छोटी बातों पर उतेजित नहीं होते उनका सामना करते हैं और विषम परिस्थति में मैदान छोड़कर नहीं भागते। इसलिए उन्हें प्रवासी भारतीयों के उपदेश अच्छे नहीं लगते। पर अब समय बदल रहा है। उदारीकरण और वैश्वीकरण के दौर में दूरियां घट रहीं है। इसलिए आर्थिक जरूरत के मुताबिक जो आज प्रवासी है वे कल फिर से भारतीय हो जाएंगे और जिन्होंने आज तक भारत की भौगोलिक सीमा नहीं लांघी थी वे अब विदेशों में कारखाने लगा रहे हैं। जो भी हो प्रवासी भारतीय हमारे ही परिवार के अंग हैं उन्हें भारत के विकास में योगदान करने का पूरा हक है। सरकार को चाहिए कि उनके रास्ते के रोड़ों को दूर करें। पर यर्थाथ यह है कि जब सरकार देश के एक सौ दस करोड़ लोगों की बुनियादी जरूरते भी पूरी नहीं कर पाती तो वह प्रवासी भारतीयों को शेष देश की दशा से अलग हट कर विशिष्ट सुविधाएं कैसे दे सकती है। हर वर्ष जनवरी के दूसरे सप्ताह में प्रवासी भारतीय दिवस एक पर्व के रूप में मनाकर समाप्त हो जाता है। इससे ठोस कुछ निकलना चाहिए।

Sunday, January 6, 2008

भाजपा का दोहरापन ही उसकी सबसे बड़ी कमजोरी


गुजरात और हिमाचल प्रदेश विधान सभा चुनाव में विजय व रामसेतु की रक्षार्थ दिल्ली में विश्व हिन्दू परिषद की सफल रैली से उत्साहित भाजपा ने अब रामसेतु के मुद्दे पर अपना आंदोलन तेज करने का निर्णय किया है। केन्द्र सरकार को भी चेतावनी दी है कि यदि उसने रामसेतु का विनाश नहीं रोका तो पूरे देश में आक्रामक तेवर के साथ आंदोलन चलाया जाएगा। इसमें गलत कुछ भी नहीं है। 12 अगस्त 2007 के अपने इसी काॅलम में हम रामसेतु के विनाश को रोकने का पुरजोर समर्थन कर चुके हैं। अगर भाजपा रामसेतु की रक्षा के लिए आव्हान करेगी तो सभी धर्म पे्रमी और भारतीय संस्कृति के प्रशंसक इस आंदोलन में भाजपा का साथ देंगे। पर दुख की बात है कि भाजपा को इस आंदोलन को चलाने का कोई नैतिक आधार नहीं है। क्योंकि भाजपा संघ और विहिप के सभी बड़े नेता गत 4 वर्षों से ब्रज चैरासी कोस में स्थित भगवान श्रीकृष्ण की लीलाओं से जुड़े पर्वतों के वीभत्स विनाश के मूक द्रष्टा बने हुए हैं। तकलीफ इस बात की है कि यह विनाश श्रीमती सोनिया गाँधी की अध्यक्षता वाली यूपीए सरकार नहीं करवा रही बल्कि दिल्ली की रैली में रामसेतु की रक्षार्थ गर्जन करने वाले श्री राजनाथ सिंह की अध्यक्षता वाली भाजपा की सरकार करवा रही है।
ब्रज चैरासी कोस में राजस्थान के भरतपुर जिले की डीग व कांमा तहसील भी आती है। यहां 72 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में पर्वतमालाएं हैं जिनका उल्लेख अनेक हिन्दू शास्त्रों में आता है। इन पर्वतों पर भगवान श्रीकृष्ण ने गोचारण किया, वंशीवादन किया व रास रचाया। इन पर्वतों पर भगवान श्रीकृष्ण के अनेक पदचिन्ह अंकित हैं। इन पर अनेक लीला स्थलियां भी मौजूद हैं। कामा को तो काम्यवन या आदि वृन्दावन भी कहा जाता है। दुख की बात है कि श्रीमती वसुन्धरा राजे की सरकार के कार्यकाल में इन दिव्य पर्वतों का खनन 28 फीसदी बढ़ चुका है। यह बात नेशनल रिमोट सेंसिंग एजेंसी के अध्ययन का आई.आई.टी. रुड़की से विश्लेषण कराने के बाद सामने आई। ब्रज रक्षक दल की पहल पर यह अध्ययन इस लिए कराया गया कि भाजपा नेतृत्व को यह बताया जा सके कि राजस्थान के खानमंत्री श्री लक्ष्मीनारायण दवे अपने नेताओं को कैसे लगातार झूठे आंकड़े देकर गुमराह कर रहे थे। ब्रज रक्षक दल के पर्चों और समय-समय पर जारी अनेक फिल्मों के माध्यम से इस पूरे घोटाले को पूरे देश और दुनिया के सामने लाया गया। ब्रज रक्षक दल के अध्यक्ष व पदाधिकारियों ने भाजपा व विहिप के सभी वरिष्ठ नेताओं से बार-बार मिल कर ब्रज के दिव्य पर्वतों की रक्षा की गुहार लगाई। संविधान क्लब नई दिल्ली में सम्मेलन किए। अनेकों सांसदों से बार-बार मिलकर इस मामले को संसद में उठवाने का प्रयास किया। बाद में राजद के अध्यक्ष श्री लालू प्रसाद यादव ने पहल की और उनका ही दल तबसे इस मामले को लगातार उठा रहा है। देश-विदेश का मीडिया भी गत 4 वर्षों से लगातार इस मामले को उठाता रहा है। राजस्थान विधान सभा में भी यह मामला उठ चुका है। दुनिया भर के विभिन्न धर्मों के मानने वाले हजारों लोग सन् 2004 से ई.मेल भेजकर ब्रज की इन धरोहरो की रक्षा की मांग कर रहे हैं।
सर्वोच्च न्यायालय में एक जनहित याचिका भी दायर की गई है जिस पर अभी फैसला होना बाकी है। केन्द्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड ने मौके पर जांच करने के बाद नवम्बर 2005 में ही जारी अपनी रिपोर्ट में डींग व कामा में चल रहे खनन को अवैध बताया और इसे फौरन रोकने के आदेश दिए। पर न तो भाजपा की राजस्थान सरकार ने इसकी परवाह की और न ही भाजपा के राष्ट्रीय नेतृत्व ने जिन्हें यह रिपोर्ट तभी दे दी गई थी। जुलाई 2005 में न्यूजर्सी (अमरीका) के हिन्दू सम्मेलन में ब्रज रक्षक दल के अध्यक्ष ने जब इस मामले पर पावर प्वाइंट प्रस्तुति की तो उसे देखने वालों में सरसंघ चालक श्री के.एस. सुदर्शन व संघ के वरिष्ठ नेता श्री राम माधव भी वहां मौजूद थे। इन   4 वर्षों में श्रीमान मन्दिर बरसाना के विरक्त संत श्री रमेश बाबा की पे्ररणा से साधुओं ने इस पूरे इलाके में जनजागरण का अभूतपूर्व कार्य किया। उत्तरांचल के चिपको आंदोलन की तरह यहां भी आम जनता बढ़चढ़ कर इस आंदोलन का साथ दे रही है।
मई 2006 में 40 दिन तक साधुओं और ब्रजवासियों ने दिल्ली के जन्तर-मंतर पर धरना दिया। बाद में ये सब लोग भाजपा मुख्यालय पर धरना देने पहुंच गये जहां उन्हें भाजपा के राजस्थान अध्यक्ष श्री महेश शर्मा ने आश्वासन देकर धरना बन्द करा दिया। जब कुछ नहीं हुआ तो देश के 39 प्रमुख संतों ने राजस्थान की भाजपा सरकार को अगस्त 2006 में खुली चेतावनी देते हुए एक हस्ताक्षर ज्ञापन भेजा जिसके उससे ब्रज के दिव्य पर्वतों का विनाश रोकने की मांग की। पर न तो भाजपा की राजस्थान सरकार के कान पर जूं रेंगी और न ही भाजपा संघ और विहिप के राष्ट्रीय नेतृत्व ने ही कोई परवाह की। इसके बाद नवम्बर 2006 से संत और ब्रजवासी कामा में आमरण अनशन पर बैठ गए। हालात काबू से बाहर होने लगे तो श्रीमती सिंधिया के अनुरोध पर श्री बी.पी. सिंघल ब्रज रक्षक दल के पदाधिकारियों के साथ अनशन स्थल पर गए। पर विडम्बना ये कि वहां भरतपुर के भाजपा अध्यक्ष ने खुद खड़े होकर इनकी कार पर घातक हमला करवाया। कार तोड़ दी। सवारो को खींच कर मारने की कोशिश की और 32 किलोमीटर तक उनका बन्दूकों से पीछा किया। इस मामले में दर्ज प्रथम सूचना रिपोर्ट पर कोई उल्लेखनीय कार्रवाई आजतक नहीं हुई। आश्चर्य है कि अपने ही दल के पूर्व सांसद व विहिप अध्यक्ष के अनुज पर कातिलाना हमला करने वालों को राजस्थान की सरकार संरक्षण दे रही है। इसीलिए श्री सिंघल राजस्थान की भाजपा सरकार को दानवी सरकारकहते हैं।
यह सारा विवरण इसलिए यहां उल्लेख करना जरूरी है ताकि आम जनता यह जान जाए कि भाजपा की नियत में ही खोट है। गत 4 वर्षों से रातदिन भगवान श्रीकृष्ण की लीलास्थलियों का डायनामाइट से विनाश करने वाली भाजपा रामसेतु के सम्भावित विनाश के लिए यूपीए सरकार को चुनौती कैसे दे सकती है ? उसका नैतिक आधार ही इतना खोखला है कि कोई उस पर यकीन नहीं करेगा। भाजपा रामसेतु पर राष्ट्रव्यापी आंदोलन चलाने की चेतावनी दे रही है। देश भर में होर्डिंग, पर्चे व पोस्टर लगवा रही है। जनसम्पर्क किए जा रहे हैं। अगर यह सब इसलिए हो रहा है कि भाजपा को वाकई हिंदू धर्म की धरोहरों की रक्षा की चिन्ता है तो वह भगवान श्रीकृष्ण की धरोहरों को क्यों तुड़वा रही है ? क्या यह माना जाए कि रामसेतु की रक्षा भाजपा के लिए एक चुनावी मुद्दा है जिसे पकड़ कर वह सत्ता पर काबिज होना चाहती है जैसा पहले राममन्दिर का मुद्दा उठा कर उसने किया था। अगर राममन्दिर आंदोलन के दौरान विशाल रैलियों में भाजपा नेताओं के बयानों की रिकार्डिंग देखी जाए और उसे राजग सरकार के कार्यकाल के दौरान इन्हीं नेताओं के राममन्दिर के विषय में आए विरोधी बयानो को देखा जाए तो यह शंका होगी कि राममन्दिर को भाजपा ने केवल चुनावी मुद्दा बनाया या वह इस मामले में गंभीर भी है ? तो क्या रामसेतु का मुद्दा भी इसी तरह भाजपा की चुनावी राजनीति का मुद्दा बनकर शहीद हो जाएगा ? अगर यह सही है तो देश की करोड़ों जनता को यह फैसला करना होगा कि वे रामसेतु की रक्षा के आंदोलन में तभी शामिल हों जब राजस्थान की भाजपा सरकार ब्रज में पर्वतों का खनन और क्राशिंग पूरी तरह बंद कर दें और इससे स्थापित होने वाले व्यापारियों, ट्रांसपोर्टरों आदि को ब्रज चैरासी कोस की परिधि से दूर हटाकर नए पट्टे जारी कर दे। उन्हें कर व अन्य रियायतें देकर वहां स्थापित होने में मदद करें। देर से ही सही व चुनावी राजनीति की मजबूरी के कारण ही लिया जाए तो भी उसका यही कदम उसे बचाएगा। इससे ब्रज का वैभव बचेगा। ब्रज में पर्यटन और रोजगार बढ़ेगा। संत, भक्त व ब्रजवासी प्रसन्न होंगे। भाजपा के पास रामसेतु की रक्षार्थ आंदोलन चलाने का एक नैतिक आधार बनेगा। अगर भाजपा ऐसा नहीं करती है तो यही मानना चाहिए कि उसका धर्म से कोई लेना देना नहीं। वह तो धर्म को सत्ता हथियाने का एक औजार मानती है। भाजपा की यह छवि उसके व उसके समर्थकों दोनों के लिए ही दुखदायी होगी।

Sunday, December 30, 2007

बेनजीर की हत्यk से सबक


Rajasthan Patrika 30-12-2007
पूरब की बेटी बेनजीर भुट्टो की असामयिक मौत से समूचा विश्व स्तब्ध है. इस हादसे से जहा¡ पाकिस्तान में लोकतंत्र की बहाली पर एक बडा प्रश्नचिह्न लग गयk है वहीं भारत के समक्ष आतंकवाद के और अधिक भडक उठने का खतरा मॅंडराने लगा है. मिय नवाज शरीफ तो पहले ही पाकिस्तानी राजनीति में हाशिए पर लाए जा चुके हैं. उन्हीं की सरकार का तख्ता पलटकर पाकिस्तान के सैद ए आजम बने मिय मुशर्रफ को उन्हें दोबारा सत्ता में काबिज कराना आसानी से गले नहीं उतरेगा.

ऐसे बेकाबू होते हालातों में अमेरिकी राष्ट्रपति जार्ज बुश का बयkन कि पाकिस्तान में चुनाव समय पर होने चाहिए और लोकतंत्र की बहाली को लेकर चल रहे प्रयkस और आतंक के खिलाफ लडाई जारी रहेगी पसोपेश में डालने वाला है. लोकतंत्र की वकालत करने वाले बुश शायद यह भूल रहे हैं कि पाकिस्तान में आखिर लोकतंत्र चाहता कौन है बेनजीर की हत्यk हो चुकी है नवाज शरीफ वैसे ही हाशिए पर लाए जा चुके हैं. अकेले इमरान खान ही एक विकल्प के रूप में उभरते हुए दिखाई देते हैं परन्तु उनकी पहचान भी एक सैलीब्रिटी के रूप में ही ज्यkदा है जमीन से जुडे हुए नेता के रूप में नहीं. लोकतंत्र की बहाली के लिए चुनाव जरूरी हैं और चुनावों के लिए एक माहौल की आवश्यकता होती है नेता की जरूरत होती है कानूनी व्यवस्था दरकार होती है. आज पाकिस्तान में इनमें से कोई भी मौजूद नहीं लगता.

लोकतंत्र बहाली के नाम अमरीका ने आज तक जहा¡ जहा¡ दादागिरि दिखाई है वह उसे मु¡ह की खानी पडी है. चाहे वह वियतनाम हो यk फिर कोसोवा यk फिर हाल ही के अफगानिस्तानी व इराकी प्रकरण. अपने निहित राष्ट्रीय स्वार्थों के चलते दूसरे मुल्कों की सार्वभौमिकता से छेडछाड करना अब अमरीका को भारी पडने लगा है. क्यsकि अब इन मुल्कों की जनता का आक्रोश आतंकवाद के रूप में उसके सामने आ रहा है.

आतंक के खिलाफ लडाई की दुहाई देने वाले बुश यह भी भूल जाते हैं कि उनके देश की अर्थव्यवस्था व राजनीति को काबू में करने वाली ला¡बी का अस्तित्व ही दहशत व हिंसा पर टिका हुआ है. यदि दुनियk में अमन बहाल हो जाएगा तो फिर उनके हथियkरों को कौन खरीदेगा. अतः आतंकवाद को जड से मिटाने की कवायद आ¡खों में धूल झksकने से ज्यkदा कुछ नहीं लगती. 

उधर डाइरेक्ट एक्शन की ताकत पर बने पाकिस्तान में पिछले 60 वर्षों से आवाम को सैनिक तानाशाहों की संगीनों व इस्लामी कट्टरपंथियks के खौफ के सायs में ही जीना पडा है. पाकिस्तान के राजनैतिक व सामाजिक हलकों में इस्लामी कट्टरपंथियks ने इस हद तक पैठ कर रखी है कि बिना सैन्य तानाशाही के 16 करोड का यह मुल्क चल ही नहीं सकता. दरअसल इस्लाम को आधार बना पाकिस्तान की परिकल्पना ही दोषपूर्ण रही है. दुनियk के सबसे बडे पलायन के बाद वजूद में आए मुल्क की जडें मजबूत हो ही कैसे सकती हैं. 24 साल के अन्दर ही मुल्क के दो फाड हो गए. अमरीका की बैसाखियks के सहारे आखिर कब तक यह मुल्क यk ही घिसटता रहेगा. पाकिस्तान के भ्रष्ट सैन्य अधिकारी जिन्होंने खरबों की अकूत दौलत जमा कर रखी है न तो पाकिस्तान की आर्थिक तरक्की चाहते हैं और न ही वे कभी पाकिस्तान में लोकतंत्र को कायम होने देंगे.

साथ ही सोचने वाली बात य्ाह भी है कि इस्लामी समाज में ही हमेशा से सत्ता को लेकर ऐसी मारकाट होती रही है. बेटों ने बाप के कत्ल करके राजसत्ताए¡ हासिल कीं तो भाइयks ने भाइयkss के गले काटे. कहीं ऐसा तो नहीं कि मजहब की आड में एक सियkसी विचारधारा पिछले 1400 वर्षों से दुनियk में अपना प्रभाव जमाती आई है. यsह सवाल इस्लाम के उन धर्मगुरूओं बुद्धिजीवियks और राजनेताओं के लिए महत्वपूर्ण होना चाहिए जो इस्लाम का मानवीय चेहरा दुनियk के सामने पेश करने की ईमानदार कोशिश करते हैं. सोचने वाली बात यह है कि जिन इस्लामी मुल्कों ने इस्लाम के कट्टरपन की चाहरदिवारी को ला¡घ कर खुले विचारों को अपनायk है वहा¡ अमन चैन और तरक्की तेजी से कायम हुई है. चाहे पश्चिमी संस्कृति से प्रभावित तुर्की और इराक जैसे देश हों यk वैदिक संस्कृति से प्रभावित इण्डोनेशियk और मलेशियk जैसे देश.

जो भी हो यह पाकिस्तान के लिए ही नहीं पूरे दक्षिण एशियk के लिए एक संकट की घडी है. पाकिस्तान में हर उॅंगली परवेज मुशर्रफ की तरफ उठ रही है और उसके बाहर की दुनियk बडी उत्सुकता से वह की आन्तरिक उथल पुथल पर निगाहें लगाए बैठी है.

Sunday, December 23, 2007

वोटों के चक्कर में योजना आयोग

Rajasthan Patrika 23-12-2007
11वी पंचवर्षीय योजना के मसौदे पर भाजपा शासित राज्यों के मुख्यमंत्री काफी भड़के हुए थे पर राष्ट्रीय विकास परिषद की बैठक में गुजरात के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी के अलावा कोई नहीं बोला। योजना आयोग ने अल्पसंख्यकों के लिए 15 सूत्री कार्यक्रम का प्रस्ताव किया है। जाहिर है कि इससे राजनीति का धु्रवीकरण बढ़ेगा। हालांकि प्रधानमंत्री ने राष्ट्रीय विकास परिषद की बैठक में सफाई देने की कोशिश की है। पर सवाल ये है कि ऐसा प्रावधान करने की जरूरत क्या थी।

अगला साल लोक सभा के आगामी चुनावों के लिए महत्वपूर्ण है। इसलिए इंका अपना वोट बंैक सुदृढ़ करना चाहती है। इसीलिए उसने योजना आयोग से यह शगूफा छुड़वाया है। सरकार अल्पसंख्यकों को सपने दिखा रही है। ठीक वैसे ही जैसे अजादी के बाद से हर दल की सरकार गरीबों को दिखाती रही है। उन सपनों से नेता, अफसर और ठेकेदार तो मालामाल हो गए पर गरीब जनता बद से बदहाल हो गई। पहले अपने गांव में रूखी सूखी खाकर शुद्ध जल और हवा तो ले लेती थी। इस विकास ने उससे यह भी छीन लिया और ऐसे करोड़ों लोगों को महानगरों के फुटपाथ पर लाकर पटक दिया।

अल्पसंख्यकों को जो सपने दिखाये जा रहे हैं वो भी ऐसे ही होंगे ये बात अल्पसंख्यक भी जानते हैं। दरअसल अल्पसंख्यकों को बढा़वा देने या आरक्षण का प्रतिशत बढ़ाने की यह मानसिकता किसी का भला नहीं कर रही है। इससे केवल समाज में विघटन और द्वेष बढ़ रहा है। जहां तक विकास का प्रश्न है यह देखने में आया है कि सही अवसर और बुनियादी सुविधायें मिलने पर हर व्यक्ति अपनी तरक्की की सोचता है। आज देश में स्वरोजगार में लगे और तेजी से आर्थिक प्रगति कर रहे करोड़ों नौजवान अपने बल पर खड़े हुए है। उन्होंने किसी आरक्षण या सरकारी सहायता की बाट नहीं जोही। किसी ने मैकेनिक का काम सीखा तो किसी ने ढाबा खोला। हर शहर और कस्बे में हजारों खोके नुमा दुकानें इन नौजवानों की देखी जा सकती हैं। पिछले दशक में जबसे भारत के हस्त कला उद्योग की विदेशों में मांग बढ़ी है तब से करोड़ों अल्पसंख्यक कारीगर से निर्यातक बन गए हैं। उनके कोठी बंगले और कारखाने खड़े हो गये है। उनके बच्चे देश के प्रतिष्ठित अंग्रेजी स्कूलों में पढ़ रहे हैं। पंजाब की तरक्की किसी आरक्षण की मोहताज नहीं रही। अगर सरकार चाहती है कि देश का आर्थिक विकास तेजी से हो तो उसे बुनियादी ढंाचे को सुधारने की ईमानदार कोशिश करनी चाहिए।

यही वजह है कि खुद को गुजरात का विकास पुरूष स्थापित करने वाले नरेन्द्र मोदी ने राष्ट्रीय विकास परिषद् की बैठक में योजना आयोग के इस प्रस्ताव की धज्जियां उड़ा दीं। उन्होंने जो मुद्दे उठाये उन पर देश में बहस की जरूरत है। सबके विकास की बात करना और फिर राजनैतिक हित साधने के लिए समाज को धर्म केे आधार पर बांटना धर्म निरपेक्षता नहीं होता। समाज को इसी तरह बांटने का एक षडयंत्र अंग्रेजी हुकूमत के समय मोरले मिंटो सुधारों के तहत किया गया था। जब हिन्दुओं और मुसलमानों के लिए अलग अलग चुनाव क्षेत्र घोषित किए गए। भारत के बटवारे की नींव इन्हीं सुधारों के बाद पड़ी। इस नासूर का दर्द हम आज तक भुगत रहे हैं।

आश्चर्य की बात यह है कि एक तरफ तो सरकार तो वैश्वीकरण और उदारीकरण की वकालत करके भारत को दुनिया की अर्थव्यवस्था से जोड़ने की जुगत में लगी है और दूसरी ओर वह ऐसे दकियानूसी शगूफे छोड़कर अपने मानसिक दिवालियापन का परिचय देती है। कुछ समय पहले ही सरकार ने भारतीय सेना में कार्यरत लोगों की धर्म के आधार पर गणना करने का प्रयास किया था। जिसे सेना प्रमुख व सेना के अन्य आला अफसरों के विरोध के कारण रोक देना पड़ा।

इंका व साम्यवादी दलों की ऐसी ही छद्म धर्म निरपेक्षता के कारण भाजपा को घर बैठे चुनावी मुद्दे मिल जाते हैं। तब ये दल भाजपा पर साम्प्रदायिक होने का आरोप लगाते हैं। जबकि जरूरत विकास को केन्द्र में रखकर बहुजन हिताय नीतियों के निर्धारण की है। फिर चाहें कोई सत्ता में हो।

Sunday, December 16, 2007

आडवाणी जी को प्रधानमंत्री बनाने की घोषणा का मतलब

Rajasthan Patrika 16-12-2007
भाजपा के संसदीय बोर्ड ने श्री लालकृष्ण आडवाणी को अपने दल का भावी प्रधानमंत्री उम्मीदवार बनाना तय किया है। इस अप्रत्याशित घोषणा को राजनैतिक हलकों में अलग-अलग तरह से देखा जा रहा है। भाजपा के ही कई बड़े नेता जो खुद को भावी प्रधानमंत्री देखना चाहते हैं इस घोषणा से हतप्रभ हैं। उन्हें लगता है कि चीन के बूढ़े कम्यूनिस्ट नेताओं की तरह वाजपेयी एंड आडवाणी कंपनी प्राइवेट लिमिटेडभाजपा पर अपनी पकड़ ढीली नहीं करना चाहती। इनके रहते पार्टी का मेधावी युवा नेतृत्व कभी आगे नहीं बढ़ पाएगा। उधर प्रधानमंत्री डाॅ. मनमोहन सिंह ने इस घोषणा को गुजरात चुनाव में बढ़ रही भाजपा की हताशा का परिणाम बताया है।

इस बात पर सभी को आश्चर्य है कि यह घोषणा गुजरात के चुनावों के बीच अचानक क्यों की गई। क्या इसलिए कि इसका गुजरात के मतदाताओं पर असर पड़ेगा। क्योंकि श्री आडवाणी गांधीनगर से सांसद हैं और नरेन्द्र मोदी के हिमायती हैं। अगर इस घोषणा का मकसद गुजरात में इसका असर डालना है तो यह बात उल्लेखनीय है कि श्री आडवाणी गुजरात की चुनाव सभाओं में भीड़ नहीं खींच पाए। फिर यह घोषणा चुनाव को कैसे प्रभावित करेगी ?

दरअसल भाजपा में नेतृत्व के सवाल पर बहुत दिनों से अंदर ही अंदर कशमकश चल रही थी। कुछ दिनों पहले ही पार्टी अध्यक्ष श्री राजनाथ सिंह ने यह कहकर बबाल खड़ा कर दिया था कि लोकतांत्रिक प्रणाली में चुनाव में बहुमत मिलने के बाद विपक्षी दल का नेता ही प्रधानमंत्री बनता है। इस पर श्री आडवाणी जी काफी उत्तेजित हुए और मजबूरन श्री राजनाथ सिंह को अपना बयान वापिस लेना पड़ा। दरअसल राम जन्म भूमि आन्दोलन व राम रथ यात्रा के बाद आडवाणी जी को देश का भावी प्रधानमंत्री बनाकर ही पेश किया गया था। पर राजग के गठन के समय उनकी साम्प्रदायिक छवि व हवाला कांड में उनके आरोपित होने के कारण उस समय उन्हें यह मौका नहीं मिला। पर पिछले कुछ वर्षो में जिस तरह का ध्रुवीकरण भारत की राजनीति में हुआ है उसके फलस्वरूप अब राजग के घटक दलों को इस घोषणा से आपत्ति नहीं होगी। इसीलिए उन्होंने इसका विरोध भी नहीं किया। पर यह नहीं माना जा सकता कि अगले लोक सभा  चुनावों के बाद भी उनका यही रवैया रहेगा। हर घटक दल अपने नेता को प्रधानमंत्री बनाने की कोशिश करेगा।

यह भी उल्लेखनीय है कि इस घोषणा का कोई जनतांत्रिक आधार नहीं है। कांग्रेस पर वंशवादी व अधिनायकवादी दल होने का आरोप लगाने वाली भाजपा के संसदीय बोर्ड का यह निर्णय भी दल की लोकतांत्रिक व्यवस्था को दरकिनार करके लिया गया है। दल की ऐसी ही नीतियों के कारण आज गुजरात में भाजपा के 80 पूर्व विधायक केन्द्रीय नेतृत्व के फैसले से नाराज होकर श्री नरेन्द्र मोदी के खिलाफ खड़े हैं। ऐसा लगता है कि इस निर्णय का उद्ेश्य श्री आडवाणी की वर्षों की दबी इच्छा को पूरा करना है। क्योंकि गुजरात चुनाव के बाद जो भी परिणाम आएगा उससे श्री आडवाणी जी की इस इच्छा को ग्रहण लग सकता है। अगर श्री नरेन्द्र मोदी जीतते हैं तो संघ और भाजपा का कार्यकर्ता  श्री मोदी को ही देश का भावी प्रधानमंत्री देखना चाहेगा। अगर वे हारते हैं तो इसे श्री आडवाणी व मोदी की साझी हार माना जाएगा। तब पार्टी में नेतृत्व व उसकी नीतियों को लेकर एक नई लड़ाई छिड़ेगी। इसलिए गुजरात के चुनाव के नतीजों से पहले ही हड़बडा़हट में यह घोषणा कर दी गई है। जबकि अभी न तो लोक सभा चुनावों की घोषणा हुई है और ना ही गत 6 महीनों में देश का राजनैतिक परिदृश्य बदला है। इसलिए इस घोषणा का कोई औचित्य नजर आता।

महत्वपूर्ण बात यह है कि इस समय भाजपा में भारी विघटन, अन्तर कलह व दिशाहीनता की स्थिति बनी हुई है। दल के पास अपना कोई स्पष्ट ऐजेण्डा भी नहीं है। राम मंदिर से लेकर आंतकवाद तक और परमाणुसंधि से लेकर आर्थिक नीतियों तक हर मुद्दे पर भाजपा और खास कर श्री आडवाणी अपने बयान और अपनी नीतियां बार-बार बदलते रहे हैं जिससे दल के कार्यकर्ताओं और समर्थकों में हताशा बढ़ी है। ऐसे में श्री आडवाणी को देश का भावी प्रधानमंत्री बनाने की घोषणा से किसे फायदा मिलेगा यह सवाल हरेक की जुबान पर है।

Sunday, December 9, 2007

हर मतदाता को मिले हर महीने 1750 रुपए 134 सांसदों ने की यह मांग

Rajasthan Patrika 09-12-2007
भारत के लोकतांत्रिक इतिहास में पहली बार एक ऐसी घटना होने जा रही है जो शायद देश के हर मतदाता की तकदीर बदल दे। राज्य सभा के 21 व लोक सभा के 112 सांसदों की पहल पर अब संसद में इस बात पर बहस होगी कि क्यों न देश के हर मतदाता को सरकार 1750 रुपए महीने का भत्ता दे। पाठकों को यह अटपटा लगे पर यह हकीकत है। आगामी बजट सत्र में ही लोक सभा के नियम 193 के तहत इस पर बहस होगी। दरअसल यह प्रस्ताव उस मूल सोच पर आधारित है जिसके अनुसार विकसित देशों मे हर व्यक्ति को हर महीने बेरोजगारी भत्ता दिया जाता है। जिसमें वह ठाट बाट के साथ अपने परिवार का निर्वाह कर लेता है। इसके पीछे मान्यता यह है कि काम का अधिकार हर व्यक्ति का मौलिक अधिकार है। खाली बैठकर कोई नहीं खाना चाहता। सरकार का कर्तव्य होता है कि वह हर आदमी को रोजगार के अवसर पैदा करके दे। विकास की आंधी ने हाथ के काम को अब हाशिए पर खड़ा कर दिया है और दिमाग के काम को मुंह मांगे पैसे मिलते हैं। इसलिए हाथ का काम करने वाले भारी तादाद में बेरोजगार होते जा रहे हैं। भारत के संविधान में नीति निर्देशक तत्व हर व्यक्ति को आजीविका का साधन मुहैया कराने का निर्देश देते हैं। पर आजादी के 60 वर्ष बाद भी हमारी सरकार न तो सबको रोजगार दे पायी है और न ही उसने हर मतदाता के लिए सम्मानजनक जीवन जीने की व्यवस्था की है।

इससे क्षुब्ध होकर युवा चिंतक भरत गांधी ने एक 222 पृष्ठ का दस्तावेज तैयार किया जिसमें अनेक तर्कों और आर्थिक विश्लेषणों के माध्यम से यह स्थापित किया कि भारत सरकार को हर मतदाता को 1750 रुपया महीना भत्ता देना चाहिए। ‘मतदातावृत्ति’ या ‘वोटरशिप’ शीर्षक उनका यह दस्तावेज इतना झकझोरने वाला है कि इसको पढ़कर और श्री गांधी से इस विषय पर पूरी बात समझकर देश के 134 सांसद इसके समर्थन में उठकर खड़े हो गये। अब इन्हीं सांसदों की पहल पर इस पर संसद में बहस होने जा रही है।

लोकसभा व राज्यसभा में सांसदों द्वारा वोटरशिप याचिका में कहा गया है कि बाजार के व वैश्वीकरण के दबाव में देश के उद्योग-व्यापार के समक्ष यह मजबूरी पैदा हो गई है कि वे अपने मिल कारखाने व कार्यालय में इतने कम आदमियों से काम चलाये जितने कम आदमी विकसित देशों में काम करते है। वहाँ की तकनीकि उन्नत है, जनसंख्या कम है अतः उत्पादन के काम में कम से कम लोग लगें, यह उनकी जरूरत है। लेकिन यही धर्म जब भारत जैसे देश को निभाना पड़ रहा है, तो वह गले की फांस बन रही है। प्रधानमंत्री सड़क परियोजना व दिल्ली की मैट्रो रेल परियोजना-ये दोनों बहुत विशाल परियोजनाएं थी, जहाँ आशा की गई थी कि इसमें खर्च होने वाला धन आम लोगों के घरों में जाएगा, लेकिन विश्वव्यापी प्रतिस्पर्धा के कारण यह धन बड़े ठेकेदारों-इंजीनियरों व मशीन मालिकों के घर में गया। ठेकेदार के सामने मुसीबत यह है कि अगर वह मशीन की बजाय आदमी से काम करवाता है तो काम पूरा होने में बहुत समय लगेगा और ठेकेदार का मुनाफा भी बहुत कम हो जाएगा। इसलिए आम मेहनतकश अनपढ़ लोगों का काम बुल्डोजर जैसी मशीने लेती छीनती जा रही हैं और पढ़े-लिखे लोगों का काम कम्प्यूटर हथियाता जा रहा है। ऐसे में हर हाथ को काम देने व दिला पाने का नारा केवल एक गैर जिम्मेदार व्यक्ति ही उछाल सकता है, जिसे बदली हुई परिस्थितियों का पर्याप्त अध्ययन नहीं है। इसलिए कोई नेता या सांसद अब जनता को काम दिलाने की गांरटी नहीं दे सकता।

याचिका में निष्कर्ष निकाला गया है कि भारत सरकार की नीति यह नही होनी चाहिए कि वह हर हाथ को काम देने का सपना दिखए। बल्कि उन्हें बेरोजगारी भत्ता देना चाहिए। याचिका में कहा गया है कि 1750 रुपये सभी मतदाताओं को मिलेगा तो कोई व्यक्ति देश में ऐसा नही बचेगा जिसके दिमाग को रोजगार न मिल जाए। मानव के मनोविज्ञान की गहन छानबीन करते हुए याचिका में कहा गया है कि नियमित आमदनी व्यक्ति के मन को स्वस्थ तथा सक्रिय रखता है। जब मन सक्रिय होगा तो हाथ सक्रिय हुए बिना नहीं रह सकता। जब हाथ व मन दोनो सक्रिय हो जाएगा तो ऐसा व्यक्ति उत्पादन में प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष भूमिका निभाने से बच ही नहीं सकता। जाने-अनजाने में हर व्यक्ति उत्पादक बन जाता है। जबकि बेरोजगार व्यक्ति जिसकी नियमित आमदनी का जरिया नहीं होता, उसके हाथ को तो काम होता ही नहीं, कुछ ही वर्षों में उसका दिमाग भी कुंद हो जाता है वह विध्वंसक बन जाता है। जिसका देश की अर्थव्यस्था पर विपरीत प्रभाव पड़ता है।

सवाल है कि 1750 रुपये देने के लिए सरकार पैसे का प्रबंध कैसी करेगी? इसका तरीका भी याचिका में सरकार को बताया गया है। पूंजीवाद व साम्यवाद के झगड़े को खत्म करते हुए याचिका में कहा गया है कि सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) की गणना करते समय जीडीपी में मशीनों के प्रतिशत की अलग से गणना की जाये तथा इंसानों के परिश्रम की अलग से। याचिका कहती है कि मशीनों के परिश्रम से अर्थव्यवस्था में जो धन पैदा हो रहा है वह मतदाताओं के बीच साम्यवादी तरीके से नकद रुप में वितरित कर दिया जाये व इंसानों के हिस्से को पूंजीवादी तरीके से वितरित किया जाये। इससे वैश्वीकरण के कारण मशीनी अर्थव्यवस्था से पैदा होने वाला धन सभी लोगों में बंट जाएगा और वैश्वीकरण का लाभ चन्द लोग ही नहीं उठाते रहंेगे। जैसा आज हो रहा है। वोटरशिप के माध्यम से हर व्यक्ति उसमें भागीदार बन जाएगा। याचिका में कहा गया है कि वैश्वीकरण की सामाजिक स्वीकृति के लिए भी वोटरशिप आवश्यक हैै।

वोटरशिप संबंधी याचिका कहती है कि अगर कोई यह कहता है कि वोटरशिप की यह रकम तो बिना मेहनत का पैसा माना जाएगा तो सवाल उठेगा कि ब्याज में, मकानों व मशीनों के किराये में तथा संसद द्वारा बनाए गए उत्तराधिकार कानूनों से जो पैसा प्राप्त होता है वह भी तो बिना मेहनत का पैसा ही है। फिर तो इस आमदनी को भी बंद किया जाए।

उक्त विश्लेषण से स्पष्ट है कि इस याचिका में जो गम्भीर खोज की गई है उसका लाभ राष्ट्र मिले, इसके लिए आवश्यक है वोटरशिप के खिलाफ उग्र प्रतिक्रिया व्यक्त करने से पहले मामले का पूरा अध्ययन किया जाये। केप्लर नामक वैज्ञानिक ने जब पहली बार कहा कि 11.5 किलो मीटर प्रति सेकण्ड के वेग से आसमान में फेंका गया कोई पत्थर नीचे नही गिरेगा। तो उस समय यह बात सबको अटपटी लगी थी। यदि इस अटपटी बात को बिना पर्याप्त अध्ययन के खारिज कर दिया जाता तो आज उपग्रहों को आसमान में फंेककर उनको वहाँ टिकाये रहना संभव न हो पाता और रेडियो, टेलीवीजन, मोबाइल, इण्टरनेट जैसी सुविधाओं से आज भी मानवता को वंचित रहना पड़ता।

फिर भी बहुत लोगों के मन में यह शंका होगी कि आखिर घर बैठे सभी मतदाताओं को 1750 रुपए महीना क्यों देना चाहिए। दूसरी तरफ यह माने वाले भी कम नहीं हैं कि यदि आर्थिक उदारीकरण की नीतियों से पैदा हो रही समृद्धि वोटरशिप के माध्यम से नहीं बटेंगी तो फिर इतनी आर्थिक असमानता हो जाएगी कि समाज का शांतिमय जीवन जीना असंभव हो जाएगा और उदारीकरण ही बचाना संभव नहीं होगा। अब निजी सुरक्षा गार्डों की संख्या भारत सरकार की पुलिस व सैन्य बल से भी ज्यादा हो चुकी है। साफ है कि जनजीवन दिन प्रतिदिन असुरक्षित होता जा रहा है। अब देखना है कि संसद वोटरशिप के इस सवाल पर क्या रुख अपनाती है।