दीपावली के अवसर पर सारा देश हर भवन को प्रकाशित करता है। क्यों न इस अवसर पर हम उन ऐतिहासिक भवनों को प्रकाशित करने की बात सोचें जिन भवनों में कभी रोज दीवाली मना करती थी, पर आज गहरा अंधेरा है। सभी जानते हैं कि हर सांसद को प्रतिवर्ष 2 करोड़ रुपया किसी भी संसदीय क्षेत्रा में विकास कार्यों के लिये आवंटित किया जाता है। लोकसभा सांसदों को तो इस राशि को खर्च करने में कोई समस्या नहीं आती क्योंकि उनका संसदीय क्षेत्रा ही इतना बड़ा होता है कि उसके लिये इतनी सी रकम कहां खप जाती है, पता नहीं चलता। पर राज्यसभा के सांसदों के सामने यह दिक्कत रहती है कि वे किस संसदीय क्षेत्रा को अपना मानकर चुने, जहां वे अपनी राशि खर्च कर सकें। आमतौर पर होता यह है कि जो सांसद राजनैतिक दलों के कोटे से आते हैं वे अपने दल के नेताओं के निर्देश पर संसदीय क्षेत्रा चुन लेते हैं या फिर ऐसा क्षेत्रा चुनते हैं जिसमें कुछ वर्ष काम करने के बाद वे लोकसभा के चुनाव लड़ने की हिम्मत कर सकें। पर इसके अलावा भी बहुत सारे सांसद ऐसे होते हैं जिन्हें यह तय करने में बहुत मुश्किल आती है। प्रायः उनकी आवंटित राशि बिना खर्च हुए ही अवधि पूरी हो जाती है।जहां तक देश की समस्याओं और विकास की आवश्यकताओं का सवाल है वे इतनी व्यापक हैं कि उनका समाधान रातों रात नहीं हो सकता। वैसे भी ऐसी समस्याओं के समाधान के लिये अनेक किस्म के प्रावधान विभिन्न मंत्रालयों व राज्य सरकारों द्वारा समय समय पर किये ही जाते हैं। पर दुर्भाग्य से देश की सांस्कृतिक धरोहर को बचाकर रखने के लिये दिवालिया होती सरकारों के पास कोई विशेष संसाधन उपलब्ध नहीं हैं। भारत के पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग (एएसआई) के पास भी पुरातात्विक महत्व की हजारों इमारतों के रखरखाव के लिये पर्याप्त साधन उपलब्ध नहीं हैं। यह एक चिंता का विषय है। पेड़ काटकर, नदियों को प्रदूषित करके और वायु में जहरीली गैस छोड़कर हम पर्यावरण को तो बर्बाद करने में जुटे ही हैं, भूमाफियाओं और तस्करों के चलते देश की ऐतिहासिक धरोहर बहुत तेजी से लुप्त होती जा रही है। समुचित रखरखाव के अभाव में इन खूबसूरत इमारतों में दरारें पड़ती जा रही हैं। इनकी नक्काशी, जाली और पेन्टिंग की बेदर्दी से चोरी और तस्करी हो रही है। ये एक ऐसी क्षति है जिसकी पूर्ति भविष्य की कोई भी योजना नहीं कर पायेगी। हमारी संतानें और आने वाली पीढि़यां भारत के उस गौरवमयी अतीत के प्रमाण स्वरूप देश भर में खड़ी इन इमारतों को नहीं देख पायेंगी। देश की कुछ मशहूर चुनिंदा इमारतों को छोड़ दें क्योंकि इन पर सारे विश्व के पर्यटकों की निगाह है तो भी देश में हजारों ऐसी इमारतें हैं जिनका कलात्मक और ऐतिहासिक महत्व है। ये इमारतें भविष्य में पर्यटन के नये केन्द्रों को विकसित करने में सहायक होंगी। चूंकि साधनों का अभाव है और साधनों के इंतजार में हम इन इमारतों की बर्बादी की उपेक्षा नहीं कर सकते, इसलिये कुछ व्यवहारिक कदम तुरंत उठाये जाने की आवश्यकता है। हर संसदीय क्षेत्रा में अनेक धार्मिक इमारतें हैं जिनसे न सिर्फ स्थानीय लोगों की भावनायें जुड़ी हैं बल्कि उनका भारी सांस्कृतिक महत्व भी है। पर पता नहीं क्यों सांसद निधि से धार्मिक इमारत के जीर्णोद्धार के लिये धन आवंटित करने की अनुमति नहीं है। जबकि उसी धार्मिक इमारत के इर्दगिर्द के आधारभूत ढांचे को विकसित करने पर कोई रोक नहीं है। केन्द्रीय विदेश राज्यमंत्राी अजीत पांजा इस बात से बड़े व्यथित हैं कि वे अपने संसदीय क्षेत्रा ’22 कलकत्ता नार्थ ईस्ट’ के 1000 वर्ष पुराने शीतला मंदिर बेरियाघाटा के 250 वर्ष पुराने राधाकृष्ण मंदिर, विद्यासागर क्षेत्रा के ऐतिहासिक बुद्ध विहार जैसे जर्जर हाल होती इमारतों के जीर्णोद्धार के लिये अपनी संसदीय निधि से कोई धन नहीं दे सकते। उनकी तरह अनेक दूसरे सांसद भी इस पीड़ा को महसूस करते हैं।
धर्मान्धता या धर्म निरपेक्षता कोई भी मंच लेकर कोई राजनीति क्यों न करे कम से कम भारत में तो कोई भी राजनेता अपने मतदाताओं की धार्मिक भावनाओं की उपेक्षा नहीं कर सकता। चाहे फिर वो कम्युनिस्ट ही क्यों न हो। भारतीय समाज में धर्म इस तरह गुंथा हुआ है कि उसे अछूत मानकर राजनैतिक या विकास की प्रक्रिया से अलग नहीं किया जा सकता। यदि कोई सांसद अपने क्षेत्रा के लोगों की धार्मिक भावनाओं का आदर करते हुए उस क्षेत्रा के पुरातात्विक महत्व के धार्मिक धराहरों का जीर्णोद्धार कराता है या इस जीर्णोद्धार के लिये अपनी निधि से कुछ धन उत्प्रेरक के रूप में आवंटित करता है तो इस पर आपत्ति नहीं उठाई जानी चाहिये। इसके लिये कानून में आवश्यक संशोधन करने की जरूरत है। सांसदों से ज्यादा और कौन ऐसे संशोधनों के लिये सक्षम हो सकता है?
ऐतिहासिक महत्व के इन धार्मिक स्थलों की भी अजीब समस्या है। एक तरफ तो इन भवनों के सेवायत, पुजारी, मुल्ला, पादरी या बौद्ध भिक्षुक मौजूद हैं जिनके पूर्वज सदियों से इन भवनों की देखभाल और सुरक्षा करते आये हैं। दूसरी तरफ एएसआई के नियमों के तहत इन सेवायत अधिकारियों को केवल सेवा पूजा का अधिकार है। भवन की मरम्मत का नहीं। यदि मरम्मत करानी हो तो उन्हें एएसआई के दरवाजे खटखटाने होते हैं। साधनों के अभाव से जूझता एएसआई उनकी गुहार सुन नहीं पाता और उन्हें स्वतंत्रा रूप से इन भवनों के जीर्णोद्धार की अनुमति देता नहीं। नतीजतन ऐसी इमारतें क्रमशः ध्वस्त होती जा रही हैं। एक बार को उपेक्षित और प्रयोग में न आने वाली इमारतों को छोड़ भी दिया जाये तो ऐसी सैकडा़ें इमारतें हैं जो ऐतिहासिक भी हैं और आज तक धार्मिक व सांस्कृतिक कार्यों के लिये उपयोग में भी आ रही हैं। ऐसी इमारतों से उस धर्म के मानने वालों की भावनायें निश्चित रूप से जुड़ी हुई होती हैं। ऐसे भावनाशील लोगों में से जो लोग साधन सम्पन्न हैं वे चाहते हैं कि उनके पैसे का सदुपयोग उनकी आस्था के केन्द्रों के जीर्णोद्धार में हो। पर सेवायत अधिकारियों, एएसआई के कानूनों के चलते वे कुछ ठोस नहीं कर पाते। इस समस्या से जूझने के लिये उनके पास वक्त ही नहीं होता।