पिछले दिनों भारत और रूस के बीच हुए रक्षा समझौते को लेकर कुछ रक्षा विशेषज्ञों मे भारी नाराजगी है। इनका मानना है कि इस समझौते में जानबूझ कर एक भारी गलती की गई है। नई संधि के अनुसार अब भारत किसी खतरे या हमले की स्थिति में रूस की सलाह नहीं ले पायेगा। जबकि श्रीमती इन्दिरा गांधी ने 1971 में जो भारत रूस मैत्री संधि की थी उसमें इसका पूरा ध्यान रखा था। तब उस संधि को चीन और अमेरिका ने भारत की आणविक ढाल माना था। इन विशेषज्ञों को लगता है कि शायद बाजपेयी सरकार की याददाश्त कमजोर है। तभी तो वह हिमालय के उत्तर में चीन से बने रक्षा दबाव या दियागो गार्शिया के कब्जे और उस पर आणविक आधार तैयार करने की अमरीकी कार्रवाई को भूल गई। यह कार्रवाई अमरीका ने भारत-पाक युद्ध के दौरान की थी। चूंकि सोवियत यूनियन का विघटन हो चुका है और रूसी संघ में विशेष उत्साह नहीं है। इसीलिए जब रूस के राष्ट्रपति पुतिन की भारत यात्रा के दौरान नई संधी की गई तो रूस संधी की उस पुरानी शर्त को बनाए रखने के लिए बहुत उत्साही नहीं था। उधर अमरीका इस फिराक में था ही कि किसी तरह से भारत और रूस के बीच युद्ध के दौरान पारस्परिक सलाह लेने के इस प्रावधान को खत्म कराया जा सके। ऐसा रक्षा विशेषज्ञों का मानना है। इनका आरोप है कि अमरीका ने भारत के रक्षा मंत्रालय में खूब लाबिंग करवा कर नई संधी से उस महत्वपूर्ण प्रावधान को हटवा दिया। इन विशेषज्ञों का यह भी कहना है कि अमरीका ने पहले तो भारत को आणविक शक्ति बनने से रोका, फिर कारगिल युद्ध में भारत की आणविक क्षमता की कलई खुलवा दी। इस तरह भारत के आणविक कार्यक्रम को बन्द करके भारत को आणविक युग में रक्षाहीन कर दिया।दूसरी तरफ अमरीका ने पाकिस्तान को जो इसी तरह का रक्षा कवच दे रखा है उसे आजतक समाप्त नहीं किया। बल्कि अपने ही आणविक बमों का पाकिस्तान मे परीक्षण करवा कर पाकिस्तान को मिली हुई सुरक्षा की यह गारन्टी बरकरार रखी है। यदि भारत के सांसद इस गम्भीर मामले को समझे होते तो उन्होंने संसद में शोर जरूर मचाया होता। पर ऐसा कुछ भी नहीं हुआ। इस मामले में कुछ सवालों पर गौर करने की जरूरत है।
हम सबको यह बताया गया और प्रचारित भी किया गया कि हमने अपने सैकड़ों जवानों और अफसरों को कारगिल युद्ध में भले ही बलि कर दिया हो किन्तु हमारी विजय शानदार रही। अलबत्ता कारगिल युद्ध के बारे में के. सुब्रमण्यम समिति की रिपोर्ट बहस के लिए संसद में प्रस्तुत किए जाने का इन्तजार कर रही है। जबकि इस गंभीर मुद्दे में सांसदों की शायद कोई रुचि नहीं हैं। हालांकि यह रिपोर्ट बहुत उच्च कोटि की नहीं है, फिर भी इसका सारांश पढ़ने से कई महत्वपूर्ण सवाल खड़े होते हैं। क्या इस समिति ने राॅ के प्रमुख श्री अरविन्द दवे को ठीक से तलब किया था। यह सर्वविदित है कि कारगिल के मामले में ख्ुाफिया ऐजेंसी ’ राॅ ‘ अनजान थी और इस अचानक हमले से हड़बड़ा गयी थी। जबकि इस तरह की सम्भावना की उसे पूर्व जानकारी होनी चाहिए थी। बावजूद इस बड़ी विफलता के, क्या वजह है कि श्री दवे को बजाए अपनी गलतियों का प्रायश्चित करने के अरुणाचल प्रदेश का उप राज्यपाल बना दिया गया ?
जानकारों का यह भी कहना है कि जिस समय कारगिल युद्ध चरम पर था उस दौरान अमरीका की सरकारी रक्षा संस्था ‘सेंटकाॅम’ के एक अधिकारी पाकिस्तान यात्रा पर आये थे। पर हमारी खुफिया ऐजेंसियों को भनक तक न पड़ी। क्या हमारी गुप्तचर ऐजेंसियों ने रक्षामंत्री श्री फर्नाडीज़ को यह बताया था या नहीं कि उक्त अमरीकी सैनिक अधिकारी को भेजने की मांग पाकिस्तान ने ही की थी। शायद श्री फर्नाडीज़ को पता हो कि पाकिस्तान ने ‘सेंटकाॅम’ के साथ पारस्परिक रक्षा की संधि कर रखी है जिसके तहत पाकिस्तान की सुरक्षा को ज़रा सा भी खतरा होते ही यह ऐजेंसी दौड़कर उसकी मदद को आयेगी। रक्षा विशेषज्ञों का मानना है कि कारगिल युद्ध के दौरान अमरीका से आए सैनिक अधिकारियों ने पाकिस्तान को यह समझाया कि चूंकि उसकी वायु सेना भारत के इलाके में बहुत प्रभावशाली नहीं हो पायेगी जिससे पाकिस्तान की थल सेना को भारत से जीतना मुश्किल होगा। इन अमरीकी अधिकारियों ने पाकिस्तान को सलाह दी कि किसी भी कीमत पर भारत को हवाई हमले करने से रोका जाए। यदि यह भी न हो सके तो कम से कम अमरीका इतना तो करे कि जब पाकिस्तान अचानक दिल्ली और मुम्बई पर परमाणु हथियारों से हमला कर चुके तब भारत को ऐसा जवाबी हमला करने से रोका जाए। हालांकि अमरीका के इन अधिकारियों को यह बताया गया था कि भारत के पास सुरक्षित तरीके से आणविक हथियारों को ले जाने और उनके प्रयोग करने की क्षमता नहीं है। पर साथ ही यह भी आशंका व्यक्त की गई कि यदि भारत हवाई हमला करता है तो पाकिस्तान के भारी आबादी वाले इलाकों को ध्वस्त कर देगा। इसलिए कुछ ऐसी चाल चली जाए कि भारत की वायु सेना को नियंत्रण रेखा को पार न करने दिया जाए। भारत के रक्षा विशेषज्ञों को इस बात पर आश्चर्य है कि आखिर ऐसा क्यों हुआ कि कारगिल युद्ध में हमारी थल सेना को दुर्गम पहाडि़यों पर मरते खपते हुए आगे भेजा गया । जबकि परम्परा यह है कि पहले वायु सेना आगे के इलाके में जाकर बमबारी करके दुश्मन के ठिकाने को ध्वस्त करती है तब थल सेना आगे बढ़ती है। पर कारगिल में ऐसा नहीं हुआ। नतीजतन हमारी थल सेना को भारी मात्रा में नौजवान अधिकारियों और जवानों को खोना पड़ा।
इन विशेषज्ञों का यह भी कहना है कि कारगिल युद्ध के दौरान इस तरह एक तरफ बिठा कर रखी गई भारतीय वायु सेना इस व्यवस्था से प्रसन्न ही थी । सुब्रमण्यम समिति की रिपोर्ट के अनुसार उसकी तैयारी कारगिल जैसे दुर्गम ऊंचे पहाड़ों वाले क्षेत्र में युद्ध करने की नहीं थी। इन विशेषज्ञों के अनुसार इस पूरे युद्ध के दौरान भारतीय वायु सेना ने औसत से भी बेहद कम संख्या में उड़ाने भरींए जोकि राष्ट्र के हित में नहीं था।
इन विशेषज्ञों का सवाल है कि क्या भारतीय वायु सेना और भारत सरकार को इस प्रकार नियंत्रण रेखा को पार न करने का श्रेय लेना चाहिए ? जबकि नियंत्रण रेखा भारत की सीमा के भीतर ही पड़ती है। यह रक्षा विशेषज्ञ सवाल पूछते हैं कि भारत की सीमाओं की रक्षा में इस तरह लापरवाही कर देने के लिए क्या रक्षामंत्री श्री जार्ज फर्नाडीज़ व संघ सरकार का मंत्रीमंडल संविधान का उल्लंघन करने के दोषी नहीं हैं ? अगर ऐसा नहीं है और यह निर्णय किन्हीं अन्य कारणों से लिया गया तो क्या रक्षामंत्री देश को यह बताऐंगे कि क्या वजह है कि सैकड़ों करोड़ रूपए खर्च करके जो उपग्रह भारत के भूखण्ड पर निगाह रखने के लिए तैनात किए गए हैं उनका इस्तेमाल क्यों नहीं किया गया ? भारतीय वायु सेना, ‘राॅ‘ व ‘सर्वे आॅफ इण्डिया‘ के हवाई जहाज 1997-98 में क्या कर रहे थे जो उन्होंने सीमापार की हलचल को अनदेखा कर दिया ? कारगिल युद्ध में थल सेना के जवानों को मौत के मुंह में भेजने से पहले वायु सेना का प्रयोग क्यों नहीं किया गया ? क्या रक्षामंत्री बताऐंगे कि दुनिया के किस युद्ध में ऐसी गलती की गई ? ऐसी दूसरी कौन सी आणविक शक्ति दुनिया में है जिसने अपने पड़ौसी से अघोषित युद्ध में अपने 500 से ज्यादा अफसरों और जवानों को शहीद कर दिया ? ऐसी कौन सी आणविक शक्ति वाला देश है जो सीमापार से होने वाले हमलों में अपने नागरिकों और सैनिकों की लगातार हत्या करवाता रहे और कड़े कदम न उठाए ? इन विशेषज्ञों का मानना है कि भारत के पास प्रयोग में लाए जा सकने योग्य परमाणु हथियार नहीं हैं और इसीलिए भारत ने इस युद्ध में पाकिस्तान की धमकी और अमरीकी दबाव के आगे घुटने टेक दिए।
विडम्बना यह है कि इस युद्ध के बाद भी जो टास्कफोर्स बनी उसमें सेना के वरिष्ठ अधिकारियों को नहीं लिया गया। जबतक नौकरशाही और राजनेता राष्ट्रीय सुरक्षा के मामले में ऐसी गल्तियां करते रहेंगे तब तक हम अपनी गल्तियों से कोई सबक नहीं सीख पाऐंगे। इसलिए इन विशेषज्ञों का सुझाव है कि भारत को वरिष्ठ सैन्य अधिकारियों को लेकर ही टास्कफोर्स का गठन करना चाहिए। कम से कम यह लोग ऐसी परिस्थितियों में समुचित निर्णय लेने की स्थिति में तो होंगे।
चूंकि सुब्रमण्यम समिति की रिपोर्ट फिलहाल ठन्डे बस्ते में पड़ी है और उस पर संसद के चालू सत्र में बहस होने की संभावना नहीं दिखाई दे रही इसलिए इन मुद्दों पर विपक्ष के सांसदों का ध्यान देना देश हित में रहेगा।