मोबाइल फोन आज हमारी जिंदगी का अहम हिस्सा बन गया हैं। सिर पर टोकरी रखकर सब्जी बेचने वाले से लेकर मुकेश अंबानी तक मोबाइल फोन का हर वक्त इस्तेमाल करते हैं। पर हम सब इस बात से बेखबर है कि मोबाइल फोन तक सूक्ष्म तरंगे भेजने वाली सेलफोन टावर्स किस तरह से हमारी सेहत और जिंदगी से खिलवाड़ कर रही हैं। आज कोई भी शहर या गांव नहीं बचा, जहां आपको ये सेलफोन टावर्स खड़ी दिखाई न दें। जिनके घरों की छत पर ये टावर लगी है, उनसे पड़ोसी ईष्र्या करते है कि उन्हें घर बैठे किराये की आमदनी हो रही हैं। वे यह नहीं जानते कि ऐसे मकान में रहने वालों ने खुद को और अपनी आने वाली पीढ़ियों को आग के हवाले कर दिया है।
ब्रिटिश मेडीकल जरनल में प्रकाशित एक वैज्ञानिक अध्ययन के अनुसार ये सेलफोन टावर्स हमारे दिमागों को बैंगन के भुर्ते की तरह भून रही हैं। इसका असर आज पूरे समाज में दिखाई दे रहा है। अब लोगों को नींद कम आती है। ज्यादातर लोग चिड़चिडे़ होते जा रहे हैं। बात-बात पर घर, दफ्तर, मौहल्ले और सड़क पर हम हर वक्त लोगों को आपस में छोटी-छोटी बात पर चीखते और चिल्लाते हुए देखते हैं। अब हमारा ध्यान आसानी से किसी एक बात पर केन्द्रित नहीं रह पाता। हमारे दिमाग की उड़ान प्रकाश की गति से भी तेज हो गई है। हम लोगों की भूख घटती जा रही है। पाचनतंत्र कमजोर पड़ता जा रहा हैं। कुल मिलाकर हमारे जीवन से सुख-चैन छिन गया है। हर इंसान, हर वक्त उद्वेलित रहता है। जबकि 20 वर्ष पहले ऐसा न था।
जिन्हें 1996 से पहले का दौर याद है, वो इस बात की ताकीद करेंगे कि पिछले 20 सालों में हमारा समाज बहुत बैचेन हो गया है। हिंसा, बलात्कार, अपराध, आत्महत्याएं और मनोवैज्ञानिक रोगों की संख्या में तेजी से वृद्धि हो रही है। अभी तो ये टेªलर है, पूरी फिल्म तो अभी बाकी है। सेलफोन के असली दुष्परिणाम तो अगले 10 सालों में देखने को मिलेंगे। जब हर ओर तबाही का मंजर होगा। लोग अस्पतालों की कतारों में खड़े होंगे। लाइलाज बीमारियों को लेकर धक्के खा रहे होंगे। पर भविष्य की किसे चिन्ता है। हम तो उस कालीदास की तरह है कि जिस डाली पर बैठे हैं, उसे ही काटने में जुटे है।
इस विषय में शोध करने वाले एक वैज्ञानिक प्रोफेसर नवारो का कहना है कि अगर हम किसी सेलफोन टावर के 500 मीटर के दायरे में रहते है, तो हमारे दिमाग व शरीर पर सारे दुष्परिणाम असर करने लगते है। अगर हम दो सेलफोन टावर्स के बीच में रहते हैं, तब तो हमारी पूरी बर्बादी को कोई रोक नहीं सकता। तकलीफ की बात ये है कि हमारी सरकारों ने ई.एम.एफ. प्रदूषण के जो मानक निर्धारित किये है वे बहुत लचर है। चिकित्सकों का कहना है कि इन मानकों के बाद लगाई गई सेलफोन टावर्स से जो इलेक्ट्राॅमेगनेटिक हाईपर सेन्सिटीविटी पैदा होती है, उसके प्रभावों पर हमारी सरकार की नजर नहीं है। 10 में से 8 लोग इसके कारण सामान्य व्यवहार खोते जा रहे हैं। और उनमें कैंसर के लक्षण स्पष्ट दिखने लगे हैं। इसके बावजूद भी सरकार कुछ कर नहीं रही। उसे चिन्ता इस बात की है कि अगर इन सेलफोन टावर्स को आबादी से दूर लगाया जायेगा तो देश की संचार व्यवस्था ठप्प पड़ जाएगी। ऐसा शायद हम लोग भी नहीं चाहेंगे। क्योंकि हमें सेलफोन्स की इतनी लत लग गई है कि हम भोजन और भजन के बिना रह सकते हैं, पर सेलफोन के बिना नहीं।
आज अमरीकी समाज में जो बैचेनी, निराशा, आत्महत्या की प्रवृत्ति और हिंसा की बढ़ोत्तरी हुई है, उसके पीछे एकमात्र कारण सेलफोन टावर्स के बीच चलने वाली इलेक्ट्रामेगनेटिक तरंगे हैं। जो हरेक अमरीकी के दिमाग और शरीर को जकड़ चुकी हैं। इसीलिए आज अमरीका में कैंसर जैसी भयावह बीमारी तेजी से फैल रही है। जिस सेलफोन ने अमरीकी समाज में संवाद को सुगम बनाया था, वहीं सेलफोन अब अमरीकी समाज के पतन का कारण बन रहा है। भारत इस स्थिति से बहुत दूर नहीं है। भारत में सेलफोन्स और सेलफोन टावर्स की रिकाॅर्ड गति से वृद्धि हो रही है। अब भारत का शायद ही कोई भूभाग हो जो सेलफोन टावर्स के प्रभाव क्षेत्र से अछूता हो।
20 वर्ष पहले तक हम भारतवासी व्यापार भी करते थे, संवाद भी करते थे, समाचारों का आदान-प्रदान भी करते थे और अपना मनोरंजन भी करते थे पर बिना सेलफोन्स के, तब जीवन सादा, सुखी और शांत था। ये सही है कि आज सेकेंडों में अपना संवाद, आवाज या फोटो दुनिया के किसी भी हिस्से में भेज सकते हैं। पर क्या इससे हमारे स्वास्थ्य और आनंद में वृद्धि हुई है या हम पहले से ज्यादा बेचैन और बीमार हुए है ? शहरों को छोड़ो, अब तो हिमालय की चोटियों पर भी ये शान्ति नहीं रही। आपने टीवी पर 4 जी का विज्ञापन देखा होगा किस तरह हंसते, खिलखिलाते पहाड़ के सुरम्य, प्राकृतिक जीवन में सेलफोन टावर्स ने विष घोल दिया है। जरूरत इस बात की है कि हम सब एक मिनट ठहरें और सोचें कि क्या सेलफोन के बिना हम जी सकते है ? अगर हमें लगे कि अब ऐसा करना संभव नहीं है तो हम कम से कम इतना जरूर करें कि अपने जीवन में सेलफोन के इस्तेमाल को जितना संभव हो सके, कम से कम करते चले जायें। और हां, अपने घर के आस-पास लगी सेलफोन टावर्स के दुष्परिणामों के प्रति समाज को और प्रशासन को जागरूक बनाएं और कोशिश करके इन टावर्स को आबादी क्षेत्र से दूर पहुंचाएं। गूगल सर्च में जाकर हम सेलफोन टावर्स के दुष्परिणामों पर और भी ज्यादा जानकारी प्राप्त कर सकते हैं। अकलमंदी इस बात में है कि हम सब मरणासन्न होने से पहले अपने वातावरण को सुधारने की कोशिश करें। ये न सोचें कि अकेला चना क्या भाड़ फोड़ेगा।
ब्रिटिश मेडीकल जरनल में प्रकाशित एक वैज्ञानिक अध्ययन के अनुसार ये सेलफोन टावर्स हमारे दिमागों को बैंगन के भुर्ते की तरह भून रही हैं। इसका असर आज पूरे समाज में दिखाई दे रहा है। अब लोगों को नींद कम आती है। ज्यादातर लोग चिड़चिडे़ होते जा रहे हैं। बात-बात पर घर, दफ्तर, मौहल्ले और सड़क पर हम हर वक्त लोगों को आपस में छोटी-छोटी बात पर चीखते और चिल्लाते हुए देखते हैं। अब हमारा ध्यान आसानी से किसी एक बात पर केन्द्रित नहीं रह पाता। हमारे दिमाग की उड़ान प्रकाश की गति से भी तेज हो गई है। हम लोगों की भूख घटती जा रही है। पाचनतंत्र कमजोर पड़ता जा रहा हैं। कुल मिलाकर हमारे जीवन से सुख-चैन छिन गया है। हर इंसान, हर वक्त उद्वेलित रहता है। जबकि 20 वर्ष पहले ऐसा न था।
जिन्हें 1996 से पहले का दौर याद है, वो इस बात की ताकीद करेंगे कि पिछले 20 सालों में हमारा समाज बहुत बैचेन हो गया है। हिंसा, बलात्कार, अपराध, आत्महत्याएं और मनोवैज्ञानिक रोगों की संख्या में तेजी से वृद्धि हो रही है। अभी तो ये टेªलर है, पूरी फिल्म तो अभी बाकी है। सेलफोन के असली दुष्परिणाम तो अगले 10 सालों में देखने को मिलेंगे। जब हर ओर तबाही का मंजर होगा। लोग अस्पतालों की कतारों में खड़े होंगे। लाइलाज बीमारियों को लेकर धक्के खा रहे होंगे। पर भविष्य की किसे चिन्ता है। हम तो उस कालीदास की तरह है कि जिस डाली पर बैठे हैं, उसे ही काटने में जुटे है।
इस विषय में शोध करने वाले एक वैज्ञानिक प्रोफेसर नवारो का कहना है कि अगर हम किसी सेलफोन टावर के 500 मीटर के दायरे में रहते है, तो हमारे दिमाग व शरीर पर सारे दुष्परिणाम असर करने लगते है। अगर हम दो सेलफोन टावर्स के बीच में रहते हैं, तब तो हमारी पूरी बर्बादी को कोई रोक नहीं सकता। तकलीफ की बात ये है कि हमारी सरकारों ने ई.एम.एफ. प्रदूषण के जो मानक निर्धारित किये है वे बहुत लचर है। चिकित्सकों का कहना है कि इन मानकों के बाद लगाई गई सेलफोन टावर्स से जो इलेक्ट्राॅमेगनेटिक हाईपर सेन्सिटीविटी पैदा होती है, उसके प्रभावों पर हमारी सरकार की नजर नहीं है। 10 में से 8 लोग इसके कारण सामान्य व्यवहार खोते जा रहे हैं। और उनमें कैंसर के लक्षण स्पष्ट दिखने लगे हैं। इसके बावजूद भी सरकार कुछ कर नहीं रही। उसे चिन्ता इस बात की है कि अगर इन सेलफोन टावर्स को आबादी से दूर लगाया जायेगा तो देश की संचार व्यवस्था ठप्प पड़ जाएगी। ऐसा शायद हम लोग भी नहीं चाहेंगे। क्योंकि हमें सेलफोन्स की इतनी लत लग गई है कि हम भोजन और भजन के बिना रह सकते हैं, पर सेलफोन के बिना नहीं।
आज अमरीकी समाज में जो बैचेनी, निराशा, आत्महत्या की प्रवृत्ति और हिंसा की बढ़ोत्तरी हुई है, उसके पीछे एकमात्र कारण सेलफोन टावर्स के बीच चलने वाली इलेक्ट्रामेगनेटिक तरंगे हैं। जो हरेक अमरीकी के दिमाग और शरीर को जकड़ चुकी हैं। इसीलिए आज अमरीका में कैंसर जैसी भयावह बीमारी तेजी से फैल रही है। जिस सेलफोन ने अमरीकी समाज में संवाद को सुगम बनाया था, वहीं सेलफोन अब अमरीकी समाज के पतन का कारण बन रहा है। भारत इस स्थिति से बहुत दूर नहीं है। भारत में सेलफोन्स और सेलफोन टावर्स की रिकाॅर्ड गति से वृद्धि हो रही है। अब भारत का शायद ही कोई भूभाग हो जो सेलफोन टावर्स के प्रभाव क्षेत्र से अछूता हो।
20 वर्ष पहले तक हम भारतवासी व्यापार भी करते थे, संवाद भी करते थे, समाचारों का आदान-प्रदान भी करते थे और अपना मनोरंजन भी करते थे पर बिना सेलफोन्स के, तब जीवन सादा, सुखी और शांत था। ये सही है कि आज सेकेंडों में अपना संवाद, आवाज या फोटो दुनिया के किसी भी हिस्से में भेज सकते हैं। पर क्या इससे हमारे स्वास्थ्य और आनंद में वृद्धि हुई है या हम पहले से ज्यादा बेचैन और बीमार हुए है ? शहरों को छोड़ो, अब तो हिमालय की चोटियों पर भी ये शान्ति नहीं रही। आपने टीवी पर 4 जी का विज्ञापन देखा होगा किस तरह हंसते, खिलखिलाते पहाड़ के सुरम्य, प्राकृतिक जीवन में सेलफोन टावर्स ने विष घोल दिया है। जरूरत इस बात की है कि हम सब एक मिनट ठहरें और सोचें कि क्या सेलफोन के बिना हम जी सकते है ? अगर हमें लगे कि अब ऐसा करना संभव नहीं है तो हम कम से कम इतना जरूर करें कि अपने जीवन में सेलफोन के इस्तेमाल को जितना संभव हो सके, कम से कम करते चले जायें। और हां, अपने घर के आस-पास लगी सेलफोन टावर्स के दुष्परिणामों के प्रति समाज को और प्रशासन को जागरूक बनाएं और कोशिश करके इन टावर्स को आबादी क्षेत्र से दूर पहुंचाएं। गूगल सर्च में जाकर हम सेलफोन टावर्स के दुष्परिणामों पर और भी ज्यादा जानकारी प्राप्त कर सकते हैं। अकलमंदी इस बात में है कि हम सब मरणासन्न होने से पहले अपने वातावरण को सुधारने की कोशिश करें। ये न सोचें कि अकेला चना क्या भाड़ फोड़ेगा।