मध्य प्रदेश की जनता ने देश के राजनैतिक दलों और नेताओं के गाल पर जोरदार तमाचा मारा है। हाल ही में संपन्न हुए स्थानीय निकायों के चुनावों में चार जगहों से उन्होंने हिजड़ों को अपना प्रतिनिधि चुन कर भेजा है। इतना ही नहीं कटनी की जनता ने तो कमला जान नाम के हिजड़ें को नगर निगम का मेयर तक चुन डाला। उधर सिहोरा नगरपालिका का अध्यक्ष भी एक हिजड़ा चुना गया है। जबलपुर नगर निगम और बीना नगरपालिका के लिए एक-एक पार्षद भी हिजड़ा समुदाय से ही चुना गया है। कटनी के नवनियुक्त मेयर कमला जान का कहना है कि देश की जनता राजनेताओं के भ्रष्टाचार, फिजूलखर्ची और कुनबापरस्ती से आजिज आ चुकी है। कमला जान ने घोषणा की है कि मेयर की हैसियत से उन्हें मिली लालबत्ती लगी सफेद सरकारी एम्बेसडर कार की जगह वो थ्रीव्हीलर (आटो रिक्शा) में ही नगर का भ्रमण करेंगी या करेंगे, ताकि जनता के पैसे की बर्बादी कुछ कम हो सके। कमला जान ने यह भी कहा है कि चूंकि उनका आज तक अपना तो कोई परिवार था नहीं पर अब तो पूरा कटनी उनका परिवार बन गया है। उनकी कोशिश होगी कि कटनी के लोगों को वो सब दे सकें जिसकी अपेक्षा उन्हें एक ईमानदार मेयर से है। कमला जान क्या कर पाएंगी या पाएंगे ये तो वक्त ही बताएगा। पर इसमें शक नहीं कि चुनावों में हिजड़ों की ऐसी विजय ने भारतीय लोकतंत्रा में एक नए और रोचक अध्याय को जोड़ा है।
वैसे समाज से तिरस्कृत किए गए इन हिजड़ों के दिल में समाज के लिए दर्द कुछ कम नहीं होता। जिस घर में ये जन्म लेते हैं उस घर के लोग भले सार्वजनिक रूप से इन्हें स्वीकार न करें पर घर में हारी-बीमारी, शादी-ब्याह या खुशी या गमी के मौकों पर अगर पैसे की जरूरत होती है तो रात के अंधेरे में पिछले दरवाजे से पैसा मांगने अपने रिश्तेदार हिजड़े के घर जाने में संकोच नहीं करते। शहर के जिन इलाकों में हिजड़े रहते हैं वहां अड़ौस-पड़ौस में रहने वाले गरीब परिवारों के दुख-दर्द में मदद करने को हमेशा तत्पर रहते हैं। चूंकि खुद के तो बच्चे होते नहीं इसलिए पड़ौस के गरीब बच्चों की परवरिश और पढ़ाई-लिखाई पर ये हिजड़े दिल खोल कर खर्च करते हैं। इससे इनके नपुंसक शरीर के बीच धड़क रहे इंसानी दिल की आवाज जरूर सुनाई देती है। शहर का कोई घर ऐसा नहीं होता जिसका भेद हिजड़ों को पता न हो। गरीब से अमीर तक हर मजहब और हर जाति के लोगों के बीच एक सा संबंध बना कर रखते हैं ये हिजड़े, जो साम्प्रदायिकता और जातिवाद के कैंसर के बीच एक मिसाल है। इतना ही नहीं हर धर्म की समान इज्जत करते हुए ये हिजड़े एक ही छत के नीचे सद्भावना से रहते हैं और एक-दूसरे के धार्मिक त्यौहारों में उत्साह से शरीक होते हैं। ऐसे में ये उम्मीद की जानी चाहिए कि कमला जान वो सब कर पाएंगी या पाएंगे जिसकी उनसे उम्मीद की जा रही है।
पर इस सब के बीच जो असली बात है वो ज्यादा महत्वपूर्ण है। वह है वर्तमान राजनेताओं के प्रति जनता के आक्रोश की पराकाष्ठा। जब जनता ने देख लिया कि हर दल और लगभग हर नेता एक-सा है तो कटनी की जनता ने मजबूर होकर, अपने मत पत्रों के माध्यम से उद्घोषणा करते हुए, भाजपाइयों और इंकाई उम्मीदवारों से कह दिया, ‘तुमसे तो हिजड़े भले।’ अगर कहीं कमला जान वाकई ईमानदार मेयर साबित हो जाएं और कुछ कर दिखाएं तो कोई आश्चर्य नहीं कि दूसरे शहरों की जनता भी अपने-अपने इलाकों के राजनेताओं से यही कहे, ‘तुमसे तो हिजड़े भले।’ जनता कहेगी कि कम से कम ये हिजड़े अपने कपूतों को नेता बनाने मंे तो नहीं जुटेंगे। अपनी बीबी के लिए जेवर, साड़ी जमा करने में तो नहीं लगेंगे। अपनी आने वाली पीढि़यों के लिए करोड़ों रूपए की जमीन-जायजाद जोड़ने में जनता का हक तो नहीं छीनेंगे। इसलिए , ‘तुमसे तो हिजड़े भले।’ ये दूसरी बात है कि भ्रष्टाचार में आकंठ डूबे स्वार्थी तत्व हर स्थिति का फायदा उठाना जानते हैं। फिर चुनावों में जीते गए हिजड़ों को भोग-विलास की लत लगा कर उन्हें काबू में करना और उनसे गलत काम करवाना कोई असंभव बात नहीं होगी। जिसके लिए कमला जान जैसे चुने गए हिजड़ों को सावधान रहना होगा।
सवाल सिर्फ हिजड़ों को चुन लेने का नहीं है। ठीक वैसे ही जैसे कुछ महिलाओं को संसद या विधानसभा के लिए चुन लेने से देश की महिलाओं की स्थिति में फर्क नहीं आ जाता। अपनी जाति के नेता के बहकावे में आ जाने से उसे चुनाव में जिता देने से उस जाति के बहुसंख्यक समाज को कोई लाभ नहीं पहुंचता। ऐसे राजनेताओं के मुट्ठी भर चमचे और दलाल ही दलितो और शोषितों के नाम पर सारा फायदा हजम कर जाते हैं। इसलिए केवल हिजड़ों को वोट देकर आक्रोश प्रकट करने से किसी समस्या का हल नहीं निकलेगा।
देश की जनता के लिए सोचने की बात यह है कि चाहे जब टैक्स बढ़ा कर बिजली, पेट्रोल, डीजल, खाने का तेल, कैरोसिन आदि के दाम अचानक बढ़ा दिए जाते हैं। पर सरकारी बर्बादी रत्ती भर भी कम नहीं की जाती। कमरतोड़ महंगाई से आम जनता दबी जा रही है, पर फिर भी विरोध नहीं करती। सड़कों पर नहीं उतरती। इलाके के नेताओं को घेर कर यह नहीं पूछती कि तुम अपनी फिजूलखर्ची तो घटाने की बजाए बढ़ाते जा रहे हो और हमसे कहते हो कि सरकार चलाने के लिए पैसा नहीं है, इसलिए टैक्स बढ़ाना पड़ता है। हर मार को जनता चुपचाप सह लेती है। बहुत हुआ तो चाय की दुकान या पनवाड़ी के सामने खड़े होकर अपनी नाराजगी का इजहार कर लेती है। पर संगठित होकर सड़कों पर नहीं उतरती। इसलिए कुछ नहीं बदलता। चाहे कोई दल सत्ता में आ जाए। ऐसी जनता से अगर कोई कहे कि, ‘तुमसे तो हिजड़े भले’ तो क्या गलत होगा?
बड़े-बड़े घोटालोे में लिप्त देश के बड़े-बड़े राजनेता एक के बाद एक बड़ी आसानी से अदालतों से बेदाग होकर छूटते जा रहे हैं। जबकि देश की आम जनता करोड़ों मुकदमों में उलझी पड़ी है। इस देश में कानून दो तरह से लागू होता है। आम आदमी के लिए अलग व राजनेता और बड़े अफसरों के लिए अलग। लोकतंत्रा में जांच एजेंसियों और न्याय व्यवस्था का इतना पतन देख कर भी अगर देश की जनता चुप-चाप बैठी है और विरोध करने सड़कों पर नहीं उतरती तो कोई उससे भी कह सकता है कि, ‘तुमसे तो हिजड़े भले।’
हर थाने में दुखियारी जनता धक्के खाती है। पुलिस से बेवजह प्रताडि़त होती है। उसे अपनी सुरक्षा का खुद इंतजाम करना पड़ता है। अक्सर इलाके के गुंडे थाने में बैठकर दारू पीते हैं और मुर्गे उड़ाते हैं और बेखौफ होकर इलाके में आतंक फैलाते हैं। पर इलाके की जनता पुलिस को जवाबदेह बनाने के लिए कुछ भी नहीं करती। हालात से समझौता कर खामोश बैठी रहती है। ऐसी जनता से कोई कहे, ‘तुमसे तो हिजड़े भले।’
इस देश के करोड़ों नौजवान बेरोजगारी की मार सह रहे हैं। वो जानते हैं कि देश में धन की कोई कमी नहीं है। अगर सत्ताधीश चाहें तो ऐसे हालात पैदा कर सकते हैं कि हर नौजवान अपने पैरांे पर खड़ा हो सके। पर देश को आर्थिक रूप से मजबूत बनाने की बजाए उसे रातदिन लूट कर खोखला किया जा रहा है। पर यह सब देख कर भी नौजवान क्रोधित नहीं होते। झूठे वायदों और आश्वासनों के मोहजाल में फंसे रहते हैं। सरकारी नौकरी के चक्कर में खुद भी कुछ नहीं करते। नेताओं और उनके दलालों के चक्कर काटते रहते हैं। लुटते और अपमानित होते रहते हैं। पर संगठित होकर युवा आक्रोश की सिंह-गर्जना नहीं करते। तो कोई उनसे भी कह सकता है, ‘तुमसे तो हिजड़े भले।’
इस देश की तीन चैथाई आबादी आज भी देहातों में रहती है। पिछले पचास वर्षों में विकास के नाम पर जो कुछ भी हुआ है उसका ज्यादातर हिस्सा शहरी लोगों की जेब में गया है। देश के लाखों गांव उपेक्षित पड़े हैं। शहरों द्वारा गांवों का शोषण हो रहा है। पर गांव वालों का खून फिर भी नहीं खौलता। ज्यादा उत्साह बढ़ा तो अपनी जाति के किसी नेता की जय-जय कार कर दी। बस फिर रहे वही ढाक के तीन पात। गांव वाले तो ये भी नहीं देख पाते कि किसानों के नाम पर राजनीति करने वालों का अपना जीवन और उनकी औलाद का जीवन कितना शहरी या विदेशीनुमा बन चुका है। जिसके मन में गांव के जीवन की सादगी के प्रति आकर्षण ही नहीं है, जो गांव को सिर्फ अपनी जागीर समझता है, जिसका दिल विलायती हो चुका है, वो क्या गांव वालों के लिए करेगा ? ये सब देख कर भी अगर देख के करोड़ों गांव वाले, मजबूत कद-काठी वाले किसान-मजदूर और युवा खामोश बैठे हैं तो कोई उनसे भी कह सकता है, ‘तुमसे तो हिजड़े भले।’
जो महिलाएं अपने पति की चांद पर तो आए दिन बेलन बजाती हैं पर राशन की दुकान पर मक्कारी करने वाले या बिजली, पानी, सफाई और स्वास्थ सेवाओं में कोताही करने वाले सरकारी मुलाजिमों को छोड़ देती हैं, उनकी बेलन से खबर नहीं लेतीं, ऐसी महिलाओं से भी कोई कह सकता है कि, ‘तुमसे तो हिजड़े भले।’
पिछले दिनों केंद्र सरकार में मंत्राी एक बड़े राजनेता से बात हो रही थी तो वे बोले कि, ‘‘इस देश की जनता बहुत अमन पसंद है। कोई उसे कितना भी मूर्ख क्यों न बना ले, वो आंदोलित नहीं होती। होती भी है तो किसी भावावेश में और वो भी किसी बेकार के मुद्दे पर। फिर जल्दी ही ठंडी भी हो जाती है। उसकी बला से सरकार में बैठे लोग कुछ भी करें। यही कारण है कि इस मुल्क पर गुलाम वंश तक शासन कर गया। यानी सुल्तानों के खरीदे गुलाम तक तख्त पर बैठ गए और जनता ने चूं तक न की। इस मुल्क में 250 आदमियों की फौज लेकर अहमद शाह अबंदाली सैकड़ों गांवों को रौंदता चला गया, कहीं प्रतिरोध तक न हुआ। इस मुल्क में साढ़े तीन लाख अंग्रेज 35 करोड़ हिंदुस्तानियों पर 190 साल तक जुल्म ढाते रहे, पर जंगे आजादी लड़ने कोई लाखों लोग सड़कों पर नहीं उतरे।’’ मंत्राी जी कहते गए और हम सुनते गए। उनका आशय था कि इस मुल्क में कुछ भी लिख लो, कुछ भी बोल लो, कुछ भी कह लो, कोई फर्क नहीं पड़ता। उनका ये कहना था कि देश के राजनेता ये बात अच्छी तरह समझ गए हैं। इसलिए उनकी रूचि जनता के दुख दूर करने में नहीं होती। सिर्फ जब चुनाव आता है तब ऐसे मुद्दों की खोज की जाती है जो जनता की कल्पनाशीलता में आसानी से बैठ सके। जिन मुद्दों पर जनता को थोड़े समय के लिए उद्ेलित किया जा सके। टेलीविजन और अखबारों का जम कर ‘सदुपयोग’ किया जाता है और जनता के सामने अपनी योग्यता और श्रेष्ठता की झूठी तस्वीर पेश की जाती है। जिस तरह जनता टीवी के विज्ञापनों से प्रभावित होकर बाजारू शक्तियों के शिकंजे में फंस जाती है और वह सब खरीद लेती है जिसकी उसे जरूरत भी नहीं होती, वैसे ही चुनाव के दौरान वह राजनैति दलों के जाल में फंस जाती है और बार-बार धोखा खाती है। पर कटनी की जनता ने इस बार अपनी आंख खुली रखी और राजनेताओं व दलों से कह दिया, ‘तुमसे तो हिजड़े भले।’
इससे पहले कि बाकी का देश कटनी का राह पकड़ ले देश के राजनेताओं, दलों व जनता को आत्म-मंथन करना चाहिए। तमाम संसाधन होते हुए हम इतने गरीब और अव्यवस्थित क्यों हैं ? अगर हमने ऐसा आत्म-मंथन नहीं किया तो कोई हमसे भी कह सकता है कि, ‘तुमसे तो हिजड़े भले।’