Monday, March 25, 2019

सांसद की भूमिका क्या होती है?

इस देश की राजनीति की यह दुर्दशा हो गई है कि एक सांसद से ग्राम प्रधान की भूमिका की अपेक्षा की जाती है। आजकल चुनाव का माहौल है। हर प्रत्याशी गांव-गांव जाकर मतदाताओं को लुभाने में लगा है। उनकी हर मांग स्वीकार कर रहा है। चाहे उस पर वह अमल कर पाए या न कर पाए। 2014 के चुनाव में मथुरा में भाजपा उम्मीदवार हेमा मालिनी ने जब गांवों के दौरे किए, तो ग्रामवासियों ने उनसे मांग की कि वे हर गांव में आर.ओ. का प्लांट लगवा दें। चूंकि वे सिनेतारिका हैं और एक मशहूर आर.ओ. कंपनी के विज्ञापन में हर दिन टीवी पर दिखाई देती है। इसीलिए ग्रामीण जनता ने उनके सामने ये मांग रखी। इसका मूल कारण ये है कि मथुरा में 85 फीसदी भूजल खारा है और खारापन जल की ऊपरी सतह से ही प्रारंभ हो जाता है। ग्रामवासियों का कहना है कि हेमा जी ने ये आश्वासन उन्हें दिया था, जो आजतक पूरा नहीं हुआ। सही बात क्या है, ये तो हेमा जी ही जानती होंगी।

यह भ्रान्ति है कि सांसद का काम सड़क और नालियां बनवाना है। झारखंड मुक्ति मोर्चा रिश्वत कांड में फंसने के बाद प्रधानमंत्री नरसिम्हा राव ने सांसदों की निधि की घोषणा करने की जो पहल की, उसका हमने तब भी विरोध किया था। सांसदों का काम अपने क्षेत्र की समस्याओं के प्रति संसद और दुनिया का ध्यान आकर्षित करना हैं, कानून बनाने में मदद करना हैं, न कि गली-मौहल्ले में जाकर सड़क और नालियां बनवाना। कोई सांसद अपनी पूरी सांसद निधि भी अगर लगा दे तो एक गांव का विकास नहीं कर सकता। इसलिए सांसद निधि तो बन्द कर देनी चाहिए। यह हर सांसद के गले की हड्डी है और भ्रष्टाचार का कारण बन गई है।

हमारे लोकतंत्र में जनप्रतिनिधियों के कई स्तर हैं। सबसे नीची ईकाई पर ग्राम सभा और ग्राम प्रधान होता है। उसके ऊपर ब्लाक प्रमुख। फिर जिला परिषद्। उसके अलवा विधायक और सांसद। यूं तो जिले का विकास करना चुने हुए प्रतिनिधियों, अधिकारियों, विधायकों व सांसदों की ही नहीं, हर नागरिक की भी जिम्मेदारी होती है। परंतु विधायक और सांसद का मुख्य कार्य होता है,अपने क्षेत्र की समस्याओं और सवालों को सदन के समक्ष जोरदार तरीके से रखना और सत्ता और सरकार से उसके हल निकालने की नीतियां बनवाना। प्रदेश या देश के कानून बनाने का काम भी क्रमशः विधायक और सांसद करते हैं।

जातिवाद, सम्प्रदायवाद, साम्प्रदायिकता, राजनीति का अपराधिकरण व भ्रष्टाचार कुछ ऐसे रोग हैं, जिन्होंने हमारी चुनाव प्रक्रिया को बीमार कर दिया है। अब कोई भी प्रत्याशी अगर किसी भी स्तर का चुनाव लड़ना चाहे, तो उसे इन रोगों को सहना पड़ेगा। वरना कामियाबी नहीं मिलेगी। इस पतन के लिए न केवल राजनेता जिम्मेदार है, बल्कि मीडिया और जनता की भी जिम्मेदारी कम नहीं। जो निरर्थक विवाद खड़े कर, चुने हुए प्रतिनिधियों के प्रति हमलावर रहते हैं। बिना ये सोचे कि अगर कोई सांसद या विधायक थाना-कचहरी के काम में ही फंसा रहेगा, तो उसे अपनी कार्यावधि के दौरान एक मिनट की फुर्सत नहीं मिलेगी।, जिसमें वह क्षेत्र के विकास के विषय में सोच सके। जनता को चाहिए कि वह अपने विधायक और सांसद को इन पचड़ों में न फंसाकर उनसे खुली वार्ताऐं करें। दोनों पक्ष मिल-बैठकर क्षेत्र की समस्याओं की प्राथमिक सूची तैयार करे और निपटाने की रणनीति की पारस्परिक सहमति से बनाए। फिर मिलकर उस दिशा में काम करे। जिससे वांछित लक्ष्य की प्रप्ति हो सके।

एक सांसद या विधायक का कार्यकाल मात्र 5 वर्ष होता है। जिसका तीन चैथाई समय केवल सदनों के अधिवेशन में बैठने पर निकल जाता है। एक चैथाई समय में ही उन्हें समाज की अपेक्षाओं को भी पूरा करना है और अपने परिवार को भी देखना है। इसलिए वह किसी के भी साथ न्याय नहीं कर पाता। दुर्भाग्य से दलों के कार्यकर्ता भी प्रायः केवल चुनावी माहौल में ही सक्रिय होते हैं, अन्यथा वे अपने काम-धंधों में जुटे रहते हैं। इस तरह जनता और जनप्रतिनिधियों के बीच खाई बढ़ती जाती है। ऐसे जनप्रतिनिधि को अगला चुनाव जीतना भारी पड़ जाता है।

जबकि होना यह चाहिए कि दल के कार्यकर्ताओं को अपने कार्यक्षेत्र में अपनी विचारधारा के प्रचार-प्रसार के साथ स्थानीय लोगों की समस्याऐं सुलझाने में भी अपनी ऊर्जा लगानी चाहिए। इसी तरह हर बस्ती, चाहे वो नगर में हो या गांव में उसे प्रबुद्ध नागरिकों की समितियां बनानी चाहिए, जो ऐसी समस्याओं से जुझने के लिए 24 घंटे उपलब्ध हो। मुंशी प्रेमचंद की कथा पंच परमेश्वरके अनुसार इस समिति में गांव की हर जाति का प्रतिनिधित्व हो और जो भी फैसले लिए जाऐ, वो सोच समझ कर, सामूहिक राय से लिए जाऐ। फिर उन्हें लागू करवाना भी गांव के सभी लोगों का दायित्व होना चाहिए।

हर चुनाव में सरकारें आती-जाती रहती हैं। सब कुछ बदल जाता है। पर जो नहीं बदलता, वह है इस देश के जागरूक नागरिकों की भूमिका और लोगों की समस्याऐं। इस तरह का एक गैर राजनैतिक व जाति और धर्म के भेद से ऊपर उठकर बनाया गया संगठन प्रभावी भी होगा और दीर्घकालिक भी। फिर आम जनता को छोटी-छोटी मदद के लिए विधायक या सांसद की देहरी पर दस्तक नहीं देनी पड़ेगी। इससे समाज में बहुत बड़ी क्रांति आऐगी। काश ऐसा हो सके।

Monday, March 18, 2019

नौ सौ चूहे खाकर बिल्ली चली हज को

पाठकों को याद होगा कि जब चंद्रशेखर जी प्रधानमंत्री थे, तो हमारे देश का सोना इंग्लैंड के पास गिरवी रखकर, तेल और गैस के बिल का भुगतान किया गया था। दूसरे शब्दों में यह कहा जाऐ कि विकासशील देशों की इकॉनोमी और महगाई दर पैट्रोल और गैस की इंटरनेशनल कीमतों से जुड़ी रहती है। उदाहरण के तौर पर हमारे देश का करीब आधा जीडीपी क्रूड आयल और गैस के आयात में चले जाता है। स्पष्ट शब्दों में कहा जाए, तो आयल और गैस के आयात के बदले में हर साल ‘मिडिल ईस्ट’ के देशों को करीब दस लाख करोड़ रूपये की भारी भरकम रकम भारत अदा करता है। पिछले पांच साल में मोदी सरकार ने करीब 50 लाख करोड़ रूपये इस मद में खर्च किये हैं।
अब प्रश्न ये पैदा होता है कि क्या ये पैसा बचाया जा सकता था? क्या हमारे देश में तेल और गैस के भंडार पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध नहीं थे? तो इसका उत्तर है कि हमारे देश में तेल और गैस के भंडार पर्याप्त मात्रा से भी ज्यादा मौजूद हैं। 24 अक्तूबर 2016 को इसी कॉलम के माध्यम से हमने इसका उल्लेख भी किया था मगर सत्ता में बैठे चार-पांच व्यक्तियों की हवस ने 130 करोड़ भारतीयों की जेब के ऊपर 5 साल तक डाका डाला। आज की तारीख में हमारे देश में उपलब्ध तेल और गैस के भंडारों में से सिर्फ 15 प्रतिशत उत्खनन किया जा रहा है। बाकी 85 प्रतिशत को जानबूझकर छेड़ा नहीं जा रहा। अब जब लोकसभा के चुनाव घोषित हो गए हैं, तो मोदी जी ने तेल और गैस की पॉलिसी में जो संशोधन 2014 में करना था, वो 11 मार्च 2019 को एक अधिसूचना जारी करके कर दिया। इस अधिसूचना से पहले कैबिनेट में 28 फरवरी 2019 को अरूण जेटली के नेतृत्व ये संशोधन करने का फैसला लिया गया। ये संशोधन जानबूझकर 5 साल तक इस तथाकथित ईमानदार मोदी सरकार ने लंबित रखा। 4-5 ताकतवर लोगों ने अपनी धन की हवस को पूरा करने के लिए इस गरीब देश को मिडिल ईस्ट के शेखों के हाथों लुटवा दिया।
दरअसल तेल और गैस के उत्पादन के बारे में एक बहुत बड़ी गलतफहमी है, कि तेल और गैस लाखों सालों के अंतराल में बहुत थोड़ी मात्रा में बनता है। पर ‘केन उपनिषद्’ के एक आख्यान में अग्नि देवता के द्वारा इस गलत धारणा का खुलासा किया गया है। उसी ज्ञान को अमरिका के दो वैज्ञानिकों ने प्रयोग किया, 20 साल तक मिडिल ईस्ट के तेल व गैस के कुंओं में रिसर्च करते रहे, तो उनको पता चला कि तेल और गैस किसी सबडक्शन जोन में जहां मैग्मा 1200 डिग्री सैंटीग्रेड का उपलब्ध होता है, वहां पर एक सैकेंड में भारी भरकम मात्रा में बनते हैं। इसको हम विज्ञान की भाषा में ‘इनआर्गेनिक’ तेल और गैस के बनने की विधि कहते हैं।
सौभाग्य की बात है कि यही परिस्थिति हमारे देश में अंडमान निकोबार द्वीप समूह में भी उपलब्ध है। आज से 30 साल पहले अमरिका के दो वैज्ञानिकों ने मिडिल ईस्ट के तेल के कुंओं में एक अजीब बात देखी, कि तेल के कुंए को साल के शुरू में जितना मापा जाता था। सारा साल तेल के कुंए से तेल निकालने के बाद भी साल के अंत में तेल पहले से बढ़ा हुआ मिलता था। इस अजूबे को देखने के बाद अमरिका के वैज्ञानिकों ने दुनिया के सामने एक घोषणा की मिडिल ईस्ट के तेल के कुंए कभी भी खाली नहीं होंगे। इसी बात को जब वैदिक विज्ञान के परिपेक्ष में खंगाला गया, तो पता चला कि विश्व के पास सिर्फ 50 साल का तेल का स्टॉक नहीं है, बल्कि इसके विपरीत 200 करोड़ साल का तेल और गैस मौजूद है। अगर पूरे विश्व की 800 करोड़ की जनसंख्या प्रतिदिन बाल्टियां भर-भरके तेल से नहाना शुरू कर दे, तो भी 200 करोड़ वर्ष तक उनको धरती माता और अग्नि देवता तेल और गैस की आपूर्ति करते रहेंगे।
आप जानना चाहेंगे कि ये चमत्कारी ‘इनआर्गेनिक’ तेल बनने की विधि क्या है। दुनिया के सभी सबडक्शन जोन्स में जब चूने (कैल्शियम कार्बोनेट) की सतह 1200 डिग्री से.गे. के मैग्मा में प्रवेश करती है, तो कैल्शियम, कार्बन, आक्सीजन अलग-अलग हो जाते हैं। इसी प्रकार जब समुद्र का जल (एच2ओ) 1200 डिग्री मैग्मा के संपर्क में आता है, तो हाईड्रोजन और आक्सीजन अलग-अलग हो जाते हैं। तत्काल कार्बन और हाईड्रोजन मिलकर हाईड्रो कार्बन बन जाता है। जिसको साधारण भाषा में कू्रड आयल और गैस कहते हैं। गौर से देखा जाए तो ये विधि विश्व के सभी सबडक्शन जोन्स के आलवा सी-सप्रेडिंग सेंटर्स’, हॉट-स्पॉट्स, रिफ्ट्स में भी उपलब्ध है।
पाठकों को हम यह बता दें कि जो धीमी गति से तेल और गैस बनने की प्रक्रिया है, उसके अंदर भी इसी प्रक्रिया का जिसको हम विज्ञान की भाषा में मेटार्मोफिस्म (रूपांतरण) उसी का योगदान है।
भारतवासियों को हम बधाई देना चाहते हैं कि आने वाले कुछ ही वर्षों में भारत तेल और गैस का आयात बंद कर देगा और अपने ही देश में निकलने वाले तेल और गैस से हमारी जरूरत पूरी हो जाएगी और यहां तक कि अगर परिस्थितियां अनुकूल रही, तो भारत तेल और गैस का निर्यात करने वाला देश भी बन जाएगा और भारत के सुपरपावर बनने के सपने साकार हो जाऐंगे।

Monday, March 4, 2019

मीडिया अपने गिरेबान में झांके


40 बरस पहले जब हमने टीवी पत्रकारिता शुरू की, तो हमने कुछ मूल सिद्धांतों को पकड़ा था। पहला: बिना प्रमाण के कुछ भी लिखना या बोलना नहीं है। दूसरा: किसी के दिए हुए तथ्यों को बिना खुद परखे उन पर विश्वास नहीं करना। तीसरा: अगर किसी के विरूद्ध कोई विषय उठाना है, तो उस व्यक्ति का उन बिंदुओं पर जबाब या वक्तव्य अवश्य लेना। चैथा:  सभी राजनैतिक दलों से बराबर दूरी बनाकर केवल जनता के हित में बात कहना। जिससे लोकतंत्र के चैथा खंभा होने का दायित्व हम ईमानदारी से निभा सकें। आज 63 बरस की उम्र में भी विनम्रता से कह सकता हूँ कि जहां तक संभव हुआ, अपनी पत्रकारिता को इन चार सिद्धांतों के इर्द-गिर्द ही रखा। ये जरूर है कि इसकी कीमत जीवन में चुकानी पड़ी। पर इसके कारण जीवनभर जो दर्शकों और पाठकों का सम्मान मिलता आया है, वह मेरे लिए किसी पद्मभूषण से कम नहीं है।

ऐसा इसलिए उल्लेख करना पड़ रहा है, क्योंकि पिछले कुछ वर्षों से देश के मीडिया का अधिकतर हिस्सा इस सिद्धांतों के विपरीत काम रहा है। ऐसा लगता है कि पत्रकारिता की सारी सीमाओं को लांघकर हमारे कुछ टीवी एंकर और संवाददाता एक राजनैतिक दल के जन संपर्क अधिकारी बन गए हैं। वे न तो तथ्यों की पड़ताल करते हैं, न व्यवस्था से सवाल करते हैं और न ही किसी पर आरोप लगाने से पहले उसको अपनी बात कहने का मौका देते हैं। इतना ही नहीं, अब तो अमरीका के राष्ट्रपति जॉर्ज बुश की तरह वे ये कहने में भी संकोच नहीं करते कि जो मीडियाकर्मी या नेता या समाज के जागरूक लोग उनके पोषक राजनैतिक दल के साथ नहीं खड़े हैं, वे सब देशद्रोही हैं और जो साथ खड़े हैं, केवल वे ही देशभक्त हैं। मीडिया के पतन की यह पराकाष्ठा है। ऐेसे मीडियाकर्मी स्वयं अपने हाथों से अपनी कब्र खोद रहे हैं।

ताजा उदाहरण पुलवामा और पाक अधिकृत कश्मीर पर भारत के हवाई हमले का है। कितने मीडियाकर्मी सरकार से ये सवाल पूछ रहे हैं कि भारत की इंटेलीजेंस ब्यूरो, रॉ, गृह मंत्रालय, जम्मू कश्मीर पुलिस, मिल्ट्रिी इंटेलीजेंस व सीआरपीएफ के आला अफसरों की निगरानी के बावजूद ये कैसे संभव हुआ कि साढ़े तीन सौ किलो आरडीएक्स से लदे एक नागरिक वाहन ने सीआरपीएफ के कारवां पर हमला करके हमारे 44 जाँबाज सिपाहियों के परखच्चे उड़ा दिए। बेचारों को लड़कर अपनी बहादुरी दिखाने का भी मौका नहीं मिला। कितनी मांओं की गोद सूनी हो गई? कितनी युवतियां भरी जवानी में विधवा हो गई? कितने नौनिहाल अनाथ हो गए? मगर इन जवानों को शहीद का दर्जा भी नहीं मिला। इस भीषण दुर्घटना के लिए कौन जिम्मेदार है? हमारे देश की एनआईए ने अब तक क्या जांच की? कितने लोगों को इसके लिए पकड़ा? ये सब तथ्य जनता के सामने लाना मीडिया की जिम्मेदारी है। पर क्या ये टीवी चैनल अपनी जिम्मेदारी निभा रहे हैं? या रंग-बिरंगे कपड़े पहनकर नौटंकीबाजों की तरह चिल्ला-चिल्लाकर युद्ध का उन्माद पैदा कर रहे हैं? आखिर किस लालच में ये अपना पत्रकारिता भूल बैठे हैं?

यही बात पाक अधिकृत कश्मीर पर हुए हवाई हमले के संदर्भ में भी लागू है। पहले दिन से मीडिया वालों ने शोर मचाया कि साढ़े तीन सौ आतंकवादी मारे गए। इन्होंने ये भी बताया कि महमूद अजहर के कौन-कौन से रिश्तेदार मारे गए। इन्होंने टीवी पर हवाई जहाजों से गिरते बम की वीडियो भी दिखाई। पर अगले ही दिन इनको बताना पड़ा कि ये वीडियो काल्पनिक थी। आज उस घटना को एक हफ्ता हो गया। साढ़े तीन सौ की बात छोड़िए, क्या साढ़े तीन लाशों की फोटो भी ये मीडिया वाले दिखा पाऐ ? जिनको मारने का दावा बढ़-चढ़कर किया जा रहा था। जब अंतर्राष्ट्रीय मीडिया मौके पर पहुंचा, तो उसने पाया कि हमारे हवाई हमले में कुछ पेड़ टूटे हैं, कुछ मकान दरके हैं और एक आदमी की सोते हुए मौत हुई है। अब किस पर यकीन करें? सारे देश को इंतजार है कि भारत का मीडिया साढ़े तीन सौ लाशों के प्रमाण प्रस्तुत करेगा। पर अभी तक उसके कोई आसार नजर नहीं आ रहे। प्रमाण तो दूर की बात रही, इन घटनाओ से जुड़े सार्थक प्रश्न तक पूछने की हिम्मत इन मीडियाकर्मियों को नहीं है। ऐसा लगता है कि अब हम खबर नहीं देख रहे बल्कि झूठ उगलने वाला प्रोपोगंडा देख रहे हैं। जिससे पूरे मीडिया जगत की विश्वसनीयता पर प्रश्न चिह्न लग गया है।

तीसरी घटना हमारे मथुरा जिले की है। हमारे गांव जरेलिया का नौजवान पंकज सिंह श्रीनगर में हैलीकॉप्टर दुर्घटना मे शहीद हो गया। हम सब हजारों की तादात में उसकी शाहदत को प्रणाम करने उसके गांव पहुंचे और पांच घंटे तक वहां रहे। सैकड़ों तिरंगे वहां लहरा रहे थे। हजारों वाहन कतार में खड़े थे। सारा प्रशासन फौज और पुलिस मौजूद थी। जिले के सब नेता मौजूद थे। सैकड़ों गांवों की सरदारी मौजूद थी। वहां शहीद के सम्मान में गगन भेदी नारों से आकाश गूंज रहा था। इतनी बड़ी घटना हुई, पर किसी मीडिया चैनल ने इस खबर को प्रसारित नहीं किया। इस सब से शहीद पंकज सिंह के परिवार को ही नहीं, बल्कि लाखों ब्रजवासियों में भी भारी आक्रोश है। वे मुझसे प्रश्न पूछ रहे हैं कि आप खुद मीडियाकर्मी हैं, ये बताईये कि व्यर्थ की बातों पर चीखने-चिल्लाने वाले मीडिया चैनल एक शहीद की अन्त्येष्टि के इतने विशाल कार्यक्रम की क्या एक झलक भी अपने समाचारों में नहीं दिखा सकते थे। जिस शहादत में मोदी जी खड़े दिखाई दें क्या वही खबर होती है? अब इसका मैं उन्हें क्या जबाब दूँ? शर्म से सिर झुक जाता है, इन टीवी वालों की हरकतें देखकर। भगवान इन्हें सद्बुद्धि दें।