Friday, August 16, 2002

गुजरात में चुनावी दंगल शुरू

सारी दुनिया की नजर गुजरात के विधान सभा चुनावों पर है। राष्ट्रपति से लेकर मुख्य चुनाव आयुक्त तक के गुजरात दौरों ने इस चुनाव को और भी रंगीन बना दिया है। दोनों ओर से महारथी मैदान में डटे हैं। एक ओर भाजपा के महारथी और दूसरी ओर इंका के महारथी अपनी ताल ठोक रहे हैं। फिलहाल मुद्दों और मतदाताओं के झुकाव की बात छोड़ दी जाए और केवल चुनावी दाव-पेंच का विश्लेषण किया जाए तो कई रोचक तथ्य सामने आते हैं। भाजपा की सेना में सबसे बड़े महारथी हैं स्वयं श्री लाल कृष्ण आडवाणी जो उप-प्रधानमंत्री भी हैं और गांधी नगर लोक सभा क्षेत्र के संसद में प्रतिनिधि भी। उनका व्यक्तित्व और गरिमा भाजपा में अपना विशिष्ट स्थान रखती है। पर भाजपा के समर्पित मतदाताओं को केन्द्र की राजग सरकार से बहुत उम्मीदें थीं जो पूरी नहीं हुई इसलिए उनमें निराशा है उधर गांधी नगर संसदीय क्षेत्र के मतदाता भी अपने सांसद से संतुष्ट नहीं हैं। फिर भी आडवाणी जी इस गुजरात के चुनाव अभियान में राजग के शेष कार्यकाल में बेहतर सरकार देने का सपना तो दिखा ही सकते हैं। मजबूरी हुई तो हिंदू कार्ड को भी खुलेआम खेल सकते हैं। पर उप प्रधानमंत्री के पद पर रहते ऐसा कर पाना सरल नहीं होगा।

भाजपा के दूसरे महारथी हैं- श्री केशुभाई पटेल। जिनका पटेल वोटों पर निःसंदेह अच्छा आधिपत्य है। पर उनके साथ कई पुछल्ले लगे हैं। एक तो यह कि वे श्री नरेन्द्र मोदी को कतई पसंद नहीं करते और अपने राजनैतिक पतन के लिए श्री मोदी को ही जिम्मेदार मानते हैं। इसलिए बावजूद इसके कि उन्हें भाजपा के चुनाव प्रचार की कमान सौंपी गई है, उम्मीद यही है कि वे प्रचार ऊपर के मन से भले ही करें पर पटेल समाज को इस बात के लिए कभी मजबूर नहीं करेंगे कि वो श्री मोदी को वोट दें। अगर उन्होंने ऐसा किया तो वे पटेल समाज के मुखिया भी नहीं रह पाएंगे। दूसरा पुछल्ला यह है कि श्री केशुभाई पटेल के शासनकाल में गुजरात की आर्थिक दुर्गति ही हुई है। भूकंप राहत कार्य भी बड़ी अकुशलता से किया गया और उनकी सरकार के कार्यकाल में भ्रष्टाचार का खुला खेल खेला गया, इसलिए पटेल समाज के बाहर उनकी शेष जनता पर पकड़ नहीं है। इसलिए गुजरात के विधान सभा चुनाव में वे भाजपा का भला कर पाएंगे, इस पर संदेह हैं।

भाजपा के तीसरे महारथी है श्री अरूण जेटली। जो अपनी वाकपटुता के कारण पहले मीडिया पर छाए और फिर भाजपा के सांसद व मंत्री बने और अब भाजपा के संगठन को संभालने पार्टी का महासचिव बन कर आ गए। श्री जेटली में हाजिर जवाबी तो है ही पर चुनाव लड़ने का उनका अनुभव लगभग शून्य हैं। वे स्वयं भी जीवन में विधानसभा से लेकर लोकसभा तक कोई चुनाव नहीं उड़े। संसद में उनका प्रवेश राज्य सभा की मार्फत हुआ। ऐसे में उनसे चुनावी हथकंडे दिखाने की उम्मीद करना नाइंसाफी होगी। जिस तरह उन्होंने मुख्य चुनाव आयुक्त पर हमला बोला उससे श्री जेटली की हताशा स्पष्ट झलकती है। पूर्व मुख्य चुनाव आयुक्त श्री टीएन शेषन ने तो इससे कहीं ज्यादा कड़ी फटकार जिला प्रशासन को ही नहीं मंत्रियों और मुख्यमंत्रियों तक को लगाईं थीं तब श्री जेटली के दल भाजपा ने श्री शेषन का यशगान किया था। आज जब वही बात उनके खिलाफ हुई तो इतना गुस्सा क्यों ? श्री जेटली के इस अप्रत्याशित बयान का समझदार जनता के बीच उल्टा प्रभाव पड़ेगा।

भाजपा के चैथे महारथी हैं स्वयं मुख्यमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी। जो जमीन से जुड़े कार्यकर्ता रहे हैं और संघ व संगठन का खूब काम किया है। उन्हंे संगठन चलाने का खासा अनुभव है पर चुनाव उन्होंने भी आज तक न कोई लड़ा, न जीता। अपने जीवन का पहला चुनाव उन्होंने मुख्यमंत्री बनने के बाद विधानसभा के लिए लड़ा जो उनकी कुर्सी बचाए रखने के लिए जरूरी था। इसमें वे कामयाब जरूर हुए पर केवल एक चुनाव लड़ने से पूरे प्रदेश के चुनाव को संभालने की उम्मीद नहीं की जा सकती। दूसरी ओर श्री मोदी के रूखे स्वभाव ने उन्हें पार्टी में अनेक स्तर के नेताओं के बीच अलोकप्रिय बना दिया है जो इस चुनाव लड़ने में भारी पड़ सकता है।

उधर इंका के खेमे में गुजरात का मोर्चा संभावने वाले लोगों में तीन प्रमुख हैं। इंका के महासचिव व गुजरात के प्रभारी श्री कमलनाथ। जिनकी राजनैतिक शिक्षा संजय गांधी वाले दौर में हुई है। ये उस टीम के सदस्य रहे हैं जिसने अपनी आक्रामक राजनीति से 1980 में श्रीमती इंदिरा गांधी को भारी विजय दिलाई थी। तब से आज तक श्री कमलनाथ ने हार का मुंह नहीं देखा। मध्य प्रदेश (छिन्दवाड़ा) के अपने संसदीय क्षेत्र से वे लगातार सात बार से चुनाव जीतते रहे हैं, जो कि उनकी कम उम्र और छोटे से राजनैतिक जीवन में बहुत बड़ी उपलब्धि है। संगठन के मामले में भी वे अपने रंग दिल्ली मंे नगर निगम चुनावों में दिखा चुके हैं जहां उन्होंने कांग्रेस को आशातीत सफलता दिलवाई। 9 अगस्त को कपड़ा मिलों के शहर सूरत में जो इंका की भव्य रैली हुई उसमें श्री कमलनाथ के लिए नारे लग रहे थे, ‘‘देखो देखो कौन आया-मोदी तेरा बाप आया।’’ इस रैली की खासियत यह थी कि इसका आयोजन उन कपड़ा मिल मालिकों, मजदूरों और कपड़ा व्यापारियों ने किया जो आज तक भाजपा का साथ देते आए थे। इस तरह भाजपा के केंद्रीय कपड़ा मंत्री श्री काशी राम राणा के लोक सभा क्षेत्र में जाकर रणभेरी बजाने वाले श्री कमलनाथ गुजरात चुनाव में क्या-क्या रंग दिखाएंगे अभी अंदाजा लगाना मुश्किल है। पर यह जरूर है कि उनके लिए यह चुनाव प्रतिष्ठा का प्रश्न बना हुआ है।

कांग्रेस के दूसरे महारथी श्री अमर सिंह चैधरी हैं। यूं तो आक्रामक तेवर वाले व्यक्ति नहीं हैं पर गुजरात में उनकी छवि एक गंभीर प्रशासक, सरल स्वभाव वाले नेता की है। जिसका फायदा इंका को मिल सकता हैं बशर्ते कि वे चुनाव में पूरी उत्साह से जुट जाएं। श्री शंकर सिंह वाघेला को जब इंका का प्रदेश अध्यक्ष बनाया गया तो श्री अमर सिंह चैधरी अपना विरोध प्रकट करने दिल्ली आ धमके पर बाद में उन्हें राजी कर लिया गया।

इंका के तीसरे महारथी हैं श्री शंकर सिंह वाघेला। जो दरअसल संघ और भाजपा के ही सृजन हैं। श्री वाघेला सारी जिंदगी संघ और भाजपा के लिए काम करते रहे। गुजरात में भाजपा संगठन को खड़ा करने का श्रेय उन्हें ही जाता है। उन्होंने वर्षों कंधे पर थैला लटका कर सड़क छाप राजनीति की है। हर शहर में, हर कार्यकर्ता से उनका निजी संबंध है। यूं कमी किसमें नहीं होती पर श्री वाघेला की खासियत यह बताई जाती है कि जब वे मुख्यमंत्री के पद पर रहे तो भी उन्होंने कभी अहंकार को पास नहीं फटकने दिया और जो भी उनसे मिला उससे सम्मान से मिले। यहां तक कि लालबत्ती की मुख्यमंत्री वाली गाड़ी से उतर कर अपने मित्र या कार्यकर्ता की गाड़ी में बैठ कर चल देते थे और सारी औपचारिकताएं धरी रह जाती थी। जबकि दूसरी ओर श्री मोदी के रूखे और दंभी व्यवहार से प्रायः लोग नाराज होकर लौटते हैं।

गुजरात चुनाव की कमान संभालने वालों में इंका के श्री अहमद पटेल महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहे हैं। वे गुजरात के अल्पसंख्यकों से सीधे जुड़े हैं और मुस्लिम पटेल होने के नाते उनका गुजरात के पटेलों पर भी अच्छा प्रभाव है। सिर्फ अल्पसंख्यक ही नहीं गुजरात के बहुसंख्यक समाज में भी श्री अहमद पटेल खासे लोकप्रिय हैं। वे जमीनी नेता हैं और तालुका स्तर से राजनीति शुरू करके यहां तक पहुंचे हैं। भड़ौच संसदीय क्षेत्र से वे 1977, 1980 व 1985 का लोक सभा चुनाव जीत कर आए थे। गुजरात के मतदाताओं के मनोविज्ञान की उन्हें गहरी समझ है। इस तरह चुनाव लड़ने और जीतने के अनुभव के मामले में कांग्रेस की टीम भाजपा से कहीं ज्यादा भारी पड़ रही है। वैसे हकीकत यह है कि चुनावी दंगल में लड़ते तो महारथी हैं लेकिन उनकी हार या जीत का फैसला मतदाता ही करता है। इसलिए अभी यह कहना बहुत मुश्किल होगा कि गुजरात के मतदाताओं का ऊंट किस करवट बैठेगा ?

इसमें शक नहीं है कि गोधरा के बाद गुजरात के हिन्दुओं में ध्रुवीकरण हुआ था। जिसका कुछ असर अभी भी अहमदाबाद, बड़ौदा, मेहसाना और खेड़ा जिले में बाकी है। पर शेष गुजरात में न तो ऐसा ध्रीवीकरण हुआ और न ही साम्प्रदायिक दंगे। फिर भी भाजपा आश्वस्त है कि चुनाव में विजय उसकी ही होगी। इसीलिए वह प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से हिंदू भावनाओं को जगाए रखेगी और इसीलिए वह जल्दी चुनाव भी चाहती है। जबकि हकीकत यह है कि गुजरात का मतदाता मूलतः व्यापारिक बुद्धि का है। एक व्यापारी का मुख्य लक्ष्य धन कमाना होता है। जिसके लिए वह व्यापार करता है। व्यापार जितना बढ़ता है उतनी उसकी आमदनी बढ़ती है। पर हिंसा और द्वेष की राजनीति से समाज की शांति भंग हो जाती है। पारस्परिक विश्वास टूट जाता है। असुरक्षा की भावना बढ़ जाती है। गुजरात में गोधरा और उसके बाद की हिंसा में जो कुछ हुआ, ऐसे माहौल में न तो शांति ही रह सकती है और न व्यापार ही फलफूल सकता है। वही आज गुजरात में हो रहा है। उद्योग, धंधे और व्यापार पर ऐसी मार पड़ी है कि गुजरात का समाज उबर नहीं पा रहा है। चारो ओर हताशा का माहौल है रही सही कमर सूखे ने तोड़ दी। इसलिए गुजरात के मतदाओं ने अपना फैसला मन ही मन कर लिया है। गुजरात का यह इतिहास भी रहा है कि वहां का मतदाता अपने फैसले को अंत समय तक दिल में ही रखता है और मतदान के बाद चैकाने वाले परिणाम देता है। गुजरात विधान सभा चुनाव के क्या नतीजे आएंगे, अभी कुछ भी नहीं कहा जा सकता। पर इस बार के चुनावी दंगल में महारथियों के दाव-पेंच पर मीडिया जगत का विशेष ध्यान रहेगा और अंत में यही होगा कि, ‘जो जीता वही सिकंदर।’

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