Monday, August 28, 2017

कब मोह भंग होगा हमारा छद्म गुरूओं से

एक ओर आत्मघोषित गुरू का भांडाफोड़ हुआ। कल तक ऐश्वर्य की गोद में रंग-रंगेलिया मनाने वाला ‘भक्तों का भगवान’ अब बाकी की जिंदगी, आसाराम और रामलाल की तरह जेल की सलाखों के पीछे काटेगा। सच्चे भक्तों की पीड़ा, मैं समझ सकता हूँ, क्योंकि मैंने कुछ ऐसा मंजर बहुत करीब से देखा है और उसके खिलाफ देशभर में, आवाज भी बुलंद की थी। जब मुझे पता चला कि अपनी पूजा करवाने गुरूओं का इतिहास व व्यभिचार और दुराचरण से भरा हुआ है।  सन्यास का वेश धारणकर, शिष्यों के पुत्र-पुत्रियों और पत्नियों से नाजायाज संबंध बनाने वाले, ये तथाकथित सन्यासी, अब गृहस्थ जीवन जी रहे हैं। उनमें से एक, पूर्व सन्यासी रहे, व्यक्ति से मैंने पूछा कि क्यों तो तुमने सन्यास लिया और क्यों तुम्हारा पतन हो गया? उसने सीधा उत्तर दिया कि अपने गुरू भाईयों का ऐश्वर्य और उनके सैकड़ों-हजारों चेलों की उनके प्रति अंधभक्ति देख, मेरी भी इच्छा गुरू बनने की हुई और मैंने सन्यास ले लिया। दिनभर तो मैं किसी तरह, अपने पर नियन्त्रण रख लेता, पर रात नहीं कटती थी। रात को कामवासना इतनी प्रबल हो जाती थी कि मुझसे नहीं रहा गया। उसने तो अपना गुनाह कबूल कर लिया। पर शेर की खाल में आज भी हजारों भेड़िये, देशभर में आध्यात्मिक गुरू बने बैठे हैं। जो भोली जनता की भावुकता का नाजायज लाभ उठाकर, उसे हर तरह से लूटते हैं। तन-मन-धन गुरू पर न्यौछावर कर देने वाले भक्तों को, जब पता चलता है कि जिसे गुरू रूपी भगवान माना, वो लंपट धूर्त निकला, तो  वे अपना मानसिक संतुलन खो देते हैं। वे या तो धर्म विमुख हो जाते हैं या अपना मानसिक संतुलन खो देते हैं। सिरसा में जो हुआ, उसके पीछे भक्तों की स्वभाविक प्रतिक्रिया कम और बाबा के पाले हुए बदमाशों की हिंसक रणनीति ज्यादा थी।

दरअसल छद्म भेष धरकर इन आत्मघोषित गुरूओं ने धर्म की परिभाषा बदल दी है। कलियुग के इन गुरूओं ने, उस दोहे का भरपूर दुरूपयोग किया है, जिसमें कहा गया, ‘‘गुरू गोविंद दोऊ खड़े, काके लागू पांय। बलिहारी गुरू आपने, जिन गोविंद दियो बताय।’’ ध्यान देने वाली बात ये है कि यहां उस गुरू को भगवान से ज्यादा महत्व देने की बात कही गई है, जो हमें भगवान से मिलाता है। पर आत्मघोषित गुरू तो खुद को ही भगवान बना बैठे हैं। मजे की बात यह है कि जब कभी भगवान धरती पर अवतरित हुए, तो उन्होंने मानव सुलभ लीलाऐं की, किंतु खुद को भगवान नहीं बताया। आज के धनपिपासु, बलात्कारी, हत्यारे और षड्यन्त्रकारी आत्मघोषित गुरू तो बाकायदा खुद को भगवान बताकर, अपना प्रचार करवाते हैं। इन्होंने तो गुरू शब्द की महिमा को ही लज्जित कर रखा है।

इसी कॉलम में जब-जब धर्म की हानि करने वाले ऐसे गुरूओं का पतन होता है, तब-तब मैं इन्हीं बिंदुओं को उठाता हूँ। इस आशा में कुछ पाठक तो ऐसे होंगे, जो इस गंभीर विषय पर सोचेंगे। दरअसल, धर्म का धंधा केवल भारत में चलता हो या केवल हिन्दू कथावाचक या महंत ही इसमें लिप्त हों यह सही नहीं है। तीन दिन तक मैं इटली के रोम नगर में ईसाईयों के सर्वोच्च आध्यात्मिक केन्द्र वेटिकन सिटी में पोप और आर्क बिशपों के आलीशान महल और वैभव के भंडार देखता रहा। एक क्षण को भी न तो आध्यात्मिक स्फूर्ति हुई और न ही कहीं भगवान के पुत्र माने जाने वाले यीशू मसीह के जीवन और आचरण से कोई संबध दिखाई दिया। कहां तो विरक्ति का जीवन जीने वाले यीशू मसीह और कहां उनके नाम पर असीम ऐश्वर्य में जीने वाले ईसाई धर्म गुरू? पैगम्बर साहब हों या गुरू नानक देव, गौतम बुद्ध हो या महावीर स्वामी, गइया चराने वाले ब्रज के गोपाल कृष्ण हो या वनवास झेलने वाले भगवान राम, कैलाश पर्वत पर समाधिस्थ भोले शंकर हो या कुशा के आसन पर भजन करने वाले हनुमान जी सबका जीवन अत्यन्त सादगी और वैराग्य पूर्ण रहा है। पर धर्म के नाम पर धंधा करने वालों ने उनके आदर्शों को ग्रन्थों तक सीमित कर साम्राज्य खड़े कर लिए हैं। कोई धर्म इस रोग से अछूता नहीं। स्वामी विवेकानंद ने कहा था कि हर धर्म क्रमशः भौतिकता की ओर पतनशील हो जाता है।

संत वो है जिसके पास बैठने से हम जैसे गृहस्थ विषयी भोगियों की वासनाएं शान्त हो जाए, भौतिकता से विरक्ति होने लगे और प्रभु के श्री चरणों में अनुराग बढ़ने लगे। पर आज स्वंय को ‘संत‘ कहलाने वाले क्या इस मापदंड पर खरे उतरते हैं ? जो वास्तव में संत हैं उन्हें अपने नाम के आगे विशेषण लगाने की जरूरत नहीं पड़ती। क्या मीराबाई, रैदास, तुलसीदास, नानक देव, कबीरदास जैसे नाम से ही उनके संतत्व का परिचय नहीं मिलता ? इनमें से किसी ने अपने नाम के पहले जगतगुरू, महामंडलेश्वर, परमपूज्य, अवतारी पुरूष, श्री श्री 1008 जैसी उपाधियां नहीं लगाईं। पर इनका स्मरण करते ही स्वतः भक्ति जागृत होने लगती है। ऐसे संतों की हर धर्म में आज भी कमी नहीं है। पर वे टीवी पर अपनी महानता का विज्ञापन चलवाकर या लाखों रूपया देकर अपने प्रवचनों का प्रसारण नहीं करवाते। क्योंकि वे तो वास्तव में प्रभु मिलन के प्रयास में जुटे हैं ? हम सब जानते हैं कि घी का मतलब होता है गाय या किसी अन्य पशु के दूध से निकली चिकनाई । अब अगर किसी कम्पनी को सौ फीसदी शुद्ध घी कहकर अपना माल बेचना पड़े तो साफ जाहिर है कि उसका दावा सच्चाई से कोसों दूर है। क्योंकि जो घी शुद्ध होगा उसकी सुगन्ध ही उसका परिचय दे देगी। सच्चे संत तो भौतिकता से दूर रहकर सच्चे जिज्ञासुओं को आध्यात्मिक प्रगति का मार्ग बताते हैं। उन्हें तो हम जानते तक नहीं क्योंकि वे चाहते ही नहीं कि कोई उन्हें जाने। पर जो रोजाना टीवी, अखबारों और होर्डिगों पर पेप्सी कोला की तरह विज्ञापन करके अपने को संत, महामंडलेश्वर, जगद्गुरू या राधे मां कहलवाते हैं उनकी सच्चाई उनके साथ रहने से एक दिन में सामने आ जाती है। बशर्ते देखने वाले के पास आंख हों।

जैसे-जैसे आत्मघोषित धर्माचार्यो पर भौतिकता हावी होती जाती है, वैसे-वैसे उन्हें स्वंय पर विश्वास नहीं रहता इसलिए वे भांति-भांति के प्रत्यय और उपसर्ग लगाकर अपने नाम का श्रंगार करते हैं। नाम का ही नहीं तन का भी श्रंगार करते हैं। पोप के जरीदार गाउन हो या रत्न जटित तामझाम, भागवताचार्यो के राजसी वस्त्र और अलंकरण हों या उनके व्यास आसन की साज सज्जा, क्या इसका यीशू मसीह के सादा लिबास या शुकदेव जी के विरक्त स्वरूप से कोई सम्बन्ध है ? अगर नहीं तो ये लोग न तो अपने इष्ट के प्रति सच्चे हैं और न ही उस आध्यात्मिक ज्ञान के प्रति जिसे बांटने का ये दावा करते हैं ? हमने सच्चे संतों के श्रीमुख से सुना है कि जितने लोग आज हर धर्म के नाम पर विश्वभर में अपना साम्राज्य चला रहे हैं, अगर उनमें दस फीसदी भी ईमानदारी होती तो आज विश्व इतने संकट में न होता।

गुरमीत राम रहीम सिंह का कोई अपवाद नहीं है। वो भी उसी भौतिक चमक दमक के पीछे भागने वाला शब्दों का जादूगर है, जो शरणागत की भावनाओं का दोहन कर दिन दूनी और रात चैगुनी सम्पत्ति बढ़ाने की दौड़ में लगा रहा है। जिसके जिस्म पर लदे करोड़ों रूपए के आभूषण, फिल्मी हीरो की तरह चाल-ढाल, भड़काऊ पाश्चात्य वेशभूषा और शास्त्र विरूद्ध आचरण देखने के बाद भी उसके अनुयायी क्यों हकीकत नहीं जान पाते? जब-जब आध्यात्मिक मार्ग पर चलने वालों का संबध ऐश्वर्य से जुड़ा है तब-तब उस धर्म का पतन हुआ है। इतिहास इसका साक्षी है। यह तो उस जनता को समझना है जो अपने जीवन के छोटे-छोटे कष्टों के निवारण की आशा में मृग-मरीचिका की तरह रेगिस्तान में दौड़ती है, कि कहीं जल मिल जाए और प्यास बुझ जाए। पर उसे निराशा ही हाथ लगती है। पुरानी कहावत है ‘पानी पीजे छान के, गुरू कीजे जान के‘।

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