बहुराष्ट्रीय कंपनियांे ने सौ करोड़ भारतीयों का भरा-पूरा बाजार देखकर पहले तो पीने का पानी बेचने का जाल फैलाया, फिर खाने के देशी तेल को मिलावटी बता कर विदेशों से महंगे तेल के आयात का रास्ता खुलवाया और अब उसकी नजर इंसानी खून पर है। इन अंतर्राष्ट्रीय शक्तियों की कोशिश है कि भारत में खून की आपूर्ति का धंधा पकड़ लिया जाए तो उनकी चांदी ही चांदी हो जाएगी। केरल की ज्वाइंट एक्शन काउंसिल, कन्नूर के श्री पुरूषोत्तम मुल्लोली इस मामले में पिछले दिनों दिल्ली हाई कोर्ट से एक महत्वपूर्ण फैसला लेने में कामयाब हुए। श्री मुल्लोली का आरोप है कि, ‘‘मानव सेवा के लिए समर्पित होने का दावा करने वाली रोटरी इन्टरनेशल भी खून की इस तिजारत में जन विरोधी काम कर रही है।’’ भारत सरकार ने एक यूनिट खून को उपलब्ध कराने की अधिकतम कीमत 500 रूपया तय की है। इंडियन रेड क्राॅस सोसाइटी यही सेवाएं केवल साढ़े तीन सौ रूपया प्रति यूनिट के हिसाब से देती है। जबकि स्वयं सेवी रूप से ब्लड बैंक चलाने का दावा करने वाला रोटरी क्लब 750 रूपए प्रति यूनिट की दर से रक्त सेवाएं प्रदान करता है। कहीं-कहीं रोटरी ब्लड बैंक इसके 900 रूपए तक वसूल करता है। महत्वपूर्ण बात यह है कि ये रक्त की कीमत नहीं है क्योंकि रक्त तो रक्त दान शिविरों से मुफ्त की इकट्ठा किया जाता है। यह कीमत तो रक्त के संग्रह, परीक्षण, संरक्षण और वितरण की है।
श्री एच.डी. शौरी ने एक जनहित याचिका दायर करके 1996 में सर्वोच्च न्यायालय से एक अजीबो-गरीब फैसला हासिल किया। जिसे ऐतिहासिक फैसला बताया गया। इस फैसले के तहत व्यवसायिक रक्तदाताओं को रक्त बेचने के अधिकार से वंचित कर दिया गया था। इसका आधार यह बताया गया कि ऐसे लोगों को एड्स जैसी बीमारी होने की संभावना ज्यादा है इसलिए इनका रक्त नहीं लिया जाना चाहिए। यह दूसरी बात है कि कि देश की कुल रक्त आवश्यकता का एक तिहाई इन्हीं व्यवसायिक रक्त दाताओं से आता है । ये प्रथा अंग्रेजों के जमाने से चली आ रही है, जब भारत में आम आदमी रक्तदान करना अपने स्वास्थ्य के लिए ठीक नहीं मानता था। श्री मुल्लोली का आरोप है कि व्यवसायिक रक्तदाताओं पर इस किस्म की अविवेकपूर्ण और अव्यवहारिक रोक लगाना पूर्णतः अवैज्ञानिक है। जब रक्त संग्रह किया जाता है उसी समय उसकी गुणवत्ता का वैज्ञानिक परीक्षण होता है। अगर किसी दाता का रक्त दोषपूर्ण होता है तो इसी स्टेज पर उसे नकार दिया जाता है। फिर किसी व्यक्ति की सामाजिक, व्यवसायिक या आर्थिक पृष्ठभूमि का ख्याल करने की जरूरत ही कहां है ? यह तो एक तरीके का नया जातिवाद हुआ जहां समाज के एक बहुत बड़े वर्ग को रक्तदान के मामले में अछूत करार दे दिया गया। यह बात दूसरी है कि इस फैसले के बावजूद ब्लड बैंको में व्यवसायिक दानदाताओं का रक्त फिर भी आता रहा। चूंकि ऐसा करना अब गैर कानूनी था इसलिए यह काम चोरी-छिपे किया गया और रक्त के कई गुने दाम वसूले गए।
वैसे सर्वोच्च न्यायालय के इस फैसले से ही बात नहीं थमी। भारत सरकार तो उससे भी एक कदम आगे बढ़ गई और उसने जेल में रह रहे कैदियों को रक्तदान के अधिकार से वंचित कर दिया, यह कह कर कि इनका रक्त खतरनाक हो सकता है। जबकि हकीकत यह है कि कैदियों का स्वास्थ्य जेल में रहने से प्रायः सुधर जाता है और वे लोग लगातार डाक्टरी निरीक्षण के तहत रहते हैं।
रोटरी क्लब ने तो इस मामले में और भी ‘बुद्धिमता’ का प्रदर्शन किया और गैर-कानूनी रूप से यह घोषणा कर दी कि वे रिक्शा चालकों या अन्य किस्म के गरीब लोगों का रक्त स्वीकार नहीं करेगा। इस नियम के पीछे कोई भी वैज्ञानिक आधार नहीं था। इसलिए इन सब फैसलों को दिल्ली हाई कोर्ट में चुनौती दी गई और 29 जुलाई 2002 को दिल्ली उच्च न्यायालय ने ऐसे सभी प्रतिबंधों को निरस्त कर दिया। इस ऐतिहासिक फैसले के बाद अब कैदी, रिक्शा चालक, व अन्य तबके के गरीब लोग भी रक्तदान कर सकेंगे। उल्लेखनीय है कि एक बार रक्तदान करने से कैदियों की सजा में 15 दिन की कमी हो जाती है। यहां यह याद दिलाना भी महत्वपूर्ण होेगा कि गुजरात में पिछले वर्ष आए भूकंप के बाद रक्त की भारी आवश्यकता के बावजूद सुप्रीम कोर्ट के 1996 के फैसले के चलते कैदियों को रक्त दान नहीं करने दिया गया था। जेल अधिकारी इस मामले को लेकर मानावाधिकार आयोग गए पर वहां भी उनकी नहीं सुनी गई। पर अब स्थिति बदल गई है । दिल्ली हाई कोर्ट के फैसले से सबसे ज्यादा हर्ष कैदियों और गरीब लोगों को हुआ है।
उल्लेखनीय है कि इन्टरनेशल फेडरेशन आफ दी रेड क्राॅस ने तीन वर्ष पहले भारत में स्वैच्छिक रक्तदान की दयनीय दशा पर एक विस्तृत रिपोर्ट प्रकाशित की थी। मशहूर चार्टटेर्ड एकाउंटेंट फर्म ए.एफ फरगुसन ने एक अध्ययन करके यह बताने की कोशिश की ’व्यवसायिक रक्तदाता प्रायः गरीब है, नशेड़ी है या अवैध सैक्स संबंध रखते हैं इसलिए उनका रक्त सुरक्षित नहीं है’। इससे ज्यादा हास्यादपद अध्ययन हो नहीं सकता। क्या धनी लोग नशेड़ी नहीं होते या अवैध सैक्स संबंध नहीं रखते ? क्या गरीब होना अभिशाप है और धनी होना स्वस्थ्य होने की गारंटी है?
ये सब वाहियात बातें हैं और भारत में रक्त का विश्व बाजार तैयार करने के उद्देश्य से की जा रही हंै। आवश्यकता तो इस बात की है कि रक्तदान के लिए देश में समुचित वातावरण तैयार किया जाए। लोगों में इसकी सही समझ पैदा की जाए। पेशेवर रक्तदाताओं के नियमित स्वास्थ्य के परीक्षण की व्यवस्था की जाए और नौजवानों और स्वस्थ लोगों को स्वैच्छिक रक्त दान के लिए ज्यादा से ज्यादा प्रेरणा दी जाए ताकि रक्त की आवश्यकता देश में ही आसानी से पूरी हो सके। विदेशों से रक्त आयात न करना पड़े तो देश की दौलत देश में ही रहेगी और रक्त की आपूर्ति में हम हमेशा आत्मनिर्भर बने रहेंगे।
रोटरी इनटरनेशल जैसी संस्था को भी अपनी नीति में सुधार लाना चाहिए। भारतीय समाज के एक महत्वपूर्ण हिस्से को अछूत बना कर वे समाज की सेवा नहीं कर रहे। खासकर तब जबकि उन्हें अपनी ब्लड बैंक सुविधा के विस्तार के लिए 53 लाख रूपए का अनुदान दिल्ली सरकार से और एक करोड़ रूपए का अनुदान संसदीय विकास निधि से प्राप्त हुआ है। जोकि उनके कुल बजट पांच करोड़ रूपए का एक तिहाई हिस्सा है। जनता का धन लेकर जन विरोधी काम क्यों ?
’नेशनल ब्लड ट्रास्फयूजन काउंसिल’ को भी अपनी जिम्मेदारी समझनी चाहिए। इस काउंसिल का गठन ब्लड बैंकों का अधुनिकीकरण और रक्त की समुचित मात्रा की आपूर्ति सुनिश्चित करने के उद्देश्य से किया गया था। जो कि सुप्रीम कोर्ट के 1996 के निर्णय के बाद अस्तित्व में आई। पर काउंसिल ने अपनी प्रस्तावित जिम्मेदारी पूरी करने की बजाए सारी ऊर्जा सेमिनारों और बैठकों के आयोजित करने में ही लगा दी। 1998 तक केवल प्रशासन और सेमिनार पर ही डेढ करोड़ रूपया खर्च कर दिया।
रक्त की गुणवत्ता के नाम पर फैलाए जा रहे इस सारे प्रपंच के पीछे अंतर्राष्ट्रीय रक्त कंपनियों की गहरी साजिश है जो भारत में रक्त की कमी का आतंक फैलाकर भारत को विदेशों से रक्त निर्यात करना चाहतीं है। गरीबी और बीमारी से जूझते आम हिंदुस्तानियो की जेब पर डाका डालना चाहती हैं। इसका ठोस प्रमाण यह है कि 1996 का सुप्रीम कोर्ट का निर्णय आने के पहले 1994 में देश में केवल 15 लाख रूपए का रक्त आयात हो रहा था। इस निर्णय के आने के बाद सैंकड़ों करोड़ रूपए साल का रक्त आयात होने लगा। ताजा जानकारी के अनुसार पिछले वर्ष 2,800 करोड़ रूपए का रक्त और रक्त आधारित पदार्थों का आयात किया गया। यह आयात मूलतः फ्रांस और अमरीका से ही हुआ। इससे ज्यादा विडंबना की बात क्या हो सकती है कि सौ करोड़ की आबादी वाले देश में भी मानव रक्त का आयात करना पड़े और सीमित विदेशी पूंजी को इस तरह बर्बाद करना पड़े ? उल्लेखनीय है कि देश में कुल 80 लाख यूनिट रक्त की आवश्यकता होती है, जो देश में ही बड़ी सरलता से उपलब्ध है। हकीकत तो यह है कि देश में ब्लड बैंको के पास उनकी संग्रह क्षमता से ज्यादा रक्त की हमेशा ही आपूर्ति होती रहती है। बशर्ते कि व्यवसायिक रक्तदाताओं को रोका न जाए। रक्त के इस कारोबार में केवल रक्त के आयात का ही मुद्दा नहीं है बल्कि रक्त की जांच के नाम पर भी करोड़ों रूपए की मशीनों का भी आयात किया गया। रक्त जांच करने की इन मशीनों की क्षमता भारत की कुल रक्त की मांग से कहीं ज्यादा है। फिर यह फिजूलखर्जी किसके हित साधने के लिए की गई ? कारगिल युद्ध के दौरान जब देशप्रेम की भावना से ओत-प्रोत भारतवासी रक्तदान करने उमडे़ चले आए, तब ब्लड बैंकों में रक्त संग्रह की क्षमता न होने के कारण उन्हें लौटा दिया गया। साफ जाहिर है कि इन मशीनों को आवश्यकता से ज्यादा मंगाया गया। इस तरह रक्त का कारोबार एक बड़े मुनाफे का कारोबार है इसलिए भारत की आम जनता को जागरूक रहना होगा, कहीं खून के सौदागर उसे लूट न ले जाएं।