समाजवादी पार्टी के नेता श्री मुलायम सिंह यादव ने सुश्री मायावती की उनके विधायकों के साथ अंतरंग बैठक का वीडियो टेप जारी करके बसपा के खेमे में हड़कंप मचा दिया। टीवी चैनलों पर बार-बार प्रसारित किए गए इन टेपों में सुश्री मायावती को अपने दल के विधायकों व सांसदों से विकास निधि का एक हिस्सा दल के कोष में नियमित देने का आदेश देते हुए दिखाया गया है। भ्रष्टाचार उन्मूलन कानून के तहत यह मांग अनुचित ही नहीं, अपराध भी है। इस टेप के सार्वजनिक प्रदर्शन के बाद बौखलाई सुश्री मायावती ने सपा पर पलटवार करने शुरू किए। साथ ही श्री यादव को यह धमकी भी दी कि उनकी सरकार के पास मुलायम सिंह यादव के कार्यकाल के दौरान किए गए घोटालों की पूरी फेहरिस्त है, जिसका खुलासा वे निकट भविष्य में करेंगी। अपनी सफाई में सुश्री मायावती ने टेपों में लगे आरोपों को बेबुनियाद और तथ्यों को तोड़मरोड़ कर पेश करने वाला बताया है। वहीं दूसरी ओर सपा के नेताओं पर उत्तर प्रदेश सरकार के छापे और धरपकड़ मंे अचानक तेजी आ गई है। विपक्षी दलों ने संसद में सुश्री मायावती के इस्तीफे की मांग बड़ी जोर शोर से उठाई तो सुश्री मायावती दौड़ी-दौड़ी दिल्ली आईं और प्रधानमंत्री से मिलकर उनका आशीर्वाद प्राप्त करने की घोषणा कर दी।
विधायक और सांसदों की राशि से कमीशन लिया जाता है, यह बात किसी से छिपी नहीं है। सुश्री मायावती से संबंधित वीडियो टेपों ने इसे और भी पुष्ट कर दिया है। यह सही है कि सभी सांसद और विधायक अपनी विकास राधि में से कमीशन नहीं लेते, पर अगर गुप्त रूप से जांच कराई जाए तो पता चलेगा कि बहुसंख्यक विधायक और सांसद ऐसे हैं जिनके बारे में इस राशि को लेकर उनके ही संसदीय क्षेत्र में तमाम तरह की बातें कही जाती हैं। दरअसल जिस तरीके से यह कोष बनाया गया है और जिस तरह से इसका मनमाना इस्तेमाल होता है उससे इसके औचित्य पर सवालिया निशान लगना स्वाभाविक ही है। विधायकों और सांसदों का काम कानून बनाना होता है। उनका काम जन भावनाओं को सरकार के समक्ष रखना होता है। विधायिका के सदस्य होने के नाते कार्यपालिका के कामकाज पर कड़ी निगरानी रखने का जिम्मा भी विधायकों या सांसदों के जिम्मे ही होता है। लेकिन संविधान के निर्माताओं ने कहीं भी इस तरह का संकेत नहीं दिया था कि भविष्य में विधायिका कार्यपालिका की भूमिका निभाने लगेगी। अगर संविधान निर्मात्री समिति इस बात की जरूरत समझती तो वह निश्चित रूप से सांसद और विधायकों के लिए विकास कोष की व्यवस्था किए जाने की वकालत करती। पर उनके दिमाग साफ थे और वे जानते थे कि विधायिका के सदस्यों द्वारा कार्यपालिका की भूमिका को जांचते परखते रहना ही उनका मुख्य दायित्व होना चाहिए। फिर क्यों इस कोष की स्थापना की गई ?
जहां एक तरफ देश के आम लोगों को बुनियादी जरूरतें मुहैया कराना भी साधनों के अभाव में सरकार के लिए मुश्किल होता जा रहा है और हर आदमी को यह कहकर चुप कर दिया जाता है कि सरकार आर्थिक संकट से गुजर रही है, वहीं सांसदों और विधायकों को यह कोष देकर इसको मनमाने तरीके से खर्च करने की छूट दे दी गई है। जहां कुछ सांसद और विधायक इस कोष का सही योजनाओं में इस्तेमाल कर रहे हैं वहीं ज्यादातर मामलों में देखा गया है कि इस कोष के धन से कम उपयोगी या निजी हितों को साधने वाले काम होते हैं। जबकि इससे कहीं ज्यादा महत्वपूर्ण योजनाएं धन के अभाव में रुकी पड़ी रहती हैं। सांसद और विधायक लगातार इस राशि को बढ़ाने की मांग करते रहते हैं। पिछले कुछ वर्षों में ये राशि प्रति सांसद एक करोड़ से बढ़कर तीन करोढ़ रुपये तक पहंुच गई है। चूंकि इस राशि का उपयोग भी स्थानीय प्रशासन की निगरानी में ही होता है इसलिए अब जनप्रतिनिधियों को प्रशासन से तालमेल बिठाकर चलना पड़ता है। खासकर उनको जिनका इरादा इस राशि में से या तो कमीशन खाना होता है या अपने चहेतों को काम दिलवाना। माना तो ये जाता है कि लोकतंत्र मंे जनता सर्वोपरि होती है इसलिए निर्वाचित जनप्रतिनिधि कार्यपालिका से श्रेष्ठ स्थिति में होता है। पर इस कोष के चलते विधायिका के सदस्य अब कार्यपालिका के प्रति वैसा कड़ा रवैया नहीं अपना पाते जैसा वे तब अपनाते थे जब उनकी भूमिका केवल कानून बनाने तक सीमित थी। तब प्रशासन में उनका डर होता था। आज प्रशासन उन्हें उंगलियों पर नचाता है। बहुत दिन नहीं हुए जब सपा नेता फूलन देवी का मिर्जापुर के जिलाधिकारी से इसी तरह के लेन-देन को लेकर झगड़ा हुआ था और यह विवाद बहुत दिनों तक अखबारों में छाया रहा था। ऐसे माहौल में जब हमाम में सभी नंगे हों तो सपा के शोर मचाने से कुछ सिद्ध होने वाला नहीं है।
आवश्यकता इस बात की है कि सांसदों और विधायकों की इस निधि को तुरंत समाप्त किया जाए और उनसे कहा जाए कि आप लोग अपना ध्यान कार्यपालिका की कार्यकुशलता पर केंद्रित करें। जहां तक राजनीति में भ्रष्टाचार का सवाल है यह विषय अब इतना संवेदनशील नहीं रहा। जिस तरह पिछले दस वर्षों में एक के बाद एक घोटाले उजागर हुए, और सबमें देश के हर दल के बड़े नेताओं के नाम शामिल रहे उससे अब इस बात में कोई संदेह नहीं रह गया है कि राजनीति और भ्रष्टाचार एक दूसरे के पर्यायवाची हैं। अंतर केवल मात्रा का हो सकता है। कोई ज्यादा भ्रष्ट, तो कोई कम भ्रष्ट। ईमानदार लोग तो राजनीति में कामयाब ही नहीं हो पाते या व्यवस्था से दरकिनार कर दिए जाते हैं। इन घोटालों की जांच में कोताही होना और नेताओं का उनसे छूट जाना न्यायपालिका और जांच एजेंसियांे को सवालों के घेरे में खड़ा करता रहा है। धीरे धीरे जनता का विश्वास जांच की इन प्रक्रियाओं से उठता जा रहा है और जनता यह मान चुकी है कि कितना भी बड़ा घोटाला क्यों न सामने आए आरोपित व्यक्ति का कुछ भी बिगड़ने वाला नहीं है। इससे देश में जहां एक ओर हताशा बढ़ी है वहीं राजनैतिक भ्रष्टाचार में निर्लज्जता भी खूब बढ़ी है। ऐसे माहौल में चाहे चारा घोटाला उछले या हवाला, तहलका टेप कांड हो या मायावती टेप कांड, किसी से भी व्यवस्था में सुधार नहीं होता। जब किसी एक दल के कुछ राजनेता ऐसे घोटालों में फंसते हैं तो उनके राजनैतिक विरोधी शोर मचाकर आसमान सिर पर उठा लेते हैं। संसद की कार्यवाही तक नहीं चलने देते। पर जब उनके सहयोगी दल के भ्रष्टाचार के मामले सामने आते हैं तो वे खामोश हो जाते हैं। मसलन, हवाला कांड में लगभग सभी बड़े राजनैतिक दलों के नेता आरोपित थे इसलिए किसी भी दल ने इस कांड को लेकर न तो शोर मचाया और न ही उसकी ईमानदारी से जांच की मांग की। आज भी जो शोर मच रहा है वो इसी तरह का है। अगर श्री मुलायम सिंह यादव को सार्वजनिक जीवन में पारदर्शिता की इतनी सख्त जरूरत महसूस हो रही है तो क्या वजह है कि भ्रष्टाचार के सवाल पर वे हमेशा ऐसा रुख नहीं अपनाते। अनेक मामलों में पूरी खामोशी अख्तियार कर लेते हैं। यही हाल दूसरे दल के नेताओं का भी है। सब केवल अपने विरोधियों के भ्रष्टाचार के मामले पर शोर मचाकर राजनीतिक फायदा उठाना चाहते हैं। भ्रष्टाचार को दूर करने में किसी की रुचि नहीं है। ऐसे में मायावती और मुलायम सिंह यादव को विवाद सर्कस के तमाशे की तरह कुछ ही दिनों में आंखों के आगे से ओझल हो जाएगा। सब कुछ यथावत चलता रहेगा। इसलिए इन घोटालों के उछलने से कोई उद्वेलित नहीं होता।