संयुक्त राष्ट्र के अधिवेशन में पाकिस्तान के राष्ट्रपति श्रीपरवेज मुशर्रफ ने भारत के विरुद्ध जिस भाषा का प्रयोग किया वह कोई नई बात नहीं है। पाकिस्तान अपने जन्म के समय से ही हर अंतर्राष्ट्रीय मंच पर यही जहर उगलता आया है। पर जिस तरह श्री मुशर्रफ ने सत्तारूढ़ भाजपा पर हमला बोला और गुजरात के दंगों को लेकर टिप्पणी की वह साफ साफ भारत के आंतरिक मामलों में दखलंदाजी का नमूना था। यह दूसरी बात है कि पाकिस्तान कश्मीर में फैले आतंकवाद को आजादी की लड़ाई बताता रहे, पर असलियत यह है कि सारी दुनिया जानती है वहां जो कुछ हो रहा है वह पाकिस्तान समर्थित आतंकवाद के अतिरिक्त और कुछ नहीं है। इसलिये श्री मुशर्रफ को इस मामले पर कोई समर्थन नहीं मिला। इतना ही नहीं उनकी अमरीका में मौजूदगी के दौरान ही बुश प्रशासन ने पाकिस्तान को फटकार लगाई। साफ-साफ शब्दों में कहा कि कश्मीर में फैले आतंकवाद को आजादी की लड़ाई नहीं माना जा सकता। पाकिस्तान से इस किस्म के आतंकवाद को रोकने को भी कहा गया। हालांकि भारत के प्रधानमंत्री श्री अटल बिहारी वाजपेई ने श्री मुशर्रफ का माकूल जवाब दिया पर इस सारे मामले में सिवाय कूटनीतिक दांवपेचों के और कुछ भी हासिल नहीं हुआ। स्थिति ज्यों की त्यों बनी हुई है और इसके लिये सबसे ज्यादा जिम्मेदार है अमरीका।
एक तरफ तो अमरीका पाकिस्तान को फटकार लगाता है और दूसरी ओर उसे आतंकवाद के विरुद्ध अपने वैश्विक युद्ध में बराबर का हिस्सेदार मानता है। अमरीका के कूटनीतिज्ञ जब भारत आते हैं तो दूसरी भाषा बोलते हैं और जब इस्लामाबाद जाते हैं तो वहां के सुर में सुर मिलाते हैं। हम सब कुछ देख समझ रहे हैं पर फिर भी इस मुगालते में हैं कि अमरीका को हमसे हमदर्दी है। सारी दुनिया जानती है कि अमरीकी सरकार अपनी विदेश नीति आंतरिक-आर्थिक दबावों के अनुरूप बनाती है। उसका मुख्य उद्देश्य अपनी अर्थव्यवस्था को सुदृढ़ बनाये रखना और अमरीकी सामान और तकनीकी के लिये दुनिया में नये नये बाजारों पर कब्जा करना है। अफगानिस्तान में अमरीका का दखल आर्थिक कारणों से था न कि राजनैतिक से। अफगानिस्तान पर अपनी पकड़ बनाये रखने के लिये अमरीका को पाकिस्तान का सहयोग चाहिये।
तालिबान न तो हारे हैं और न थके हैं। वे मौके की फिराक में हैं। मौका मिलते ही वे फिर हमला बोल देगे। उन्हें साधे रखने के लिये जिस फौजी साजो सामान की जरूरत होती है उसका बड़ा जखीरा अमरीका ने पाकिस्तान की सरजमीं पर तैनात किया हुआ है। उसके लड़ाकू जहाज पाकिस्तान के हवाई अड्डों पर खड़े हैं। हालांकि अमरीका अच्छी तरह जानता है कि पाकिस्तान के आवाम की हमदर्दी उसके साथ नहीं है। वह यह भी जानता है कि श्री मुशर्रफ दोहरी चाल चल रहे हैं। एक तरफ अमरीका से आतंकवाद के विरुद्ध वैश्विक युद्ध में दोस्ती का नाटक कर रहे हैं और दूसरी ओर तालिबानों से उनका संवाद जारी है। पर अमरीका की यह मजबूरी है कि वह पाकिस्तान के साथ दोस्ती बनाये रखे। दक्षिणी एशिया में अपनी पकड़ मजबूत करने के लिये उसे ये मदद चाहिये ही। दूसरी तरफ अमरीका के भारत में व्यापारिक हित बढ़ते जा रहे हैं। भारत उसे भारी संभावनाओं से युक्त एक बड़ा बाजार दिखाई देता है। इसलिये उसका रुख भारत की तरफ भी मित्रता का है।
लेकिन भारत के विदेश नीति निर्धारकों को यह बात अच्छी तरह समझ लेनी चाहिये कि दिखावे को अमरीका चाहे कितनी भी हमदर्दी क्यों न जताये असलियत में उसे भारत में फैल रहे आतंकवाद की कोई चिंता नहीं है। यदि वह वाकई चिंतित है तो वह इसे रुकवा पाने में पूरी तरह सक्षम है। पर वह ऐसा नहीं कर रहा। रूस के पतन के बाद आज दुनिया के राजनैतिक पटल पर अमरीका सबसे ज्यादा शक्तिशाली राष्ट्र है और चीन जैसे कुछ देशों को छोड़कर शेष दुनिया में उसकी तूती बोलती है। वह जिस हुक्मरान से जो कराना चाहता है, करा सकता है। इसीलिये आज दुनिया के तमाम देशों के हुक्मरान भाग-भाग कर वाशिंगटन जाते हैं और व्हाइट हाउस में फर्शी सलाम बजाते हैं। यह कोई बहुत अच्छी स्थिति नहीं। इससे इन देशों की सार्वभौमिकता खतरे में पड़ती जा रही है। पर अब कोई विकल्प भी तो नहीं है। आर्थिक शक्तियों के अंतर्राष्ट्रीय जाल ने धीरे-धीरे दुनिया भर के देशों को जकड़ लिया है। जिस बात को बड़े गर्व से विकास का सूचक मानकर बताया जाता है वही बात आज इन देशों स्वतंत्र अस्तित्व के लिये सबसे बड़ा खतरा हो गयी है और वह है दुनिया को ‘एक आर्थिक गांव’ बताना। केन्द्रीयकृत बाजारू शक्तियों से सारी दुनिया के लोगों को नियंत्रित करने का जो दौर चला है वो धीरे-धीरे इन देशों की राजनैतिक व्यवस्थाओं को भी दरकिनार करता चला जाएगा। आज बहुत से देशों में ये हो भी रहा है। भारत का विपक्ष सत्तारूढ़ दल पर अमरीका के आगे घुटने टेकने का आरोप लगाता है। जबकि हकीकत यह है कि आने वाले समय में अगर विपक्षी दल भी सत्ता में आते हैं तोउनकी विदेश नीति आज से बहुत हटकर नहीं होगी। यह स्थिति अपरिहार्य हो चुकी है।
इन हालातों में भी अगर पाकिस्तान और भारत के हुक्मरान वही दकियानूसी ढर्रे पर चलकर एक दूसरे के खिलाफ जहर उगलते हैं तो यह इसलिये कि इन देशों के समाज का बड़ा हिस्सा अभी भी अंतर्राष्ट्रीय बाजारू शक्तियों के जाल से काफी हद तक अछूता है। सामंती मानसिकता अभी बरकरार है। राष्ट्रवाद और धर्म के प्रति आस्था अभी अदृश्य नहीं हुई है। ऐसे में भारत और पाकिस्तान के हुक्मरान मौजूदा हालात की हकीकत को जानते हुए भी जहर उगलने का यह नाटक करते रहते हैं ताकि अपने देश की जनता को अपने जुझारू होने का संकेत दे सकें। यदि वास्तव में हम भारत में फैल रहे आतंकवाद के प्रति चिंतित हैं तो हमें कुछ ऐसे ठोस कदम उठाने चाहिये जिनसे इस स्थिति पर काबू पाया जा सके। इस संदर्भ में भारत की आंतरिक स्थिति को सही परिप्रेक्ष्य में समझने की जरूरत होगी।
यह प्रश्न उठाया जा सकता है कि देश में एक से एक आला दर्जे के ऐसे पुलिस अधिकारी मौजूद हैं जिन्हें न सिर्फ इस बात का आत्मविश्वास है कि वे आतंकवाद का खात्मा कर सकते हैं बल्कि उन्होंने अतीत में ऐसा करके भी दिखाया है। ऐसे अधिकारी आज देश के कई हिस्सों में तैनात हैं। प्रश्न है कि क्या भारत का गृह मंत्रालय ऐसे पुलिस अधिकारियों को उनके अनुभव और योग्यता के अनुरूप वह सम्माननीय स्थिति देने का तैयार है जिस पर खड़े होकर वे आतंकवाद को नियंत्रित कर सकें? हकीकत ये है कि ऐसे तमाम लोग देश के अलग अलग प्रांतों में निष्क्रिय बैठकर मक्खी मार रहे हैं जबकि अक्षम और संदिग्ध आचरण वाले लोग महत्वपूर्ण निर्णय लेने की भूमिका में बैठे हैं। यही कारण है कि कश्मीर या शेष भारत में आतंकवाद पर लगाम नहीं लग पा रही। इसके साथ ही आतंकवादियों को छिपे तौर पर मिल रहा
राजनैतिक संरक्षण भी उसकी वृद्धि में सहायक है। सरकार की गुप्तचर एजेंसियों के पास इस बात के तमाम प्रमाण और सूचनायें उपलब्ध हैं कि देश के अनेक प्रतिष्ठित राजनेता समय समय पर आतंकवादियों को संरक्षण देते आये हैं। बिना इन राजनेताओं पर शिकंजा कसे आतंकवाद से नहीं लड़ा जा सकता। तीसरी और सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि सीबीआई के कब्रगाह में तमाम ऐसे घोटाले दफन हैं जिनसे आतंकवाद के अंतर्राष्ट्रीय आर्थिक तंत्र का पर्दाफाश होता हैं। पर राजनैतिक दबावों के चलते इन घोटालों को ठंडे बस्ते में डाल दिया गया है। न तो उनकी जांच की गयी और न ही उन अधिकारियों को सजा ही दी गयी जो ऐसी जांच को दबाने में जुटे रहे। भारत सरकार की ऐसी नीति के चलते जाहिरन आतंकवादियों के हौसले बढ़े हैं और वे बेखौफ होकर संसद जैसी संस्था पर हमला बोलने की हिम्मत दिखा पाते हैं। यदि भारत सरकार आतंकवाद से वाकई निपटना चाहती है तो उसे इस पूरे मामले पर श्वेत पत्र लाना चाहिये। अब तक जिस किस्म के श्वेत पत्रों को लाने की बात कही गयी उनसे तो यही संकेत मिलता रहा है कि भारत सरकार पाकिस्तान की भूमिका को प्रकाशित करना चाहती है। पर यह संकेत आज तक नहीं मिला कि सरकार के इस प्रस्तावित श्वेत पत्र में आतंकवाद से जुड़े काण्डों का भी उल्लेख किया जाएगा। यह भी बताया जाएगा कि इन काण्डों की जांच की मौजूदा स्थिति क्या है ? इनकी जांच की गति इतनी धीमी क्यों रही है ? इन मामलों में समय रहते कानूनी कार्रवाई न करने वाले सीबीआई के अधिकारियों को क्या सजा दी गयी है ? इन केसों की जांच कहां और किस मुद्दों पर अटकी है ? बिना इस किस्म की जानकारी के आतंकवाद पर श्वेत पत्र लाना कोरी बयानबाजी से अधिक और कुछ नहीं होगा। इसमें शक नहीं कि भारत आतंकवाद से त्रस्त है। इसमें भी शक नहीं कि पाकिस्तान भारत में आतंकवाद को लगातार खुलकर समर्थन दे रहा है। पर यह भी सच है कि भारत के लचर राजनैतिक और प्रशासनिक ढांचे के कारण ही आतंकवादियों के हौसले इतने बढ़ पाये हैं। अंतर्राष्ट्रीय मंचों पर हम चाहे जितना आक्रामक रुख अपनायें, पाकिस्तान को चाहे जितना गरियाएं पर जब तक हम अपने देश के भीतर आतंकवाद के विरुद्ध माहौल को आक्रामक और प्रभावी नहीं बनायेंगे, आतंकवाद नियंत्रित करने में कामयाब नहीं हो सकते।
आर्थिक रूप से पिछड़ा, सैन्य तानाशाही से ग्रस्त और स्थाई रूप से राजनैतिक अस्थिरता का शिकार पाकिस्तान का शासन तो भारत को लक्ष्य बनाकर अपना वार करता रही रहेगा। उसके वजूद में आने से लेकर आज तक बने रहने का आधार ही भारत के प्रति द्वेष है। इस कड़वे सच को हमें स्वीकारना होगा। पर पड़ोसी देश से ऐसे व्यवहार का मिलना कोई अप्रत्याशित बात नहीं है। चाणक्य पंडित ने तो साफ कहा है कि शासक को अपने पड़ोसी देशों को सदैव शत्रु मानकर चलना चाहिये। इसलिये संयुक्त राष्ट्र में वाजपेई जी जो बोले सो ठीक बोले पर देश में वो और उनके सहयोगी उप प्रधानमंत्री क्या करते हैं यह महत्वपूर्ण बात है। देश केवल भाषणों से नहीं ठोस और मजबूत कदम उठाने से चला करता है जिसकी इस सरकार में काफी कमी दिखाई दे रही है। चिंता की बात यह है कि भावनायें भड़काने में माहिर राजनैतिक दल इन बुनियादी सवालों को छूना नहीं चाहते। जनता में उन्माद तो पैदा करते हैं पर उस उन्माद से रचनात्मक परिवर्तन की ऊर्जा उत्पन्न नहीं होती। इसलिये कुछ भी नहीं बदलता। यह जिम्मेदारी तो उन जागरूक और तटस्थ लोगों की है जो इस सारे माहौल को देेख और समझ रहे हैं। पर निष्क्रिय बैठे है इस उम्मीद में कोई आकर हालत सुधार देगा। कहावत है कि ‘दैव दैव आलसी पुकारा’।