हिमाचल प्रदेश का चुनाव कई मायनों में महत्वपूर्ण था इसलिए सारे देश की निगाह इस पर लगी थी। गुजरात के बाद जहां भाजपा में हिंदुत्व के एजेंडे पर अति उत्साह था वहीं इंका असमंजस में थी कि वो क्या करे ? नर्म हिंदुत्व अपनाए या धर्मनिरपेक्षतावाद पर ही चलती रहे। हिमाचल प्रदेश के चुनाव नतीजों ने यह सिद्ध किया कि केवल हिन्दुत्व के नाम पर मतदाता को मूर्ख नहीं बनाया जा सकता। कुशल और पारदर्शी प्रशासन देना भी उतना ही जरूरी है जितना भविष्य के सुनहरे सपने दिखाना। हिमाचल प्रदेश के 99 फीसदी मतदाता हिन्दू हैं और भाजपा हिमाचल प्रदेश को अपना गढ मानती आई है फिर भी वहां के मतदाताओं ने कांग्रेस की सरकार बनाना तय किया और भाजपा को धूल चटा दी।
प्रधानमंत्री इसके लिए पार्टी की आंतरिक कलह को दोषी ठहराते हैं। यह सही है कि आज भाजपा में जितनी आंतरिक कलह है उतनी चार-पांच वर्ष पहले नहीं थी। अगर कोई मतभेद थे भी तो वे शीर्ष स्तर के राजनेताओं के बीच में थे। भाजपा का सामान्य कार्यकर्ता हिंदुत्व के लिए समर्पित था। त्याग करने को तैयार था और राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ की कड़ी टेªनिंग के कारण कम खर्चे मेें काम चलाने का अभ्यस्त था। वाजपेयी जी को सोचना चाहिए कि उनका कार्यकर्ता आज देश सेवा की उसी भावना से काम क्यों नहीं कर रहा ? शायद वाजपेयी जी को मालूम हो कि जबसे केन्द्र और राज्यों में भाजपा की सरकार बनी है तब से भाजपा की सरकारों ने भ्रष्टाचार के पुराने सभी रिकार्ड तोड़ दिए हैं। सत्ता की मोहिनी अच्छे-अच्छे तपस्वियों का ईमान डिगा देती है। भाजपा से जुड़ा हर व्यक्ति जानता है कि इस भ्रष्टाचार की नदी में डूबने वाले भाजपा के हर स्तर के नेता अपने कार्यकर्ताओं से रिश्वत और लूट की रकम नहीं बांटते। भाजपा के जो नेता सत्ता में रह लिए है उनका जीवन स्तर रातो रात कई गुना बढ़ गया है। जबकि आम कार्यकर्ता जस के तस हैं। इससे उनके मन में भारी आक्रोश है। भाजपा में चल रही अंदरूनी गुटबाजी का यही कारण है। पुरानी कहावत है कि, ‘हम भी खेलेंगे, नहीं तो खेल बिगाड़ेंगे।’ सो, इन कार्यकर्ताओं ने भाजपा का हिमाचल प्रदेश में खेल बिगाड़ दिया। अन्य राज्यों में भी भाजपा की स्थिति कोई अच्छी नहीं। वहां भी इसी तरह की अंतर-कलह चल रही है। जिसे अगर रोका न गया तो भाजपा को हिमाचल प्रदेश से भी ज्यादा बड़ी पराजय का मुंह देखना पड़ सकता है।
मुश्किल ये है कि एक तरफ तो संघ है जो त्याग, तपस्या और राष्ट्रनिर्माण की शिक्षा देता है और दूसरी तरफ सत्ता की मोहिनी है। जिसकी काजल कोठरी में जो भी जाता है वह हाथ काले किए बिना नहीं रहता। यहां तक कि संघ से आए हुए राजनेता भी भाजपा में आकर वहीं करते हैं, जो एक सामान्य भ्रष्ट राजनेता करता है। ‘पर उपदेश कुशल बहुतेरे’ इस उक्ति को चरितार्थ करने वाले भाजपाई नेता आए दिन अपने कार्यकर्ताओं को देश और धर्म के लिए बड़े-बड़े त्याग करने का आह्वाहन करते रहते हैं और खुद पांच सितारा जिंदगी का मजा उड़ाते हैं।
संघ की भी अजीब प्रवृत्ती है। इसके वरिष्ठ नेता केवल अपनी ‘महानता’ का ‘महिमा मंडन’ सुनना चाहते हैं। उनकी आलोचना करने वाले शुभचिंतक भी उन्हें फूटी आंख नहीं सुहाते। जबसे भाजपा प्रांतों और केन्द्र के सत्ता में आई है तब से हर जिले में संघ के ही कुछ नेता सत्ता की दलाली करने में ही लग गए हैं, यह बात उन शहरों के आम मतदाता भी जानते हैं। इसलिए यह मानने का कोई कारण नहीं कि संघ के वरिष्ठ पदाधिकारी इस पतन से अनभिज्ञ हों। दुख की बात तो ये है कि सब जानते हुए भी वे खामोश रहते हैं और सुधार का कोई प्रयास नहीं करते। अब से कुछ वर्ष पहले तक तो संघ वाले अपनी आलोचना तक सुनने को तैयार नहीं होते थे। अब चिंतन शिविरों में स्वयं सेवकों को बंद कमरे में अपनी भड़ास निकालने दी जाती है। पर यह जरूरी नहीं कि इस तरह सामने आईं कमियों को दूर करने का कोई प्रयास किया जाए। इसीलिए भाजपा और उससे जुडे़ संगठनों में दरार पड़ती जा रही है। गुटबाजी बढ़ रही है।
गुजरात का चुनाव एक अजीबो-गरीब माहौल में लड़ गया। लोगों की भावनाएं भड़काने की पुरजोर कोशिश की गई। पर बाकी राज्यों में ऐसे हालात बन पाएंगे, कहना मुश्किल है। हिमाचल प्रदेश उसका ताजा उदाहारण है। जहां एक तरफ इंका और उसके सहयोगी दलों को इस बात का संतोष है कि हिमाचल प्रदेश के मतदाताओं ने ‘नरेन्द्र मोदी ब्रांड पाॅलिटिक्स’ को अस्वीकार कर दिया वहीं भाजपा की चिंता का विषय है कि अब वो ऐसा क्या करें कि मतदाताओं को लुभाया जा सके। हिंदुत्व के मुद्दे के अलावा उसके पास दूसरा कोई एजेंडा नहीं है जो इस देश के करोड़ों मतदाओं का मन जीत सके। पर हिंदुत्व के नाम पर भाजपा के शिखर नेतृत्व ने सत्ता में आने के बाद जो रवैया अपनाया था उससे हिदुवादियों का मन टूट गया। नरेन्द्र मोदी की रणनीति अगर गुजरात में सफल न हुई होती तो भाजपा का शिखर नेतृत्व अभी भी धर्म के मामले में भ्रामक और अतंरविरोधी बयानबाजी करता रहता। भाजपा की चिंता का यह अहम विषय है कि अब वो किस रास्ते चले। जो जनता को एक बार फिर बहका कर सत्ता में बने रहा जाए।
अनेक पत्रकारों ने अपने स्तंभों के माध्यम से समय-समय पर भाजपा को उसके गिरते ग्राफ के प्रति सचेत किया है पर भाजपा का नेतृत्व सत्ता के दलालों से इस तरह घिरा है कि उसे सही और गलत का फर्क नजर नहीं आता। केवल चुनाव हारने के बाद मंथन किया जाता है, जीतने के बाद नहीं। दरअसल अपने संगठन को चुस्त-दुरूस्त बनाना भाजपा के लिए कोई असंभव कार्य नहीं था बशर्ते कि उनकी मंशा ऐसी होती। कम्युनिस्टों के अलावा संघ के पास ही समर्पित कार्यकर्ताओं की एक लंबी फौज मौजूद है। पर जब उन्हें गंगोत्री में से पतनाला बहता हुआ दिखाई देता है तो वे भी निराश हो जाते हैं। पार्टी महासचिव श्री प्रमोद महाजन ने भावी चुनावों की रणनीति बनाने पर जो दिया है। भाजपा का ध्यान अब मध्य प्रदेश और राजस्थान की तरफ लगा है। दोनों प्रमुख हिन्दी भाषी राज्य है। इन प्रांतों में भाजपा धार्मिक मुद्दे उछाल कर मतदाताओं को मोहना चाहती है। पर मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री श्री दिग्विजय सिंह सरीखे इंका नेता, भाजपा को उसके ही मुद्दों में उलझा कर पटकनी देने की तैयारी कर रहे हैं। ऐसे में भाजपा की राह आसान न होगी।
उधर इंका नेता श्रीमती सोनिया गांधी का यह कहना कि हिमाचल प्रदेश की हार भाजपा के हिंदुवादी एजेंडे ही हार है, ठीक नहीं है। दरअसल, श्रीमती गांधी को कहना यह चाहिए था कि भाजपा की हार उसके छद्म हिंदुवाद की हार है। अगर भाजपा वास्तव में हिन्दू धर्म के लिए समर्पित दल है तो क्या वजह है कि बहु संख्यक हिंदू संत समाज भाजपा से इतना नाराज है कि अब पहले की तरह उसके मंचों पर उसका समर्थन करने को तैयार नहीं हैंै। श्रीमती गांधी को केवल धर्मनिरपेक्षता का राग ही नहीं अलापना चाहिए। इस मामले में हिन्दुओं की भावनाओं की भी कद्र की जानी चाहिए। चाहे वह गौ हत्या का प्रश्न हो या मंदिर निर्माण का, सच्चाई तो यह है कि इंका के तमाम वरिष्ठ नेता भाजपा और संघ के नेताओं से धार्मिक मामलों में कहीं पीछे नहीं है बल्कि कई जगह तो आगे हैं। पर इंकाई नेता धर्मनिरपेक्षता के बैनर तले अपनी धार्मिक भावनाओं को सार्वजनिक रूप से अभिव्यक्त नही करना चाहते। उन्हें डर लगता है कि इससे कहीं अल्प संख्यक नाराज न हो जाएं। दरअसल अब समय आ गया है कि जब इंका अपनी धार्मिक नीति में थोड़ा बदलाव लाए और सार्वजनिक रूप से यह स्वीकारे कि भारत की जनता की धार्मिक मान्यताओं की उपेक्षा करके समाज में शांति और सौहार्द पैदा नहीं किया जा सकता। साम्प्रदायिकता का विरोध हो, धर्मांधता को कुचला जाए पर देश की रूहानियत को दबाया नहीं, बढ़ाया जाना चाहिए। बड़ी अजीब बात है कि व्यक्तिगत रूप से हम सब किसी न किसी आध्यात्मिक सोच से ऊर्जा और शांति लेते हैं पर समूचे राष्ट्र के लिए धर्महीनता का नारा बुलंद करते हैं। इंका के आदर्श शिखर पुरूष महात्मा गांधी तक ने यह लिखा है कि धर्मनिरपेक्ष कोई नहीं हो सकता। एक कलम भी नहीं, उसका धर्म लिखना है। आग का धर्म जलाना है। जल का धर्म प्यास बुझाना है। मां का धर्म बालक को पालना है। इसी तरह मानव का भी धर्म है। जिसे अनदेखा नहीं किया जा सकता।
जैसे विकास के सवाल हैं। रोजगार के सवाल हैं। भ्रष्टाचार के सवाल हैं वैसे ही धर्म के भी सवाल हैं। भाजपा केवल धर्म के सवाल को लेकर ही चलती रही है। इसलिए उसकी ऐसी पहचान बनी। पर इंका दूसरे सवालों को लेकर चलती रही है। पर धर्म के मामले में उसने अपनी छवि ऐसी बना ली मानो वह धर्म विरोधी दल हो। जबकि सच्चाई यह है कि धर्म के मामले में जितना काम कांग्रेस की सरकारों में हुआ है वैसा भाजपा नहीं कर पाई। जो केवल गाल बजाती रही। इसलिए दोनों प्रमुख दल इंका और भाजपा को आत्म विश्लेषण करने की जरूरत है। क्योंकि भारतीय लोकतंत्र में यही दो प्रमुख दल रहने वाले हैं। हिमाचल प्रदेश का नतीजा तो गुजरात के जख्मों में मरहम है। आने वाले चुनावों में अपनी जीत को लेकर न इंका आश्वस्त है और न भाजपा। दोनों को ही मुकाबले के लिए डटकर तैयारी करनी पडे़गी।