लोकसभा के लिए चुनाव का आधा काम निपट गया | अबतक जो कुछ
हुआ है वह कई लोगों को चौका रहा है | दसियों साल बाद यह पहली बार दिखा है कि
चुनावी हिंसा खत्म होती नज़र आ रही है| और जो लोग इस बार विवादित बयानों या एक
दूसरे पर आरोप लगाने में कुछ ज्यादा ही आक्रामक भाषा के इस्तेमाल की बात कर रहे
हैं उन्हें बताया जा सकता है कि लोकतंत्र में इतना तो सहन करना ही होगा | कहने का
मतलब यह कि पिछले कई चुनाव जिस तरह खून-खराबे और दहशत भरे होते थे वैसा माहोल इस
बार नहीं है |
कारण जो भी रहे हों हिंसा के बाद दूसरा भयानक रोग
साम्प्रदायिकता के लक्षण भी ज्याद नहीं दिख रहे | यह बात ऊपर से दिखने वाले
लक्षणों के आधार पर कही जा रही है | वरना समाज-मनोविज्ञान के अध्यनों को देखें तो
यह आश्चर्य ही लगता है कि सिर्फ २५-५० साल में साम्प्रदायिकता जैसे रोग के लक्षण कम
कैसे हो गए |
चुनाव के दौरान कुछ बुरा न होना क्या खुश होने के लिए
काफी है | क्योंकि बाहुबल और साम्प्रदायिकता जैसे रोग तो बिना किसी प्रयास के
खुद-ब-खुद भी निपट जाते हैं | लेकिन धनबल से छुटकारा आसान नहीं होता | धन से सत्ता
और सत्ता से धन का दुश्चक्र टूटना बहुत मुश्किल होता है | चुनाव सुधारों के तेहत,
चुनाव के खर्च की सीमा के जितने भी उपाय कर लिए गए हों पर यह काम उतना हो नहीं
पाया | लेकिन इस मामले में बड़ा रोचक तथ्य यह है कि जो आर्थिक विपन्न लोग चुनावी
उद्यम में शामिल हो रहे हैं उनके पास भी निवेशकों की कमी नहीं है | संसदीय
लोकतंत्र में चुनाव कि महत्ता इतनी ज्यादा हो गयी है जिसमे होने वाले घाटे भी
मुनाफे में तब्दील हो जाते हैं | सामान्य अनुभव है कि संसदीय लोकतंत्र के चुनावों
में जनता द्वारा अस्वीकृत उमीदवारों का भी महत्व बडता जा रहा है | स्तिथि यहाँ तक
है कि जनता द्वारा स्वीकृत उम्मीदवार चुनाव जीतने के बाद विपक्ष की राजनीति करने
में ज्यादा रूचि लेने लगे हैं | यह संसदीय लोकतंत्र में जुड़ रहा एक नया आयाम है जो
राजनितिक प्रौद्योगिकी के विशेषज्ञों को समझना पड़ेगा | बस यहां पर अच्छाई इस तरह
देखी जा सकती है कि ‘चलिए, लोकतंत्र में सह-भागिता बढ़ तो रही है |’
इन सारी प्रव्रित्यों के बीच वह लक्ष्य अभी भी गर्दिश
में है कि लोकतंत्र का अपना मकसद क्या है | ज्यादा से ज्यादा लोगों को सुख-समृधि
का सामान वितरण करने वाली इस विलक्षण राजनितिक प्रणाली की विशेषताओं पर पता नहीं क्यों
ज्यादा चर्चा नहीं होती | राजनीतिकी पार्टियों के घोषणापत्रों में दूध-घी की
नदियाँ बहाने का वायदा तो है पर वह तरकीब नहीं बताई जाती कि सबको समुचित समानता के
आधार पर वितरण कैसे सुनिश्चित होगा | अब अगर लोकतंत्र के लक्ष्य के प्रबंधन का काम सामने आया है तो राजनेताओं के
जिम्मे एक नया काम आ गया है | उन्हें इस कौशल का विकास भी करना होगा कि सुख समृधि
के समान वितरण कि प्रणाली कैसे बने ? यहाँ कुछ नए लोग भ्रष्टाचार की समस्या कि
पुरानी बात कह सकते हैं | लेकिन उनसे पूछा जा सकता है कि क्या भ्रष्टाचार को हम
निदान के रूप में ले सकते हैं ? भ्रष्टाचार को तो विद्वान लोग खुद एक बड़ी और जटिल
समस्या बताते हैं | और ऐसी समस्या बताते हैं जिसके निवारण के लिए अबतक कोई निरापद
निदान नहीं ढूंढा जा पाया | लिहाजा लाख दुखों की एक दवा के तौर पर भ्रष्टाचार की
बात करना लगभग वैसी बात है जैसे सौ रूपए की समस्या से निपटने के लिए करोड़ों के
खर्च की बात करना या कोई ऐसा उपाय बताना जो तत्काल हो ही न पाए | इस तरह हम
निष्कर्ष निकल सकते हैं कि संसदीय लोकतंत्र में अब भ्रष्टाचार तब तक कोई मुद्दा नहीं
बन सकता जबतक कोई यह न बताये कि यह काम होगा कैसे ? नीयत की बात करने वालों से
पूछा जा सकता है कि किसी की नीयत जांचने का उपाय क्या है ? किसी व्यक्ति की नीयत
का पता तो तभी चलता है जब वह काम करता है | भारतीय लोकतंत्र का अनुभव है कि
भ्रष्टाचार मिटाने के लिए विगत में जितने भी दावे हुए वे किसी एक या दूसरे बहाने
से नाकाम ही रहे | ज़ाहिर है कि ऐसे जटिल मुद्दे राजनितिक या चुनावी उत्क्रम का
विषय नहीं हो सकते | बल्कि भ्रष्टाचार एक सामाजिक – आर्थिक – वैधानिक विषय है | और
इसे निरंतरता के साथ और समग्रता के आधार पर बड़ी गंभीरता से समझना होगा | वरना
चुनाव के दौरान ऐसे मुद्दों का इस्तेमाल तात्कालिक लाभ के लिए होता रहेगा और बाद
में बहानेबाजी करके एक दूसरे पर आरोप लगाए
जाते रहेंगे और अपनी जिम्मेदारियों से पल्ला झाड़ा जाता रहेगा |
कुलमिलाकर चुनाव के इन दिनों में अबतक आशावादिता का कोई
नया माहौल नज़र नहीं आता | अगर कुछ नया है तो प्रचार का रूप रंग नया है, श्रृंगार
नया है |
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