जब
से तेल निर्यातक देशों ने कच्चे तेल के प्रति बैरल दाम पिछले वर्ष के
मुकाबले लगभग आधे कर दिए हैं, तब से दुनियाभर में पेट्रोल और डीजल के दाम
में भारी गिरावट आयी है। पाकिस्तान में पेट्रोल 26 रूपये लीटर है। जबकि
बांग्लादेश में 22 रूपये, क्यूबा में 19 रूपये, इटली में 14 रूपये, नेपाल
में 34 रूपये, वर्मा में 30 रूपये, अफगानिस्तान में 26 रूपये, लंका में 34
रूपये और भारत में 68 रूपये लीटर है। यानि अपने पड़ोस के देशों से ढ़ाई
गुने दाम पर भारतवासी पेट्रोल खरीदने पर मजबूर हैं। ये 68 रूपये का तोड़ इस
तरह है कि इसमें से 1 लीटर पेट्रोल की लागत होती कुल 16.50 रूपये, जिस पर
केंद्रीय कर हैं 11.80 फीसदी। उत्पादन शुल्क है 9.75 फीसदी। वैट है 4 फीसदी
और बिक्री कर है 8 फीसदी। इस सब को जोड़ लें, तो भी 1 लीटर पेट्रोल की
कीमत बनती है, मात्र 50.05 पैसे। फिर भारतवासियों से हर लीटर पर यह 18
रूपये अतिरिक्त क्यों वसूले जा रहे हैं? इसका जवाब देने को कोई तैयार नहीं
है। इस तरह अरबों खरबों रूपया हर महीने केंद्र सरकार के खजाने में जा रहा
है।
पिछली सरकार को
लेकर भ्रष्टाचार के जो बड़े-बड़े आरोप थे, उनमें अगर कुछ तथ्य था, तो यह
माना जा सकता है कि यूपीए सरकार सरकारी खजाना खाली करके चली गई। अब मोदी
सरकार के सामने कोई विकल्प नहीं, सिवाय इसके कि वह पेट्रोल पर अतिरिक्त कर
लगाकर अपनी आमदनी इकट्ठा करे। मोदी सरकार यह कह सकती है कि देश के विकास के
लिए आधारभूत संरचनाएं, मसलन हाईवेज, फ्लाईओवर और दूसरी बुनियादी सेवाओं का
विस्तार करना है, जो बिना अतिरिक्त आमदनी किए नहीं किया जा सकता। इसलिए
पेट्रोल पर कर लगाकर सरकार अपनी विकास योजनाओं के लिए धन जुटा रही है।
सरकार
की मंशा ठीक हो सकती है। पर देश की सामाजिक और आर्थिक दशा की नब्ज पर
उंगली रखने वाले विद्वान उससे सहमत नहीं है। उनका कहना है कि बुलेट ट्रेन
और स्मार्ट सिटी जैसी महत्वाकांक्षी और मोटी रकम खर्च करने वाली योजनाओं से
न तो गरीबी दूर होगी, न देशभर में रोजगार का सृजन होगा और न ही व्यापार
में बढ़ोत्तरी होगी। चीन इसका जीता-जागता उदाहरण है। जिसने अपने पुराने
नगरों को तोड़-तोड़कर अति आधुनिक नए नगर बसा दिए। उनमें हाईवे और माॅल जैसी
सारी सुविधाएं अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर सर्वश्रेष्ठ दर्जे की बनाई गईं। पर
जिस गति से चीन का आधुनिकरण हुआ, उस गति से वहां की आमजनता की आमदनी नहीं
बढ़ी। नतीजा यह है कि चीन की तरक्की कागजी बनकर रह गई। पिछले 6 महीने में
जिस तेजी से चीन की अर्थव्यवस्था का पतन हुआ है, उससे पूरी दुनिया को झटका
लगा है। फिर भी अगर भारत सबक न ले और अपने गांवों की बुनियादी समस्याओं को
दूर किए बिना बड़ी छलांग लगाने की जुगत में रहे, तो मुंह की खानी पड़ सकती
है।
एक तरफ तो हालत
यह है कि आज हर गांव में बेरोजगारी बरकरार है या बढ़ी है। हमने ग्रामीण
युवाओं को पारंपरिक व्यवसायों से दूर कर दिया। उन्हें ऐसी शिक्षा दी कि न
तो शहर के लायक रहे और न गांव के। मात्र 15 कुटीर उद्योग ऐसे हैं, जिन्हें
अगर ग्रामीण स्तर पर उत्पादन के लिए आरक्षित कर दिया जाए और उन उत्पादनों
का बढ़े कारखानों में निर्माण न हो, तो 2 साल में बेरोजगारी तेजी से खत्म
हो सकती है। पर इसके लिए जैसी क्रांतिकारी सोच चाहिए, वो न तो एनडीए सरकार
के पास है और न ही गांधी के नाम पर शासन चलाने वाली यूपीए सरकार के पास
थी।
उधर रोजगार एवं
प्रशिक्षण के महानिदेशक का कहना है कि भारतीय खाद्य निगम में अनाज की बोरी
ढ़ोने वाले कर्मचारी को साढ़े चार लाख रूपया महीना पगार मिल रही है, जो कि
भारत के राष्ट्रपति के वेतन से भी कई गुना ज्यादा है। 7वें वेतन आयोग में
सरकार की ऐसी तमाम नीतियों की ओर संकेत किया है, जहां सरकार का सीधा हाथ
नहीं जानता कि सरकार का बायां हाथ क्या कर रहा है। एक ही विभाग में
मंत्रालय कहता है कि 2.10 लाख लोग तनख्वाह ले रहे हैं, जबकि वित्त मंत्रालय
के अनुसार इस विभाग में मात्र 19 हजार कर्मचारी हैं। कहीं ऐसा तो नहीं है
कि पिछली सरकार के समय से ही अरबों रूपये बेनामी कर्मचारियों के नाम से
वर्षों से उड़ाए जा रहे हों और किसी को कानोंकान खबर भी न हो। कुल मिलाकर
जरूरत धरातल पर उतरने की है। यह सब देखकर लगता है कि भारत की आर्थिक स्थिति
इतनी बुरी नहीं कि आमआदमी को अपना जीवनयापन करना कठिन लगे। पर जाहिर है कि
पुरानी व्यवस्थाओं के कारण काफी कुछ अभी भी पटरी नहीं आया है। जिसका
खामियाजा आमजनता भुगत रही है।