उज्जैन के 67 वर्षीय युवा उद्योगपति पिछले तीन दशकों से देश के प्रतिष्ठित मेडीकल कालेजों में जाकर डाक्टरों को स्वस्थ रहने का प्रशिक्षण दे रहे हैं। अरुण ऋषि नाम के यह सज्जन पढ़ाई के नाम पर खुद को बी.एस.सी. फेल बताते हैं, अपने नाम के आगे स्वर्गीय लगाते है, स्वर्गीय लगाने का कारण पूछने पर बताते है कि जो भारत मे रहता है वो भारतीय और जो स्वर्ग में रहता है वो स्वर्गीय। उनके भाषण और साक्षात्कार देश के अखबारों में चर्चा का विषय बनते हैं। हमेशा व्यस्त और मस्त रहने वाले गुलाबी चेहरे के 67 वर्षीय श्री अरुण ऋषि का दावा है कि उन्होंने पिछले 40 वर्षों में टूथब्रश, टूथपेस्ट, चाय, कॉफ़ी, शेविंग-क्रीम साबुन शैम्पू, सौंदर्य प्रसाधन, कृत्रिम शीतल पेय, पान गुटका धूम्रपान तथा मदिरापान का सेवन नही किया तथा इन अप्राकृतिक साधनों के उपभोग नही करने के कारण वे पिछले 40 वर्षों में एक दिन भी बीमार नही हुए और उन्हें किसी भी प्रकार की दवा का सेवन की आवश्यकता नही पड़ी।
कुछ समय पहले दिल्ली के अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान के डाक्टरों को ‘सैल्फ मैनेजमेंट’ (अपने शरीर का प्रबंध) विषय पर व्याख्यान देते हुए श्री ऋषि ने डाक्टरों से पूछा कि क्या वे स्वस्थ हैं? उत्तर में जब श्रोता डाक्टरों की निगाहें नीचे हो गयीं तो उन्होंने फिर पूछा कि जब आप खुद ही स्वस्थ नहीं हैं तो अपने मरीजों को स्वस्थ कैसे कर पाते हैं? पहली बार मिलने पर श्री ऋषिजी की बातें बहुत अटपटी और हास्यास्पद लगती हैं, पर जब उन पर गंभीरता से विचार किया जाए तो वह दिमाग को झकझोर देती हैं। यही वजह है कि श्री ऋषि महीने में लगभग 18 दिन देश के प्रतिष्ठित संस्थाओं व बड़े बड़े औद्योगिक घरानों के अधिकारियों व कर्मचारियों के परिवारों को ‘सैल्फ मैनेजमेंट’ एवं हेल्थ मैनेजमेंट विदाउट मेडिसिन पर व्याख्यान देने जाते हैं, अल्प से मानधन पर। समाज की यह सारी सेवा वे अपने धर्मार्थ ट्रस्ट ‘आयुष्मान भव’ के झंडे तले करते हैं।
उनके शोध और अध्ययन का निचोड़ काफी रोचक है और आम पाठक के बहुत फायदे का है। उनके अनुसार सुबह आठ बजे तक भारतवासी टूथब्रश, टूथपेस्ट, चाय, कॉफ़ी, शेविंग-क्रीम, साबुन, शैम्पू तथा अन्य सौन्दर्य प्रसाधनों पर 900 करोड़ रुपया रोजाना खर्च कर देते हैं। इसके बाद सुबह आठ से रात के सोने तक लगभग 1100 करोड़ रुपया चाकलेट, शीतल पेय, पान, गुटका, सिगरेट बीड़ी व मदिरा पर खर्च कर देते है, इस प्रकार जब हम भारतवासी रोज़ाना 2000 करोड़ रुपये के अप्राकृतिक साधनों के द्वारा ईश्वर की प्रकृति का नाश करते है तो ईश्वर भी हम भारतवासियों की प्रकृति का सत्यानाश कर देता है और फिर हम 3000 करोड़ प्रतिदिन फिर अंग्रेज़ी दवाइयों और इलाज पर जो खर्च कर देते है। इस तरह प्रति दिन 5000 करोड़ रुपया, फालतू की चीजों में बर्बाद करने वाले इस देश पर कुल ऋण है लगभग 85 लाख करोड़ रुपये। इसमें देशी और विदेशी दोनों ऋण शामिल हैं।
अगर यह बर्बादी खत्म हो जाए तो न सिर्फ तीन वर्ष में सारा ऋण पट जाए बल्कि लोगों का स्वास्थ्य इतना सुधर जाएगा कि स्वास्थ्य सेवाओं पर होने वाला खर्च भी तेजी से घट जाएगा। वैसे भी ये सारी वे चीजें हैं जिनके बिना स्वस्थ, सुंदर व साफ सुथरा रहा जा सकता है। जिसे ऋषि जी पिछले 20 वर्षों से गाँव गाँव शहर शहर जा कर सिखाते है। आज से 60 वर्ष पहले देश में अप्राकृतिक सौन्दर्य प्रसाधनों का प्रचलत नगण्य था। लोग मिट्टी से हाथ धोते थे, घर के बने मंजन से दांत मांजते थे, तेल, घी या मलाई से मालिश करते थे, रीठे या आंवले से सिर धोते थे तथा चाय काफी की जगह छाछ, लस्सी या दूध पीते थे और पूरी तरह स्वस्थ रहते थे।
प्राकृतिक वस्तुओं को छोड़कर बाजार की शक्तियों का शिकार बन कर हम अपने स्वास्थ्य और जेब दोनों से हाथ धो रहे हैं। बाजार की ये शक्तियां इतनी चालाक हैं कि इन्होंने आम जनता के मन में पहले तो भ्रम पैदा किया कि प्राकृतिक सौन्दर्य वस्तुयें इस्तेमाल करने वाले गंवार हैं, पिछड़े हैं। यह भी प्रचार किया गया कि प्राकृतिक चीजों का इस्तेमाल आधुनिक जीवन में करना संभव नहीं है। किन्तु जब लगा कि इनके झूठे दावों की पोल खुलने लगी है और पश्चिमी देशों के लोग ही, तमाम आधुनिकता के बावजूद प्रकृतिक जीवन की ओर दौड़ रहे हैं तो यही बाजारी शक्तियां फिर दौड़ पड़ी प्राकृतिक वस्तुओं के उत्पादन को पेटेंट कराने में या उनके डिब्बा बंद पैकेट बनाकर उसी तरीके से तड़क भड़क के साथ बेचने में।
सोचने की बात है कि हल्दी और नीम जैसे घर घर में मिलने वाले पदार्थ को अमरीका में पेटेंट क्यों कराया गया? ताकि कल को चार आने की हल्दी टीवी पर विज्ञापन दिखाने के बाद 40 रुपये की बेची जा सके। हम पढ़े लिखे मूर्ख फिर भी इनके बहकावे में आ जाते हैं।
हम कैसे बैठकर खाना खायें? क्या खाना खाएं? मल और मूत्र का विसर्जन कैसे करें? ऐसे छोटे छोटे सवालों का वैज्ञानिक जवाब आज के पढ़े लिखे अभिभावकों के पास भी नहीं है। जब खुद ही नहीं जानते तो बच्चों को क्या बताएंगे? जबकि ये सारी वैज्ञानिक जानकारियां हमारे शास्त्रों में भरी पड़ी हैं। उसी जानकारी को एकत्रित करके श्री अरुण ऋषि जैसे लोग आम आदमी के भी समझ में आ सकने योग्य तथा अत्यंत ही रोचक भाषा में देश भर में घूम घूम कर लोगों को समझाने में जुटे हैं। उसे चाहे ये ‘सैल्फ मैनेजमेंट’ कह दें या 'बेटर आर्ट आफ लिविंग’ कहें, कोई फर्क नहीं पड़ता। मूल बात यह है कि हम जीवन जीने के सदियों पुराने और आजमाए हुए तरीकों को अपनाएं, जिन्हें हम बिना समझे छोड़ते जा रहे हैं और बदले में दुख पा रहे हैं। खुद लूट रहे हैं और मुल्क लुट रहा है। अरबों-खरबों रुपये का फायदा कुछ बहुराष्ट्रीय या उनके दलालों की जेब में जा रहा है।
ऐसी ही एक और छोटी सी बात है। हम रोज नंगे पैर मंदिर क्यों जाते थे? वहां ताली बजा कर कीर्तन क्यों करते थे? क्या कभी सोचा हमने? वैज्ञानिक प्रयोगों से यह सिद्ध हुआ है कि दिन में एक बार कुछ समय के लिये जोरदार ताली बजाने से बहुत से रोग दूर हो जाते हैं। देशी तरीके से उकड़ू बैठ कर खाने और मल विर्सजन करने से खाना अच्छा पचता है और कब्जियत नहीं होती, जोड़ो के दर्द कभी नही होता, जिसका शिकार आज लगभग हर शहरी व्यक्ति बन चुका है। इसी तरह जो पुरुष नीचे बैठ कर मूत्र विसर्जन करते हैं उन्हें प्रोस्टेट कैंसर (पौरुष ग्रन्थि) की बीमारी नहीं होती। कुछ देर तक पथरीली जमीन पर नंगे पैर चलने या पत्थर से पैर के तलुए रगड़कर नहाने से स्वतः ही एक्यूप्रेशर का काम हो जाता है और आदमी स्वस्थ रहता है। इसी तरह नमाज की विभिन्न मुद्राओं में बैठना भी स्वास्थ्य के लिये फायदेमंद होता है। जिसे ऋषि जी बहुत ही सरल और रोचक अंदाज से पढ़ाते है, ताली वादन और नमाज़ पर वे एक शेर भी सुनाते है,
जिस दिन ताली और नमाज़ एक साथ होगी अता ।
बस वही होगा जन्नत का सही पता।।
कितनी अजीब बात है कि जब किसी जानवर का पेट भर जाता है तो आप उसे कितनी भी बढि़या चीज खाने को क्यों न दें, वह मुंह फेर लेता है। जबकि हम इंसान भरे पेट पर भी चार गुलाब जामुन और खाने को तैयार रहते हे। ऐसे नमूने हर घर में मिलेंगे। हम भूल गये हैं कि भूख से कम खाने वाले लोग प्रायः बीमारी नहीं पड़ते, पर भूख से ज्यादा खाने वाले हमेशा बीमार पड़ते हैं।
जिस तरह भजन करते समय बात करने या टीवी देखने से भजन का फल नहीं मिलता उसी तरह भोजन करते समय टीवी देखने या बात करने से भोजन का फल नहीं मिलता। पर सब कुछ जान कर भी हम अनजान बने रहते हैं। आधुनिकता की इस अंधी दौड़ में भी जो लोग प्राकृतिक जीवन के जितना निकट रहने का प्रयास कर रहे हैं वे तथाकथित आधुनिक लोगों के मुकाबले कहीं ज्यादा स्वस्थ और सुखी रहते हैं और लम्बे समय तक जीते हैं।जिसका अरुण ऋषि जी प्रत्यक्ष उदाहरण है।
जो सांस्कृतिक और आध्यात्मिक ज्ञान हमें विरासत में मिला है उसकी तो हम परवाह नहीं करते, यह सोचते हैं कि हम तो सब जानते हैं ये बेचारे पश्चिमी देश कुछ नहीं जानते इसलिये हमारे यहां आते हैं। पर वही पश्चिमी देश दरिद्र लोगों की तरह दौड़ दौड़ कर हमारी बौद्धिक सम्पदा को बटोरने में जुटे हैं। वे सम्पन्न होते जा रहे हैं और हम कर्ज में डूबते जा रहे हैं। इस तरह हम जो सोने की चिड़िया कहलाते थे, आज विश्व के कंगालतम राष्ट्रों में से एक हो गये। दुख की बात तो यह है कि हमारे पतन और लूट की जो गति आजादी के बाद बढ़ी है, वैसी तो पिछले एक हजार साल में भी नहीं थी।
कोरोना के इस आतंक के इन दिनों ऐसे तमाम सवालों पर गंभीर चिंतन करना होगा कि हमसे क्या भूल हो रही है? ताकि कोरोना के बाद का सवेरा भारत के पुनर्जागरण का सवेरा बने। हम सबकी यही कोशिश होनी चाहिये।
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