Rajasthan Patrika 16 Oct 2011 |
पृथक तेलांगना राज्य की मांग को लेकर चल रहे आन्दोलन के कारण आन्ध्र प्रदेश की सरकार ठप्प पड़ी है। उद्योग व्यापार का भी खासा नुकसान हो रहा है। हैदराबाद वासियों का कहना है कि तेजी से आगे बढ़ता उनका राज्य दस वर्ष पीछे चला गया है। दूसरी तरफ पृथक राज्य की मांग करने वाले इतने भावावेश में हैं कि कुछ सुनने को तैयार नहीं। एक-एक करके हर वर्ग के लोग इस आन्दोलन में शामिल होते जा रहे हैं। नित्य नये धरने और प्रदर्शन जारी हैं। इन लोगों को बता दिया गया है कि पृथक तेलांगना राज्य बनने से इनका क्षेत्र तेजी से विकसित होगा। जबकि हकीकत कुछ और है। यह केवल मृग तृष्णा है।
देश में जहाँ-जहाँ पृथक राज्य बने, वहाँ-वहाँ यही नारा दिया गया कि अलग राज्य बन जाने से क्षेत्र का विकास होगा। लेकिन हुआ इसका उल्टा। झारखण्ड का उदाहरण लें, तो यह स्पष्ट हो जाएगा कि खनिज संपदा से प्रचुर मात्रा में संतृप्त इस छोटे से जनजातीय राज्य में भ्रष्टाचार हिमालय की ऊँचाई को पार कर गया है। यहाँ के वनवासियों को आज तक विकास के नाम पर शिक्षा, स्वास्थ्य सेवा, संचार सेवा, परिवहन सेवा तो दूर, दो वक्त की रोटी भी नसीब नहीं है। पीने का पानी नहीं है। इनके जंगलों में विकास के नाम पर एक ईंट नहीं लगी है। जबकि इनके मुख्यमंत्री, एक के बाद एक, सैंकड़ों-हजारों करोड़ रूपयों के घोटालों में पकड़े गए हैं।
मुझे याद है गोरखालैंड का वह आन्दोलन जब वहाँ 25 वर्ष पहले पृथक राज्य बनाने की मांग चली थी। मैं उसका कवरेज करने वहाँ गया था। हर ओर गोरखाओं का आतंक था। आये दिन दार्जलिंग में बन्द हो रहे थे। बन्द की अवहेलना करने वाले पर्यटकों की कारों पर पहाड़ों से पत्थर लुढ़काकर हमले किए जा रहे थे। ऐसे में आन्दोलन के नेता सुभाष घीसिंग से मिलना आसान न था। बड़ी मुश्किल से जुगाड़ लगाकर मैं घीसिंग तक पहुँचा। मेरे चारों ओर एल.एम.जी. का घेरा साथ चला कि कहीं मैं उनकी हत्या न कर दूं। इस आतंक के वातावरण में मैंने श्री घीसिंग से पूछा कि उनकी इस मांग का तार्किक आधार क्या है? उत्तर मिला, ‘‘तुम मैदान वाला लोग हमारा शोषण करते हो। हमको अपने घरों में चैकीदार और कुक बना देते हो। हमारे राज्य की सम्पत्ति लूटकर ले जाते हो। हमको तुम्हारे अधीन नहीं रहना। हम अलग राज्य बनायेगा और गोरखा लोगों का डेवलपमेंट करेगा।’’ अलग राज्य तो नहीं बना, पर ‘गोरखा हिल डेवलपमेंट काउंसिल’ बन गयी। बाद में उसी इलाके में काउंसिल के नेताओं के भ्रष्टाचार के विरूद्ध आन्दोलन चले। कुल मिलाकर गोरखा वहीं के वहीं रहे, नेताओं का खूब आर्थिक विकास हो गया।
हरियाणा जैसे एकाध उदाहरण को देकर यह सिद्ध करने की कोशिश की जाती है कि छोटे राज्य में विकास सम्भव है। पर उसके दूसरे कारण रहे हैं। सच्चाई तो यह है कि अलग राज्य बनना, मतलब आम जनता की जेब पर डाका डालना। क्योंकि अलग राज्य बनेगा तो अलग विधानसभा बनेगी, अलग हाईकोर्ट बनेगा, अलग सचिवालय बनेगा, अलग मंत्रिमण्डल बनेगा और तमाम आला अफसरों की अलग फौज खड़ी की जाएगी। इस सब फिजूलखर्ची का बोझ पड़ेगा आम जनता की जेब पर। जिसे झूठे आश्वासनों, लाल फीताशाही और भ्रष्टाचार के अलावा कुछ नहीं मिलेगा।
देश में जहाँ-जहाँ पृथक राज्य बने, वहाँ-वहाँ यही नारा दिया गया कि अलग राज्य बन जाने से क्षेत्र का विकास होगा। लेकिन हुआ इसका उल्टा। झारखण्ड का उदाहरण लें, तो यह स्पष्ट हो जाएगा कि खनिज संपदा से प्रचुर मात्रा में संतृप्त इस छोटे से जनजातीय राज्य में भ्रष्टाचार हिमालय की ऊँचाई को पार कर गया है। यहाँ के वनवासियों को आज तक विकास के नाम पर शिक्षा, स्वास्थ्य सेवा, संचार सेवा, परिवहन सेवा तो दूर, दो वक्त की रोटी भी नसीब नहीं है। पीने का पानी नहीं है। इनके जंगलों में विकास के नाम पर एक ईंट नहीं लगी है। जबकि इनके मुख्यमंत्री, एक के बाद एक, सैंकड़ों-हजारों करोड़ रूपयों के घोटालों में पकड़े गए हैं।
मुझे याद है गोरखालैंड का वह आन्दोलन जब वहाँ 25 वर्ष पहले पृथक राज्य बनाने की मांग चली थी। मैं उसका कवरेज करने वहाँ गया था। हर ओर गोरखाओं का आतंक था। आये दिन दार्जलिंग में बन्द हो रहे थे। बन्द की अवहेलना करने वाले पर्यटकों की कारों पर पहाड़ों से पत्थर लुढ़काकर हमले किए जा रहे थे। ऐसे में आन्दोलन के नेता सुभाष घीसिंग से मिलना आसान न था। बड़ी मुश्किल से जुगाड़ लगाकर मैं घीसिंग तक पहुँचा। मेरे चारों ओर एल.एम.जी. का घेरा साथ चला कि कहीं मैं उनकी हत्या न कर दूं। इस आतंक के वातावरण में मैंने श्री घीसिंग से पूछा कि उनकी इस मांग का तार्किक आधार क्या है? उत्तर मिला, ‘‘तुम मैदान वाला लोग हमारा शोषण करते हो। हमको अपने घरों में चैकीदार और कुक बना देते हो। हमारे राज्य की सम्पत्ति लूटकर ले जाते हो। हमको तुम्हारे अधीन नहीं रहना। हम अलग राज्य बनायेगा और गोरखा लोगों का डेवलपमेंट करेगा।’’ अलग राज्य तो नहीं बना, पर ‘गोरखा हिल डेवलपमेंट काउंसिल’ बन गयी। बाद में उसी इलाके में काउंसिल के नेताओं के भ्रष्टाचार के विरूद्ध आन्दोलन चले। कुल मिलाकर गोरखा वहीं के वहीं रहे, नेताओं का खूब आर्थिक विकास हो गया।
हरियाणा जैसे एकाध उदाहरण को देकर यह सिद्ध करने की कोशिश की जाती है कि छोटे राज्य में विकास सम्भव है। पर उसके दूसरे कारण रहे हैं। सच्चाई तो यह है कि अलग राज्य बनना, मतलब आम जनता की जेब पर डाका डालना। क्योंकि अलग राज्य बनेगा तो अलग विधानसभा बनेगी, अलग हाईकोर्ट बनेगा, अलग सचिवालय बनेगा, अलग मंत्रिमण्डल बनेगा और तमाम आला अफसरों की अलग फौज खड़ी की जाएगी। इस सब फिजूलखर्ची का बोझ पड़ेगा आम जनता की जेब पर। जिसे झूठे आश्वासनों, लाल फीताशाही और भ्रष्टाचार के अलावा कुछ नहीं मिलेगा।
किसी क्षेत्र का विकास न होने का कारण उस राज्य का बड़ा या छोटा होना नहीं होता। इसका कारण होता है, राजनैतिक नेतृत्व में इच्छाशक्ति का अभाव, सरकारी अफसरों का नाकारापन, जाति में बंटी जनता का वोट देते समय सही व्यक्तियों को न चुनना, मीडिया का प्रभावी तरीके से जागरूक न रहना, विपक्षी दलों का लूट में हिस्सा बांटना और सचेतक की भूमिका से जी चुराना। ऐसे ही तमाम कारण हैं, जो किसी क्षेत्र के विकास की सम्भावनाओं को धूमिल कर देते हैं। अगर हम सब अपनी-अपनी जगह जागरूक होकर खड़े हो जाऐं तो प्रशासन को काम करने पर मजबूर कर सकते हैं। पर हमारी दशा भी उस राज्य की तरह है जिसके राजा ने मुनादी करवाई कि आज रात को हर नागरिक राजधानी के मुख्य फव्वारे में एक लोटा दूध डाले तो कल दूध का फव्वारा चलेगा। हर नागरिक ने सोचा, सभी तो दूध डालेंगे, मैं पानी ही डाल दूं तो क्या पता चलेगा? अगले दिन फव्वारे में पानी ही चल रहा था।
जब कभी क्षेत्रीय स्तर पर पृथक राज्य की मांग को लेकर आन्दोलन चलता है, जैसा आजकल तेलांगना में हो रहा है, तो स्थानीय मीडिया आग में घी डालने का काम करता है। जबकि जरूरत इस बात की है कि उस क्षेत्र का मीडिया देश के बाकी राज्यों में जाए और वहाँ की जनता के अनुभव अखबारों और टी.वी. में प्रसारित करे, ताकि स्थानीय जनता को पता चले कि ऐसी ही भावनाऐं भड़काकर अन्य राज्यों का भी गठन हुआ था। पर उससे आम जनता को कुछ नहीं मिला। उन आन्दोलनों के दौर की खबरों के कोलाज और फिल्में दिखानी चाहिएं ताकि स्थानीय लोग अपने आन्दोलन से उस आन्दोलन की साम्यता देख सके और उन्हें समझ में आ जाए कि यह नाटक बहुत पुराना है। दूसरी तरफ आन्दोलनकारी नेताओं को भी सोचना चाहिए कि अब समय तेजी से बदल रहा है। पहले वाला माहौल नहीं है कि एक बार सत्ता में आ गए तो मनचाही लूट कर लो। अब तो खुफिया निगाहें हर स्तर पर सतर्क रहती हैं। मीडिया में इतनी ज्यादा प्रतिस्पर्धा है कि किसी का भी, कभी भी, कहीं भी भांडाफोड़ हो सकता है। ऐसे में अब जनता को मूर्ख बनाकर बहुत दिनों तक लूटा नहीं जा सकता। क्योंकि जनता का आक्रोश अब उबलने लगा है। अगर पृथक राज्य की मांग करने वाले नेता वास्तव में जनता का भला चाहते हैं तो इनको अपने मौजूदा प्रांत के विकास कार्यक्रमों और प्रशासनिक भ्रष्टाचार और निकम्मेपन के खिलाफ लड़ाई लड़नी चाहिए। जिससे इनके क्षेत्र की जनता को वास्तव में लाभ मिल सके।
जब कभी क्षेत्रीय स्तर पर पृथक राज्य की मांग को लेकर आन्दोलन चलता है, जैसा आजकल तेलांगना में हो रहा है, तो स्थानीय मीडिया आग में घी डालने का काम करता है। जबकि जरूरत इस बात की है कि उस क्षेत्र का मीडिया देश के बाकी राज्यों में जाए और वहाँ की जनता के अनुभव अखबारों और टी.वी. में प्रसारित करे, ताकि स्थानीय जनता को पता चले कि ऐसी ही भावनाऐं भड़काकर अन्य राज्यों का भी गठन हुआ था। पर उससे आम जनता को कुछ नहीं मिला। उन आन्दोलनों के दौर की खबरों के कोलाज और फिल्में दिखानी चाहिएं ताकि स्थानीय लोग अपने आन्दोलन से उस आन्दोलन की साम्यता देख सके और उन्हें समझ में आ जाए कि यह नाटक बहुत पुराना है। दूसरी तरफ आन्दोलनकारी नेताओं को भी सोचना चाहिए कि अब समय तेजी से बदल रहा है। पहले वाला माहौल नहीं है कि एक बार सत्ता में आ गए तो मनचाही लूट कर लो। अब तो खुफिया निगाहें हर स्तर पर सतर्क रहती हैं। मीडिया में इतनी ज्यादा प्रतिस्पर्धा है कि किसी का भी, कभी भी, कहीं भी भांडाफोड़ हो सकता है। ऐसे में अब जनता को मूर्ख बनाकर बहुत दिनों तक लूटा नहीं जा सकता। क्योंकि जनता का आक्रोश अब उबलने लगा है। अगर पृथक राज्य की मांग करने वाले नेता वास्तव में जनता का भला चाहते हैं तो इनको अपने मौजूदा प्रांत के विकास कार्यक्रमों और प्रशासनिक भ्रष्टाचार और निकम्मेपन के खिलाफ लड़ाई लड़नी चाहिए। जिससे इनके क्षेत्र की जनता को वास्तव में लाभ मिल सके।