Friday, September 12, 2003

मायावती की दुविधा


सुश्री मायावती ने ये सोचा भी न होगा कि उनकी सत्ता इतनी आसानी से हाथ से छीन जाएगी। सत्ता जाने के सदमे में तो वो थीं ही अब उन्हें एक और झटका लगा कि उनके दर्जनों विधायक साथ छोड़ भागे और श्री मुलायम सिंह के हाथ मजबूत कर दिए। अब सुश्री मायावती के पास हाथ मलने के सिवाय कोई दूसरा चारा नहीं है। अगर श्री मुलायम सिंह यादव व उनके सहयोगी श्री अमर सिंह व अन्य नेता ये तय कर लें कि उन्हें सुश्री मायावती को मुह तोड़ जवाब देना है तो वे आसानी से ऐसा करने की स्थिति में हैं। वे चाहे तो उत्तर प्रदेश में बसपा कार्यकताओं को कचहरी और थानों में दौड़ा-दौड़ा कर मारें। हालांकि सत्ता में आने के बाद हर राजनेता यही कहता है कि उसकी सरकार बदले की भावना से काम नहीं करेगी। पर मानव का स्वभाव है कि वो जैसे को तैसा जवाब देना चाहता है। इसलिए अगर श्री यादव सुश्री मायावती और उनके कार्यकर्ताओं पर कानूनी शिकंजा कसते हैं तो कोई नई बात नहीं होगी। हां, सुश्री मायावती की उलझनें जरूर बढ़ जाएंगी। पर एक बात ऐसी है जो सुश्री मायावती के पक्ष में जाती है। अपनी जाति वाले वोटों पर उनकी पकड़ मजबूत है। बसपा जिस दल के साथ भी चुनाव में कूद पड़े उसी को जिताने की स्थिति रखती है क्योंकि उनके समर्थकों के वोट एकजुट होकर पड़ते हैं। अपने इस जनाधार के कारण ही सुश्री मायावती इतनी आत्मविश्वास से भरी रहती हैं और शायद यही कारण है कि वे राजनीति की मैदान में किसी को भी पटकनी देने को तैयार रहती हैं। पर उनके इसी आक्रामक तेवर ने उन्हें काफी विवादास्पद बना दिया है। कोई भी दल उन पर विश्वास नहीं करता। मजबूरी में ही भाजपा ने सुश्री मायावती का हाथ थामा था और शायद यही मजबूरी कांग्रेस को मजबूर करे कि वो सुश्री मायावती से हाथ मिला कर आगामी विधानसभा चुनावों में चुनाव लड़े। यदि ऐसा होता है तो यह समीकरण भाजपा को बहुत भारी पड़ेगा। शायद यही कारण है कि भाजपा नेतृत्व सुश्री मायावती के साथ दोहरा खेल खेल रहा है। एक गुट ने मायावती सरकार गिराने की कार्यवाही को अंजाम दिया और दूसरा गुट उनसे अभी भी संबंध बनाए रखे है। इस का एक ही उद्देश्य है कि किसी भी तरह से सुश्री मायावती और कांग्रेस का समझौता नहीं हो पाए, क्योंकि वह एक मजबूत गठबंधन होगा।

सब कुछ सुश्री मायावती को ही सोचना और तय करना है। शुरू-शुरू में सभी नेता सत्ता के मद में कुछ ऐसे काम कर बैठते हैं जिससे उनका घाटा ही होता है पर समय सब सिखा देता है। श्री अटल बिहारी वाजपेयी के विश्वास मत के दौरान श्री मुलायम सिंह यादव के जो तेवर थे वे आज नहीं है। अब वे ज्यादा परिपक्व हो गए हैं और दूर की राजनीति करने लगे हैं। पिछले अनुभवों से सुश्री मायावती को भी सबक लेना चाहिए। यूं राजनीति में कोई संबंध स्थायी नहीं हुआ करते। मौका और समय देखकर ये बनते और टूटते रहते हैं। लेकिन अगर विचारधारा के स्तर पर देखा जाए तो सुश्री मायावती का भाजपा से तालमेल कभी नहीं बैठ सकता क्योंकि दोनों की विचारधारा में भारी विरोधाभास है। जबकि कांग्रेस और बसपा की विचारधारा में काफी साम्य है और अगर ये दो दल साथ आ जाते हैं तो हिन्दुस्तान के प्रजातंत्र में राजनीति के धु्रविकरण का एक नया अध्याय शुरू होगा जिसमें एक तरफ होंगे समाजवादी, वामपंथी या यूं कहिए कि धर्मनिरपेक्ष ताकतों का खेमा और दूसरी तरफ होंगे दक्षिणपंथी दल। तब शायद आया-राम, गया-राम और ब्लैक मेलिंग की राजनीति से भी देश को राहत मिल पाएगी।

इसके लिए यह बहुत जरूरी है कि सुश्री मायावती अपनी सोच में बदलाव करें। राजनीति में अपनी पहचान बनाने के लिए शुरू में सभी आक्रामक तेवर अपनाते हैं। बाद में धीरे-धीरे हालात उन्हें शांत कर देते हैं। सुश्री मायावती ने शुरू के दौर में कहा था, ’तिलक तराजू और तलवार इनको मारो जूते चार।बाद में खुद ही ठाकुर, ब्राह्मण और बनियों को टिकट बांटे। अब उन्हें ये समझ लेना चाहिए कि काठ की हाड़ी रोज-रोज नहीं चढ़ा करती। जिस तेजी से वे सहयोगी दलों को झटका देती आई हैं उस तेजी से वे राजनीति में लंबे समय तक शायद कामयाब न हो पाएं। उन्हें कुछ स्थायी संबंध तो बनाने ही होंगे। ऐसा नहीं है कि दलितों के वोट सदा के लिए सुश्री मायावती के झोली में पड़े रहेंगे। सपने दिखा कर कुछ समय तक लोगों को मूर्ख बनाया जा सकता है- हमेशा नहीं। आज वे दलितों की निर्विवाद नेता हैं लेकिन जब दलित देखेंगे कि उनकी आर्थिक प्रगति में और बसपा के नेताओं की आर्थिक प्रगति में जमीन-आसमान का अंतर है तो उनमें असंतोष फैलेगा और फिर सुश्री मायावती का ही कोई दाहिना या बाॅया हाथ उनके विरूद्ध बगावत का झंडा लेकर खड़ा हो जाएगा और एक नई बसपा बना लेगा। तब उनमें न वो ऊर्जा रहेगी न वो तेवर और तब नए खून वाले दलितों का मोर्चा ले उड़ेंगे। पिछले बीस सालों में दलितों के जो नेता ऊभरे आज उनके जनाधार सिकुड़ कर बहुत सीमित हो गए हैं। इस बात का ध्यान सुश्री मायावती को हमेशा रखना चाहिए।

जहां तक दलितों का प्रश्न हैं इस विषय में भी नई सोच की जरूरत है। ये सही है कि देहातों में जातिवाद की जड़े अभी भी बहुत गहरी हैं और दलितों के साथ सहज, सामान्य व्यवहार नहीं किया जाता। लेकिन यह भी सही है कि नौकरियों और शिक्षा में आरक्षण के कारण कम से कम शहरों में तो काफी बदलाव आया है। अब अपने को ऊंची जाति का मानने वाले भी दलित अधिकारी के सामने नतमस्तक रहते हैं। पर इस प्रक्रिया में सामाजिक सद्भाव बढ़ने की बजाए वैमनस्य और द्वेष बढ़ रहा है। दलितों की बात करने वाले अब महात्मा गांधी और विनोवा भावे जैसे संत तो हैं नहीं। ज्यादातर लोग सत्ता लोलुप हैं और दलित वोट को भुनाना चाहते हैं इसलिए सामाजिक वैमनस्य बढ़े ये उनके हित में जाता है। सुश्री मायावती अगर दलितों की सच्ची हमदर्द हैं तो सत्ता से बाहर रहने का जो समय उन्हें मिला हैं उसका इस्तेमाल उन्हें दलित समाज को जागृत करने में करना चाहिए। भक्ति युग के अनेक ऐसे संत हुए हैं जिन्होंने दलित उत्थान के लिए ठोस काम किया। जैसे कबीर दास जी, श्री चैतन्य महाप्रभु, संत रैदास, गुरूनानक देव आदि इन संतों ने दलितों को शेष समाज के साथ जोड़ने में अहम भूमिका निभाई। इनके द्वारा किए गए प्रचार कार्य में सामाजिक सौहार्द बढ़ा, वैमनस्य नहीं क्योंकि इनकी भावना लोक कल्याण की थी, जनता को मूर्ख बना कर कुर्सी हथियाने की नहीं।

पर आज दलितों के नेतृत्व करने वालों की न तो चेतना का विस्तार हुआ है न उन्हें आध्यात्मिक रूचि है। आग उगल कर लोगों की भावनाए भड़काना और उसे वोटों में बदल देना फिर सत्ता में बने रहने के लिए नौकरियां और खैरात के टुकड़े बांट देना ही दलित राजनीति का निचोड़ बन कर रह गया है। यह दुखःद स्थिति है। दलित समाज को इससे निकलने की जरूरत है। तभी दलितों के बच्चे भविष्य में शेष समाज के साथ सौहार्दपूर्ण जीवन जी पाएंगे। सत्ता में रहने वालों को कुछ नया और ठोस सोचने की फुर्सत ही नहीं मिलती पर सत्ता छीन जाने के बाद ऐसे शुभ कार्य करने के लिए काफी समय मिलता है। वैसे भी श्री मुलायम सिंह की सरकार अब जल्दी गिरने वाली नहीं है। इसलिए सुश्री मायावती के आगे तीन विकल्प हैं या तो आराम से बैठें और सैर-सपाटें करें जो उनकी उम्र का कोई राजनेता कभी करना नहीं चाहेगा। दूसरा विकल्प है कि दलितांे की बैठकों में जाकर श्री मुलायम सिंह के खिलाफ जहर उगलें और तीसरा विकल्प हैं कि कुछ दिन के लिए उठापठक की राजनीति से बच कर वैचारिक स्तर पर कुछ ठोस करें जिससे दलित समाज के प्रति एक दीर्घकालिक उपलब्धि प्रस्तुत कर सकें। ऐसे ही लोग इतिहास के पन्नों में अपनी जगह आरक्षित कराते हैं। सत्ता में आने और जाने का क्रम तो चलता रहता है पर समाज को हम क्या दे कर जाते हैं, समाज उसे ही याद रखता है। सुश्री मायावती को आत्ममंथन की आवश्यकता है। उन्हें दुविधा छोड़ कर दलितों के लिए रचनात्मक और ठोस करना होगा और राजनीति को समझने का अपना नजरिया व्यवहारिक बनाना होगा।

Friday, September 5, 2003

मुलायम सिंह का तीसरा मुख्यमंत्रित्व


बहुत प्रतीक्षा के बाद आखिर श्री मुलायम सिंह यादव को उत्तर प्रदेश की गद्दी तीसरी बार मिल ही गई। अब मुलायम सिंह पहले वाले नहीं रहे। समय ने उन्हें बहुत कुछ सिखा दिया है। साझी सरकार चलाना वक्त की मांग है। साझी सरकार चलाने की कुछ सीमाएं होती हैं। जहां इसमें एक दूसरे को साथ लेकर चलना जरूरी होता है, वहीं ब्लैकमेल होने की संभावनाएं भी काफी होती हैं। इसके लिए जरूरी है कि समन्वय समिति बहुत प्रभावी ढंग से काम करे। सत्ता भोगने के लिए नहीं, जनता की सेवा के लिए मिलती है। पर आमतौर पर सभी राजनेता सत्ता मिलने से पहले तो जनता के सवालों को लेकर घूमते हैं और सत्ता मिलने के बाद मुनाफे वाले मंत्रालय के लिए खींचतान मचा देते हैं। चंूकि लोकसभा चुनाव निकट हैं इसलिए उत्तर प्रदेश की सरकार में आए दलों को ज्यादा सावधानी बरतनी होगी क्योंकि इनके काम का असर लोकसभा चुनावों पर पड़ेगा। यूं तो श्री यादव बहुत सुलझे हुए, अनुभवी और समझदार नेता हैं, पर इस दौर में उनके सामने कई चुनौतियां हैं।

सबसे बड़ी तो चुनौती तो उत्तर प्रदेश की खस्ता माली हालत की है। साधनों के बिना प्रदेश का विकास करना तो दूर, सरकार चलाना ही नामुमकिन होता है। उत्तर प्रदेश की पिछली सरकारें कर्जे लेकर तनख्वाह बांटती आई हैं। यह स्थिति कब तक चलेगी ? नए संसाधन तो जुटाने ही होंगे। समाजवादी पार्टी के वरिष्ठ नेता श्री अमर सिंह के औद्योगिक जगत में खासे संबंध हैं। इसका लाभ उठाकर श्री मुलायम सिंह यादव उत्तर प्रदेश में कई बड़े उद्योग लगवा सकते हैं, जिससे लाखों नौजवानों को रोजगार मिल सकता है। उत्तर प्रदेश के गांवों में बेरोजगारी आज सबसे बड़ी समस्या है, जिसका हल ढूंढा जाना किसी भी सरकार की प्राथमिकता होनी चाहिए। इसके साथ ही किसानों के भुगतान की समस्या को भी नजरंदाज नहीं किया जा सकता। मायावती सरकार ने इस ओर ध्यान न देकर किसानों को नाराज ही किया है

आज से दस वर्ष पहले भाजपा मुलायम सिंह पर राजनीति के अपराधीकरण का आरोप लगाती थी।  पर सत्ता में आने के लिए भाजपा ने जिस तरह नैतिक मूल्यों को तिलांजलि देकर हर व्यक्ति से हाथ मिलाया उससे उसके श्रेष्ठ होने का दावा ध्वस्त हो गया। इधर मुलायम सिंह यादव ने प्रयास करके अपनी छवि सुधारने का काम किया। अब उनकी छवि एक गंभीर राजनेता की है। अपनी इस छवि को बनाए रखने के लिए श्री यादव को अपराधी तत्वों से दूर रहना होगा। न तो उन्हें प्रश्रय दें और न ही कोई सरकारी जिम्मेदारी ही उन्हें सौंपी जाए, वरना इसका गलत संकेत जाएगा। बेरोजगारी और राजनैतिक भ्रष्टाचार के चलते उत्तर प्रदेश के हर जिले में अपराधी तत्वों का बोलबाला है। जिन पर लगाम कसना श्री यादव की सबसे बड़ी चुनौती है। अगर वे इन पर लगाम कस पाते हैं तो वे लंबे समय तक उत्तर प्रदेश की कुर्सी पर बने रह सकते हैं। साझी सरकार की सबसे बड़ी समस्या यह होती है कि दर्जनों की तादाद में मंत्री बनाए जाते हैं। हर मंत्री पर आने वाला खर्चा उत्त्र प्रदेश की गरीब जनता पर अनावश्यक भार होता है। इससे प्रदेश की बिगड़ी अर्थव्यवस्था पर और भी चोट लगती है। वैसे भी दर्जनों मंत्री बिना काम के ही लाल बत्ती की गाड़ी में घूमा करते हैं। मंत्रिमंडल का आकार छोटा और प्रभावी बनाने पर श्री यादव को आशातीत सफलता मिलेगी।

श्री यादव के सामने एक बड़ी चुनौती सुश्री मायावती से निपटने की है। हालांकि श्री अमर सिंह ने कहा है कि उनकी सरकार बदले की भावना से काम नहीं करेगी, पर अक्सर राजनीति में जो कहा जाता है उसका उल्टा किया जाता है। मतलब स्पष्ट है कि मायावती सरकार के दौरान हुए घोटालों की जांच और उन पर तेजी से कार्रवाई करने के लिए श्री यादव सभी जांच एजेंसियांे पर दबाव डालेंगे। उधर, ताज काॅरीडोर कांड में बुरी तरह फंस चुकी मायावती की गति केन्द्र सरकार जयललिता जैसी कर देगा। तब मायावती के वो तेवर नहीं रह जाएंगे, जो वे आज दिखा रही हैं। ये बात दूसरी है कि मायावती की जितनी ही छीछालेदर होगी उतना ही उनका जातिगत जनाधार ठोस बनता जाएगा। इसके लिए यादव सरकार को जरूरी होगा कि मायावती के खिलाफ की जा रही कार्रवाई को ज्यादा प्रचारित न करे। 

हां यह जरूरी है कि सुश्री मायावती ने दलित नेताओं के नाम को भुनाते हुए प्रदेश के सभी शहरों और गांवों में सार्वजनिक जमीन पर हो रहे कब्जों को अनदेखा किया है या प्रश्रय दिया है। जिससे समाज में वैमनस्य बढ़ा है। लेकिन सुश्री मायावती के आतंक के सामने बोलने की किसी की हिम्मत नहीं थी। श्री मुलायम सिंह यादव की यह नैतिक जिम्मेदारी है कि वे पूरे प्रदेश में थानों को दुरुस्त करें और यह आदेश दें कि इस तरह के सभी अवैध कब्जे फौरन हटाए जाएं ताकि जनता का विश्वास प्रशासन में फिर से कायम हो सके। 

उत्तर प्रदेश की राजनीति पिछले चैदह वर्ष से धर्म से जुड़कर चल रही है। साम्प्रदायिकता, द्वेष और दंगे इसका परिणाम हैं। सबसे दुख की बात तो यह है कि धर्म की दुहाई देकर भी भाजपा की सरकार ने हिन्दू तीर्थस्थलों के विकास के लिए कुछ भी ठोस नहीं किया। श्री यादव कई बार कह चुके हैं कि वे धर्म में आस्था रखते हैं, लेकिन धर्म की राजनीति नहीं करना चाहते। अपनी इस भावना का प्रत्यक्ष प्रमाण इस नए शासनकाल में वे दे सकते हैं। वे उत्तर प्रदेश में तीर्थस्थलों का जोर शोर से जीर्णोद्धार करवाएं। इससे उनका यश दूर दूर तक फैलेगा और अगले लोकसभा चुनाव में तो इसका फायदा उन्हें निश्चित ही मिलेगा। सबसे पहले यदुवंशी भगवान श्री कृष्ण की लीलास्थली सम्पूर्ण ब्रज क्षेत्र के विकास कार्य को गति प्रदान किए जाने की आवश्यकता है। श्री यादव को चाहिए कि वे ब्रज का स्वरूप इतना सुन्दर बना दें, कि देश विदेश से आने वाले भक्त उनका यशगान करें। यह किसी से छिपा नहीं है कि तीर्थस्थलों की दुर्दशा पिछले कुछ सालों में बहुत बढ़ गई है। राजनीतिक दल साम्प्रदायिक और गैर साम्प्रदायिक की श्रेणी में बंट गए हैं। परंतु  किसी ने भी तीर्थस्थलों की ओर ध्यान नहीं दिया, चाहे वह हिन्दुओं के हों या मुसलमानों के अथवा सिखों के या ईसाइयों के। इनकी दशा सुधारने के लिए कोई प्रयास नहीं किए। बस उनका एक ही ध्येय रहा कि कैसे भी जनता के ज्यादा से ज्यादा वोट हासिल किए जाएं।
ऐसा लगता है कि उत्तर प्रदेश का भविष्य अब कांग्रेस और समाजवादी पार्टी की जुगलबंदी से ही निर्धारित होगा। इसके लिए इन दोनों ही दलों को काफी परिपक्वता का परिचय देना होगा। चूंकि लोकसभा चुनाव निकट हैं इसलिए दोनों ही दल अपना जनाधार बढ़ाना चाहेंगे। इससे कार्यकर्ताओं के बीच टकराव की स्थिति बन सकती है, जिसे टाला जाना चाहिए। हालात की नजाकत को समझकर दोनों दलों को शीर्ष स्तर पर ही ऐसी समझदारी पैदा करनी चाहिए जिससे यह लंबे समय तक मिलकर साथ चल सकें और एक दूसरे के पूरक बन सकें, प्रतिद्वन्द्वी नहीें क्योंकि प्रतिद्वन्द्वी बनकर यह अपने ही पैरों पर कुल्हाड़ी मारेंगे। इसमंे ज्यादा जिम्मेदारी श्री यादव के ऊपर है। यदि वे लंबे समय तक उत्तर प्रदेश की सत्ता में रहना चाहते हैं तो उन्हें लोकसभा चुनाव में कांग्रेस के लिए मैदान छोड़ने में संकोच नहीं करना चाहिए। बड़ी स्पष्ट समझ बन सकती है कि समाजवादी पार्टी राज्य स्तर की राजनीति में आगे रहे और इंका केन्द्र के मामले में। इससे प्रदेश में राजनैतिक अस्थिरता भी दूर होगी और जनता के सामने एक ठोस विकल्प भी दिखाई देगा। 

पता नहीं राजनेताओं के बीच यह गलतफहमी क्यों पैदा हो गई है कि जनता मूर्ख है और वो चुनाव के पहले फुसलाई जा सकती है, चाहे विकास कार्य कोई किया जाए या नहीं। पर अब समय बदल रहा है। सूचना क्रांति के दौर में जनता पहले की तरह कूपमंडूक नहीं है। जैसे जैसे उसकी जानकारी बढ़ रही है उसकी अपेक्षा भी बढ़ रही है। बिना जन अपेक्षाओं पर खरा उतरे कोई राजनेता या दल बहुत लंबे समय तक जिंदा नहीं रह सकता। इसलिए श्री यादव को चाहिए कि उत्तर प्रदेश के प्रशासन को जनता के प्रति जवाबदेह होने के लिए मजबूर करें। इस मामले में राजस्थान और आंध्र प्रदेश का उदाहरण अनुकरणीय है। जहां के मुख्यमंत्रियों ने राजनीतिक स्टंटबाजी की जगह जनहित में कई ऐसे ठोस काम किए, जिससे प्रशासन का रवैया जनता के प्रति बदल गया है। ऐसी पहल उत्तर प्रदेश में भी होनी चाहिए। हमारी प्रशासनिक व्यवस्था का मूल उद्देश्य जनता की सेवा करना है, पर फिर भी यह हमारे प्रशासक खुद को राजा मानकर चलते हैं और जनता का प्रजा। लोकतंत्र का इससे बड़ा मजाक और क्या हो सकता है?

Friday, August 29, 2003

सरकार की नाक तले फर्जी डिगरियों का जोर


सूचना क्रान्ति, उदारीकरण और उपभोक्ता संस्कृति तीनों ने मिलकर गांव और कस्बों के नौजवानों के मन में कुछ नया सीखने और व्यावसायिक जगत में आगे बढ़ने की ललक पैदा कर दी है। उनकी इस ललक को बढ़ाने का काम कर रहे हैं देश भर में कुकुरमुत्ते की तरह उग आए हजारों देसी व विदेशी उच्च शिक्षा संस्थान। इनकी दुकान जितनी ऊंची है, उतनी फीकी भी। यह किसी से छिपा नहीं है कि देश के बहुसंख्यक विद्यार्थियों को शिक्षा का सही वातावरण तक नहीं मिलता। शिक्षा के नाम पर खानापूर्ति ही ज्यादा होती है। ऐसे में कमजोर नींव पर खड़े इन नौजवानों को यह शिक्षा संस्थान सपने दिखाकर, झूठे वायदे करके और भ्रामक सूचनाएं देकर आकर्षित कर लेते हैं। इनके जाल में फंसने वाले नहीं जानते कि जिन फर्जी सर्टीफिकेट या डिग्रियों को बांटकर यह लोग सुनहरे भविष्य के सपने दिखा रहे हैं, उन्हें लेकर वे सिर्फ धक्के ही खाएंगे। इनकी बदौलत कोई ढंग की नौकरी मिलना मुश्किल नहीं तो आसान भी नहीं है। अगर एमबीए करके कपड़े की दुकान पर पन्द्रह सौ रुपये महीने की सेल्समैनशिप मिली, तो कौन सा तीर मार लिया। इतना ही नहीं, प्रोफेशनल कोर्स की पढ़ाई से आने वाला आत्मविश्वास भी यह डिग्रियां नहीं दे पातीं। 

इन संस्थानों में लाखों रुपये देकर पढ़ने वाले छात्रों के मन में हमेशा एक डर सा बना रहता है कि कहीं ऐसा न हो कि पढ़कर भी नौकरी न मिले। यदि सर्वेक्षण किया जाए तो यह बात सिद्ध भी हो जाएगी कि लाखों रुपये लेकर दाखिला देने वाले इन इंजीनियरिंग, मेडिकल या मैनेजमेंट काॅलेजों के ज्यादातर छात्रों को बरसों तक माकूल रोजगार नहीं मिलता। यह तो उन लोगों की बात है जो जानते-बूझते हुए ऐसी डिग्रियां लेते हैं। लेकिन भारत में बहुत से ऐसे भी शिक्षण संस्थान भी हैं, जो असली होने का दावा करते हुए लाखों लोगों को सर्टीफिकेट और डिग्रियां बांट चुके हैं। जबकि है ये पूरे फर्जी। इनके काम करने के तौर तरीके देखकर कोई भी इन्हें असली मान बैठता है। पर, वास्तव में यह असली नहीं होते। कहने के लिए इनके पास देश की जानी-मानी संस्थाओं से संबद्धता के भी प्रमाण होते हैं और यह अपने यहां पढ़ने वाले लोगों को देश-विदेश की बेहतरीन कंपनियों में नौकरी दिलाने का भी पक्का वायदा करते हैं। इसी झांसे में आकर प्रतिवर्ष लाखों लोग इनके चंगुल में फंस जाते हैं और मोटी रकम चुकाकर एक डिग्री हासिल करते हैं, जो वास्तव में जाली होती है, जिसे जारी करने का भी अधिकार इन संस्थानों को नहीं होता।

विश्व विद्यालय अनुदान आयोग अधिनियम 1956 की धारा 22 के मुताबिक, डिग्री प्रदान करने का अधिकार केवल उन्हीं विश्वविद्यालयों को है जो केन्द्र अथवा राज्य के कानूनों के तहत स्थापित किए गए हों या यूजीसी अधिनियम की धारा 3 के तहत यूनीवर्सिटी की मान्यता प्राप्त हो अथवा संसद द्वारा विशेष रूप से किसी संस्थान को डिग्री प्रदान करने की अनुमति दी गई हो। इसके अलावा अन्य कोई भी विश्वविद्यालय डिग्री प्रदान नहीं कर सकता। यदि वह ऐसा करता है तो कानूनन गलत है। यूजीसी एक्ट की धारा 23 के मुताबिक केन्द्र, राज्य अथवा प्रांतीय अधिनियम के अंतर्गत गठित विश्वविद्यालयों को छोड़कर किसी भी अन्य संस्थान को अपने नाम के साथ यूनीवर्सिटी या विश्वविद्यालय शब्द प्रयोग करने की अनुमति नहीं है। पर छोटे शहरों की छोेडें,़ प्रांतों की राजधानी तक में ऐसे तमाम फर्जी विश्वविद्यालयों के बोर्ड लगे मिल जाएंगे। स्थानीय सरकारें सब जानबूझकर भी खामोश बैठी रहती हैं। कारण साफ है। प्रायः इन काॅलेजों के संस्थापक या प्रबंधक क्षेत्र या प्रांत के प्रतिष्ठित राजनेता होते हैं, जिनकी रुचि शिक्षा के प्रसार में नहीं बल्कि बेरोजगारों की मजबूरी का फायदा उठाकर मोटी कमाई करने में होती है।

फर्जी विश्वविद्यालयों तथा जाली डिग्रियों को बांटने से रोकने के लिए संसदीय समिति द्वारा कुछ सुझाव दिए गए, हैं, जैसे यूजीसी या शिक्षा विभाग जाली विश्वविद्यालयों व संस्थानों की एक सूची बनाए, यूजीसी तथा शिक्षा विभाग अखबारों में छपने वाले फर्जी विश्वविद्यालयों के विज्ञापनों के बारे में प्रेस काउंसिल आॅफ इंडिया तथा एडीटर्स गिल्स को अवगत कराकर अखबारों में ऐसे विज्ञापनों को प्रतिबंधित करवाए, यूजीसी को दोषी संस्थानों के खिलाफ कार्रवाई करने के ज्यादा अधिकार दिए जाएं आदि-आदि। पर, ऐसी कितनी सूचनाएं हम तक पहंुचती हैं

यूजीसी ने तो अपने यहां एक विभाग सिर्फ ऐसे ही फर्जी विश्वविद्यालयों की गतिविधियों पर नजर रखकर रोक लगाने तथा उनके बारे में लोगों को जानकारी देने के लिए बनाया है। इंदिरा गांधी राष्ट्रीय मुक्त विश्वविद्यालय ने भी दूरस्थ शिक्षा के क्षे़त्र में धोखेबाज संस्थाआंे का पता लगाने के लिए एक निगरानी दल गठित किया है। कुछ मामलों में यूजीसी ने ऐसी संस्थाओं पर रोक लगाने के लिए अदालत में भी याचिका दायर की हुई है। एक सितंबर 1998 को मानव संसाधन विकास मंत्री ने सभी राज्यों के मुख्यमंत्रियों से यूजीसी अधिनियम का उल्लंघन करने वाली संस्थाओं पर कड़ी निगाह रखने तथा उनके विरुद्ध कार्रवाई करने के लिए कहा था। इसके अलावा केंद्रीय मानव संसाधन विकास मंत्री डाॅ. मुरली मनोहर जोशी ने जुलाई 1998 में एक टास्क फोर्स बनाकर यूजीसी एक्ट में आवश्यक संशोधन करने का काम उसे सौंपा। पंजाबी विश्वविद्यालय, पटियाला के पूर्व कुलपति प्रो. अमरीक सिंह की अध्यक्षता में बनी इस टास्क फोर्स ने जो सुझाव दिए उनमें यूजीसी एक्ट की धारा 22 और 23 का उल्लंघन करने वाले लोगों को दी जाने वाली सजा तथा जुर्माने में भारी बढ़ोत्तरी, यदि यह उल्लंघन किसी एसोसिएशन या लोगों के समूह द्वारा किया जाए तो सभी लोगों को समान रूप से दंडित करने के अलावा जो कोई ऐसी संस्थान से किसी भी प्रकार से संबंधित हो या उससे लाभ उठाता हो, उसे भी दंडित किए जाने की सिफारिश की गई। इसके अलावा इस अपराध को गंभीर तथा गैर जमानती बनाने, यूजीसी के मानकों के अनुरूप प्रदान की जाने वाली डिग्री, डिप्लोमा या सर्टीफिकेट की सूची बनाकर हर साल प्रकाशित करवाने, भारत में डिग्री, डिप्लोमा तथा सर्टीफिकेट देने वाली विदेशी विश्वविद्यालयों की गतिविधियों को भी यूजीसी के दायरे में लाने की बात कही गई।

इन धोखेबाज संस्थाओं के जाल में अक्सर वही छात्र फंसते हैं, जो छोटे शहरों या कस्बों में रहते हैं, जिन्हें ऐसी संस्थाओं के कारनामों की जानकारी नहीं होती। कई बार तो बहुत से विश्वविद्यालय, काॅलेज अथवा स्कूल अखबारों में बड़े-बड़े विज्ञापन देकर कहते हैं कि उनकी डिग्रियां फलाने संस्थान से मान्यता प्राप्त हैं, फलाने संस्थान से संबद्ध है। कई तो कुछ कदम आगे बढ़कर जाली नाम वाली विदेशी संस्थाओं से भी अपनी संबद्धता दिखा देते हैं। असलियत से बेखबर भोले भाले नौजवान इन संस्थाओं के तड़क-भड़क वाले जाल में फंसकर अपना पैसा तो बरबाद करते ही हैं, साथ ही अपने भविष्य में भी पलीता लगा लेते हैं। 

बहुत से संस्थान यूजीसी से मान्यता प्राप्त करने के लिए आवेदन करते हैं, परंतु यूजीसी द्वारा मान्यता नहीं देने पर भी वह अपना काम जारी रखते हैं। अभी तक इन धोखेबाजों पर लगाम कसने के लिए कोई भी प्रभावी साधन नहीं है। इस वजह से इनका धंधा खूब फल फूल रहा है। पकड़े जाने पर यह संस्थान किसी अन्य नाम से अपनी दुकान खोल लेते हैं और फिर शुरू कर देते हैं मासूम छात्रों को ठगने का धंधा। रोजगारपरक शिक्षा देने वाले संस्थानों की बाढ़ सी आई हुई है। भारी मात्रा में इन संस्थानों के खुल जाने से इन पर निगरानी रखना टेढी खीर हो गया है। पिछले कुछ सालों में रोजगारपरक शिक्षा की मांग में भारी इजाफा हुआ है। राज्य सरकार से सहायता प्राप्त संस्थाए इस मांग को पूरा करने में सक्षम नहीं है, इसलिए निजी, स्वपोषित संस्थाओं को रजिस्टर्ड करना जरूरी हो गया। यह सही है कि इन निजी संस्थाओं में छात्रों को सुविधाएं अधिक दी जाती हैं, परंतु सही और वैधानिक संस्थाओं की आड में कुछ नकली संस्थाएं भी छात्रों का शोषण करती हैं, इससे इंकार नहीं किया जा सकता। कुछ मामलों में तो देश के नामी गिरामी विश्वविद्यालयों के उच्च पदस्थ अधिकारी भी इन संस्थाओं के कामकाज में शामिल पाए गए। यूजीसी और अन्य रेगुलेटरी अथारिटी, एडवर्टाइजमेंट स्टेंडर्डस काउंसिल आॅफ इंडिया (एएससीआई), इंडियन न्यूजपेपर्स सोसायटी तथा मोनोपोलीज एंड रेस्ट्रिक्टिव ट्रेड प्रेक्टिसेज कमीशन को एकसाथ मिलकर एक ऐसी प्रक्रिया तैयार करनी चाहिए, जिनसे ऐसे धोखेबाज विज्ञापनों पर रोक लग सके।

Friday, August 22, 2003

पीने की आदत बदलें


अभी हाल ही में बहुराष्ट्रीय कंपनियों की कारगुजारियों को उजागर कर सेंटर फाॅर साइंस एंड एन्वायरन्मेंट (सीएसई) ने देश के करोड़ों लोगों की आंखों पर पड़ा पर्दा उठाने का काम किया है। प्रयोगों के जरिए सीएसई ने यह बताने की कोशिश की, कि आकर्षक विज्ञापनों के जरिए यह कंपनियों जिन शीतल पेयों को आम भारतीयों के गले के नीचे उतार रही हैं, वह सेहत के लिए बिल्कुल भी मुफीद नहीं हैं। संस्थान के वैज्ञानिकों का कहना है कि इन शीतल पेयों के जरिए हम ऐसे कीटनाशकों को निगल रहे हैं, जिनके लंबे समय तक सेवन करने से कैंसर, स्नायु और प्रजनन तंत्र को क्षति, जन्मजात शिशुओं में विकृति और इम्यून सिस्टम तक में खराबी आ सकती है। परंतु बहुराष्ट्रीय कंपनियां इस बात का खंडन करती हैं। वास्तविकता क्या है, यह तो विस्तृत जांच पड़ताल के बाद ही पता चलेगा। पर, गैर सरकारी संगठन सीएसई का कहना है कि यह विदेशी कंपनियां भारत के साथ भेदभाव बरत रही हैं। अमेरिका और अन्य दूसरों देशों में इनके उत्पादों की गुणवत्ता का बारीकी से ध्यान रखा जाता है, जबकि भारत में यह पैसे बचाने के लिए कीटनाशकों का घोल जनता को पिला रही हैं। मजे की बात तो यह है कि शर्बत और लस्सी के देश भारत के अधिकांश लोग पश्चिमी बयार में बहकर खुद को माॅडर्नसाबित करने के लिए इन दूषितशीतल पेयों का जमकर उपयोग कर रहे हैं। सीएसई की रिपोर्ट आने के बाद सरकार और लोगों में कुछ जागरूकता तो आई है और वह इन बोतलबंद शीतल पेयों की गुणवत्ता को परखने के बाद ही बाजार में उतारने पर जोर दे रही हैं।

पर, पेय पदार्थों मंे अपशिष्ट पदार्थों की मिलावट सिर्फ विदेशी कंपनियों के इन शीतल पेयों तक ही सीमित नहीं है। अभी ज्यादा समय नहीं बीता। इसी साल फरवरी की बात है, जब बोतलबंद मिनरल वाटर के दूषित होने को लेकर काफी बबाल मचा था। सेंटर फाॅर साइंस एंड एन्वायरन्मेंट ने देसी-विदेशी विख्यात कंपनियों के बोतलबंद पानी के दिल्ली में 17 और मुंबई में 13 उत्पादों की जांच कर उनमें लिन्डेन, डीडीटी, क्लोरोपाइरोफोस, मेलाथियाॅन जैसे कीटनाशक पाए जाने की पुष्टि की थी। इसके बाद सरकार को होश आया और उसने भारतीय मानक ब्यूरो की सिफारिश के आधार पर बोतलबंद पानी की शुद्धता बरकरार रखने के लिए खाद्य अपमिश्रण कानून में कुछ फेरबदल कर पहली अपे्रल से इन्हें लागू करवा दिया। हालांकि भारत के अधिकांश लोग नगर पालिका या नगर निगम द्वारा आपूर्ति किया जाने वाला जल अथवा नदियों के पानी को ही पीते हैं। नगर पालिकाएं या नगर निगम इस पानी को स्वच्छ करने के लिए क्या कदम उठाती है, यह किसी से छिपा नही है। बाहरी जल की तो छोडि़ए, पृथ्वी पर बढ़ते प्रदूषण के कारण भूगर्भीय जल  भी अब स्वच्छ नहीं रहा है। कीटनाशकों के अंधाधुंध प्रयोगों से अनाज, सब्जी और फल तक दूषित हो गए हैं। यदि इनकी बिना सफाई किए हुए यूं ही खा लिया जाए, तो यह सेहत बनाने के बजाए उसका बेड़ा गर्क कर देंगे। ज्यादा पैदावार के चक्कर में किसान रासायनिक खादों का बेतरतीबी से इस्तेमाल कर रहे है। इसके दुष्परिणाम भी उनके सामने आने लगे हैं। भूमि बंजर हो रही है। उपज की गुणवत्ता में कमी आई है। जमीन से उपयोगी तत्व नष्ट हो रहे हैं, आदि-आदि।

कभी जहां इस देश में दूध-दही की नदियां बहा करती थीं, अब वहां हर चीज में मिलावट का आलम है। यहां तक कि दूध भी इससे अछूता नहीं रह गया है। थोड़े से लाभ के लिए लोग सेहत के लिए बेहद नुकसानदेह पदार्थों से नकली दूध तैयार कर लोगों को पिला रहे हैं। यूरिया, साबुन, और तेल जैसी खतरनाक चीजों को मिलाकर बनने वाले इस दूध में दूध नाम की कोई चीज ही नहीं होती। लोग अज्ञानतावश मानव सभ्यता के लिए खतरा पैदा कर रहे हैं। इन्हें नहीं पता कि इस दूध को पीकर हमारे नौनिहाल, जो देश का भविष्य हैं, कितनी बीमारियों के चंगुल में फंस जाएंगे। डाॅ. वर्गीज कुरियन ने भी भारत में आॅपरेशन फ्लड शुरू करते समय यह नहीं सोचा होगा कि आम लोगों को दूध मुहैया कराने के लिए वह जिन डेयरियों को खुलवाने की बात कह रहे हैं, उनमें बरती जाने वाली लापरवाही गाय और भैंसों के लिए तो जानलेवा साबित होंगी ही, साथ ही वहां से मिलने वाला दूध भी आम आदमी के लिए मुफीद नहीं रहेगा। भारत में डेयरियों की हालत ज्यादा अच्छी नहीं है। ज्यादा दूध लेने के चक्कर में गायों को हर साल गर्भवती करवा दिया जाता है, क्योंकि बच्चा होने के बाद दस माह तक वह ज्यादा दूध देती हैं। हर रोज उन्हें आॅक्सीटोसिन के इंजेक्शन लगाए जाते हैं ताकि वे ज्यादा दूध दे सकें। परंतु यह इंजेक्शन उनके लिए कितने हानिकारक हैं, यह दूध दुहने वाले और डेयरी मालिक शायद नहीं जानते। अगर उन्हें पता है तो वह और भी गंभीर अपराध कर रहे हैं, क्योंकि जानबूझकर किसी को मौत के मुंह में धकेलना, भारतीय ही नहीं विदेशी कानून में भी अपराध की श्रेणी में आता है। यह सभी तरीके इन बेजुबान जानवरों के लिए तो खतरनाक है हीं, साथ ही इनका दूध पीने वालों के लिए भी कम नुकसानदेह नहीं हैं।

इंडियन काउन्सिल आॅफ मेडिकल रिसर्च (आईसीएमआर) द्वारा सात साल के शोध के बाद निकाले नतीजों में पाया कि जिस गाय के दूध को सदियों से हम पूर्ण आहार मानकर पीते चले आ रहे हैं, वह भी कीटनाशकों से भर गया है। उसमें भी डाईक्लोरो डाई फिनाइल ट्राइक्लोरोईथेन (डीडीटी), हैक्साक्लोरो साइक्लोहैक्सेन (एचसीएच), डेल्ड्रिन, एल्ड्रिन जैसे खतरनाक कीटनाशक भारी मात्रा में मौजूद हैं। रिपोर्ट कहती है कि यदि अल्सर से पीडि़त किसी व्यक्ति को डेयरी का दूध और उसके उत्पाद खाने-पीने को दिए जाएं तो उसे दिल का दौरा पड़ने की संभावना दो से छह गुना तक बढ़ जाती है। भारतीय खाद्य अपमिश्रण कानून एक किलो में केवल 0.01 मिलीग्राम एचसीएच की अनुमति देता है, जबकि आईसीएमआर की रिपोर्ट में यह 5.7 मिलीग्राम प्रति किलोग्राम निकला। इसके अलावा वैज्ञानिकों को दूध में आर्सेनिक, कैडमियम और सीसा जैसे खतरनाक अपशिष्ट भी मिले। यह इतने खतरनाक हैं कि इनसे किडनी, दिल और दिमाग तक क्षतिग्रस्त हो सकते हैं।

बात सिर्फ गाय और भैंस के दूध तक ही सीमित नहीं है। खेती के दौरान भारी मात्रा में कीटनाशकों के प्रयोग से बच्चे के लिए अमृत कहा जाने वाला मां का दूध भी शुद्ध नहीं रह गया है। अमेरिका में हुए एक शोध मंे अमेरिकी औरत के दूध में कीटनाशकों के साथ-साथ सौ से भी ज्यादा औद्योगिक रसायन पाए गए। इस शोध में तो यहां तक कहा गया कि यदि इस दूध को बोतल में बंद करके बाजार में बेचने की कोशिश की जाए तो, अमेरिकी सरकार इसकी इजाजत नहीं देगी। पर, अनेक नुकसानदेह रसायनों के बावजूद मां का दूध बच्चे के पोषण के लिए बहुत जरूरी है। यह नवजात शिशु को अनेक बीमारियों से लड़ने की ताकत प्रदान करता है। विश्व स्वास्थ्य संगठन का अनुमान है कि प्रतिवर्ष करीब दो लाख लोग कीटनाशकों को खाकर काल के गाल में समा जाते हैं। यह संख्या पिछले दस-12 सालों में लगभग सात गुनी हो गई है। संगठन की रिपोर्ट के अनुसार हर साल करीब 30 लाख लोग इन जहरों की चपेट में आते हैं और खास बात है कि इनमें से ज्यादातर बच्चे होते हैं।

कीटनाशकों के अंधाधुंध प्रयोग से पैदा हुई इन स्थितियों को देखते हुए अनेक देशों ने तो इनका प्रयोग लगभग बंद ही कर दिया है और वे प्राकृतिक खाद और कीटनाशकों का उपयोग करने लगे हैं। पर, भारत अभी पश्चिम की कदमताल कर रहा है। जिस तकनीक को वे उपयोग कर उसके बुरे प्रभावों को देखकर त्याग चुके हैं, भारतीय उनका अंधानुकरण कर रहे हैं। वे हमारी पुरातन संस्कृति और सभ्यता के गुणों से परिचित होकर उनका अध्ययन कर गूढ़ रहस्य को समझकर अपने जीवन में उतारने की कोशिश में लगे हैं, वहीं भारतवासी अपनी समृद्ध संपदा को छोड़कर पश्चिमी चकाचैंध के पीछे दीवाने हुए जा रहे हैं। तकनीक को अपनाना, चाहे वह अपने देश की हो या विदेश की, गलत नहीं है, पर उसके अच्छे और बुरे प्रभावों को जाने बिना उसका अंधानुकरण करना सही नहीं कहा जा सकता।

Friday, August 8, 2003

लोकतंत्र के प्रहरियों को फिर से जगाना होगा


जनवरी 2001 में प्रकाशित हुए जुझारू पत्रकारों की कमर तोड़ दी जाती है पंजाब मेंशीर्षक वाले लेख में मैंने पंजाब के एक पत्रकार की जीवटता का जिक्र किया था। छोटे से अखबार से पत्रकारिता के क्षेत्र में कदम रखने वाले इस नौजवान ने जब पंजाब पुलिस की गुंडागर्दी तथा स्वास्थ्य तथा अन्य विभागों में व्याप्त भ्रष्टाचार के कच्चे चिट्ठे खोले, तो पुलिस के साथ‘-साथ कुछ सफेदपोश भी उसके दुश्मन बन गए। उस पर तथा उसके परिवार पर कई बार जानलेवा हमले हुए। सब कुछ जानकर भी पुलिस मूकदर्शक बनी रही। जब किसी भी तरह यह नौजवान इन लोगों की यातनाओं के आगे न झुका तो एक लड़की के अपहरण और बलात्कार के मामले में उसे और उसके पूरे परिवार को फंसा दिया गया। करीब दो साल मुकदमा लड़ने के बाद अब फास्ट ट्रैक अदालत ने इस नौजवान पत्रकार और उसके परिजनांे को निर्दोष मानते हुए सभी आरोपों से मुक्त कर दिया है। 

यह कहानी सिर्फ एक पत्रकार की नहीं है बल्कि लगभग हर उस कलमकार की स्थिति को बयां करती है, जो समाज से बुराइयों को मिटाने के लिए कमर कस चुका है। परेशानियों का स्वरूप बदल सकता है, मगर यह जान लेना चाहिए कि देशसेवा की राह आसान नहीं है। यह सही है कि सच्चाई कभी न कभी सामने आ ही जाती है, मगर अंग्रेजी में एक कहावत है जस्टिस डिलेड इज जस्टिस डिनाइड। मतलब, यदि न्याय मिलने में देरी होती है तो उसका कोई महत्व नहीं रह जाता। इस पत्रकार का यह मुकदमा सुनने में तो बहुत साधारण सा प्रतीत होता है, मगर यह कई महत्वपूर्ण सवाल हमारे बीच छोड़ जाता है। मसलन, अदालती कार्यवाही के दौरान झूठे मुकदमें मंे फंसे लोगों को होने वाली परेशानियों के लिए जिम्मेदार व्यक्तियों को आखिर सजा क्यों नहीं मिलती? इन लोगों का कीमती समय, जो अदालतों और पुलिस के चक्कर काटने में बरबाद होता है, उसकी भरपाई कौन करेगा? थोड़े से लाभ के लिए लोगों के भविष्य से खिलवाड़ करने वाली पुलिस के खिलाफ कार्रवाई करने वाला कोई है क्या?

पत्रकारों को समाज का दर्पण कहा जाता है। उनकी लेखनी से निकले एक-एक शब्द समाज को अंदर तक हिला देने की ताकत रखते हैं। मगर क्या हमने कभी गौर किया है कि कितनी परेशानियों को झेलते हुए वे सामाजिक बुराइयों को मिटाने का प्रयास करते हुए समाज को एकजुट रखते हैं। आज भारतीय समाज में जिस तेजी से बदलाव आ रहा है, उनके बीच हमारे पुरातन जीवन मूल्य खो से गए हैं। जिस सभ्यता पर हमें गर्व हुआ करता था, आज हम उसकी अनदेखी कर पश्चिमी सभ्यता का अंधानुकरण करने में जुट गए हैं। हम यह भूल गए हैं कि उसी संस्कृति की वजह से भारत को विश्व का सिरमौर माना जाता है। जैसे-जैसे बाजारीकरण हम पर हावी हुआ, हमारी नीयत में भी फर्क आ गया। हम सिर्फ अपने तक सीमित होकर रह गए। पहले जहां लोग कोई काम करने से पहले खुद के साथ-साथ समाज के अन्य लोगों के बारे में भी सोचते थे, अब यह सोच पूरी तरह लुप्त हो गई है। स्वार्थसिद्धि की इसी आदत ने आज समाज को एक ऐसे मोड़ पर लाकर खड़ा कर दिया है, जहां व्यक्ति सिर्फ अपने हित साधने के लिए काम करता है। उसे इससे कोई मतलब नहीं कि उसके ऐसे काम से दूसरे को कितनी तकलीफ होगी या उसका कितना नुकसान होगा। हो सकता है उसका जीवन भी तबाह हो जाए। ऊंचे ऊंचे पदों पर बैठे लोग भी सिर्फ अपने तक सीमित हो गए हैं। समाज के प्रति उसके दायित्व अब दूसरे पायदान पर आ गए हैं। समाज की यह स्थिति अच्छी नहीं कही जा सकती। खासकर ऐसे समय में जब भारत परिवर्तन के ऐसे मोड़ पर खड़ा है, जहां समूचे विश्व की नजर उस पर लगी हुई है। 

देखा जाए तो लोकतंत्र का चैथा स्तंभ कहे जाने वाले पत्रकार भी समाज में आए बदलाव से अछूते नहीं रह गए हैं। समय का पहिया घूमने के साथ साथ पत्रकारिता के उद्देश्य और मायने भी बदल गए हैं। अब पत्रकारिता ने समाज सुधारक का चोला उतारकर व्यवसायिकता का लबादा ओढ़ लिया है। उसकी प्राथमिकताओं की सूची में व्यक्तिगत हित ऊपर आ गए हैं। इसकी वजह भी बहुत साफ है। पहले जो लोग पत्रकारिता करते थे, वे इसे कमाई का साधन नहीं बल्कि देश सेवा का एक जरिया मानते थे। वे जानते थे कि उनकी कलम में वह ताकत है, जो समाज को आंदोलित भी कर सकती है, तो उसमें फूट भी डाल सकती है। कलम की ताकत कम नहीं हुई है बल्कि सही मायने में इसमें इजाफा ही हुआ है, मगर इसकी धार आज कुंद हो गई है। आजादी से पहले जब किसी अखबार में ब्रिटिश सरकार की जनविरोधी नीतियों के खिलाफ कोई समाचार प्रकाशित होता था तो ब्रिटिश सरकार परेशान हो जाती थी। वह तरह-तरह के हथकंडे अपनाकर देशभक्त पत्रकारों पर कहर बरपाया करती थी। अंग्रेजी सरकार के नुमाइंदे यह चाहते थे कि पत्रकार सिर्फ वही लिखें, जो उन्हें पसंद हो। 

इस परिप्रेक्ष्य में आजादी के पहले की और आज की स्थिति में बहुत ज्यादा फर्क नहीं आया है। सरकारें बदल गई, सामाजिक व्यवस्था में भी परिवर्तन हो गया मगर आज भी ऊंचे ओहदों पर बैठे लोग वही देखना, सुनना और पढ़ना चाहते हैं जो उन्हें पसंद हो। चाहे वह कितने भी घोटाले कर लें, देश की गरीब जनता की गाढ़ी कमाई का लाखों-करोड़ों रुपया हजम कर जाएं, पर उनके खिलाफ आवाज नहीं उठनी चाहिए। जो पत्रकार ऐसा करने की हिम्मत दिखाते हैं, उनकी राह कांटों से भर दी जाती है। उन पर तरह-तरह से अंकुश लगाने का प्रयास किया जाता है। अपना रौब गालिब कर पुलिस से उन्हें प्रताडि़त करवाया जाता है। समाज की रक्षक कहलाने वाली पुलिस भी भक्षक बन जाती है। उन्हें झूठे मुकदमों में फंसा दिया जाता है। ऐसी परेशानियों के मकड़जाल में उलझेे अधिकतर पत्रकार अपने उद्देश्यों से भटक जाते हैं। जो डटे रहे हैं, वे जाबांज कहलाते हैं। मगर परेशानियों से लोहा लेते हुए समाज के नासूर को उखाड़ फंेकने का जज्बा बहुत ही कम लोग दिखा पाते हैं।
लोकतंत्र की सजग प्रहरी कही जाने वाली पुलिस का यह कर्तव्य है कि वह समाज में होने वाले अपराधों पर कड़ी निगाह रखे और उनकी रोकथाम के लिए समुचित कार्रवाई करे। पर, सवाल यह उठता है कि क्या पुलिस अपने दायित्वों का सही तरीके से निर्वहन करती है? क्या वह देश में लागू नियम कानूनों द्वारा प्रदत्त अधिकारों का सही उपयोग करती है? क्षुद्र स्वार्थों की पूर्ति के लिए कुछ पुलिसवाले अपने अधिकारों का दुरुपयोग करके अनैतिक काम करने से भी बाज नहीं आते। ऐसे पुलिसकर्मियों की वजह से पूरे विभाग पर कालिख पुत जाती है। उनके अच्छे कामों को भी नजरंदाज कर दिया जाता है। यह किसी से छिपा नहीं है कि क्षुद्र स्वार्थों की पूर्ति करने के लिए ऐसे ही धनलोलुप पुलिसकर्मी निर्दोष लोगों को भी ऐसे मामलों में फंसा देते हैं, जिनसे उनका कभी कोई सरोकार ही नहीं रहा। आए-दिन पुलिस के उच्चाधिकारियों और अदालतों के सामने ऐसी अर्जियां आती हैं जिनमें कहा गया होता है कि फलां इलाके की पुलिस, अपराधियों से मिलकर निर्दोष लोगों का उत्पीड़न कर रही है। सब सबूत होते हुए भी वह उन्हें धमका रही है। आखिर ऐसा क्यों होता है ? क्या पुलिसवालों में इतनी भी गैरत बाकी नहीं रह गई है कि वह अच्छे और बुरे में फर्क कर सकें? किसी निर्दोष को फंसाकर वह तीन तरह से समाज को नुकसान पहुंचाते हैं। पहला तो वह, जिसे झूठे मुकदमें में फंसाया जाता है, उसका जीवन बर्बाद करके। दूसरे, उसके परिवारीजनों का चैन छीनकर और तीसरा समाज को गलत संदेश देकर। जो लोग झूठे मुकदमों में फंसते हैं, उनका अधिकांश समय कोर्ट-कचहरी के चक्कर काटने में ही बीत जाता है। मानसिक परेशानी होती है वह अलग। इन परेशानियों के चलते वह यह सोचने पर मजबूर हो जाते हैं कि आखिर क्यों उन्होंने समाज में फैली बुराइयों को दूर करने के लिए कदम उठाया? जो जाबांज होते हैं, वह तो गलत व्यवस्थाओं से लड़ते रहते हैं, मगर अधिकांश टूट जाते हैं। सामने आई परेशानियों से घबराकर अपने कदम वापस खींच लेते हैं।
आज समाज को जरूरत है पंजाब के उस नौजवान पत्रकार जैसे जीवट लोगों की, जो सामने आने वाली समस्याओं न डिगते हुए समाज से बुराइयों को उखाड़ फेंकने के अपने काम में जुटे रहते हैं। पर यह काम अकेले का नहीं है, इसके लिए सभी को एकजुटता के साथ आगे आना होगा। यदि ऐसा हो गया तो एक बार फिर से भारत को विश्व का सिरमौर बनने से कोई नहीं रोक सकता।